गीताः परमपिता परमात्मा सँ मिलनक सहज उपाय

गीताक तेसर बेरुक स्वाध्याय

(निरंतरता मे…. कर्मयोग पर भगवान् कृष्ण केर महत्वपूर्ण संदेश, एखन धरि कहलनि जे अहाँ नियत कर्म करू, यज्ञ लेल मात्र कर्म करू, आसक्ति वगैर केवल परमात्मा आर आत्माक बीच सम्बन्ध निर्वाह लेल कर्म करू। प्रजापति सृष्टिक आरम्भ करैत मनुष्य केँ यज्ञ सँ वृद्धिक आर समस्त मनोकामना पूर्तिक साधन कहलैन। आगू….)

krishna-arjun-54ffdf5405270_exlstदेवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥३-११॥
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः॥३-१२॥
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥३-१३॥
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥३-१४॥
कर्मब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥३-१५॥
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्रयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥३-१६॥
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥३-१७॥
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः॥३-१८॥
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन् कर्म परमाप्नोति पूरुषः॥३-१९॥
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन् कर्तुमर्हसि॥३-२०॥

पूर्व श्लोक ९ मे प्रजापति द्वारा सृष्टि निर्माण संग मनुष्य लेल कर्तव्य-कर्मकेर विधानसहित कहल गेल बात, “अहाँ सब एहि कर्तव्य द्वारा सबहक वृद्धि करू आर यैह अहाँ सबहक अभीष्ट केँ पूरा करयवला होयत।” एकरे निरंतरता दैत विधान पर आरो बेसी प्रकाश दैत भगवान् कहलैन, “यैह (अपन कर्तव्य-कर्म) केर मार्फत अहाँ सब देवता लोकनि केँ उन्नत करू आर ओ देवता लोकनि अपन कर्तव्य सँ अहाँ सबहक उन्नति करैथ। एना परस्पर एक-दोसर केँ उन्नत करैते अहाँ सब परम कल्याण केँ प्राप्त भऽ जाएब। यज्ञ सँ पुष्ट भेल देवता सेहो अहाँ सब केँ (बिन मंगनहियो) कर्तव्यपालन केर आवश्यक सामग्री दैत रहता। एहि तरहें ओहि देवताक द्वारा देल गेल सामग्री केँ दोसरक सेवा मे लगेने बिना जे मनुष्य (स्वयं टा ओकर) उपभोग करैत अछि, ओ चोर थीक। यज्ञशेष (योग) – केर अनुभव करयवला श्रेष्ठ मनुष्य सम्पूर्ण पाप सँ मुक्त भऽ जाएत अछि। मुदा जे केवल अपनहि टा लेल पकबैत अछि अर्थात् कर्म करैत अछि, ओ पापी लोक तऽ अगबे पापहि टा केर भक्षण करैत अछि। सम्पूर्ण प्राणी अन्न सँ उत्पन्न होएत अछि। अन्नक उत्पत्ति वर्षा सँ होएत अछि। वर्षा यज्ञ सँ होएत अछि। यज्ञ कर्म सँ सम्पन्न होएत अछि। कर्म केँ अहाँ वेद सँ उत्पन्न जानू आर वेद केँ अक्षर ब्रह्म सँ प्रकट भेल से बुझू। तैँ ओ सर्वव्यापी परमात्मा यज्ञ (कर्तव्य-कर्म) मे नित्य स्थित छथि।”

