आध्यात्मिक चिन्तन: कलियुग परिचय
– महाकवि तुलसीदास
श्रीरामचरितमानस केर उत्तरकाण्ड मे उद्धृत श्रीकाकभुशुन्डिजी एवं पक्षीराज गरुड़जी बीच भऽ रहल संवाद सँ ‘कलियुग’ केर परिचय भेटैत अछि। वर्तमान युग केँ कलियुग कहल जाइत अछि। पूर्व मे कैल गेल एकर वर्णन आ वर्तमान समयक लोकव्यवहार केँ देखैत एना लगैत अछि जेना हमरा लोकनिक हिन्दू धर्मशास्त्र भविष्यवक्ताक नीक कार्य करैत अछि, एक-एक दृष्टान्त अक्षरश: मिलैत अछि। आउ, पढी आ गुनी: तुलसीदास रचित रामायण सँ लेल गेल चौपाई-दोहा-सोरठा-छंद आ ओकर हिन्दी भावार्थ जहिनाक तहिना लेल गेल अछि आर पुन: ओकर भावार्थ मैथिली मे देल गेल अछि।
दोहा :
प्रथम जन्म के चरित अब कहउँ सुनहु बिहगेस।
सुनि प्रभु पद रति उपजइ जातें मिटहिं कलेस॥96 क॥
सुनि प्रभु पद रति उपजइ जातें मिटहिं कलेस॥96 क॥
भावार्थ:- हे पक्षीराज! सुनिए, अब मैं अपने प्रथम जन्म के चरित्र कहता हूँ, जिन्हें सुनकर प्रभु के चरणों में प्रीति उत्पन्न होती है, जिससे सब क्लेश मिट जाते हैं॥96 (क)॥
श्रीकाकभुशुन्डिजी आब स्वयं केर स्वरूप कौआ होयबाक वृहत् वर्णन कय रहला अछि। जीवन-चक्रक शुरुआत यानि प्रथम जन्म केर चरित्र सुनबैत पक्षीराज गरुड़जी सँ कहय लगला: आब हम अपन प्रथम जन्म केर चरित्र कहैत छी, जेकरा सुनिकय प्रभुक चरण मे प्रीति उत्पन्न होयत, जाहि सँ सब क्लेश मेटि जायत।
पूरुब कल्प एक प्रभु जुग कलिजुग मल मूल।
नर अरु नारि अधर्म रत सकल निगम प्रतिकूल॥96 ख॥
नर अरु नारि अधर्म रत सकल निगम प्रतिकूल॥96 ख॥
भावार्थ:-हे प्रभो! पूर्व के एक कल्प में पापों का मूल युग कलियुग था, जिसमें पुरुष और स्त्री सभी अधर्मपारायण और वेद के विरोधी थे॥96 (ख)॥
पूर्वक एक युग कल्प मे पापक मूल युग कलियुग छल, जाहिमे पुरुष आर स्त्री सब अधर्मपरायण तथा वेद केर विरोधी छल। – वर्तमान समय केँ सेहो कलियुग केर पुनरावृत्ति कहल जाइछ। आजुक समय मे यैह लक्षण सुस्पष्ट अछि।
चौपाई :
तेहिं कलिजुग कोसलपुर जाई। जन्मत भयउँ सूद्र तनु पाई॥
सिव सेवक मन क्रम अरु बानी। आन देव निंदक अभिमानी॥1॥
सिव सेवक मन क्रम अरु बानी। आन देव निंदक अभिमानी॥1॥
भावार्थ:-उस कलियुग में मैं अयोध्यापुरी में जाकर शूद्र का शरीर पाकर जन्मा। मैं मन, वचन और कर्म से शिवजी का सेवक और दूसरे देवताओं की निंदा करने वाला अभिमानी था॥1॥
ओहि कलियुग मे हम अयोध्यापुरी मे जाय शूद्र केर शरीर पाबिकय जन्म लेलहुँ। हम मन, वचन आ कर्म सँ शिवजीक सेवक मुदा दोसर देवताक निंदा कएनिहार अभिमानी रही। – काकभुशुन्डिजी अपन जन्मक परिचय मे कहला।
धन मद मत्त परम बाचाला। उग्रबुद्धि उर दंभ बिसाला॥
जदपि रहेउँ रघुपति रजधानी। तदपि न कछु महिमा तब जानी॥2॥
जदपि रहेउँ रघुपति रजधानी। तदपि न कछु महिमा तब जानी॥2॥
भावार्थ:-मैं धन के मद से मतवाला, बहुत ही बकवादी और उग्रबुद्धि वाला था, मेरे हृदय में बड़ा भारी दंभ था। यद्यपि मैं श्री रघुनाथजी की राजधानी में रहता था, तथापि मैंने उस समय उसकी महिमा कुछ भी नहीं जानी॥2॥
धनक मद सँ मतवाला, बकवादी आ उग्रबुद्धिवाला – हमर हृदय मे भारी दंभ छल। श्रीरघुनाथजीकेर राजधानी अयोध्या मे रहितहु ओकर महिमा सँ पूर्ण अन्जान रही।
अब जाना मैं अवध प्रभावा। निगमागम पुरान अस गावा॥
कवनेहुँ जन्म अवध बस जोई। राम परायन सो परि होई॥3॥
कवनेहुँ जन्म अवध बस जोई। राम परायन सो परि होई॥3॥
भावार्थ:-अब मैंने अवध का प्रभाव जाना। वेद, शास्त्र और पुराणों ने ऐसा गाया है कि किसी भी जन्म में जो कोई भी अयोध्या में बस जाता है, वह अवश्य ही श्री रामजी के परायण हो जाएगा॥3॥
आब हम अवध केर प्रभाव बुझलहुँ। वेद, शास्त्र आ पुराण एना गेलक अछि जे कोनो जन्म मे यदि कियो अयोध्या मे बसि जाइत अछि तऽ ओ निश्चिते श्रीरामजीक परायण भऽ जाएत अछि।
अवध प्रभाव जान तब प्रानी। जब उर बसहिं रामु धनुपानी॥
सो कलिकाल कठिन उरगारी। पाप परायन सब नर नारी॥4॥
सो कलिकाल कठिन उरगारी। पाप परायन सब नर नारी॥4॥
भावार्थ:-अवध का प्रभाव जीव तभी जानता है, जब हाथ में धनुष धारण करने वाले श्री रामजी उसके हृदय में निवास करते हैं। हे गरुड़जी! वह कलिकाल बड़ा कठिन था। उसमें सभी नर-नारी पापपरायण (पापों में लिप्त) थे॥4॥
अवध केर प्रबाव जीव तखनहि जनैत अछि जखन हाथ मे धनुष धारण कएनिहार श्रीरामजी ओकर हृदय मे निवास करैथ। हे गरुड़जी! ओ कलिकाल बड कठिन छल। ओहि मे सब नर-नारी पापपरायण – पाप मे लिप्त छल।
दोहा :
कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ।
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ॥97 क॥
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ॥97 क॥
