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कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण – बालकाण्ड – चारिम अध्याय

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण

बालकाण्ड – चारिम अध्याय

अथ चतुर्थोऽध्यायः

विश्वामित्र द्वारा दशरथ सँ राम आ लक्ष्मणक याचना

।चौपाइ।

कौशिक रामक दर्शन काज । गेला दशरथ नृपति समाज ॥१॥
दशरथ कयल तनिक सन्मान । मुनि वसिष्ठ सन गुरु मतिमान ॥२॥
अपनेक सदृश जाथि जन जतय । संपति सकल पहुँच सब ततय ॥३॥
बहुत कृतार्थ कएल मुनि आज । अभ्यागत सत हमर समाज ॥४॥
कोन हेतु गुरु मुनि संचार । कहल जाय करु तकर विचार ॥५॥
शुनि मुनि कहल सुनिय महिपाल । कार्य्य उपस्थित ई एहि काल ॥६॥
यज्ञारम्भ करी हम जखन । अबइत अछि राक्षस-गण तखन ॥७॥
नाम सुबाहु तथा मारीच । दुहु प्रधान अज्ञानी नीच ॥८॥
यज्ञ – विघ्न – कारक अवतार । मरत ककर सक कयल विचार ॥९॥
लक्ष्मण राम ततय जौँ जाथि । हिनक त्रास सौँ दुष्ट पड़ाथि ॥१०॥
देल जाय होयत कल्यान । रक्षा करत कहू के आन ॥११॥
गुरु वसिष्ठ सौँ करू विचार । अनुमति सुजस होयत संसार ॥१२॥
हँ की नहि नहि बजला भूप । हुनि मुनि आगाँ रहला चूप ॥१३॥
नृप एकान्त कहल निज आधि । मुनि – कृत बाढ़ल बहुत उपाधि ॥१४॥
गुरु कहु करब कि देब न तनय । क्रोधी मुनि मनता नहि विनय ॥१५॥
राम बिना नहि जीवन रहत । नहि जौँ देब लोक की कहत ॥१६॥
बहुत सहस गत भै गेल वर्ष । चारि तनय विधि देल सहर्ष ॥१७॥
सभ जन से छथि अमर समान । रामचन्द्र छथि हमरा प्राण ॥१८॥
जौँ नहि देब देता मुनि शाप । हृदय हमर गुरु थर थर काँप ॥१९॥
कहु कर्त्तव्य उचित हो कर्म्म । हम सपनहु नहि करब अधर्म्म ॥२०॥
कहल वसिष्ठ सुनू महिपाल । कि कहब अपनैँक भाग्य विशाल ॥२१॥
ई वृत्तान्त कतहु नहि कहब । पुछलहु उतर सु-मौने रहब ॥२२॥
हरण हेतु भूमिक सभ भार । विधि – प्रार्थित नर – वर अवतार ॥२३॥
नारायण छथि जानब राम । चिन्मय सकल विश्व – विश्राम ॥२४॥
अँह कश्यप तप कयल अपार । अदिति थिकथि कौशल्या दार ॥२५॥
भेला प्रसन्न देल वर – दान । पुत्र अहाँक भेला भगवान ॥२६॥
तनिकर माया सीता भेलि । मान्य मही मिथिला मे गेलि ॥२७॥
रामक होएत ततय विवाह । कौशिक तेहि कारण अयलाह ॥२८॥
ई वक्तव्य कतहु नहि थीक । होयत नृपवर अहँइक नीक ॥२९॥
कौशिक पूजन करु दय चित्त । आएल छथि मुनि जनिक निमित्त ॥३०॥
लक्ष्मण सहित रामकाँ देब । सुयश विश्व भरि भूपति लेब ॥३१॥
कहल वसिष्ठ शुनल महिपाल । कृत – सुकृत्य आनन्द विशाल ॥३२॥
लक्ष्मण राम काँ भूप बजाय । बार बार उर कण्ठ लगाय ॥३३॥
सजल नयन नृप दूनू भाय । कौशिक मुनि केँ देल सुमुझाय ॥३४॥

भावार्थः

एक समय कौशिक मुनि विश्वामित्र रामचन्द्रक दर्शन लेल राजा दशरथजी ओतय पधारलाह । राजा दशरथ, मुनि वसिष्ठ जेहेन विद्वान् जिनकर गुरु छथि, विश्वामित्रक सत्कार कयलनि आ कहलनि – “अपने जेहेन पुरुष जेतय पधारैत छथि, ओतय वास्तव मे सबटा सम्पत्ति पहुँचि जाइत अछि । हे मुनि! आइ अपने हमरा परम कृतार्थ कयलहुँ । एहेन श्रेष्ठ अतिथि हमर घर आयल छथि । हे गुरुदेव मुनि! कहल जाय, कोन काज सँ अपनेक एतय एनाय भेल, जाहि सँ हम ओहि दिश ध्यान दी ।” से सुनिकय मुनि विश्वामित्र कहलखिन – “हे राजा! सुनल जाउ, हमरा एखन जे काज आबि गेल अछि । जहिना हम यज्ञ शुरू करैत छी तहिना राक्षस सभक एकटा टोली धमकि अबैत अछि । ओहि टोलीक दुइ प्रधान राक्षसक नाम सुबाहु आ मारीच अछि । दुनू परम अज्ञानी आ अधम अछि । ओकरा सभक जन्मे यज्ञ मे विघ्न देबाक लेल भेल छैक । हम सोचय लगलहुँ, के एकरा सब केँ मारि सकैत अछि । त ई बात मे मे आयल जे यदि राम आर लक्ष्मण ओतय जाइथ तँ हिनकर डर सँ ओ दुष्ट राक्षस भागि सकैत अछि । ई दुनू कुमार हमरा दय देल जाय । एहि सँ हमर कल्याण (त्राण) होयत । कहू, आर के अछि जेकरा सँ हमर रक्षा कय सकत ! अपने अपन गुरु वसिष्ठ सँ विचार-विमर्श कय लिय’ । एहि लेल अनुमति देला सँ संसार भरि मे अपनेक यश पसरत ।” ॥१-१२॥

