गीताः नियत कर्म करू! मिथ्याचार-ढोंग सँ बचू!!

गीताक तेसर बेरुक स्वाध्याय

krishna-arjun-54ffdf5405270_exlst(निरंतरता मे…. भगवान् कृष्ण द्वारा सांख्ययोग सँ आत्मरूपी जीवक यथार्थ पहिचान करब, फेर कर्मयोग मे समत्व भाव आनि बंधनमुक्त होयब, स्वधर्म लेल अर्जुनरूपी क्षत्रिय केँ युद्ध करबाक निर्णय सुनायब, पुनः अर्जुनक एकटा गंभीर प्रश्न जे आखिर ओहेन लोक जेकरा समभाव प्राप्त भऽ जाएछ, ओ स्थितप्रज्ञक लक्षण कि, ताहि पर भगवान् स्थितप्रज्ञ व स्थिरबुद्धि केर आत्मसंतोष व इन्द्रिय केर अपन-अपन विषय सँ अनुराग-आसक्ति खत्म होयबाक बात कहैत पूर्ण व्याख्या कएलैन। तेकर बाद… तेसर अध्याय मे)

अर्जुन उवाचः
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥३-१॥
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धि मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥३-२॥

हे कृष्ण! जखन अहाँक हिसाबे ज्ञानयोग कर्मयोग सँ श्रेष्ठ अछि तखन फेर अहाँ हमरा एहि घोर कर्म (युद्ध) करबाक लेल कियैक कहि रहल छी? अहाँक एहि विरोधाभासी बात सँ हमर बुद्धि आरो भ्रमित (मोहित) भऽ रहल अछि। अहाँ हमरा ओ एकमात्र निस्तुकी बात कहू जे हमरा लेल सर्वथा उपयुक्त आ नीक हो।

विदित हो जे पूर्व मे भगवान् निर्णय तऽ युद्ध करबाक लेल देलैन मुदा कर्मयोग मे समत्वभाव संग स्थिरबुद्धि व स्थितप्रज्ञक अवस्था वर्णन करैत मानव जीवन लेल सर्वोत्तम उपलब्धि सेहो देखौलनि अछि, संगहि ज्ञानक विभिन्न रूप जेना सांख्य योग सँ आत्मज्ञान धरिक बात कहैत आत्मवान् बनबाक उपदेश सेहो देलनि अछि। ताहि विभिन्न बात सँ अर्जुन भ्रमित भऽ रहला अछि। ई निहित कर्म युद्ध मे परिणाम सँ बिना आसक्ति रखलहबा बात सुनलो उपरान्त ओहि अवस्था मे ‘घोर कर्म’ देखबा सँ मुक्ति नहि पाबि सकला अछि। देखू आब भगवान् कि कहैत छथि।

भगवान् कहैत छथि, “एहि सृष्टिक आरम्भ मे हमरा (मयाः भगवानक) प्रति निष्ठा (भक्ति) केर द्विविधा – यानि दुइ तरहक देने रही, तपी लेल ज्ञानयोग आर कर्मठ लेल कर्मयोग।”

तपीः ओ जे कोनो बाह्य कर्म सँ नीक अन्तःकरण केर शुद्धि लेल साधना करय।

कर्मठः ओ जे बस कर्म करबा मे विश्वास करय, साधना हो या नहि हो, कोनो मतलब नहि राखय।

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते॥
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥३-४॥

कर्म आरम्भ नहि केला सँ केकरो नैष्कर्म्य केर प्राप्ति नहि होइछ, खाली कर्म करब छोड़ला सँ केकरो सिद्धि सेहो प्राप्त नहि भऽ सकैत अछि।

भगवान् आरो फरिछाबैत छथि आगाँः
एको क्षण लेल कियो बिना कर्म केने रहिये नहि सकैत अछि, कियैक तऽ सबहक निर्माण कर्मे करय लेल भेलैक अछि, केकरो नहियो चाहैतो ओकर प्रकृतिजनित गुणक कारण सँ कर्म करहे पड़ैत छैक। ओ, जे कर्मेन्द्रिय केँ कर्म करबा सँ रोकैत अछि, मुदा भितरे-भीतर ओकर माथ (दिमाग) वैह इन्द्रियार्थान् (इन्द्रिय केर अर्थादि मे) घूमैत रहैत छैक, वैह विमूढात्मा केँ मिथ्याचारी सेहो कहल जाएत छैक।

एतय हम मिथ्याचारीक परिभाषा कनेक आरो फरिछाबय चाहब। अवस्था भेला पर कर्म लेल उद्यत् होएत अछि लोक। जेना भूख लागि गेल तऽ भोजन चाही। आब एम्हर केने रहैत छी उपवास… खाएब कोना… मुदा भीतरे-भीतर भोजन-भोजन दिमाग मे चलि रहल अछि। यैह अवस्था केँ भगवान् कर्मेन्द्रिय केँ कर्म करबा सँ रोकबाक ढोंग कहलैथ अछि। एहेन लोक केँ विमूढात्मा यानि गलत समझ सँ पीड़ित मानिकय ओकर आचरण मिथ्याचार थीक सेहो निर्णय देलनि अछि। खोखला देखावटी सँ कोनो कर्म सँ अपना केँ जँ कियो रोकि रहल अछि – सर्वथा ओकरा मे ओहि विषय सँ आसक्तिक अन्त जँ नहि भेलैक अछि, तऽ निश्चिते ओकरा आचार-विचार शंकास्पद आ मिथ्याचार थीक।

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यासो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिध्येदकर्मणः॥३-८॥

“अहाँ नियत कर्म करू; कियैक तऽ अकर्म सँ कर्म नीक। जेना शरीरयात्रा यानि मनुष्य जीवन मे बिना कर्म केने एहि शरीरक निर्वाह तक संभव नहि अछि।”

“एहि लोक केँ ओहने कर्मसँ बन्धन भेटैत छैक जे यज्ञ निमित्त नहि कैल गेल हो। तैँ, हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! अहाँ केवल यज्ञविहित कर्म करू। बिना कोनो आसक्तिक कर्म करू – मुक्तसङ्गः। प्रजापति (सृष्टि निर्माता) जे शुरुए मे एहि लोकसृष्टि केँ आरम्भ केलनि ओ मानव हेतु विहित कर्म यज्ञ (अनुष्ठान्) निहित केलनि। ओ कहलैन जे यज्ञ सँ अहाँ सबहक वृद्धि-प्रगति (प्रसविष्यध्वम्) होयत, यैह यज्ञ अहाँक समस्त इच्छा-कामना केँ पूरा करऽवला कामधेनु गाय समान होयत।”

कर्म करब आवश्यक अछि। कर्म बिना जीवन संभव नहि अछि। कर्म प्रकृतिजनित गुण सँ करहे टा पड़त। कर्म सँ अपना केँ किनार करब मिथ्याचार भऽ सकैत अछि। कर्म मे यज्ञ उपयुक्त अछि। यज्ञ करहे लेल मनुष्य केँ सृष्टि मे जोड़ल गेल। यज्ञ सर्वथा जीवन व कामना सब केँ पूरा करयवला थीक। एहि हिसाब सँ हर विवेकी मनुष्य केँ मनन करबाक अछि। आइ एतबे!! क्रमश….!!

हरिः हरः!!