भावार्थ:-कलियुग के पापों ने सब धर्मों को ग्रस लिया, सद्ग्रंथ लुप्त हो गए, दम्भियों ने अपनी बुद्धि से कल्पना कर-करके बहुत से पंथ प्रकट कर दिए॥97 (क)॥
कलियुगक पाप तऽ सब धर्मकेँ ग्रास (भोजन) कय लेने छल, सद्ग्रंथ लुप्त भऽ गेल, दम्भी सब अपना-अपना बुद्धि सँ कल्पना करैत-करैत बहुते रास पंथ प्रकट कय देलक।
भए लोग सब मोहबस लोभ ग्रसे सुभ कर्म।
सुनु हरिजान ग्यान निधि कहउँ कछुक कलिधर्म॥97 ख॥
सुनु हरिजान ग्यान निधि कहउँ कछुक कलिधर्म॥97 ख॥
भावार्थ:-सभी लोग मोह के वश हो गए, शुभ कर्मों को लोभ ने हड़प लिया। हे ज्ञान के भंडार! हे श्री हरि के वाहन! सुनिए, अब मैं कलि के कुछ धर्म कहता हूँ॥97 (ख)॥
सब कियो मोहक अधीन भऽ गेल, शुभ कार्य केँ लोभ हड़ैप लेलक। हे ज्ञानक भंडार – श्रीहरिकेर वाहन! सुनू, आब हम कलि केर किछु धर्म कहैत छी।
चौपाई :
बरन धर्म नहिं आश्रम चारी। श्रुति बिरोध रत सब नर नारी।
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन। कोउ नहिं मान निगम अनुसासन॥1॥
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन। कोउ नहिं मान निगम अनुसासन॥1॥
भावार्थ:-कलियुग में न वर्णधर्म रहता है, न चारों आश्रम रहते हैं। सब पुरुष-स्त्री वेद के विरोध में लगे रहते हैं। ब्राह्मण वेदों के बेचने वाले और राजा प्रजा को खा डालने वाले होते हैं। वेद की आज्ञा कोई नहीं मानता॥1॥
कलियुग मे न वर्णधर्म रहैत अछि, न चारू आश्रम रहैत अछि। सब पुरुष-स्त्री वेद केर विरोध मे लागल रहैत अछि। ब्राह्मण वेद केँ बेचयवला आर राजा प्रजाकेँ खायवला होइत अछि। वेदक आज्ञा कियो नहि मानैत अछि।
मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा। पंडित सोइ जो गाल बजावा॥
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई। ता कहुँ संत कहइ सब कोई॥2॥
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई। ता कहुँ संत कहइ सब कोई॥2॥
भावार्थ:-जिसको जो अच्छा लग जाए, वही मार्ग है। जो डींग मारता है, वही पंडित है। जो मिथ्या आरंभ करता (आडंबर रचता) है और जो दंभ में रत है, उसी को सब कोई संत कहते हैं॥2॥
जेकरा जे नीक लागि गेल, वैह मार्ग भेल। जे डींग मारैत अछि, वैह पंडित अछि। जे मिथ्या आरंभ करैत अछि, आर जे दंभ मे डूबल अछि, ओकरे सब कियो संत कहैत अछि।
सोइ सयान जो परधन हारी। जो कर दंभ सो बड़ आचारी॥
जो कह झूँठ मसखरी जाना। कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना॥3॥
जो कह झूँठ मसखरी जाना। कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना॥3॥
भावार्थ:-जो (जिस किसी प्रकार से) दूसरे का धन हरण कर ले, वही बुद्धिमान है। जो दंभ करता है, वही बड़ा आचारी है। जो झूठ बोलता है और हँसी-दिल्लगी करना जानता है, कलियुग में वही गुणवान कहा जाता है॥3॥
जे जाहि तरहें दोसराक धन हरण कय लियऽ, वैह बुद्धिमान भेल। जे दंभ करैत अछि, वैह बड़का आचारी अछि। जे झूठ बजैत अछि आर हँसी-दिल्लगी करब जनैत अछि, कलियुग मे वैह गुणवान कहल जाइत अछि।
निराचार जो श्रुति पथ त्यागी। कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी॥
जाकें नख अरु जटा बिसाला। सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला॥4॥
जाकें नख अरु जटा बिसाला। सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला॥4॥
भावार्थ:-जो आचारहीन है और वेदमार्ग को छोड़े हुए है, कलियुग में वही ज्ञानी और वही वैराग्यवान् है। जिसके बड़े-बड़े नख और लंबी-लंबी जटाएँ हैं, वही कलियुग में प्रसिद्ध तपस्वी है॥4॥
जे आचारहीन आर वेदमार्ग केँ छोड़ि चुकल अछि, कलियुग मे वैह ज्ञानी और वैह वैराग्यवान् होइछ। जेकर बड़का-बड़का नह आ लंबा-लंबा जटा (केश) छैक, वैह कलियुग मे प्रसिद्ध तपस्वी अछि।
दोहा :
असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं॥98 क॥
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं॥98 क॥
भावार्थ:-जो अमंगल वेष और अमंगल भूषण धारण करते हैं और भक्ष्य-भक्ष्य (खाने योग्य और न खाने योग्य) सब कुछ खा लेते हैं वे ही योगी हैं, वे ही सिद्ध हैं और वे ही मनुष्य कलियुग में पूज्य हैं॥98 (क)॥
जे अमंगल वेष आर अमंगल भूषण धारण करैत अछि आर भक्ष्य-अभक्ष्य सब किछु खा लैत अछि वैह योगी अछि, वैह सिद्ध अछि आर वैह मनुष्य कलियुग मे पूज्य अछि।
सोरठा :
जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ।
मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ॥98 ख॥
मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ॥98 ख॥
