गीताक तेसर बेरुक स्वाध्याय
(निरंतरता मे…. अध्याय २ केर श्लोक ३१ धरि…. भगवान् कृष्ण अर्जुन सँ कहला जे क्षत्रिय केर रूप मे स्वधर्म होइछ धर्मयुक्त युद्ध लड़ब, से अहाँ लड़ू… ताहि सँ पूर्व अर्जुनक शोक केँ अनावश्यक आ ब्यर्थ – तर्कहीन आदि बतबैत आत्मा केँ अविनाशी कहि कियो केकरो मारि नहि सकैछ कहैत केवल उपयुक्त कर्म करबाक लेल उपदेश करैत छथि… आगू…)
भगवान् कृष्ण अर्जुन सँ कहब जारी रखैत…. “क्षत्रिय निश्चित रूप सँ भाग्यशाली होइत छथि हे पृथा-पुत्र। जिनका लेल स्वर्गक दरबाजा समान धर्मयुद्ध लड़बाक अवसर भेटैत छन्हि।”
शास्त्र केर कथन छैक जे धार्मिक (सत्य हेतु) युद्ध मे मारल गेल लोक केँ सीधा स्वर्गलोक मे जेबाक फल भेटैत छैक। निश्चिते यदि केओ एहि संसार मे जीवन निर्वाह करैत कथमपि झूठ-फरेब-धोखाधड़ी आ अनीतिपूर्वक कोनो काज नहि केलक आर ओकरा संग कतहु कियो अन्यायो करत तऽ मानव संसार मे ओहि सत्यनिष्ठ लोकक प्रतिष्ठा चौजुगी प्रकाशित होयत। किछु एहि अवधारणा पर मृत्योपरान्त जाहि स्वर्गक परिकल्पना अछि ओ निहित अछि ई हम सब मानि सकैत छी। जेकरा एहि लोक मे नीक संसार मे बसनिहार मानब, तिनके स्वर्ग केर अधिकारी मानि सकैत छी।
“जँ अहाँ एहि धर्मयुक्त युद्ध लड़य सँ मना करैत छी तऽ अपनहि धर्म ओ सौर्य सँ दूर भऽ पापक भागी बनैत छी।” – भगवान् कृष्ण अर्जुन सँ हुनक अपन पहिचान केर विरुद्ध जेबाक बात केँ ‘पाप’ केर भागी बनय सँ तूलना केलनि अछि। मानल बात छैक, जे कर्तब्य हमरा सबहक थीक, यदि ताहि सँ मुंह मोड़ैत छी तऽ निश्चित पापक भागी बनैत छी।
भगवान् आगाँ कहला अछि, “संसारक लोक अहाँक एहि कायरता (युद्ध सँ अपना केँ हंटेबाक बात लेल) कलंक देत। एकटा प्रतिष्ठित (नामी-गिरामी लोक) लेल अकीर्ति (अप्रतिष्ठा, अपयश, कलंक, आदि) मृत्यु (मरनाइ) सँ बदतर होइत छैक।”
प्रस्तुत घड़ी – अर्थात् युद्धक निर्णय सँ पाण्डव व कौरवक सेना संयोजन उपरान्त मैदान मे आबि गेल अछि। सेना सैज चुकल अछि। युद्धक नियम आदि सब किछु घोषणा कैल जा चुकल अछि। कौरवक सेना सँ अग्रसरता लैत उग्र युद्धघोष रूप मे भीष्म पितामह द्वारा शंख फूकल जा चूकल अछि। तेकरे अनुसरण करैत स्वयं अर्जुन सहित भगवान् कृष्ण एवं अन्य पाण्डव सेना द्वारा शंखघोष कैल जा चुकल अछि। लेकिन एहेन परिस्थिति मे अर्जुन केँ विषादियोगक घेरा सँ बुद्धि परिक्षिप्त भऽ रहल अछि। हुनका दोसरे-दोसरे डर आ अनीति आदिक दर्शन होमय लागल अछि। कूबेर मे एहि तरहक ‘कायरता’ हुनका सनक प्रतिष्ठित लोक पर आयब…. भगवान् स्पष्ट केलनि जे ई समय अहाँ सनक लोक लेल युद्धधर्म सँ हंटबाक नहि, बस, हार-जीत आ कि-कहाँदैन मानसिक उद्वेलन केँ छोड़ि-छाड़ि केवल अपन कला-कौशलता सँ दुश्मन संग लड़बाक समय अछि। एहि मे ध्यान लगाउ। गाण्डीव उठाउ।
आगुओ अर्जुन केँ स्वधर्म आ निज-सामर्थ्य सँ अवगत करबैत भगवान् कहि रहला अछि, “एहि युद्ध मे एकत्रित महारथी सब अहाँ केँ भय सँ युद्धक मैदान छोड़लनि तेना बुझता। एना जे कियो अहाँक वीरताक पैघ मानैत छलाह ओ तेकरा तुच्छ मानय लगता। अहाँक दुश्मनादि द्वारा पर्यन्त एहि कायरता लेल घोर निन्दा आर उपहास कैल जायत, ओ सब अवाच कथा अहाँ लेल बजता। एहि सँ बेसी असहनीय दोसर कि होयत?”
