स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण
बालकाण्ड – पाँचम अध्याय
राम आ लक्ष्मण केर मिथिला-प्रस्थानः अहिल्योद्धार
अथ पंचमोऽध्यायः
।चौपाइ।
तिन दिन प्रभु रहला ओ देश । कन्द मूल फल भोजन वेश ॥१॥
कहलनि कौशिक कथा पुराण । पुरुष पुराण सहज सब जान ॥२॥
चारिम दिन कहलनि औ राम । नव उत्सव मिथिलाधिप – धाम ॥३॥
तिरहुति सन नहि दोसर देश । विज्ञानी मानी मिथिलेश ॥४॥
थापित शंकर धनु तहि ठाम । अपनेहु काँ देखक थिक राम ॥५॥
देखब तनि मर्य्यादा जाय । जनक नृपति सौँ पूजा पाय ॥६॥
शुनि मुनि संग चलि लक्ष्मण राम । गंगा उतरि विदेहा नाम ॥७॥
दिव्य फूल फल भल तरु पाँति । खग मृग रहित भेल दिन राति ॥८॥
मुनि केँ पुछलनि से देखि राम । एहि आश्रमक कहू की नाम ॥९॥
अति आह्लादित करइछ चित्त । पुण्याश्रम की एहन निमित्त ॥१०॥
विश्वामित्र कहल से शूनि । आश्रम छल छथि गौतम मूनि ॥११॥
तप – बल सौँ तेजस्वी भेल । कन्या तनिकाँ ब्रह्मा देल ॥१२॥
नाम अहल्या तेहनि न आन । कयलनि विधि वनिता निर्म्मान ॥१३॥
भावार्थः
रामचन्द्रजी तीन दिन ओहि आश्रम मे रहलाह । कन्द, मूल आ फल भोजन करैत रहलाह । विश्वामित्र पुराण सभक कथा सुनबैत छलथि, मुदा आदिपुरुष भगवान् रामचन्द्र केँ स्वतः सब किछु जनले रहैत छलन्हि । चारिम दिन विश्वामित्र कहलखिन – “हे रामजी, मिथिलाक राजा जनक ओतय एकटा नव उत्सव भ’ रहल अछि । तिरहुत (मिथिला) जेहेन दोसर देश नहि अछि आर ओतुका राजा बड ज्ञानी आ मनस्वी छथि । ओतय शिवजीक धनु स्थापित अछि । हे राम, अपनहुँ केँ ओकर दर्शन करबाक चाही । ओतय जाय केँ राजा जनक सँ आतिथ्य ग्रहण करबाक अछि आ हुनक अतिथिपरायणता देखबाक अछि ।” ई सुनिकय राम आ लक्ष्मण मुनि विश्वामित्रक संग चलि पड़लाह आ गंगा नदीक पार कय विदेह नामक देश मे पहुँचि गेलाह । एक स्थान पर पंक्तिबद्ध गाछ सब मे सुन्दर-सुन्दर फुल आ फल लागल छल, मुदा दिन कि राति कखनहुँ कोनो पशु-पंछी नहि देखाइत छल । ई देखिकय रामजी मुनि सँ पुछलनि, “एहि आश्रमक कि नाम अछि ? ई हमर मोन केँ देखिते प्रसन्न कय रहल अछि । पुण्याश्रम मे पशु-पंछी नहि रहबाक कि कारण छैक ?” ई सुनिकय विश्वामित्रजी कहलनि, “एहि आश्रम मे गौतम मुनि रहैत छथि, ओ अपन तपस्याक बल सँ बहुत प्रतापी भ’ गेल छथि । ब्रह्मा हुनका अपन बेटी देलनि अछि । हुनकर नाम अहल्या छन्हि । हुनका समान कियो आर नहि अछि । ब्रह्मा हुनका आदर्श वनिता रूप मे निर्माण कएने छथि ॥१-१३॥
।रूपक दण्डक।
न्याय – सूत्र – कर्त्ता गौतम मुनि, ब्रह्मचर्य्य – व्रतधारी, बड़ भारी ।