(नोट: सोरठा केँ सदिखन पढबाक समय शब्द-युग्म केँ उन्टा सँ सुन्टा क्रम बनबैत पढी, जेना, वर्तमान सोरठा पढबाक लेल: तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ, जे अपकारी चार। तेइ बकता कलिकाल महुँ, मन क्रम बचन लबार॥)
भावार्थ:-जिनके आचरण दूसरों का अपकार (अहित) करने वाले हैं, उन्हीं का बड़ा गौरव होता है और वे ही सम्मान के योग्य होते हैं। जो मन, वचन और कर्म से लबार (झूठ बकने वाले) हैं, वे ही कलियुग में वक्ता माने जाते हैं॥98 (ख)॥
जिनक आचरण दोसराक अपकार (अहित) करयवला हो, हुनकहि बड़का गौरव होइत अछि आर वैह सम्मानक योग्य होइत छथि। जे मन, वचन आ कर्म सँ लब्बर (झूठ बाजयवला) हो, वैह कलियुग मे वक्ता मानल जाइत छथि।
चौपाई :
नारि बिबस नर सकल गोसाईं। नाचहिं नट मर्कट की नाईं॥
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना। मेल जनेऊ लेहिं कुदाना॥1॥
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना। मेल जनेऊ लेहिं कुदाना॥1॥
भावार्थ:-हे गोसाईं! सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वश में हैं और बाजीगर के बंदर की तरह (उनके नचाए) नाचते हैं। ब्राह्मणों को शूद्र ज्ञानोपदेश करते हैं और गले में जनेऊ डालकर कुत्सित दान लेते हैं॥1॥
हे गोसाईं! सब मनुष्य स्त्रीक विशेष वश मे रहैछ आर बाजीगर केर बंदर जेकाँ (ओकरा नचेने) नाचैत अछि। ब्राह्मण केँ शूद्र ज्ञानोपदेश करैत अछि आ गला मे जनेऊ पहिरिकय कुत्सित दान लैत अछि।
सब नर काम लोभ रत क्रोधी। देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी॥
गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी। भजहिं नारि पर पुरुष अभागी॥2॥
गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी। भजहिं नारि पर पुरुष अभागी॥2॥
भावार्थ:-सभी पुरुष काम और लोभ में तत्पर और क्रोधी होते हैं। देवता, ब्राह्मण, वेद और संतों के विरोधी होते हैं। अभागिनी स्त्रियाँ गुणों के धाम सुंदर पति को छोड़कर पर पुरुष का सेवन करती हैं॥2॥
सब पुरुष काम आर लोभ मे तत्पर तथा क्रोधी होइत अछि। देवता, ब्राह्मण, वेद आ संतक विरोधी होइत अछि। अभागिनी स्त्री गुणक धाम सुंदर पतिकेँ छोड़िकय पर-पुरुष केर सेवन करैत अछि।
सौभागिनीं बिभूषन हीना। बिधवन्ह के सिंगार नबीना॥
गुर सिष बधिर अंध का लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा॥3॥
गुर सिष बधिर अंध का लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा॥3॥
भावार्थ:-सुहागिनी स्त्रियाँ तो आभूषणों से रहित होती हैं, पर विधवाओं के नित्य नए श्रृंगार होते हैं। शिष्य और गुरु में बहरे और अंधे का सा हिसाब होता है। एक (शिष्य) गुरु के उपदेश को सुनता नहीं, एक (गुरु) देखता नहीं (उसे ज्ञानदृष्टि) प्राप्त नहीं है)॥3॥
सुहागिन स्त्री तऽ आभूषण सँ रहित होइत अछि, मुदा विधवा सब नित्य नव श्रृंगार करैत अछि। शिष्य आ गुरु मे बहिर आ आन्हर जेकाँ हिसाब रहैत अछि। एक (शिष्य) गुरुक उपदेश केँ सुनैत नहि अछि, दोसर (गुरु) देखैत नहि अछि जे (ओकरा ज्ञानदृष्टि) नहि भेटि सकलैक।
हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुर घोर नरक महुँ परई॥
मातु पिता बालकन्हि बोलावहिं। उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं॥4॥
मातु पिता बालकन्हि बोलावहिं। उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं॥4॥
भावार्थ:-जो गुरु शिष्य का धन हरण करता है, पर शोक नहीं हरण करता, वह घोर नरक में पड़ता है। माता-पिता बालकों को बुलाकर वही धर्म सिखलाते हैं, जिससे पेट भरे॥4॥
जे गुरु शिष्यक धन हरण करैत अछि, मुदा शोक नहि हरैत अछि, ओ घोर नरक मे पड़ैत अछि। माता-पिता बालक केँ बजाकय वैह धर्म सिखबैत अछि, जाहि सँ पेट भरय।
दोहा :
ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात।
कौड़ी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात॥99 क॥
कौड़ी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात॥99 क॥
भावार्थ:-स्त्री-पुरुष ब्रह्मज्ञान के सिवा दूसरी बात नहीं करते, पर वे लोभवश कौड़ियों (बहुत थोड़े लाभ) के लिए ब्राह्मण और गुरु की हत्या कर डालते हैं॥99 (क)॥
स्त्री-पुरुष ब्रह्मज्ञान केर सिवाए दोसर बातो नहि करैत अछि। मुदा ओ लोभवश कौड़ीक भाव मे ब्राह्मण आ गुरुक हत्या कय दैत अछि।
बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि।
जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि॥99 ख॥
जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि॥99 ख॥
भावार्थ:-शूद्र ब्राह्मणों से विवाद करते हैं (और कहते हैं) कि हम क्या तुमसे कुछ कम हैं? जो ब्रह्म को जानता है वही श्रेष्ठ ब्राह्मण है। (ऐसा कहकर) वे उन्हें डाँटकर आँखें दिखलाते हैं॥99 (ख)॥
