गीताः अविनाशी आत्माक संबंध कृष्णक संबोधन

गीताक तेसर बेरुक स्वाध्याय

gita krishna(निरंतरता मे – अर्जुन द्वारा श्रीकृष्ण केर शरण ग्रहण करैत गाण्डीव पटैक युद्ध नहि लड़बाक घोषणा सहित आगाँ उचित-अनुचित केर मार्गदर्शन हेतु निवेदन उपरान्त….)

भगवान् कहैत छथिन – “अर्जुन अहाँ ओकरा लेल शोक कय रहल छी जे शोक करय योग्य अछिये नहि। तैयो अहाँ बुद्धिमान समान बात कय रहल छी जे सच मे ज्ञानी होइछ ओ नहि तऽ सजीव लेल नहिये निर्जीव लेल एना शोक करैत अछि। एना नहि भेलैक जे हम आइ सँ पहिने एतय नहि रही, वा अहाँ वा ई राजा लोकनि एतय नहि छलाह। आर एहनो नहि जे एकर बाद हम सब फेर सँ नहि आयब एहि लोक मे।”

भगवान् स्पष्टतः शरीरक अवस्थिति पर नहि वरन् एहि शरीरक भीतर ओहि सूक्ष्म शरीर केर बात कय रहला अछि जे वास्तव मे एकटा अदृश्य तत्त्व थीक, जेकरा आत्मा कहल जाएछ। भगवान् आगाँ कहैत छथिः

“जहिना शरीर मे बाल्यावस्था (बचपन), जवानी आर बुढापा अबैछ तहिना एहि शरीरक तत्त्व ‘आत्मा’ लेल विभिन्न शरीर धारण करब अछि। धीर पुरुष ताहि कारण एहि मृत्यु सँ अधीर नहि बनैछ।”

स्पष्ट छैक – एहि शरीर मे पर्यन्त विभिन्न अवस्था अबैछ। बच्चा स्यान बनि जाएछ। पुनः प्रौढ आर वृद्ध बनि जाएछ। एकटा उमेर केर मृत्यु सँ केकरो कोनो प्रकारक क्षोभ नहि होएत छैक। प्राकृतिक कारण होइछ बढनाय। तखन मृत्यु एहि शरीरक अन्त भेल आर ओ बहुत भयावह प्रतीत होइछ।

अर्जुन एहि युद्ध मे अपन स्वजन-गुरुजन केँ नहि मारबाक बात कहलनि। ओ राज्यसुख वा भोग केँ खून सँ कलंकित होइत देखलनि। भीख माँगब उचित मानलनि। युद्ध सँ साफ इनकार कय देलनि। तथापि अपना केँ शिष्य मानि भगवान् कृष्ण सँ मार्गदर्शन करबाक लेल कहैत छथि, तखन भगवान् हुनका सबसँ पहिने यैह कहब शुरु करैत छथि जे अहाँ असमय मे बेकारक चिन्ता – अनावश्यक शोक व पीड़ा सँ ग्रसित भऽ रहल छी…. तैयो बुद्धिमान जेकाँ बात गढि रहल छी। असल ज्ञानी एहि सब सँ कखनहु विचलित नहि होइत अछि। उदाहरण सेहो स्पष्टे अछि। बच्चा अवस्था मैर जाएछ, ताहि लेल कोनो चिन्ता वा दुःख नहि। जवानी मे तऽ आरो भोगे-भोगक लिलसा आ ओज रहैछ, मुदा ओहो मैर जाएछ, तेकरो लोक सहज रूप मे लैछ। वृद्धावस्था उपरान्त जीर्ण शरीर आ तेकर अन्त निश्चित अछि। तहिना आत्मा द्वारा नव शरीर धारण करब निश्चित बुझू। गीता मे मूल तत्त्वज्ञान बस यैह किछु श्लोक मे निहित अछि। देखू आगूः

“गरम लागब वा ठंढा लागब, दुःख या सुख – ई सबटा इन्द्रिय केर ओकर विषय सँ संसर्ग भेला पर उत्पन्न होइछ। एहि सबहक एकटा आरम्भ छैक तऽ निश्चित समयावधि उपरान्त अन्त सेहो छैक। ई सब स्वभाववश क्षणिक होइत अछि। एकरा सबटा केँ गंभीरता सँ झेलू हे अर्जुन!”