कोनहु लोक एहनि के सुन्दरि, तनिक अहल्या नारी, सुकुमारी ॥१४॥
वासव काम – विवश रस-लम्पट, रूप तनिक मन धारी, छलकारी ।
गौतम आश्रम राति रहथि नहि, तिय पातिव्रत टारी, अब भारी ॥१५॥
भावार्थः
‘न्यायसूत्र’ नामक दर्शन ग्रन्थक रचयिता गौतम मुनि बहुत पैघ ब्रह्मचर्यव्रती छथि, हुनक पत्नी अहल्या स्वर्ग, मर्त्य, पाताल – तीनू लोक मे अद्वितीय सुन्दरि-सुकुमारि छथि । एक दिन रस-लम्पट इन्द्र कामवेदना सँ व्याकुल भ’ कय छल सँ गौतमक रूप धारण कय केँ राति मे गौतमक आश्रम मे पहुँचलाह, जखन मुनि बाहर गेल रहथि; आर ओ कुकर्मी हुनक पत्नीक पातिव्रत्य केँ नष्ट कयलनि ॥१४-१५॥
।तीरभुक्ति-सङ्गीतानुसारेण स्मरसन्दीपन कोडार छन्दः।
धाता लिखल जेहन भाल ।
से फल भेलैँ से पथ गेलैँ क्रमहिँ कालेँ काल ॥१६॥
गमहि गमहि गौतम जखन गेहक निकट धाओल ।
परक कारन नरक परक तरक तेहन पाओल ॥१७॥
देखल चरित बुझल दुरित दारक मारक दोषे ।
शान्तिक पटल सकल हटल सटल अटल रोषे ॥१८॥
भावार्थः
विधाता माथा पर जेहेन लिखि दैत छथि, आइ नहि त काल्हि – कालक्रम मे ओ फल भोगहे टा पड़ैत अछि आर ओहि रास्ता पर जाइये टा पड़ैत अछि । धीरे-धीरे गौतम मुनि जखन अपन घर लग अयलाह, तखन हुनकर मोन मे एहेन आशंका होबय लगलनि जे कहीं दोसरक कारण हमरा नरक न भोगय पड़य । जे किछु भेल छल, हुनका बुझय मे आबि गेलनि । कामवासनाक कारण पत्नीक दुष्कर्म ज्ञात भेलनि । सबटा शान्ति-भावना हेराइत चलि गेलनि । ओ अपन क्रोधावेश केँ टालि नहि सकलाह । ओ बजलाह – ॥१६-१८॥
।रूपक दण्डक।
अति-अनर्थ-कर्त्ता कह के तोँ, शून्याश्रम – सञ्चारी, हठकारी ।
क्षणमे दुष्ट भस्म हम कय देब, हमर रूप की धारी, छल भारी ॥१९॥
कहल इन्द्र अपराध कयल हम, कामक भेलहुँ दासे, मति नाशे ।
विधिक पुत्र! करु क्षमा इन्द्र हम, सकल लोकमे हासे, अति त्रासे ॥२०॥
“अरे अति अनर्थकर्ता! हठपूर्वक सुन्न आश्रम मे पैसयवला तूँ के थिकेँ ? अरे दुष्ट, क्षणहि भरि मे तोरा हम भस्म कय देब ! तूँ भार छल कयकेँ हमर रूप धारण कयलें !” इन्द्र बजलाह – “हमरा सँ बड़ा भारी अपराध भेल अछि, कियैक तँ हम कामवासनाक दास बनि गेल छलहुँ आर सुधि-बुधि हेरा देने रही । हे ब्रह्माक पुत्र गौतम ऋषि, हमरा क्षमा कय देल जाउ । भैर दुनिया मे हमर बड भारी बदनामी होयत, एकर हमरा डर अछि ।” ॥१९-२०॥
।हरिपद।
इन्द्रक वचन शुनल जेहि खन मुनि कोप लाल बड़ आँखि ।
भग हजार टा तनमे होयतहु उठला गौतम भाखि ॥२१॥
आश्रम जाय अहल्या देखल कपइत जोड़ल हाथ ।