शूद्र ब्राह्मण सँ विवाद करैत अछि (और कहैत अछि) जे हम कि तोरा सँ किछु कम छी? जे ब्रह्म केँ जानैत अछि वैह श्रेष्ठ ब्राह्मण भेल। (एना कहिकय) ओ ओकरा डाँटैत आर आँखि देखबैत अछि।
चौपाई :
पर त्रिय लंपट कपट सयाने। मोह द्रोह ममता लपटाने॥
तेइ अभेदबादी ग्यानी नर। देखा मैं चरित्र कलिजुग कर॥1॥
तेइ अभेदबादी ग्यानी नर। देखा मैं चरित्र कलिजुग कर॥1॥
भावार्थ:-जो पराई स्त्री में आसक्त, कपट करने में चतुर और मोह, द्रोह और ममता में लिपटे हुए हैं, वे ही मनुष्य अभेदवादी (ब्रह्म और जीव को एक बताने वाले) ज्ञानी हैं। मैंने उस कलियुग का यह चरित्र देखा॥1॥
जे पर-स्त्री मे आसक्त, कपट करबा मे चतुर आर मोह, द्रोह तथा ममता मे लिपटल रहैत अछि, वैह मनुष्य अभेदवादी (ब्रह्म आ जीव केँ एक बतेनिहार) ज्ञानी होइछ। हम ओहि कलियुग केर एहेन चरित्र देखलहुँ।
आपु गए अरु तिन्हहू घालहिं। जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं॥
कल्प कल्प भरि एक एक नरका। परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका॥2॥
कल्प कल्प भरि एक एक नरका। परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका॥2॥
भावार्थ:-वे स्वयं तो नष्ट हुए ही रहते हैं, जो कहीं सन्मार्ग का प्रतिपालन करते हैं, उनको भी वे नष्ट कर देते हैं। जो तर्क करके वेद की निंदा करते हैं, वे लोग कल्प-कल्पभर एक-एक नरक में पड़े रहते हैं॥2॥
ओ स्वयं तऽ नष्ट भेले रहैत अछि, जे कतहु सन्मार्ग केर प्रतिपालन करैत अछि, ओकरो ओ नष्ट कय दैत अछि। जे तर्क करैत वेदक निंदा करैत अछि, ओ लोक कल्प-कल्पधरि एक-एक नरक मे पड़ल रहैत अछि।
जे बरनाधम तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवारा।
पनारि मुई गृह संपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी॥3॥
पनारि मुई गृह संपति नासी। मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी॥3॥
भावार्थ:-तेली, कुम्हार, चाण्डाल, भील, कोल और कलवार आदि जो वर्ण में नीचे हैं, स्त्री के मरने पर अथवा घर की संपत्ति नष्ट हो जाने पर सिर मुँड़ाकर संन्यासी हो जाते हैं॥3॥
तेली, कुम्हार, चाण्डाल, भील, कोल आ कलवार आदि जे वर्ण मे नीच होइछ, स्त्रीक मरलाक बाद अथवा घरक संपत्ति नष्ट भऽ गेला पर केश कटाकय संन्यासी भऽ जाएत अछि।
ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं। उभय लोक निज हाथ नसावहिं॥
बिप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचार सठ बृषली स्वामी॥4॥
बिप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचार सठ बृषली स्वामी॥4॥
भावार्थ:-वे अपने को ब्राह्मणों से पुजवाते हैं और अपने ही हाथों दोनों लोक नष्ट करते हैं। ब्राह्मण अपढ़, लोभी, कामी, आचारहीन, मूर्ख और नीची जाति की व्यभिचारिणी स्त्रियों के स्वामी होते हैं॥4॥
ओ अपना केँ ब्राह्मण सँ पूजबाबैत अछि आर अपनहि हाथों दुनू लोक नष्ट करैत अछि। ब्राह्मण अपढ, लोभी, कामी, आचारहीन, मूर्ख आर नीच जातिक व्यभिचारिणी स्त्रीक स्वामी होइत अछि।
सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना। बैठि बरासन कहहिं पुराना॥
सब नर कल्पित करहिं अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा॥5॥।
सब नर कल्पित करहिं अचारा। जाइ न बरनि अनीति अपारा॥5॥।
भावार्थ:-शूद्र नाना प्रकार के जप, तप और व्रत करते हैं तथा ऊँचे आसन (व्यास गद्दी) पर बैठकर पुराण कहते हैं। सब मनुष्य मनमाना आचरण करते हैं। अपार अनीति का वर्णन नहीं किया जा सकता॥5॥
शूद्र नाना प्रकारक जप, तप आ व्रत करैत अछि तथा ऊँच आसन (व्यास गद्दी) पर बैसिकय पुराण कहैत अछि। सब मनुष्य मनमाना आचरण करैत अछि। अपार अनीति केर वर्णन नहि कैल जा सकैत अछि।
दोहा :
भए बरन संकर कलि भिन्नसेतु सब लोग।
करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग॥100 क॥
करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग॥100 क॥
भावार्थ:-कलियुग में सब लोग वर्णसंकर और मर्यादा से च्युत हो गए। वे पाप करते हैं और (उनके फलस्वरूप) दुःख, भय, रोग, शोक और (प्रिय वस्तु का) वियोग पाते हैं॥100 (क)॥
कलियुग मे सब लोक वर्णसंकर आर मर्यादा सँ च्युत भऽ गेल। ओ पाप करैत अछि (जेकर परिणामस्वरूप) दु:ख, भय, रोग, शोक आ (प्रिय वस्तुक) वियोग पबैत अछि।
श्रुति संमत हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक।
तेहिं न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक॥100 ख॥
तेहिं न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक॥100 ख॥
