गीताः स्थिरबुद्धि व स्थितप्रज्ञ कोना बनब, ब्रह्मानंद कोना भेटत

गीताक तेसर बेरुक स्वाध्याय

krishna-arjun-54ffdf5405270_exlst(निरंतरता मे…. कर्मयोग अर्थात् बंधनहीन कर्म करबाक तौर-तरीका – सर्वोत्तम अभीष्ट पर भगवान् कृष्ण केर सुस्पष्ट संदेश उपरान्त)

चूँकि अध्याय दुइ मे गूढ सँ गूढतम् उपदेश आ समस्त गीताक निचोड़ कहल गेल अछि, बेर-बेर पढलो पर बहुत बात अस्पष्ट रहि जाएत अछि, हम एक बेर फेर मात्र अन्वय पर कार्य करब।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥४७॥

अहाँक कर्म टा करबाक अधिकार अछि, ओकर फल मे कदापि नहि । तैँ अहाँ कर्मफल मे स्वार्थ राखऽवाला जुनि बनू, आर अहाँक अकर्म मे (कर्म नहि करयमे) सेहो आसक्ति नहि हुअय ।

कर्म करहे पड़त, अकर्म एकदम नहि चलत। फलक चिन्ता या फल एना भेटय जेना अपन मन अछि से अहाँक अधिकारक्षेत्र मे नहि पड़ैत अछि।

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥४८॥

हे धनञ्जय ! अहाँ आसक्ति केँ त्याग कय तथा सिद्धि और असिद्धि मे समान बुद्धिवाला बनिकय, योग मे स्थित भेल कर्तव्य-कर्म केँ करू; यैह समत्व योग कहाइत अछि ।

अकर्म मे आसक्ति नहि हुअय, पहिले कहलनि। फेर कहैत छथि जे आसक्ति केँ त्याग कय फलक स्वरूप ‘जीत’ या ‘हार’ – सिद्धि-असिद्धि आदि मे समान बुद्धिवाला बनू, समत्व योग धारण करू।

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥४९॥

एहि समत्वरूप बुद्धियोग केर मुकाबला मे सकाम कर्म अत्यंत निम्न श्रेणीक अछि । तैँ हे धनञ्जय ! अहाँ समबुद्धि मात्र केर शरण लेल जाउ; फलेच्छा रखनिहार तऽ बहुत हीन अछि ।

समत्व बुद्धियोग आर सकाम कर्म बीच तूलना, समबुद्धि ग्रहण करबाक निर्देशन कैल गेल अछि।

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥५०॥

समबुद्धियुक्त पुरुष पुण्य और पाप दुनु केँ यैह लोक मे त्यागि दैत अछि अर्थात् ओकरा सँ मुक्त भऽ जाएत अछि । ताहि हेतु अहाँ समत्वरूप योग मे केवल स्थिर बनू; यैह समत्वयोग टा कर्म मे कुशलता थीक (अर्थात् कर्मबन्धन सँ छूटबाक उपाय थीक) ।

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः ।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥५१॥

समबुद्धि सँ युक्त ज्ञानीजन, कर्म सँ उत्पन्न होमयवाला फल केँ त्यागिकय, जन्मबन्धन सँ मुक्त भऽ निर्विकार परमपद केँ प्राप्त भऽ जाएत अछि ।

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥५२॥

जखन अहाँक बुद्धि मोहरूप दलदल केँ नीक जेकाँ पार कय जाएछ, तखनहि अहाँ सुनबा योग्य आर सुनि चुकल सब (कर्मफल / भोग) सँ वैराग्य केँ प्राप्त भऽ जायब ।

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥५३॥

तरह-तरह केर श्रुतिवचन सँ विचलित भेल अहाँक बुद्धि जखन निश्चल भऽ कय समाधि मे स्थिर भऽ जायत, तखनहि अहाँ योग केँ प्राप्त होयब ।

श्लोक ५० सँ ५३ धरि समबुद्धि कोना प्राप्त होयत तेकर उपाय कहलैन भगवान्। पुण्य ओ पाप दुनू सँ एहि लोक मे निजात पाउ। कर्म सँ उत्पन्न समस्त फलक त्याग करू। मोहरूप दलदल सँ पार उतरू, कर्मफल सँ वैराग्य केर प्राप्ति होयत। बुद्धि केँ एम्हर-ओम्हर केर बात मे नहि लगाउ। पूर्णरूप सँ अपन भीतर निश्चल बुद्धि केँ शरण मे यानि समाधि मे स्थिर भऽ जाउ।

अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥५४॥

अर्जुन कहलखिन – हे केशव ! समाधि मे स्थित स्थिरबुद्धि पुरुषक कि लक्षण थीक? ओ स्थिरबुद्धि पुरुष कोना बजैत अछि, कोना बैसैत अछि आर कोना चलैत अछि?