एतय श्लोक १० सँ १५ धरि मनुष्यक कर्म-कर्तव्य पर सृष्टि विधानक चर्चा भगवान् कएलनि अछि। गीता एकटा गूढ विज्ञानरूप ज्ञान थीक। अहाँ शुरु सँ गौर करैत रहबैक तखनहि बात बुझय मे आबि सकत। भगवान् पहिनहि अर्जुनक विषादयुक्त होयब आ पाण्डित्य सँ अकर्मक दिशा मे डेग उठायब तेकरा नकारि चुकल छथि। भगवान् हुनका स्थितप्रज्ञ ओ स्थिरबुद्धिक लक्षण बता चुकल छथि। द्वंद्व सँ मुक्त बनैत केवल स्वधर्म निर्वाहक आवश्यकता पर दृढतापूर्वक अपना केँ आत्मवान् बनबैत वगैर कोनो तरहक फालतू मतिभ्रम या संशय या भटकाव अनैत कर्म करबाक लेल कहि रहल छथि। एहि क्रम मे कर्मक श्रेष्ठता यज्ञ मे निहित होयबाक बात कहलैन। आर फेर प्रजापति ब्रह्मा द्वारा प्रजा (मनुष्य) केर उत्पत्तिक कारण बतेलनि अछि। ध्यान देबा योग्य बात ईहो छैक जे प्रजापति द्वारा मनुष्यक ऊपर देवताक सृष्टि सेहो कैल गेल अछि। मनुष्य केर कर्म-कर्तव्य केँ अपना सँ ऊपर लोक यानि देवलोक लेल निहित कैल गेल अछि। अहाँ यज्ञ करब, ओहि सँ वर्षा होयत, वर्षा सँ अन्न भेटत, अन्न सँ अहाँक जीवन अछि, आदि क्रमानुसार सब बात केँ सुस्पष्ट ढंग सँ भगवान् उपरोक्त विधान मे वर्णन कएलनि अछि। स्पष्टतः ईहो कहि देलनि जे कर्म करबाक विधान वेद थीक। वेदक स्रोत अक्षरब्रह्म यानि सर्वव्यापी परमात्मा स्वयं थिकाह।

भगवान् फेर निरंतरता मे अर्जुन सँ संबोधन कय रहला अछि, “हे पार्थ! जे मनुष्य एहि लोक मे एहि विधानसम्मत परम्परा सँ प्रचलित सृष्टि-चक्र केर अनुसार नहि चलत, ओ इन्द्रिय केर द्वारा भोग मे रमण करयवला अघायु (पापमय जीवन बितबयवला) मनुष्य संसार मे व्यर्थे टा जिबैत अछि। मुदा जे मनुष्य अपना-आप टा मे रमण करनिहार आर अपने-आप टा मे तृप्त तथा अपने-आप टा मे सन्तुष्ट अछि, ओकरा लेल कोनो कर्तव्य नहि अछि। ओ (कर्मयोग सँ सिद्ध भेल महापुरुष)-केर एहि संसार मे नहि त कर्म करब सँ कोनो प्रयोजन रहैत अछि आर नहिये कर्म नहि करय सँ कोनो प्रयोजन रहैत छैक आर सम्पूर्ण प्राणी मे (कोनो टा प्राणीक संग) ओकरा किंचिन्मात्र तक केर स्वार्थक सम्बन्ध नहि रहैत छैक। अतः अहाँ निरन्तर आसक्तिरहित भऽ कय कर्तव्य-कर्मक नीक जेकाँ आचरण करू; कियैक तऽ आसक्ति-रहित बनिकय कर्म करैते मनुष्य परमात्मा केँ प्राप्त भऽ जाएत अछि। राजा जनक जेहेन अनेको महापुरुष सेहो कर्म (कर्म-योग) द्वारा मात्र परम-सिद्धि केँ प्राप्त होएत छथि। तैँ लोकसंग्रह केँ देखैते अहाँ (निष्काम-भावसँ) कर्म करबाक योग्य छी अर्थात् अहाँ केँ अवश्य करबाक चाही।”

निचोड़ मे साफ भेल जे अहाँ मनुष्य नाशवान् शरीर नहि बल्कि आत्मा छी। परमपिता परमेश्वर परमात्मा थिकाह। आत्मा केँ सृष्टिलोक मे प्रवेश देल गेल अछि जे निहित कर्म करैत पुनः परमपिता सँ मिलन करू। कर्तव्यपरायणता हम मनुष्य लेल धर्म थीक। कर्म करहे पड़त। जँ बन्हाय लेल नहि चाहैत छी तऽ केवल यज्ञरूपी कर्म करू, परमपिताक दरबाजा खुजल अछि अहाँ लेल।

श्रीकृष्णः शरणं मम!!

हरिः हरः!!