भावार्थ:-वेद सम्मत तथा वैराग्य और ज्ञान से युक्त जो हरिभक्ति का मार्ग है, मोहवश मनुष्य उस पर नहीं चलते और अनेकों नए-नए पंथों की कल्पना करते हैं॥100 (ख)॥
वेद सम्मत आ वैराग्य एवं ज्ञान सँ युक्त जे हरिभक्तिक मार्ग अछि, मोहवश मनुष्य ओहि पर नहि चलैत अछि आर अनेको नव-नव पंथक कल्पना करैत अछि।
छंद :
बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती॥
तपसी धनवंत दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही॥1॥
तपसी धनवंत दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही॥1॥
भावार्थ:-संन्यासी बहुत धन लगाकर घर सजाते हैं। उनमें वैराग्य नहीं रहा, उसे विषयों ने हर लिया। तपस्वी धनवान हो गए और गृहस्थ दरिद्र। हे तात! कलियुग की लीला कुछ कही नहीं जाती॥1॥
संन्यासीवर्ग बहुते धन खर्च करैत घर सजबैत छथि। हुनका सबमे वैराग्य नहि रहल, हुनका विषय सब हरण कय लेलक। तपस्वी धनवान भऽ गेला आ गृहस्थ दरिद्र। हे तात! कलियुग केर लीला किछु कहल नहि जाइत अछि।
कुलवंति निकारहिं नारि सती। गृह आनहिं चेरि निबेरि गती॥
सुत मानहिं मातु पिता तब लौं। अबलानन दीख नहीं जब लौं॥2॥
सुत मानहिं मातु पिता तब लौं। अबलानन दीख नहीं जब लौं॥2॥
भावार्थ:-कुलवती और सती स्त्री को पुरुष घर से निकाल देते हैं और अच्छी चाल को छोड़कर घर में दासी को ला रखते हैं। पुत्र अपने माता-पिता को तभी तक मानते हैं, जब तक स्त्री का मुँह नहीं दिखाई पड़ता॥2॥
कुलवती आ सती स्त्री केँ पुरुष घर सँ निकालि दैत अछि आर नीक चालि छोड़िकय घर मे दासी केँ आनि रखैत अछि। पुत्र अपन माता-पिता केँ ताबहि तक मानैत अछि, जाबत धरि स्त्रीक मुँह नहि देखने हो।
ससुरारि पिआरि लगी जब तें। रिपुरूप कुटुंब भए तब तें॥
नृप पाप परायन धर्म नहीं। करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं॥3॥
नृप पाप परायन धर्म नहीं। करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं॥3॥
भावार्थ:-जब से ससुराल प्यारी लगने लगी, तब से कुटुम्बी शत्रु रूप हो गए। राजा लोग पाप परायण हो गए, उनमें धर्म नहीं रहा। वे प्रजा को नित्य ही (बिना अपराध) दंड देकर उसकी विडंबना (दुर्दशा) किया करते हैं॥3॥
जहिया सँ सासूर नीक लागल लागल, तहिया सँ कुटुम्बी शत्रु रूप भऽ गेल। राजा सब पाप परायण भऽ गेल, हुनका मे धर्म नहि रहल। ओ प्रजा केँ नित्यहि (बिन अपराधहु) दंड दैत ओकर दुर्दशा कैल करैत छथि।
धनवंत कुलीन मलीन अपी। द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी॥
नहिं मान पुरान न बेदहि जो। हरि सेवक संत सही कलि सो॥4॥
नहिं मान पुरान न बेदहि जो। हरि सेवक संत सही कलि सो॥4॥
भावार्थ:-धनी लोग मलिन (नीच जाति के) होने पर भी कुलीन माने जाते हैं। द्विज का चिह्न जनेऊ मात्र रह गया और नंगे बदन रहना तपस्वी का। जो वेदों और पुराणों को नहीं मानते, कलियुग में वे ही हरिभक्त और सच्चे संत कहलाते हैं॥4॥
धनी-मनी मलिन (नीच जातिक) भेलो पर कुलीन मानल जाइत अछि। द्विज केर चिह्न जनेऊ टा रहि गेल आ उघारे देह रहब तपस्वीक। जे वेद आ पुराण केँ नहि मानैछ, कलियुग मे वैह हरिभक्त आ सच्चा संत कहाइत अछि।
कबि बृंद उदार दुनी न सुनी। गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी॥
कलि बारहिं बार दुकाल परै। बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै॥5॥
कलि बारहिं बार दुकाल परै। बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै॥5॥
भावार्थ:-कवियों के तो झुंड हो गए, पर दुनिया में उदार (कवियों का आश्रयदाता) सुनाई नहीं पड़ता। गुण में दोष लगाने वाले बहुत हैं, पर गुणी कोई भी नहीं। कलियुग में बार-बार अकाल पड़ते हैं। अन्न के बिना सब लोग दुःखी होकर मरते हैं॥5॥
कवि सबहक तऽ झुंड बनि गेल, मुदा दुनिया मे उदार (कवि लोकनिक आश्रयदाता) सुनाइयो नहि पड़ैत अछि। गुण मे दोष लगेनिहार बहुतो अछि, मुदा गुणी कियो नहि अछि। कलियुग मे बेर-बेर अकाल पड़ैत अछि। अन्न बिना सब लोक दु:खी भऽ मरैत अछि।
दोहा :
सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाषंड।
मान मोह मारादि मद ब्यापि रहे ब्रह्मंड॥101 क॥
मान मोह मारादि मद ब्यापि रहे ब्रह्मंड॥101 क॥
भावार्थ:-हे पक्षीराज गरुड़जी! सुनिए कलियुग में कपट, हठ (दुराग्रह), दम्भ, द्वेष, पाखंड, मान, मोह और काम आदि (अर्थात् काम, क्रोध और लोभ) और मद ब्रह्माण्डभर में व्याप्त हो गए (छा गए)॥101 (क)॥
हे पक्षीराज गरुड़जी! सुनू! कलियुत मे कपट, हठ (दुराग्रह), दम्भ, द्वेष, पाखंड, मान, मोह आ काम आदि (अर्थात् काम, क्रोध आ लोभ) आर मद ब्रह्माण्ड भरि मे व्याप्त भऽ गेल अछि।
