मैथिली कविता
– कर्ण संजय
ई शहर हमरे छी
अइ शहर मे
किछु काते कात छिरियाएल
लोकके बिच ठाढ
भय आ घृणाके सङ्ग जीबऽके प्रयत्न करै छी हम ।
रस्ताचलैत अपनामे बतियाति
दहिना वामा ताकि लए छी
कहिं कतौ किओ सुनैत अछि किनहि
देखाएल कोनो अपरिचित तऽ
बात आ बोलीके प्रसंग बदलऽ के प्रयत्न करै छी हम ।
विभेदके कारण
अपन पहिचानक लेल संघर्षरत
ओ अपहेलित, उपेक्षित आ सीमांतकृत
वर्गक लोकके मूहके बनाबट आ आकार देखिकए
घृणासँ खखासि एक लोइया थुक
फेकएवाला लोकके अवरोध बनबाके प्रयत्न करै छी हम ।
राज अपन धर्म
पालन करबामे असमर्थ आ लाचारीक
एकटा बनाबटीक छद्म भेषक आवरणमे
नुकाएबाक लेल किएक बाध्य अछि ?
प्रश्न हमरे टा नहि अछि इ सरोकारक विषय छै सबके
कि रंग, आकार, बनाबट आ संप्रेषणक आधारपर विभेद करत शहर ?
तैयो हम कहब ई शहर हमरे छी
हमरेटा
इएह शहरमे बचपन, जुवानी आ बुढापाके बाद
मृत्यु अछि बाँकी
मृत्यु ।