जीवन मे तेसर बेर गीताक स्वाध्याय आइ सँ शुरु भेल…..
पहिल दिन आइ पहिले अध्यायक मात्र २० गो श्लोक पढलहुँ….
धृतराष्ट्रक प्रश्न सँ प्रारंभ – “धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र मे युद्धक इच्छा सँ समवेत (एकत्र) भेल ‘हमर लोक’ आ पाण्डव कि कय रहल अछि संजय?” – एहि पाँति मे बहुत रास दर्शन निहित अछि।
धर्मक्षेत्र केर रूप मे विख्यात कुरुक्षेत्र – एतय बहुत पहिनहि सँ अनेकानेक धार्मिक यज्ञ-अनुष्ठानादि होइत रहल इतिहास छल। ताहि ठाम युद्ध करबाक निर्णय सहित कौरव ओ पाण्डव एकत्रित भेल छथि।
धृतराष्ट्र यानि दुर्योधनक पिता एवं कुरु वंशक राजा – ओहि पक्षक छथि जिनका सँ शान्ति समझौता व अहिंसा केर मार्ग सँ न्याय पेबाक अवसर पाण्डव वास्ते समाप्त भऽ गेल छलन्हि।
कतेको अवसर पर कौरवक कोप सँ दर-दर भटकल छलाह पाण्डव – द्युत क्रीड़ा मे धर्मराज युधिष्ठीर संग छल ओ कपट, द्रौपदीक सरेआम सभा मे वस्त्रहरण करबाक कुत्सित कूकर्म, अज्ञात वास सहितक राज्य-निकाला (निर्वासन), लाखक घर मे जरेबाक वीभत्स आपराधिक षड्यन्त्र, अप्रत्यक्ष युद्धक भार आदि सँ पाण्डव केँ त्रस्त राखल गेले छल। अन्त मे स्वयं कृष्ण द्वारा समझौता-सहमति करेबाक मध्यस्थता पर्यन्त केँ अपमानजनक ढंग सँ नकारबाक घोर पापाचार कौरव द्वारा कैल गेल। आर परिणाम यैह जे युद्ध मे जीतलाक बादे पाण्डव अपन हक ओ अधिकार प्राप्त कय सकैत छथि, ताहि वास्ते युद्ध अन्तिम अस्त्र बनि सोझाँ मे छल।
राजा धृतराष्ट्र शर्त मुताबिक दिव्यदृष्टि प्राप्त सहायक संजय सँ युद्ध स्थलक आँखिक देखल हाल सँ अवगत होयबाक जिज्ञासा रखैत छथि।
गौर करू! जिज्ञासा मे अछि - हमर लोक – अर्थात् पुत्र दुर्योधनक अगुवाई मे कौरवी सेना…. आ दोसर पक्ष यानि पाण्डव – दुनूक दुइ भाग मे विभाजन करैत मानुसिक मायावृत्ति मुताबिक अपनहि पक्षक कुशलताक कामना सहित एकटा प्रश्न पूछैत जानकारी लेबय लेल संजय सँ पूछैत छथि धृतराष्ट्र।
आर, तदोपरान्त संजय द्वारा सेहो राजाक इच्छा बुझैत प्राथमिकता दुर्योधनक अवस्थाक वर्णन करैत कहैत छथि, “दृष्ट्वा तू पाण्डवानीकं व्यूढं….” – यानि पाण्डवक सेनाक युद्ध लेल तत्पर पंक्तिबद्ध स्वरूप देखैत दुर्योधन अपन आचार्य (पितावत् स्नेह देनिहार ब्राह्मण गुरु) द्रोण लंग पहुँचैत हुनका सँ पाण्डवक सेना हुनकहि पूर्व मित्र जे बाद मे मुख्य शत्रुक रूप मे परिणति पाबि गेल छलाह, यानि द्रुपद राजा, तिनकर पुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा सजायल युद्ध लेल उद्यत् छल, से देखौलनि।
विश्लेषण कएनिहार आ बात बुझनिहार विवेकशील हरेक मनुष्य स्थिति भाँपि सकैत अछि। दुर्योधन अपन सेनापति सँ सल्लाह करबाक लेल नहि जाय सीधे डेरायल बच्चा जेकाँ अपन पितावत् प्रेम देनिहार गुरुदेवक शरण मे गेला। मुदा हुनकर भितरिया स्याहपन एतहु कूबोली टा निकालैत गुरु पर्यन्त केँ सनकेबाक ध्येय सँ बजैत देखाएत अछि। ‘तव शिष्येण धीमता’ यानि ओ व्यूढ (योद्धाक पांति मे सजल स्वरूप) रचनिहार द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न जे पाण्डवक सेनापति छलाह ओ आचार्य द्रोणक शिष्य छलाह – से चुटकी लैत दुर्योधन भितरे-भितर डरायल-सहमल रहैत कहैत छथि गुरुसँ… ‘अहींक शिष्यक दक्षता’ सँ ओ सेना आइ एहि रूप मे सोझाँ युद्ध लेल तैयार अछि से देखू।