तामस धर्म करिहिं नर जप तप ब्रत मख दान।
देव न बरषहिं धरनी बए न जामहिं धान॥101 ख॥
देव न बरषहिं धरनी बए न जामहिं धान॥101 ख॥
भावार्थ:-मनुष्य जप, तप, यज्ञ, व्रत और दान आदि धर्म तामसी भाव से करने लगे। देवता (इंद्र) पृथ्वी पर जल नहीं बरसाते और बोया हुआ अन्न उगता नहीं॥101 (ख)॥
मनुष्य जप, तप, यज्ञ, व्रत आ दान आदि धर्म तामसी भाव सँ करय लागल। देवता (इंद्र) पृथ्वी पर जल नहि बरसाबैत छथि आ रोपल गेल बिया उगितो नहि अछि।
छंद :
अबला कच भूषन भूरि छुधा। धनहीन दुखी ममता बहुधा॥
सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता। मति थोरि कठोरि न कोमलता॥1॥
सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता। मति थोरि कठोरि न कोमलता॥1॥
भावार्थ:-स्त्रियों के बाल ही भूषण हैं (उनके शरीर पर कोई आभूषण नहीं रह गया) और उनको भूख बहुत लगती है (अर्थात् वे सदा अतृप्त ही रहती हैं)। वे धनहीन और बहुत प्रकार की ममता होने के कारण दुःखी रहती हैं। वे मूर्ख सुख चाहती हैं, पर धर्म में उनका प्रेम नहीं है। बुद्धि थोड़ी है और कठोर है, उनमें कोमलता नहीं है॥1॥
स्त्रीगणक केश ओकर भूषण थीक (अर्थात् स्त्रीगणक शरीर पर कोनो आभूषण नहि रहि गेल) आर हुनका सबकेँ भूख खूब लगैत अछि (यानि ओ सब सदिखन अतृप्त रहैत छथि)। ओ धनहीन आर बहुतो प्रकारक ममता होयबाक कारणें दु:खी रहैत छथि। ओ मूर्ख सुख चाहैत छथि, मुदा धर्म मे हुनका प्रेम नहि छन्हि। बुद्धि कनिके आ कठोर छन्हि, कोमलता हुनका मे नहि छन्हि।
नर पीड़ित रोग न भोग कहीं। अभिमान बिरोध अकारनहीं॥
लघु जीवन संबदु पंच दसा। कलपांत न नास गुमानु असा॥2॥
लघु जीवन संबदु पंच दसा। कलपांत न नास गुमानु असा॥2॥
भावार्थ:-मनुष्य रोगों से पीड़ित हैं, भोग (सुख) कहीं नहीं है। बिना ही कारण अभिमान और विरोध करते हैं। दस-पाँच वर्ष का थोड़ा सा जीवन है, परंतु घमंड ऐसा है मानो कल्पांत (प्रलय) होने पर भी उनका नाश नहीं होगा॥2॥
मनुष्य रोग सँ पीड़ित अछि, भोग (सुख) कतहु नहि अछि। बिन कारणे अभिमान आ विरोध करैत अछि। दस-पाँच वर्षक कनि टा जीवन अछि, मुदा घमंड एहेन मानू कल्पांत (प्रलय) भेलो पर हुनकर नाश नहि होयत।
कलिकाल बिहाल किए मनुजा। नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा॥
नहिं तोष बिचार न सीतलता। सब जाति कुजाति भए मगता॥3॥
नहिं तोष बिचार न सीतलता। सब जाति कुजाति भए मगता॥3॥
भावार्थ:-कलिकाल ने मनुष्य को बेहाल (अस्त-व्यस्त) कर डाला। कोई बहिन-बेटी का भी विचार नहीं करता। (लोगों में) न संतोष है, न विवेक है और न शीतलता है। जाति, कुजाति सभी लोग भीख माँगने वाले हो गए॥3॥
कलिकाल तऽ मनुख केँ बेहाल (अस्त-व्यस्त) कय देलक। कियो बहिन-बेटी तक केर विचार नहि करैत अछि। लोक मे न संतोष छैक, न विवेक छैक आर नहिये शीतलता छैक। जाति, कुजाति सब लोक भीख माँगनिहार भऽ गेल।
इरिषा परुषाच्छर लोलुपता। भरि पूरि रही समता बिगता॥
सब लोग बियोग बिसोक हए। बरनाश्रम धर्म अचार गए॥4॥
सब लोग बियोग बिसोक हए। बरनाश्रम धर्म अचार गए॥4॥
भावार्थ:-ईर्षा (डाह), कडुवे वचन और लालच भरपूर हो रहे हैं, समता चली गई। सब लोग वियोग और विशेष शोक से मरे पड़े हैं। वर्णाश्रम धर्म के आचरण नष्ट हो गए॥4॥
ईर्षा (डाह), कड़ू वचन आ लालच भरपूर भऽ रहल अछि, समता चलि गेल। सब लोक वियोग आ विशेष शोक सँ मरल पड़ल अछि। वर्णाश्रम धर्मक आचरण नष्ट भऽ गेल।
दम दान दया नहिं जानपनी। जड़ता परबंचनताति घनी॥
तनु पोषक नारि नरा सगरे। परनिंदक जे जग मो बगरे॥5॥
तनु पोषक नारि नरा सगरे। परनिंदक जे जग मो बगरे॥5॥
भावार्थ:-इंद्रियों का दमन, दान, दया और समझदारी किसी में नहीं रही। मूर्खता और दूसरों को ठगना, यह बहुत अधिक बढ़ गया। स्त्री-पुरुष सभी शरीर के ही पालन-पोषण में लगे रहते हैं। जो पराई निंदा करने वाले हैं, जगत् में वे ही फैले हैं॥5॥
इंद्रिय केर दमन, दान, दया आ समझदारी केकरहु मे नहि रहल। मूर्खता आ दोसर केँ ठगनाय, यैह बहुत अधिक बढि गेल। स्त्री-पुरुष सब कियो शरीरहि केर पालन-पोषण मे लागल रहैत अछि। जे पर-निंदा करनिहार अछि, वैह सौंसे पसरल अछि।
दोहा :
सुनु ब्यालारि काल कलि मल अवगुन आगार।
गुनउ बहुत कलिजुग कर बिनु प्रयास निस्तार॥102 क॥
गुनउ बहुत कलिजुग कर बिनु प्रयास निस्तार॥102 क॥
भावार्थ:-हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! सुनिए, कलिकाल पाप और अवगुणों का घर है, किंतु कलियुग में एक गुण भी बड़ा है कि उसमें बिना ही परिश्रम भवबंधन से छुटकारा मिल जाता है॥102 (क)॥
