कतेक भटकब?
(स्वाध्याय आलेख)
– प्रवीण नारायण चौधरी
खूब मोन लागत – खूब नाचब – गायब – मस्ती करब – ई करब – ओ करब आ नहि जानि कि-कि करब; मुदा अन्तर्मन सन्तुष्ट नहि भऽ पायत। कनेक काल लेल यदि एना बुझायत जे शान्ति भेटि रहल अछि आ कि फेर समय-अन्तराल में ई उद्विग्नताके प्राप्त करत आ फेर वैह भटकय लागत – छिछियाइत बेचैनी के प्राप्त करत। कारण कि?
सभ बात लेल एक प्रवृत्ति मात्र कहल गेल छैक – अपन मूलमें समाहित होयबाक लेल आतुरता। अन्तर्मन आत्मारूपी राजाकेर रथक घोड़ा होइछ। आत्मारूपी राजा एहि घोड़ाकेँ खूल्ला छूट तऽ दैछ मुदा समय-समय पर अपन मूल यात्रा अर्थात् अपन असल प्रवृत्ति जे मूल परमात्मामें समाहित होयबाक लेल छैक ताहिमें समाहित होयबाक लेल आवश्यक उपदेश भितरे-भीतर करैत छैक। तदोपरान्त सभटा घोड़ा केर जोश में शिथिलता अबैछ आ संसारी मायामें घुड़दौड़ सऽ विमूख होइत बेचैनी प्राप्त करैछ। एहने घड़ीक लेल तप-जप-उपवास-तीर्थ आदि अनेको भगवत्प्राप्तिक उपाय लेल शास्त्रीय सिद्धान्त बनाओल गेल अछि। आउ, एक सुप्रसिद्ध पुस्तक तत्त्व-चिन्तामणि जे श्री जयदयाल गोयन्दका जी द्वारा रचित अछि आ समस्त शास्त्रकेर सारतत्त्व एहिमें समाहित कैल गेल अछि तेकर स्वाध्याय केर किछु अंश अपने लोकनिसँ जहिनाक तहिना बाँटी।
भगवत्प्राप्ति केर विविध उपाय:
मनुष्य-जीवनकेर उद्देश्य भगवान् केर प्राप्ति करब होइछ। शास्त्र आ संत-महात्मा एहि लेल अनेकों उपाय कहलैथ अछि। अपन-अपन अधिकार आर रुचिक अनुसार कोनो शास्त्रोक्त उपायकेँ निष्काम भावसँ अर्थात् सांसारिक सुख-प्राप्तिक कामना छोड़ि मात्र भगवत्प्रीत्यर्थ कार्यमें लाबय सँ यथासमय मनुष्य भगवान्केँ पबैत अपन जन्म आ जीवनकेँ सार्थक कय सकैत छथि। भगवान् श्रीमनुजी महाराज धर्मकेर दस लक्षण बतौने छथि, एहि दस लक्षण केँ धारण करनिहार निष्काम आचरण करयवाला मनुष्य मायाक बन्धनसँ मुक्त भऽ के भगवान्केँ पाबि सकैत छथि –
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥मनु. ६ – ९२॥
अर्थात् –
धृति, क्षमा, शम, शौच, दम, विद्या, धी, अक्रोध।
सत्य, अचोरी धर्म दश, दैत अछि मनु बोध॥
एकर संक्षिप्त परिचय एहि प्रकार बुझबाक चाही –
१. धृति – कोनो प्रकारके संकट आबि गेला पर वा इच्छित वस्तुकेर प्राप्ति नहि भेलापर धैर्यकेँ नहि छोड़ब। जे धीरजकेँ धारण केने रहैछ, तेकरे धर्म बैच सकैत अछि आ वैह लौकिक आ पारलौकिक सफलता प्राप्त कय सकैत अछि।
२. क्षमा – अपना संग खराब वर्ताव करयवालाकेँ दण्ड देब-दियाबय केर भरपूर शक्ति रहलोपर ओकरा दण्ड देब-दिलायब केर भावनाकेँ मनमें सेहो नहि लाबि ओकर अपराधकेँ सहि लेब आ ओकर अपराध सदाक लेल मेट जाय, एहि लेल यथोचित चेष्टा करब तेकरा क्षमा कहल जाइछ।