दुर्योधन आचार्य द्रोण केँ आरो महारथी सबहक परिचय करबैत कहैत छथि, “भीम ओ अर्जुन समान महाबली-महाधनुर्धर योद्धा युयुधन, विराट, द्रुपद, धृष्टकेतु, चैकितान, काशीराजा समान नरश्रेष्ठ, पुरुजित, कुन्तिभोज तथा शैव्य…. शक्तिशाली युधामन्यु, वीर उत्तामौजादि, सुभद्रा ओ द्रौपदीक पुत्रादि – जे सब महारथी छथि, ओ पाण्डवसेना मे दृष्टिगोचर छथि।”
विदित हो जे महारथीक साहित्यिक अर्थ होइत छैक – युद्ध कौशल मे कुशल आर एगारह हजार धनुर्धर केँ असगरे सम्हारनिहार रथ आरूढ योद्धा। दोसर बात, अर्जुन ओ भीम केर वीरता दुर्योधन बाल्यकालहि सँ गुरुकुल मे देखैत आयल छलाह। तेसर बात, आचार्य द्रोणहि सँ ओ सब गोटे युद्ध कौशल केर पाठ लेने छलाह। चारिम बात, कतेको बेर गुरु आश्रम मे आपसी कलेवर देखेबाक परीक्षा मे एक-दोसरक बहादुरी सँ पहिनो परिचय भेटले छलन्हि। पाँचम आ अन्तिम बात, हुनका पाण्डव सेना मे आइ युद्धक अन्तिम निर्णय केलाक बाद भीम ओ अर्जुनहि समान अनेकानेक महारथी सब देखा रहल छन्हि। स्पष्ट छैक, अहाँ भले कतबो बहादूर छी, यदि आत्मबल सत्य ओ न्याय सँ आभूषित नहि अछि तऽ सोझाँ सबटा महारथिये नजैर पड़त। दुर्योधन अपन पूर्वक व्यवहार ओहिना अहंकार मे रहैत वर्तमान अन्तिम परीक्षा मे अपना केँ कमजोर ठानि रहला अछि। आचार्य एवं ब्राह्मणश्रेष्ठ द्रोण सँ मंत्रणा करैत ओ तैयो अपना केँ तैयार कय रहला अछि।
“हे द्विजश्रेष्ठ! अपनो सब मे जे सब विशिष्ट योद्धा छथि तिनको परिचय अपनेक जानकारी कराबी। अपने स्वयं, भीष्म, कर्ण आ कृप समान समितिंजय (युद्ध मे सदा विजेता), अश्वत्थामा, विकर्ण, सौमदत्त पुत्रादि, जयद्रथ, आरो अनेक रास महारथी, युद्ध-कौशल-कुशल, भिन्न-भिन्न अस्त्र-शस्त्र सँ लैस, हमरा वास्ते प्राणक आहूति देबाक लेल तैयार एहि युद्धभूमि मे मौजूद छथि।” – दुर्योधन अपन सेनाक वर्णन सेहो किछु एहि अन्दाज मे कय रहला अछि जाहि मे गुरु द्रोण केर उल्लेख प्रथमहि करैत हुनक सार कृप केर नामक उल्लेख मे विशेष अभिव्यक्ति ‘युद्ध मे अपराजित यानि समितिंजय’ कहिकय चढेबाक भाव स्पष्ट अछि।
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं त्विदमेषां बलं भीमाभिरक्षितम्॥१०॥
एहि श्लोक मे पर्यन्त दुर्योधन द्वारा अपन सेना जेकर रक्षाक भार पितामह भीष्म पर अछि तेकरा अपर्याप्त कहला। जखन कि भीम द्वारा रक्षित पाण्डवक सेनाकेँ ओ पर्याप्त कहलनि अछि। व्याख्या कएनिहार एकरा दुइ तरहें लैत छथि। कियो कहैत छथि जे एतय दुर्योधन पाण्डवक सेनाकेँ पर्याप्त कहबाक तात्पर्य आंगूर पर गानय सँ लैत छथि, जखन कि अपन सेनाकेँ अनगिनती कहि रहला अछि। हमर विचार, एकटा डेरायल लोक सदिखन अपन कमजोरी टा देखैत छैक। अतः हम निष्कर्षक संग कहि सकैत छी जे दुर्योधन दुनू सेनाक तूलना करैत आचार्य द्रोणक समक्ष मनोभावना प्रकट कय रहला अछि। आर, हुनका स्पष्ट भाव मे अपन कमजोर अवस्था देखबैत रक्षाक भार सौंपि रहला अछि। डूबते को तिनके का सहारा – ई हिन्दी कहावत एतय प्रयोग करू तऽ बेजा नहि होयत। अन्तर्मनक भय लोक केँ भितरे-भितर खाइत रहैत छैक। दुर्योधन अपन मनोवृत्ति सँ परिचित अछि, आर अन्तिम परीक्षाक समय ओकरा मे वैह भितरका भय एहेन भाव स्वतः उगैल रहल छैक।
