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गीता स्वाध्यायः अर्जुन – कृष्ण प्रारंभिक वार्ता

गीताक तेसर बेरुक स्वाध्याय

gita krishna(निरंतरता मे… अध्याय १ मे संजय, धृतराष्ट्र बीच संपन्न वार्ता मे पहिने दुर्योधनक अन्तर्मनक भय आ द्रोणकेँ पितामह भीष्मकेर रक्षामे लागब कहनाय, भीष्म द्वारा दुर्योधन व कौरवी सेनाक मनोबल बढेबाक लेल शंखघोष, पुनः अर्जुन केँ विषादियोग आर गाण्डीव राखि स्वजन सँ युद्ध नहि करबाक घोषणा… तेकर बाद….)

संजय कहैत छथिन जे तेकर बाद अर्जुन दया आवेश सँ अश्रुपूर्ण (नम) आँखि मे देखैत मधुसूदन कहैत छथिनः

श्रीभगवानुवाच।
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्॥
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन॥२॥

“एहेन संकटक घड़ी मे अनार्य समान (धर्मनिष्ठ लेल नहि करय योग्य बात करब), अकीर्तिकारी (अपयश लेबा समान कार्य करब) तथा अस्वर्ग्य (स्वर्ग नहि प्राप्ति करय समान मार्ग चुनब) समान निराशा अहाँ पर आयल अछि कि?”

गौर करू – भगवान् अपन भक्तक सब बात सुनलाक बाद निष्कर्षतः किछु विशेषण सहित ‘निराशा’ सँ पीडित निराकरण दैत आरंभ केलनि अछि। अनार्य – जे आर्यधर्म सँ इतर अन्याय केर आगाँ झूकब सँ तूलना कैल गेल बुझा रहल अछि। अकीर्तिकारी – मनुष्य जीवन मे यश ओ प्रतिष्ठा एकटा पूर्ण मानव रूप मे हासिल करब जरुरी मानि अर्जुन समान महारथी लेल विशेषतः प्रयुक्त बुझा रहल अछि। आखिर ओ एतेक रास अन्याय भुगतलाक बाद आइ अन्तिम युद्ध केर घड़ी एहेन बात कय रहला अछि जे युद्धक मैदान सँ भागय समान होयत। निश्चित रूप सँ ई अकीर्तिकारी होयत। आर, ईश्वर केर लोक प्राप्ति यानि स्वर्ग प्राप्ति सेहो मनुष्यक एक महत्वपूर्ण टा नहि वरन् अनिवार्य अभीष्ट केर रूप मे एहिठाम स्थापित कैल गेल बुझा रहल अछि। अर्जुन जाहि मार्ग केर चयन कय रहला अछि ओ परिस्थिति अनुकूल नहि, मर्यादा अनुरूप नहि… अतः स्वर्गक अभीष्ट लेल एकदम्मे नहि होयबाक कारण भगवान् कहला जे ई ‘अस्वर्ग्य’ अछि। आगूः

क्लैब्यं मास्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥३॥

“हे पार्थ! एहेन घड़ी नपुंसकता (नामर्दगीः क्लैब्यं) केर प्राप्ति अहाँ मे उचित नहि अछि! हे परन्तप (अपन दुश्मनक संहारक)! हृदयक तुच्छ दुर्बलता केर त्याग कय युद्ध लेल तैयार भऽ जाउ।”

अर्जुन कहैत छथिन, “मुदा हम भीष्म आर द्रोण जे हमरा लेल पूज्य छथि तिनका सँ तीर सँ कोना एहि युद्ध मे लड़ी हे मधुसूदन? जीवन मे भीख माँगि खाएब से बरु अपन गुरु समान पूज्य व्यक्तिकेँ मारय सँ नीक होयत। तैयो जँ हम हुनका सबकेँ मारैत छी तऽ अहु लोक मे हमर संपदा व भोग हुनकर खून सँ कलंकित होयत।”

अर्थात् अर्जुन स्वर्गक प्राप्तिक लक्ष्य तऽ दूर बरु अहु लोक मे नरक समान भोग केर चर्चा करैत गुरु समान ओहदेदार – पूज्य व्यक्ति पर तीर उठेबा सँ अपना केँ असमर्थ मानि रहला अछि। आगू कहैत छथिः

“हमरा समझ मे नहि आबि रहल अछि जे युद्ध करब वा नहि करब कोन बेसी उचित (नीक) होयत, आर नहिये ई जनैत छी जे हम सब जीतब वा ओ सब जीतता। आर जेकरा मारिकय हम अपनो जीवन ब्यर्थ बुझैत छी से धृतराष्ट्र-पुत्र सब एतय सोझाँ लड़बाक लेल ठाढ अछि।”

एक तऽ द्वंद्वक फंद मे फँसल अर्जुन दोसर धर्म-अधर्म पर स्वनियंत्रण स्थापित करबा सँ असमर्थ, तखन नीक वा बेजा, उचित-अनुचित केर निर्णय कोना कय सकता। ओ कहैत छथिः

“ताहि हेतु हे प्रभुजी! हम कायरतारूप स्वभाव सँ आहत आर धर्मक विषय मे मूढ चेतना (मोहित अवस्था प्राप्ति)क कारण अहाँक शरण मे अपना केँ समर्पित करैत हमरा लेल कि श्रेयस्कर होयत से मार्गदर्शन करबाक लेल अनुरोध करैत छी। हम अहाँक शिष्य छी, शरणागत केँ सही बाट देखाउ।”

कायरतारूप स्वभाव – द्वंद्वक पहर अक्सरहाँ मनुष्य एकर शिकार होएत अछि। तहिना धर्मक चेत मे मूढता – यानि कर्तब्यक निर्धारण आ ताहि अनुसारे कर्म ओ आचरण करब सेहो ओहेन समय मे ठीक सँ नहि भऽ पबैत छैक। अर्जुन सटीक निर्णय करैत अपनाकेँ शरणागतवत्सल कृष्ण समान विज्ञ (स्वयं भगवान्) केर शिष्य घोषणा करैत मार्गदर्शन लेल निवेदन कएलनि अछि। मनुष्य केँ सदिखन द्वंद्वक समय सक्षम गुरुक शरण रहि मार्गदर्शन अनुरूप आगू बढबाक नीक उपदेश भेटैत अछि एतय। पुनः अर्जुन कहैत छथिः

“एहि ठाम निष्कण्टक (बेरोकटोक अखण्ड) आर धन-धान्यसंपन्न राज्यक संग देवतो पर स्वामित्व स्थापित कय लेला सँ हमर ई ज्ञानकेँ सुखाबयवला शोक केर अन्त हम नहि देखि पाबि रहल छी।”

ई अन्तिम बात पुनः अपन उद्वेलित मनोदशा केँ कहैत अर्जुन श्रीकृष्णक शरण मे समर्पित होएत छथि। संजय कहैत छथि जे एतेक बजैत अर्जुन (गुडाकेश) – दुष्टक दलन करयवला योद्धा गोविन्द सँ निर्णीत स्वर मे कहैत छथि जे ‘हम नहि लड़ब’ आर शान्त भऽ के बैसि जाएत छथि। तखन भगवान् कृष्ण दुनू सेनाक मध्यभाग मे अर्जुनकेँ एना विषादियोग सँ युक्त (शोकातुर) देखि कहय लगैत छथिन…..

क्रमशः….

हरिः हरः!!

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