मिथ्यालाप शाप डर कयल न रहल उपाय न लाथ ॥२२॥
भावार्थः
जहिना मुनि इन्द्रक बात सुनलनि, मुनिक आँखि क्रोध सँ एकदम लाल भ’ गेलनि आ ओ बाजि उठलाह – “तोहर शरीर मे एक हजार भग भ’ जेतौक ।” फेर अपन आश्रमक भीतर जाय केँ अहल्या केँ देखलनि जे थरथर कँपैत हाथ जोड़ने ठाढ़ रहथि । ओ श्रापक डर सँ कोनो झूठ बात नहि बतौलनि । बहाना बनेबाक कोनो चारा नहि छल ॥२१-२२॥
।चौपाइ।
गौतम कहल रहह गय जाय । पापिनि पाथर भितर समाय ॥२३॥
जल जनु पीबह अन्न न खाह । आश्रम छोड़ि कतहु जनु जाह ॥२४॥
जन्तु मात्र सँ आश्रम हीन । होएतहु यावत पातक क्षीण ॥२५॥
दिवारात्र तप करह सहिष्णु । हृदय ध्यान परमेश्वर विष्णु ॥२६॥
राम राम मन मन से कहब । बहुत सहस वत्सर एत रहब ॥२७॥
जखन होयत राम अवतार । हरण हेतु अवनिक सभ भार ॥२८॥
सानुज से एहि आश्रम आबि । तोर भल करता ई अछि भावि ॥२९॥
पाथर परसहि रामक चरण । तोहरा अभय दुरितचय – हरण ॥३०॥
तनिकर पूजन भक्ति प्रणाम । लोचन – गोचर प्रभुवर राम ॥३१॥
सेवा हमर पूर्व्व सम करब । कोक समान संग सञ्चरब ॥३२॥
ई कहि गेला मुनि हिमवान । आश्रम भै गेल आनक आन ॥३३॥
गेलथिनि गौतम एतहि राखि । हिनका दोसर देखथि न आँखि ॥३४॥
अपनैक चरणक चाहैथि धूरि । हिनकर दुःख – निकर करु दूरि ॥३५॥
कौशिक रामक धय लेल हाथ । करु उद्धार देव रघुनाथ ॥३६॥
विधि-तनयाक विपति-तति – हरण । परस भेल तेहि पाथर चरण ॥३७॥
अपन रूप पाओल तहि ठाम । तनिकर राम कयल परनाम ॥३८॥
दशरथ – तनय राम थिक नाम । ब्रह्म – पुत्रि अयलहुँ एहिठाम ॥३९॥
से देखल पीताम्बर वीर । लक्ष्मण सहित हाथ धनु तीर ॥४०॥
स्मित मुख-पंकज पंकज-नयन । श्रीवत्सांकित शोभा – अयन ॥४१॥
वर – माणिक्य – कान्ति श्रीराम । देखि अहल्या आनन्द - धाम ॥४२॥
हर्ष लेल लोचन बड़ गोट । तन रोमाञ्च प्रपञ्च न छोट ॥४३॥
मन पड़ि आएल गौतम कहल । कर लगली परमेश्वर टहल ॥४४॥
कहइत बाढ़ विपुल खर – भंग । हर्ष न अटय अहल्या अंग ॥४५॥
भावार्थः
गौतम श्राप देलनि – “अरे पापिन! जो; एहि पाथर मे समा जो आ पाथरे बनल रहो । न पानि पिमें, न अन्न खेमें, आश्रम छोड़ि कतहु जाइयो नहि सकमें । जा धरि तोहर पापक अन्त नहि भ’ जेतौक ताबत धरि एहि आश्रम मे कोनो प्राणी नहि आबि सकत । दिन-राति परमेश्वर विष्णुक ध्यान करैत कठोर तपस्या करैत रह । मनहि-मन राम-राम रटैत रह । एहि तरहें कतेको हजार वर्ष धरि एतहि पड़ल रहमें । जखन धरतीक भार उतारय लेल रामक अवतार हेतनि, तखन ओ अपन छोट भाइ लक्ष्मण संग आबिकय तोहर कल्याण करथुन – यैह भवितव्य छौक । जखनहि एहि पाथर मे रामक चरण स्पर्श होयत, जे कि सब पाप केँ हरण करयवला होइछ, तखनहि तोरा अभय (एहि सजा सँ छुटकारा) भेटि जेतौक । भक्तिपूर्वक हुनकर पूजा करिहें, हुनका प्रणाम करिहें । प्रभु राम तोरा साक्षात् दर्शन देथुन । ओकरा बाद तूँ फेर सँ पहिनहि जेकाँ हमर सेवा करमें आर चकोरी समान हमर संग लागल रहमें ।” ॥२३-३२॥