अर्जुन एक महान् योद्धा छलाह। महान् वीर धनुर्धर रूप मे महाभारतक युद्ध सँ पूर्व हुनकर कीर्ति प्रसिद्धि पाबि चुकल छल। दुश्मनक खेमा मे हुनकर नामहि सँ हरकम्प मचि जाएत छल। लेकिन आइ ओ अनेकानेक मानसिक व्यग्रताक व्यूह मे फँसल युद्ध सँ मना कय रहल छलाह। एहि अवसर कृष्णक शिष्य बनि हुनका सँ मार्गदर्शन माँगि ई वार्ता भऽ रहल अछि। भगवान् कोनो बात अतिश्योक्तिपूर्ण नहि वरन् सहज भाव सँ हुनकर निजी पहिचान ओ सामर्थ्य केँ स्मृति मे दैत पुनः अपन धर्म प्रति सजग बनबाक लेल हुनका जगा रहला अछि। ओ हुनका अप्रतिष्ठा पर ध्यान आकर्षित करैत कहैत छथि जे ई मृत्यु सँ बेसी खराब मानल जाएछ। दोसर बात, दुश्मनक खेमा मे अपकीर्ति ओ कायरता प्रति कूबोल एहेन बाजल जाएछ जे बाजय योग्य नहि (अवाच्य कथा) होइछ। ओ कूबोल सन आन किछु असह्य नहि भऽ सकैत अछि। एहि तरहें अर्जुन केर भीतर सूतल वीर केँ पुनः उकसेबाक अन्दाज मे मुदा यथार्थ उपदेशक संग जगायल जा रहल अछि।
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं…. कहैत भगवान् अर्जुन केँ परिणामबोध करबैत कहैत छथि, “मारल गेला पर स्वर्ग प्राप्त करब; जीतला पर राज्यसुख केर भोग करब। तैँ, हे कुन्तीपुत्र! उठू आर लड़बाक लेल तैयार होउ।”
भगवान् निष्ठा ग्रहण हेतु सेहो संगहि उपदेश केलनि अछि, “दुःख ओ सुख, लाभ या हानि, जीत वा हार – एहि सबकेँ एक्कहि समान मानिकय युद्ध मे अपन सौर्य देखाउ। एना मे अहाँ कोनो पाप नहि करब।”
यैह निष्ठा वास्तव मे हरेक जीव लेल अनुकरणीय मानू। मानवक स्वभाव मे कदापि दुःख वा हानि वा हारि – एकरा नकारात्मक उपलब्धि मानिकय केवल सुख, लाभ, जीत आदिक इच्छा प्रबल बनैछ। परिणाम पर अपन अधिकार नहि होयबाक कारणे लोक छल-बल-कल – मैथिली मे छक्कल-बक्कल करैतो एकतर्फी मनक नीक इच्छा प्राप्ति लेल कार्य कैल जाएछ। तेना मे पाप होयब निश्चित अछि। अतः भगवानक निर्णय जे बिना कोनो द्वंद्वभाव आर हरेक प्राप्ति प्रति एक्के रंगक मानसिकता राखि कर्म कैल जाय। आगूः
एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु।
बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि॥३९॥
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवाहो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥४०॥
“एहि तरहें अहाँ केँ सांख्य (आत्म-पहिचान) केर बुद्धियोग कहलहुँ। आब अहाँ योग केर बात सुनू जेकरा सुनला सँ अहाँ कर्मबन्धन सँ मुक्त होयब। एहि मे, अपूर्ण प्रयास कदापि बर्बाद नहि होइछ, नहिये एहि सँ कोनो बिपरीत परिणाम भेटैत अछि। बल्कि एहि सँ कनेकबो धर्म भयावह भय सँ रक्षा करैत अछि।” – भगवान् पूर्वक देल ज्ञानोपदेश केँ सांख्य कहैत आब योग सँ कर्मबन्धन सँ मुक्तिक ज्ञानोपदेश देबाक भरोस दैत अर्जुनक मनोवस्था केँ पूर्ण समाधानक दिशा मे लऽ जेता से घोषणा केलनि अछि।
भगवान् केर शरण ताहि कारण अति प्रिय होइछ। अहाँ अपनहि बल मे मस्त रहब तखन ओ अहाँक मनोदशा मे कि सुधार अनता? कर्तापन अपनहि मे देखब तऽ ओ कि सांख्य आ कि योग या कि भक्ति अहाँक भरल मन केँ बतेता। अतः अर्जुन समान शिष्य हम सब बनी आर जखन भगवान् केर शरण जाय तऽ पूर्ण रूप सँ अपन मनक गंदगी या पहिले सँ भरल बातकेँ खाली कय ली। तखनहि हुनकर देल ज्ञान हमरा लोकनिक भीतर स्थान पाओत। क्रमशः…..
हरिः हरः!!