एकटा बात आर, सेनाक रक्षक – यानि अभिभावकत्व प्रदान कएनिहार। भीष्म पितामह कौरवी सेनाक अभिभावक छलाह। तहिना पाण्डवक सेनाक रक्षक यानि अभिभावक भीम केँ देखला। महाभारतक विभिन्न पूर्व प्रकरण एहि बात केँ देखबैत अछि जे भीम दुर्योधनक प्रबल शत्रु छलाह। आन भैयारी मे समझौता अहिंसा ओ वार्ता द्वारा करबाक इच्छा प्रबल छलन्हि, मुदा भीम बच्चे सँ दुर्योधन संग गदा-युद्ध मे प्रतियोगिता करैत अन्त मे द्रौपदी केँ वचन देने छलाह जे हुनकर खूजल केस दुर्योधनक रक्त सँ भिजबैत बान्हबाक प्रतिज्ञा ओ एक दिन जरुर पूरा करता।
आगू बढी! दुर्योधन उपरोक्त सब अवस्थाक वर्णन करैत आचार्य द्रोण केँ एकटा अन्तिम भार सौंपैत छथि जे आब अपने जतय-कतहु ठाढ रहब, मुदा भीष्म पितामहक रक्षा करैत रहू। एतय ब्राह्मण आचार्य पर कौरवसेनारक्षक भीष्म केर रक्षकक रूप मे हुनका पर ओ अन्तिम भार सौंपैत छथि।
टिप्पणीकार लोकनि एहि दुर्योधन-द्रोण वार्ता पर विभिन्न तरहें अपन विचार दैत छथि। सबहक विचार आ अपन मनोभावनाक संङोर सहित पूर्ण निर्णीत रूप मे हम कहि सकैत छी जे दुर्योधन खिन्न छथि। ओ केवल अपन पूर्व वृत्ति अहंकारी ओ अन्यायी होयबाक चलते। आइ अन्तिम परीक्षाक बेर छन्हि। आब युद्ध आरंभ होयत। तखन ओ आचार्यक शरण मे रक्षार्थ उपस्थित होइत छथि, मुदा शर्त अपनहि आगाँ रखैत छथि। आचार्य हुनकर बात सुनैत बहुत बेसी प्रभावित नहि होइत छथि, कारण ओ दूरदृष्टि सँ संपन्न आर पूर्वक प्रकरण सँ आहत सेहो छथि। लेकिन परिस्थितिवश ओ राजधर्मक निर्वाह करैत आइ राजा धृतराष्ट्र केर वंशजक संग – यानि राजा दुर्योधनक संग अपन नून खेबाक मूल्य अदा कय रहल छथि। तथापि, सत्यक विजय सदिखन होयबाक नीति सँ सुपरिचित आ दुर्योधनक कुटिल वचन सँ सेहो भलीभाँति परिचित आचार्य अप्रभावित रहि जाइत छथि। से देखि, अपन प्रपौत्रक मनोबल केँ उच्च करबाक निमित्त सँ पितामह भीष्म शंख फूकैत जोश भरैत छथिः
तस्य संजनयन्हर्ष कुरुवृद्ध पितामहः।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान्॥
ओ सिंह समान गर्जना करयवला ध्वनि संग शंख फूकैत युद्धघोषणा करैत छथि। एहि सिंह-गर्जना-शङ्खध्वनि सुनैत देरी संपूर्ण कौरवी सेना द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार भयावह ध्वनिक संग युद्धघोषणा निमित्त रणभेड़ी, ढोल, नगाड़ा, गोमुख, तुमुल आदिक स्वर समूचा आकाश मे गुंजायमान् भऽ जाएत अछि। टिप्पणीकार कहैत छथि, अहु विन्दुपर अग्रसरता कौरवे पक्ष द्वारा देखायल गेल।
तखन, माधव आर पाण्डव सेहो प्रति-उत्तर स्वरूप क्रमशः शङ्खघोष करैत छथि। सब कियो अपन-अपन विशिष्ट शङ्खध्वनि करैत छथि। हृषिकेश पाञ्चजन्य नामक, अर्जुन देवदत्त नामक, वृकोदर पौण्ड्र नामक, आदि भयानक स्वर सँ सोझाँवला केँ आक्रान्त करयवला शङ्खध्वनि सँ युद्धघोष करैत छथि। एहि सँ स्वाभाविके रूप मे कौरव सेनाक हृदय काँपि उठैत अछि।
तखनहि, अर्जुन एहि युद्ध लेल उद्यत् सेना केँ देखैत अपन कपिध्वज सहितक रथ पर सवार श्रीकृष्ण सारथिरूप मार्गदर्शक सँ कहय लगैत छथिः …… क्रमशः…….
हरिः हरः!!