एतेक कहिकय गौतम ऋषि तपस्या करय हिमालय पर चलि गेलाह आ आश्रमक रंग किछु आरे भ’ गेल । गौतम हिनका एतहि छोड़ि गेलाह, आर कियो दोसर हिनका आँखि सँ देखियो नहि सकैत अछि । आब अहल्या अहाँक चरणक धुरा चाहैत छथि । चरण सँ स्पर्श कय केँ अपने हिनकर पीड़ा केँ दूर करू ॥३३-३५॥
विश्वामित्रजी रामजीक हाथ पकड़ि लेलनि आर अनुरोध कयलनि – “हे देव रघुनाथ! हिनका उद्धार कयल जाउ ।” ओहि पाथर मे रामचन्द्र जीक चरणक स्पर्श भेल कि ब्रह्माक पुत्री अहल्याक सारा संकट दूर भ’ गेलनि । अहल्या तखनहिं अपन पूर्वरूप (नारी स्वरूप) केँ प्राप्त कयलीह आर हुनका राम जी प्रणाम कयलनि आ कहलनि – “हम दशरथक पुत्र छी । हमर नाम राम अछि । हे ब्रह्माक पुत्री, हम एतय आयल छी ।” अहल्या देखलनि, राम लक्ष्मण सहित पियर वस्त्र पहिरने हाथ मे तीर-धनुष लेने ठाढ़ छथि । कमल-जेहेन मुँह पर मुस्कान छन्हि । आँखि कमल-जेहेन छन्हि । छाती पर श्रीवत्स चिह्न लागल छन्हि, आर शोभाक खजाना छथि । देहक कान्ति सुन्दर मानिक जेहेन छन्हि । एहेन आनन्द-धाम श्री राम केँ देखिकय हर्ष सँ हुनकर आँखि चकविदोर (विस्फारित) भ’ गेलनि । शरीर रोमांच (सिहरन) सँ भरि गेलनि । गौतम जे श्राप मे कहने रहथि से याद आबि गेलनि । ओ परमेश्वर श्रीराम केर आराधना करय लगलीह – ॥३६-४५॥
।गीत।
हमर गति अपनैँ सौँ के आन ।
करुणागार दीन-प्रति-पालक रामचन्द्र भगवान ॥४६॥
पिता विधाता घुरि नहि तकलनि पति-मति भेलहुँ पषान ।
सुरपति कुमति विदित भेल कतए न हम अबला की ज्ञान ॥४७॥
जन्तु मात्र सौँ वर्ज्जित आश्रम नहि भोजन जल पान ।
वरष हजार बहुत एत गत भेल रामचरण मे ध्यान ॥४८॥
सगुन ब्रह्म अपनैकाँ देखल निर्ग्गुन मन अनुमान ।
चन्द्र सुकवि भन लाभ एहन सन त्रिभुवन शुनल न कान ॥४९॥
भावार्थः
“हमरा अपने सँ आन दोसर के सहारा अछि ? हे भगवान् रामचन्द्र! अहाँ दयाक समुद्र छी आर दीन-जन सभक पालनहार छी । पिताजी ब्रह्मा विवाह कयलाक बाद दोबारा खोजो-पुछाड़ि तक नहि कयलनि । पतिदेव गौतम पाथरक बना देलनि । इन्द्रक खराब चाइल केकरा नहि बुझल छैक ! हम अबला औरत छी । हमरा हुनकर चाइल बुझय मे नहि आयल । एहि आश्रम मे कोनो प्राणीक प्रवेश कयनाय मना छल । हमरा न खाना भेटैत छल, न पानि । एतय राम जीक चरण मे ध्यान लगौने कतेको हजार वर्ष बीति गेल । निर्गुण ब्रह्म केर तँ मात्र अनुमान कएने रही, मुदा सगुण ब्रह्म केर रूप मे अपनेक साक्षात् दर्शन भेल । एहेन पैघ लाभ, कविचन्द्र कहैत छथि, तीनू लोक मे आर कोनो नहि सुनल ॥४६-४९॥