भगवानक उपरोक्त बात सुनलाक बाद पुनः अर्जुन जिज्ञासा करैत छथि आ आरो लक्षण सब स्पष्ट करबाक लेल अनुरोध करैत छथि, पूछैत छथि जे एहि तरहें समाधि मे स्थित स्थिरबुद्धि पुरुषक कि सब लक्षण, कोना बजैछ, कोना बैसैछ, कोना चलैछ… अर्थात् जीवनसम्बन्धी कार्यक निर्वहन ओ तखन कोन तरहें करैत अछि। निश्चिते, ई प्रश्न हमरो सबहक मन मे उठत। आखिर एहि जीवन मे एतेक धीर-गंभीर अवस्था प्राप्त केलाक बाद आखिर जीवन सँ जुड़ल विभिन्न पहलू सब पर हमरा लोकनिक आचरण केहेन होयत। आउ, देखी भगवान् कोन तरहें फैरछा दैत छथि।

श्रीभगवानुवाच।

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥५५॥

श्रीभगवान कहला – हे पार्थ ! जखन मन मे रहल सूक्ष्मतम कामना तक केँ त्यागिकय, जे आत्मसंतुष्ट होइत आत्मवान रहैत अछि, वैह स्थितप्रज्ञ कहल जाएत अछि ।

(कामनारहित होइत आत्मसंतुष्टि आर आत्मवान् बनब स्थितप्रज्ञ कहाइछ।)

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥५६॥

दुःख सँ जेकर मन उद्विग्न नहि होयत, सुख मे जे निःस्पृह अछि तथा जेकरा राग, भय और क्रोध नष्ट भऽ गेल अछि, एहेन मुनि स्थिरबुद्धि कहल जाएछ ।

(दुःख-सुख सब मे एक समान, भय-क्रोध नष्ट भऽ गेलाक बाद स्थिरबुद्धि बनैछ।)

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥५७॥

जे सर्वत्र स्नेहरहित भेल, ताहि शुभ या अशुभ वस्तु केँ प्राप्त भऽ कय न प्रसन्न होएछ आर नहिये द्वेष करैछ ओकर बुद्धि स्थिर अछि ।

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेऽभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥५८॥

आर… कछुवा सब दिशि सँ अपन अंग केँ जेना समेट लैत अछि, तेनाही जखन ओ (महात्मा) इन्द्रिय केर विषय सँ इन्द्रिय केँ सब तरहें हँटा लैत अछि, तखन ओकर बुद्धि स्थिर होइछ (तेना बुझू) ।

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥५९॥

जे लोक विषयोपभोग नहि करैछ, हुनका (तऽ केवल) विषय निवृत्त भऽ जाएछ (अर्थात् विषय केर आसक्ति निवृत्त नहि होइछ), मुदा परमात्माक साक्षात्कार करैत हुनकर (स्थितप्रज्ञक) विषय-रस रुप वासना सेहो निवृत्त भऽ जाएछ ।

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥६०॥

हे अर्जुन ! आसक्तिक नाश नहि भेलाक कारण ई प्रमथन स्वभाववाला इन्द्रिय यत्नशील बुद्धिमान पुरुषक मन केँ सेहो बलात् हरण करैत अछि ।

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥६१॥

ताहि सँ ओहि सब (इंद्रिय) केँ वश मे कय केँ, हमरे परायण बनिकय, हमरे मे चित्त स्थिर करैत अछि; कियैक तँ जेकर इन्द्रिय वश मे रहैत अछि, ओकर बुद्धि स्थिर भऽ जाएत अछि ।

बुद्धि केँ स्थिर करबाक लेल इन्द्रिय केँ ओकर विषय मे आसक्ति नहि होयबाक साधारण समझ हम बुझि पाबि रहल छी। द्वंद्व सँ मुक्ति तखनहि भेटत जखन मनक इच्छा ओ चंचलता पर विजयी प्राप्त करब।

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥६२॥

विषयक निरंतर चिंतन करनिहार पुरुष केँ विषय मे आसक्ति भऽ जाएछ, आसक्ति सँ ताहि विषय केर कामना उत्पन्न होएछ और कामना मे (विघ्न पडला सँ) क्रोध उत्पन्न होएछ ।

क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥६३॥

क्रोध सँ संमोह (मूढभाव) उत्पन्न होएछ, संमोह सँ स्मृतिभ्रम होएछ (भान बिसरब), स्मृतिभ्रम सँ बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्तिक नाश होएछ, और बुद्धिनाश भेला सँ सर्वनाश भऽ जाएछ ।

श्लोक ६२ ओ ६३ मे सुस्पष्ट अछि जे मानव कोना नाश केँ प्राप्त होइछ। पहिने इन्द्रिय केर विषय मे निरंतर चिन्तन, ताहि सँ आसक्ति, आसक्ति सँ कामना, कामना पूरा नहि भेला पर क्रोध, क्रोध सँ मूढभाव, मूढभाव सँ स्मृतिभ्रम (कर्म करबाक भान बिसरब), स्मृतिभ्रम सँ बुद्धिक नाश आ बुद्धिक नाश सँ सर्वस्व नाश – सर्वनाश!