३. दम – साधारणतः इन्द्रियनिग्रहकेँ दम कहल जाइछ, लेकिन एहि श्लोकमें इन्द्रियनिग्रह अलग कहल गेल छैक, एहिसँ एतय ‘दम’ शब्दसँ शमके अर्थात् मनकेर निग्रह सँ लेबाक चाही। मनकेर वशमें केने बिना भगवत्प्राप्ति प्रायः असम्भव होइछ। (गीता ६/३६)। भगवान् श्री कृष्ण कहैत छथि – अभ्यास आ वैराग्य सऽ मनके वशमें कैल जा सकैत अछि। गीता ६/३५।
४. अस्तेय – मन, वाणी, शरीर सँ कोनो प्रकारके चोरी नहि करब।
५. शौच – बाहर आ भीतरके शुद्धि – सत्यतापूर्वक शुद्ध व्यापार सँ द्रव्यके, तेकर अन्नसँ आहारके, यथायोग्य बर्तावसँ आचरणके आ जल, माइट आदिसँ कैल जायवाला शरीरके शुद्धिके बाहरक शुद्धि कहल जाइछ। राग-द्वेष, दम्भ-कपट तथा वैर-अभिमान आदि विकारके नाश भेलासँ अन्तःकरण स्वच्छ होइछ जेकर भीतरके शुद्धि कहल जाइछ।
६. इन्द्रियनिग्रह (दम) – इन्द्रियके ओकर विषय रूप, रस, गन्ध, शब्द, स्पर्शमें इच्छानुसार नहि जाय दैत अनिष्टकारी विषयसँ हँटाके राखब आ कल्याणकारी विषयमें लगायब।
७. धी (बुद्धि) – सात्त्विकी श्रेष्ठ बुद्धि जे सत्संग, सत्-शास्त्रके अध्ययन, भगवद्भजन आ आत्मविचारसँ उत्पन्न होइछ तथा जाहिसँ मन परमात्मामें लगैछ आ यथार्थ ज्ञान उत्पन्न होइछ।
८. विद्या – ओ आध्यात्मविद्या, जेकरा भगवान् अपन स्वरूप कहने छथि आ जे मनुष्यकेँ अविद्यासँ छोड़बैत परमात्माके परमपद भेटाबैछ।
९. सत्य – यथार्थ आ प्रिय भाषण। अन्तःकरण आ इन्द्रियसँ जेना निश्चय कैल गेल हो, तहिना प्रिय शब्दमें कहब एवं ई ध्यानमें राखब कि एहिसँ कोनो निर्दोष प्राणीकेँ नोकसान तऽ नहि हेतैक। सत्य वैह अछि, जे यथार्थ हो, प्रिय हो, कपटरहित हो आ केकरो अहित करयवाला नहि हो।
१०. अक्रोध – अपन खराब करयवाला के प्रति सेहो मनमें कोनो प्रकारके क्रोध व विकार नहि भेनै। अक्रोध आ क्षमामें यैह भेद छैक जे अक्रोध सँ तऽ कोनो क्रिया नहि होइछ, जे किछु होइछ, मनुष्य सभ सहि लैछ, मनमें विकार उत्पन्न नहि होवय दैछ, लेकिन एहिसँ हमरा सभक खराबी करयवाला के अपराध क्षमा नहि होइछ, ओकर फल ओकरा न्यायकारी ईश्वरके द्वारा लोक-परलोकमें अवश्य भेटैछ। क्षमामें ओकर अपराध सेहो क्षमा भऽ जाइछ।
उपरोक्त दसो बातकेँ शालीनतापूर्वक अपन जीवन-चर्यामें अभ्यास करैत रहब शायद कोनो प्राणीक लेल असंभव नहि छैक। एहिमें कोनो जाति-विशेष वा वर्ग-विशेष लेल कोनो बात कहल गेल हो सेहो नहि छैक। लेकिन अवश्य एहेन चर्या अपनेलासँ आ भगवान् केर सामीप्यता प्राप्त कयलासँ सांसारिक प्रतिष्ठा में यथेष्ट वृद्धि होयब अवश्यंभावी छैक। स्मरण रहय जे साधक लेल एहेन कोनो सांसारिक इच्छा एहि उपलब्धिकेर घोर दुश्मन होइछ।
(आलेखमें आरो बहुत उपायके चर्चा छैक – एहि लेल इच्छूक मुमुक्षुलेल हम स्वाध्यायके अनुशंसा बेर-बेर करब। ईश्वर सभके कल्याण करैथ।)
हरिः हरः!!