।गीत पुनः।
हमर सनि भाग्यवन्ति के नारि ।
निर्ग्गुण ब्रह्म सगुण बनि अएलहुँ अपनहि सौँ असुरारि ॥५०॥
अपनैक चरण सरोज सौँ सुरसरि उतपति पावन बारि ।
सकलो तीर्थक मूल चरण से देखल आँखि पसारि ॥५१॥
जे चरणक धूली लय धन्धित रहथि देव त्रिपुरारि ।
से धूलीक प्रकट फल पाओल कर्म्म शुभाशुभ जारि ॥५२॥
रामचन्द्र कहलनि सुनु शुभमति अहँक हाथ फल चारि ।
हमर भक्ति अहँकाँ से होएत सकल सिद्धि देनिहारि ॥५३॥
भावार्थः
हमरा जेहेन भाग्यशाली कोन नारी होयत । हे राक्षस सभक शत्रु! अपने निर्गुण ब्रह्मस्वरूप होइतो सगुण रूप मे स्वयं हमरा सोझाँ अयलहुँ । अहीँक चरण-कमल सँ पावन जल वाली गंगाक उद्भव भेल अछि । एहि तरहें सब तीर्थक मूल अहाँक एहि चरण केँ आँखि बिदोरि-बिदोरिकय (पसारिकय) देखलहुँ । जाहि चरण-धुरा केँ पेबाक लेल त्रिपुरारि शिवजी चिन्तित-उत्कंठित रहैत छथि, हम पूर्वक सबटा नीक-बेजा काजक परिणाम सँ छुटकारा पाबि ओहि धुराक प्रत्यक्ष फल पाबि लेलहुँ ।” ॥५०-५२॥
रामचन्द्रजी कहला – “हे सुन्दर सोच रखनिहाइर अहल्या, अहाँक हाथ मे धर्म, अर्थ, काम आ मोक्ष चारू फल सम्प्राप्त अछि । अहाँ केँ हमर भक्ति भेटत जे सब सिद्धि दयवाली अछि ।” ॥५३॥
।सङ्गीते सूहव नाम छन्दः।
श्रीमन्नारायण विष्णो।
शापादुद्धर शापादुद्धर दुद्धर दनुज विष्णो ॥५४॥
विधेर्व्विधे दयानिधे विधेरहं कन्या ।
तपस्विनी मनस्विनी यशस्विनी धन्या ॥५५॥
आसं दैवाद्दुराचारा मारद्वारा जाता ।
कष्टस्थाने भवानेन प्रभो विभो त्राता ॥५६॥
भावार्थः
अहल्या कहली – “हे दुर्धर्ष राक्षस सब केँ जीतयवला श्रीमान् नारायण विष्णु, श्राप सँ उद्धार करू, उद्धार करू । हे विधातहु केर विधाता आर दयाक खान नारायण, हम ब्रह्माक पुत्री छी, तपस्विनी छी, मनस्विनी छी आ यशस्विनी सेहो छी । हम अपना केँ धन्य बुझैत छी । दैवयोग सँ कामवश हम दुराचारिणी भ’ गेल छलहुँ । एहेन संकटक अवसर मे हे प्रभु विष्णु, अपनहिं त्राण करयवला छी ।” ॥५४-५६॥
॥इति श्री मैथिल चन्द्र-कवि विरचिते मिथिला-भाषा-रामायणे पञ्चमोऽध्यायः॥
॥मैथिल चन्द्रकवि विरचित मिथिलाभाषा रामायण मे बालकाण्डक पाँचम अध्याय समाप्त भेल॥
हरिः हरः!!