अर्जुन केँ द्वंद्व मे हम सब देखलहुँ। ई द्वंद्वक फंद केँ सीधासीधी भगवान् इन्द्रिय आर ओकर संसर्गक विषय कहैत क्षणिक अवस्था अनुरूप बता देलनि। ई भाव रूप मे आयत आ फेर स्वतः जायत। आगाँः

“ओ धीर पुरुष जे दुःख आर सुख मे सम रहैत अछि, जेकरा ई सब अवस्था कनेकबो विचलित नहि करैत छैक, वैह मात्र अमरता केँ प्राप्त करैत अछि हे अर्जुन!”

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः॥१६॥

असतः भावः न विद्यते सतः अपि अभावः न विद्यते तत्त्वदर्शिभिः तु अनयोः उभयोः अन्तः दृष्टः।

असत् कहियो नहि रहैछ। सत् केर अभाव नहि अछि। एहि तरहें एहि दुनू तत्त्वकेँ तत्त्वज्ञानी द्वारा देखल गेल अछि।

इतय श्रीकृष्ण द्वारा सत् आर असत् केर प्रयोग कैल गेल अछि। निरंतरता मे एहि तत्त्वज्ञान केँ बुझबाक आवश्यकता अछि। सत् यानि जेकर स्वरूप सदिखन एकसमान रहैछ, असत् जे क्षणिक आर कखनहु एकरूपता बरकरार नहि रखैछ तेकरा बोध करबैत अछि। एहि तरहें एहि दृष्टिगोचर संसार मे सब किछु परिवर्तनशील केँ असत् सँ जोड़ल गेल अछि। लेकिन ओ तत्त्व जे कदापि परिवर्तनशील नहि अछि, तेकर सत् कहल गेल अछि, जेना आत्मा।

कृष्ण स्पष्ट करैत छथिः

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति॥१७॥

ओ तत्त्व जाहि सँ ई समस्त वस्तुस्थिति निहित अछि से अविनाशी अछि। ओहि अव्यय (अविनाशी तत्त्व) केँ कियो नाश नहि कय सकैत अछि। निश्चिंत होइत से बुझि जाउ हे अर्जुन!

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत॥१८॥

एहि नाशरहित अप्रमेय नित्यस्वरूप जीवात्मा केर ई सब शरीर नाशवान् कहल गेल अछि, तैँ हे अर्जुन अहाँ युद्ध करू।

चूँकि अर्जुन मे स्वजन प्रति मोह उत्पन्न भेल अछि, ओ अज्ञानतावश भ्रमरूप मे जीवक स्वभाव गुणे भेल अछि, तेकरा फरिछाबैत भगवान् कृष्ण निर्णय दैत कहि देलनि जे बस अहाँ युद्ध करू। आगु आरो फरिछाबैत छथिः

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥१९॥

जे एहि आत्मा केँ मारयवाला बुझैत अछि वा जे एकरा मरल मानैत अछि, ओ दुनू अबुझ अछि; कियैक तऽ आत्मा वास्तव मे नहिये केकरो मारैत अछि, आर, नहिये केकरो द्वारा मारल जाएत अछि।

न जायते म्रियते वा कदाचि-
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥२०॥

ई आत्मा कोनो काल मे पर्यन्त न जन्म लैत अछि, नहिये मरैते अछि; आ नहिये ई पहिने नहि होमयवला सेहो नहि अछि, कियैक तऽ ई अजन्मा, नित्य, सनातन आर पुरातन अछि। शरीरक मरलो पर ई नहि मरैत अछि।

गीता मे सबसँ गूढ ज्ञान एहि अध्याय मे छैक। लोकक दिमाग केँ लटपटाबयवला हिस्सा वास्तव मे एत्तहि छैक। भगवान् अर्जुनक बुद्धमत्तासँ भरल बहुत बात सुनि चुकल छथि। आर आब हुनकर बेर छन्हि जे शिष्य केँ मार्गदर्शन करता। एतय नितान्त अर्जुनहि केर भाव मे हम सब रहब तऽ शायद बुझय मे आबि सकत। हमहुँ प्रयासरत छी, बात बुझी। नहि तऽ बाबा-पोताक दृष्टान्त जे बेर-बेर पढू, कम सँ कम भितुरका स्याहपन तऽ जरुरे साफ होयत। अस्तु!

हरिः हरः!!