गीताक तेसर बेरुक स्वाध्याय
(निरंतरता मे – कृष्ण द्वारा अर्जुनकेर शरणापन्न भेलाक बाद जीव आर मूल तत्त्व आत्मा केर बीच तादात्म्यात्मक विश्लेषण करैत ‘स्वधर्म’ निर्वाह हेतु उपदेश)
सब सँ बेसी चुनौतीपूर्ण बात सब यानि गूढ ज्ञान सब हमरा यैह अध्याय दुइ मे भगवानक मुख सँ अर्जुन केँ कहल जा रहल किछेक श्लोक मे देखाइत अछि। एहि किछु बात केँ बुझबाक लेल हम यत्नशील छी। कतेको बेर पुनरावृत्ति अध्ययन केलो पर सब बात बुझय मे नहि आबि रहल अछि। तैयो… एकरा अलग-अलग तरह सँ छोट-छोट टुकड़ा मे करैत बुझबाक प्रयास करैत छी।
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम् ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ।।२१।।
हे पृथापुत्र अर्जुन! जे पुरुष एहि आत्मा केँ नाशरहित, नित्य, अजन्मा आर अव्यय जानैत अछि, ओ पुरुष कोना केकरो मरवावैत अछि या कोना केकरो मारैथ अछि?
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।२२।।
जेना मनुष्य पुरान वस्त्र केर त्याग कय दोसर नव वस्त्र केँ ग्रहण करैत अछि, तेनाही जीवात्मा पुरान शरीर केँ त्यागकय दोसर नव शरीर केँ प्राप्त होइत अछि।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।।२३।।
एहि आत्मा केँ शस्त्र काटि नहि सकैछ, आगि जरा नहि सकैछ, जल गला नहि सकैछ आर वायु सूखा नहि सकैछ।
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ।।२४।।
चूँकि ई आत्मा अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य आर निःसन्देह अशोष्य अछि; तथा ई नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहयवाला आर सनातन अछि।
अव्यक्तोऽयमचिन्तयोऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ।।२५।।
ई आत्मा अव्यक्त, अचिंत्य आर विकाररहित कहल जाएछ। तैँ हे अर्जुन ! एहि आत्मा केँ उपर्युक्त प्रकार सँ जानिकय अहाँ केँ शोक करब उचित नहि अछि।
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ।।२६।।
मुदा जँ अहाँ एहि आत्मा केँ सदा जन्म लेबयवाला तथा सदा मरयवाला मानैत छी, तैयो हे महाबाहो! अहाँ एना शोक करबाक योग्य नहि छी।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च ।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।।२७।।
कियैक तऽ (एहि मान्यताक मुताबिको) जन्म लेल जीवक मृत्यु निश्चित छैक और मरल जीव केर जन्म निश्चित छैक। ताहि सँ सेहो एहि बिना उपायवाला विषय मे अहाँ शोक करबा योग्य नहि छी।
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ।।२८।।
हे अर्जुन ! सब भूत मात्र जन्म सँ पहिले अप्रकट छल और मरलाक बाद सेहो अप्रकट भऽ जायवाला अछि, केवल बीच मे मात्र प्रकट होइछ; फेर एहनो स्थिति मे कि शोक करब?
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रुणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ।।२९।।
कियो एहि आत्मा केँ आश्चर्य जेकाँ देखैत अछि, आर दोसर कियो ओकर तत्त्व केँ आश्चर्य समान वर्णन करैत अछि, आर आरो दोसर कियो ओकरा आश्चर्यक भाँति सुनैत अछि; और कियो-कियो तऽ सुनियोकय सेहो एकरा (आत्माकेँ) नहि जनैत अछि।
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ।।३०।।
हे अर्जुन ! ई आत्मा सबहक शरीर मे सदिखन अवध्य अछि। ताहि लेल प्राणीजन केँ शोक करबा योग्य नहि अछि।
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।।३१।।
आर, अपन धर्म केँ देखिकय सेहो अहाँ भय करबा योग्य नहि छी अर्थात् अहाँ केँ भय नहि करबाक चाही; कियैक तऽ क्षत्रिय केर वास्ते धर्मयुक्त युद्ध सँ बढिकय दोसर कोनो कल्याणकारी कर्तव्य नहि अछि।
एक साँस मे एतेक दूर धरि पढिकय आइ विराम दय रहल छी। टिप्पणी करय योग्य हमरा पास सामर्थ्य नहि अछि। बात कोनो एहेन नहि कहल गेल अछि जाहि पर मानुसिक माथ लागत आ ओकरा विच्छेद करबाक प्रयास करत। बात मोट मे साफ छैक जे अर्जुन पहिनहि बहुत रास अवस्थाक चर्चा केने छलाह। स्वजन केँ कोना मारब, हुनका सबहक खून सँ सानल राजसुख कोना भोगब, बरु भीख माँगिकय जीवन गुदस्त कय लेब…. कुलधर्म, पुरुषविहीन कुल मे स्त्रीक भ्रष्ट होयब, वर्णसंकर केर उत्पत्ति, ऊपर पितर आ निचाँ आगामी पीढी सब धर्मविहीन होयब…. बहुत रास बात कहैत अर्जुन द्वारा युद्ध नहि लड़बाक घोषणाक बाद श्रीकृष्ण हुनका एक्कहि टा बात बेर-बेर बुझेलैन अछि जे अहाँ केकरा मारबैक वा अहाँ के थिकहुँ आर ओ के थिकाह जे मरताह, से कोन तरहें अहाँ बुझि रहल छी। सब पहिने सेहो रही, एखनहु छी, फेरो रहब। शरीर मरैत छैक। तत्त्वरूपी आत्मा केँ कियो नहि मारि सकैत अछि। ओ अविनाशी तत्त्व थीक। ताहि पर सँ अहाँ क्षत्रिय छी आर धर्मयुक्त युद्ध करब अहाँ वास्ते सर्वथा उपयुक्त कर्तब्य थीक, ताहि सँ अहाँ एहि धर्मयुद्ध केँ लड़ू।
हरिः हरः!!