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥६४॥

मुदा अपना अधीन कैल जा चुकल अंतःकरणवाला मनुष्य, राग-द्वेष सँ रहित इन्द्रिय द्वारा विषय मे विचरण करैत अछि, ओ अंतःकरण केर प्रसन्नता केँ प्राप्त होएछ ।

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥६५॥

अंतःकरण केँ प्रसन्नता प्राप्त भेला सँ दुःखक निरंतर अभाव भऽ जाएछ, और ओहि प्रसन्न चित्तवालाक बुद्धि शीघ्रहि स्थिर भऽ जाएछ ।

श्लोक ६४ आ ६५ मे अंतःकरणवाला मनुष्य द्वंद्वरहित अवस्था मे विषयो मे विचरण (जीवननिर्वाहक क्रम मे यदा-कदा निरपेक्षभावेन् विषयो मे रत) करैत छथि तऽ ओ अंतःकरणक प्रसन्नता लेल होइछ। एना आरो दुःखक समाप्ति होइछ आर चित्तक प्रसन्नताक संग बुद्धि स्थिर बनैछ।

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥६६।

जे चित्त केँ वश मे नहि केलक (जे अयुक्त अछि) ओकर बुद्धि स्थिर (निश्चयात्मिका) नहि होइत छैक, आर ओकरा मे भावना सेहो नहि होइत छैक; संगहि भावनाहीन मनुष्य केँ शांति नहि भेटैछ, और शांतिरहित मनुष्य केँ सुख कोना भेट सकैछ?

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥६७॥

जेना जल मे चलऽवाला नाव केँ वायु हरण करैछ, तहिना विषय मे विचरण करैत इन्द्रियवाला मन ओहि अयुक्त पुरुष केँ (ओकर बुद्धि केँ) हरण कय लैछ ।

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥६८॥

तैँ हे महाबाहो ! जेकर इन्द्रिय इन्द्रिय-विषय सेँ सब तरहें निग्रह कय चुकल अछि, ओकरे बुद्धि स्थिर अछि ।

श्लोक ६६, ६७ आर ६८ मे अयुक्त पुरुष केर इन्द्रिय निग्रह नहि भेला सँ कोना ओ बिना निश्चयात्मिका बुद्धिक चंचल मनक अनुगामी बनैत भटकैत रहैत अछि सेहो स्पष्ट करैत कहलनि जे इन्द्रिय केँ ओकर विषय सँ लगाव हँटब जरुरी अछि, तखनहि बुद्धि स्थिर होइछ।

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥६९॥

सब प्राणीक लेल जे रात्रिक समान अछि, ताहि मे स्थितप्रज्ञ संयमी जागृत होएछ; और जाहि विषय मे सब प्राणी जागृत होएछ, ओ मुनिक वास्ते रात्रिक समान अछि ।

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥७०॥

जेना नाना नदीक जल सब तरफ सँ परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठावाला समुद्र मे (ओकरा बिना विचलित केने) समा जाएछ, तेनाही जाहि स्थितप्रज्ञ पुरुष मे सब काम्य-विषय विकार उत्पन्न केने बिना समा जाएछ, वैह पुरुष परमशांति केँ प्राप्त होएछ, नहि कि भोग चाहनिहार केँ ।

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥७१॥

जे सब कामनादिक त्यागकय ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित होइत विचरैत अछि, वैह शांति केँ प्राप्त होएछ ।

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥७२॥

हे अर्जुन ! यैह ब्रह्म केँ प्राप्त भेल पुरुषक स्थिति थीक, एकरा प्राप्त करैत ओ कहियो मोहित नहि होएछ और अंतकाल मे सेहो एहि ब्राह्मी स्थिति मे स्थित भऽकय ओ ब्रह्मानन्द केँ प्राप्त भऽ जाएछ ।

आर, ओ स्थितप्रज्ञक लक्षण ६९ सँ ७२ मे भगवान् स्पष्ट कएलनि, अर्जुन समान शिष्यक जिज्ञासा अनुकूल आर हमरा-अहाँ सब समान पाठक ओ स्वाध्यायी शरणागत भक्त लेल सेहो भगवानक ई परमज्ञान सँ भरल महाशास्त्रक उपदेश किछु तहिना आचरण करबाक लेल प्रेरित करैत अछि।

अस्तु!!

हरिः हरः!!