हे सर्प केर शत्रु गरुड़जी! सुनू! कलिकाल पाप आर अवगुण केर घर थीक, मुदा कलियुग मे एकटा गुण सेहो बड़ पैघ अछि जाहि मे बिना कोनो परिश्रम भवबंधन सँ छुटकारा भेट जाइत अछि।
कृतजुग त्रेताँ द्वापर पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग॥102 ख॥
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग॥102 ख॥
भावार्थ:-सत्ययुग, त्रेता और द्वापर में जो गति पूजा, यज्ञ और योग से प्राप्त होती है, वही गति कलियुग में लोग केवल भगवान् के नाम से पा जाते हैं॥102 (ख)॥
सत्ययुग, त्रेता आ द्वापर मे जे गति पूजा, यज्ञ आर योग सँ भेटैत अछि, वैह गति कलियुग मे लोक केवल भगवान् केर नाम सँ पाबि जाइत अछि।
चौपाई :
कृतजुग सब जोगी बिग्यानी। करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी॥
त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं। प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं॥1॥
त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं। प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं॥1॥
भावार्थ:-सत्ययुग में सब योगी और विज्ञानी होते हैं। हरि का ध्यान करके सब प्राणी भवसागर से तर जाते हैं। त्रेता में मनुष्य अनेक प्रकार के यज्ञ करते हैं और सब कर्मों को प्रभु को समर्पण करके भवसागर से पार हो जाते हैं॥1॥
सत्ययुग मे सब योगी आ विज्ञानी होइत अछि। हरि केर ध्यान करैत सब प्राणी भवसागर सँ तैर जाइत अछि। त्रेता मे मनुष्य अनेक प्रकारक यज्ञ करैत अछि आर सब कर्म केँ प्रभु केँ समर्पण करैत भवसागर सँ पार पाबि जाइत अछि।
द्वापर करि रघुपति पद पूजा। नर भव तरहिं उपाय न दूजा॥
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा॥2॥
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा। गावत नर पावहिं भव थाहा॥2॥
भावार्थ:-द्वापर में श्री रघुनाथजी के चरणों की पूजा करके मनुष्य संसार से तर जाते हैं, दूसरा कोई उपाय नहीं है और कलियुग में तो केवल श्री हरि की गुणगाथाओं का गान करने से ही मनुष्य भवसागर की थाह पा जाते हैं॥2॥
द्वापर मे श्री रघुनाथ जी केर चरणक पूजा करैत मनुष्य संसार सँ तैर जाइत अछि, दोसर कोनो उपाय नहि अछि। कलियुग मे तऽ मात्र श्री हरि केर गुणगाथा केर गान कएला सँ मनुष्य भवसागर केर थाह पाबि जाइत अछि।
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना॥
सब भरोस तजि जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि॥3॥
सब भरोस तजि जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि॥3॥
भावार्थ:-कलियुग में न तो योग और यज्ञ है और न ज्ञान ही है। श्री रामजी का गुणगान ही एकमात्र आधार है। अतएव सारे भरोसे त्यागकर जो श्री रामजी को भजता है और प्रेमसहित उनके गुणसमूहों को गाता है,॥3॥
कलियुग मे नहि तऽ योग वा यज्ञ अछि, नहिये ज्ञान अछि। श्री रामजी केर गुणगान टा एकमात्र आधार अछि। अतएव सब भरोसा केँ त्यागिकय जे श्री रामजी केँ भजैत अछि आर प्रेमसहित हुनकर गुणसमूह केँ गबैत अछि,
सोइ भव तर कछु संसय नाहीं। नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं॥
कलि कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहिं पापा॥4॥
कलि कर एक पुनीत प्रतापा। मानस पुन्य होहिं नहिं पापा॥4॥
भावार्थ:-वही भवसागर से तर जाता है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं। नाम का प्रताप कलियुग में प्रत्यक्ष है। कलियुग का एक पवित्र प्रताप (महिमा) है कि मानसिक पुण्य तो होते हैं, पर (मानसिक) पाप नहीं होते॥4॥
वैह भवसागर सँ तरैत अछि, एहि मे किछुओ संदेह नहि। नामक प्रताप कलियुग मे प्रत्यक्ष अछि। कलियुग केर एक पवित्र प्रताप (महिमा) अछि जे मानसिक पुण्य तऽ होइते अछि, मुदा (मानसिक) पाप नहि होइछ।
दोहा :
कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास॥103 क॥
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास॥103 क॥
भावार्थ:-यदि मनुष्य विश्वास करे, तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है, (क्योंकि) इस युग में श्री रामजी के निर्मल गुणसमूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार (रूपी समुद्र) से तर जाता है॥103 (क)॥
जँ मनुष्य विश्वास करय, तऽ कलियुग केर समान दोसर युग नहि अछि, (कियैक तऽ) एहि युग मे श्री रामजी केर निर्मल गुणसमूह केँ गाबि-गाबिकय मनुष्य बिना परिश्रम संसार (रूपी समुद्र) सँ टपि जाइत अछि।
प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुँ एक प्रधान।
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान॥103 ख॥
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान॥103 ख॥
भावार्थ:-धर्म के चार चरण (सत्य, दया, तप और दान) प्रसिद्ध हैं, जिनमें से कलि में एक (दान रूपी) चरण ही प्रधान है। जिस किसी प्रकार से भी दिए जाने पर दान कल्याण ही करता है॥103 (ख)॥
धर्मक चारि चरण (सत्य, दया, तप आर दान) प्रसिद्ध अछि, जाहिमे सँ कलि मे एक (दानरूपी) चरण टा प्रधान अछि। जाहि कोनो प्रकार सँ दान देला पर कल्याण होइते टा अछि।
चौपाई :
नित जुग धर्म होहिं सब केरे। हृदयँ राम माया के प्रेरे॥
सुद्ध सत्व समता बिग्याना। कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना॥1॥
सुद्ध सत्व समता बिग्याना। कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना॥1॥
भावार्थ:-श्री रामजी की माया से प्रेरित होकर सबके हृदयों में सभी युगों के धर्म नित्य होते रहते हैं। शुद्ध सत्त्वगुण, समता, विज्ञान और मन का प्रसन्न होना, इसे सत्ययुग का प्रभाव जानें॥1॥
श्री रामजी केर माया सँ प्रेरित भऽ कय सबहक हृदय मे सब युगक धर्म नित्य होइत रहैत अछि। शुद्ध सत्त्वगुण, समता, विज्ञान आर मन केर प्रसन्न होयब, एकरा सत्ययुग केर प्रभाव जानू।
सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा। सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा॥
बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस। द्वापर धर्म हरष भय मानस॥2॥
बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस। द्वापर धर्म हरष भय मानस॥2॥
भावार्थ:-सत्त्वगुण अधिक हो, कुछ रजोगुण हो, कर्मों में प्रीति हो, सब प्रकार से सुख हो, यह त्रेता का धर्म है। रजोगुण बहुत हो, सत्त्वगुण बहुत ही थोड़ा हो, कुछ तमोगुण हो, मन में हर्ष और भय हो, यह द्वापर का धर्म है॥2॥
सत्त्वगुण बेसी हो, किछु रजोगुण हो, कर्म मे प्रीति हो, सब तरह सँ सुख हो, ई त्रेताक धर्म थीक। रजोगुण बहुत हो, सत्त्वगुण बहुतहि कम हो, किछु तमोगुण हो, मन मे हर्ष आ भय हो, ई द्वापर केर धर्म थीक।
तामस बहुत रजोगुन थोरा। कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा॥
बुध जुग धर्म जानि मन माहीं। तजि अधर्म रति धर्म कराहीं॥3॥
बुध जुग धर्म जानि मन माहीं। तजि अधर्म रति धर्म कराहीं॥3॥
भावार्थ:-तमोगुण बहुत हो, रजोगुण थोड़ा हो, चारों ओर वैर-विरोध हो, यह कलियुग का प्रभाव है। पंडित लोग युगों के धर्म को मन में ज्ञान (पहचान) कर, अधर्म छोड़कर धर्म में प्रीति करते हैं॥3॥
तमोगुण बहुते हो, रजोगुण थोड़ेक हो, चारू कात वैर-विरोध हो, ई कलियुग केर प्रभाव थीक। पंडित लोक युग केर धर्म केँ मन मे ज्ञान (पहिचान) करैत, अधर्म छोड़िकय धर्म मे प्रीति करैत छथि।
काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही। रघुपति चरन प्रीति अति जाही॥
नट कृत बिकट कपट खगराया। नट सेवकहि न ब्यापइ माया॥4॥
नट कृत बिकट कपट खगराया। नट सेवकहि न ब्यापइ माया॥4॥
भावार्थ:-जिसका श्री रघुनाथजी के चरणों में अत्यंत प्रेम है, उसको कालधर्म (युगधर्म) नहीं व्यापते। हे पक्षीराज! नट (बाजीगर) का किया हुआ कपट चरित्र (इंद्रजाल) देखने वालों के लिए बड़ा विकट (दुर्गम) होता है, पर नट के सेवक (जंभूरे) को उसकी माया नहीं व्यापती॥4॥
जिनकर श्री रघुनाथजी केर चरण मे अत्यंत प्रेम अछि, हुनका कालधर्म (युगधर्म) नहि व्यापैत अछि। हे पक्षीराज! नट (बाजीगर) केर कैल गेल कपट चरित्र (इंद्रजाल) देखनिहार के वास्ते बड़ा विकट (दुर्गम) होइछ, मुदा नट केर सेवक (जंभूरा) केँ ओकर माया नहि व्यापैत अछि।
दोहा :
हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं॥104 क॥
भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं॥104 क॥
भावार्थ:-श्री हरि की माया के द्वारा रचे हुए दोष और गुण श्री हरि के भजन बिना नहीं जाते। मन में ऐसा विचार कर, सब कामनाओं को छोड़कर (निष्काम भाव से) श्री रामजी का भजन करना चाहिए॥104 (क)॥
श्री हरि केर माया द्वारा रचल गेल दोष आर गुण श्री हरि केर भजन बिना नहि जाइछ। मन मे एना विचार कय, सब कामना आदि केँ छोड़िकय (निष्काम भावसँ) श्री रामजी केर भजन करबाक चाही।
तेहिं कलिकाल बरष बहु बसेउँ अवध बिहगेस।
परेउ दुकाल बिपति बस तब मैं गयउँ बिदेस॥104 ख॥
परेउ दुकाल बिपति बस तब मैं गयउँ बिदेस॥104 ख॥
भावार्थ:-हे पक्षीराज! उस कलिकाल में मैं बहुत वर्षों तक अयोध्या में रहा। एक बार वहाँ अकाल पड़ा, तब मैं विपत्ति का मारा विदेश चला गया॥104 (ख)॥
हे पक्षीराज! ओहि कलिकाल मे हम बहुतो वर्ष धरि अयोध्या मे रहलहुँ। एक बेर ओतय अकाल पड़ि गेल, तखन हम विपत्तिक मारल विदेश चलि गेलहुँ।
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