राजा न ‘हाँ’ कहला न ‘ना’ । ओ मुनिक आगाँ अवाक्-सन रहि गेलाह । फेर एकान्त मे विचार-विमर्श करबाक लेल गुरु वसिष्ठ लग गेलाह आ हुनका अपन मोनक व्यथा सुनौलनि – “मुनि विश्वामित्रक कारण मोन मे बहुते चिन्ता बढ़ि गेल अछि । हे गुरु! कहू, एहेन अवसर मे कि कयल जाय ? जँ हुनका पुत्र नहि देबनि त क्रोधी ऋषि विश्वामित्र गिड़गिड़ेलो पर मानयवला नहि छथि । रामक बिना हमर प्राण नहि बचत । यदि पुत्र नहि देबनि त लोक कि कहत । कतेको हजार साल बितलाक बाद विधाता प्रसन्न भ’ कय बुढ़ापा मे चारि पुत्र देलनि । हमरा लेल सब अमर-समान छथि, मुदा ओहू मे रामचन्द्र मानू हमर प्राण छथि । अगर हम नहि देबनि, त विश्वामित्र शाप दय देता । हे गुरु, हमर हृदय थरथर काँपि रहल अछि । कहल जाउ, कि करब उचित (धर्मानुरूप) होयत ? हम सपनहुँ मे अधर्म नहि करब ।” ॥१३‍-२०॥

वसिष्ठ कहलखिन – “हे राजा, सुनल जाउ । अपने परम भाग्यशाली छी । हम जे बात बता रहल छी से कतहु नहि बाजब । जँ कियो पुछय तैयो मौन टा रहब । धरतीक सबटा भार केँ दूर करबाक लेल ब्रह्माजीक अनुरोध पर विष्णु मनुष्य-रूप मे अवतार लेलनि अछि । अपनेक पुत्र राम विश्वव्यापी चिन्मय नारायण छथि । अपने कश्यप ऋषि छी, जे ईश्वर केँ पुत्र-रूप मे पेबाक लेल भारी तपस्या कएने रही; आर कौशल्य ऋषिपत्नी अदिति थिकीह । ईश्वर प्रसन्न भेलाह आर हुनका वरदान देलनि । फलस्वरूप भगवान् नारायण अपनेक पुत्रक रूप मे जन्म लेलनि । हुनकर माया सीताक रूप मे अवतरित भेली अछि, ओ पावन भूमि मिथिला गेलीह । ओतय रामक विवाह होयत । ताहि लेल विश्वामित्र ऋषि अपने लग एला अछि । ई बात कतहु बजबाक नहि अछि । हे राजा! एहि सँ अपनहिक कल्याण होयत । अपने यत्न कय केँ विश्वामित्रक पूजन करी । जिनका लय लेल विश्वामित्र एला अछि, से लक्ष्मण सहित रामचन्द्र केँ मुनिक हाथ मे सौंपि दी । एहि सँ हे राजा! विश्व भरि मे अहाँ केँ उज्ज्वल यश प्राप्त होयत ।” ॥२१-३१॥

गुरु वसिष्ठक बात राजा सुनलनि आ सुनिकय कृतकृत्य भ’ गेलाह । आनन्दक ठेकाना नहि रहलनि । तखन राजा राम आ लक्ष्मण केँ बजौलनि । बेर-बेर हुनका सब केँ गला लगौलनि । नोर-भरल आँखि सँ राजा दुनू भाइ केँ विश्वामित्रक जिम्मा सौंपि देलनि ॥३२-३४॥

।रोला छन्द।

आनन्दित मुनि भेल नृपतिकाँ आशिष देलनि ।
राम सुमित्रा – पुत्र दुनू जन संग कैँ लेलनि ॥३५॥
धनुष बाण तूणीर जुगल भ्राता करेँ धयलनि ।
मुनि-मण्डलि महि जाय सकल आनन्दित कयलनि ॥३६॥

भावार्थः

विश्वामित्र आनन्दित भ’ गेलाह । ओ राजा केँ आशीर्वाद देलनि, आर राम व लक्ष्मण दुनू केँ अपना संग लगा लेलनि । दुनू भाइ तीर, धनुष आ तरकस धारण कयलनि आ मुनिक आश्रम मे पहुँचिकय सब केँ आनन्दित कयलनि ॥३५-३६॥

रामचन्द्र केर ताटका, सुबाहु आ मारीच सँ युद्ध 

।हरिपद।

चलइत बाट ताटका दौड़लि कौशिक देल चिन्हाय ।
रघुवर शर मारल एक तनिकाँ जे मुनि-जनक बलाय ॥३७॥
बड़ पापिनि मुनि-प्राणक सापिनि छलि करुणा सौँ रहिता ।
सिद्धाश्रमक सङ्कटा मुइलेँ मुनि-मंडलि सुख – सहिता ॥३८॥

भावार्थः

रास्ता मे अबितेकाल ‘ताटका’ नाम राक्षसी दौड़ि आयल । विश्वामित्र ओकरा चिन्हा देलनि । राम एक्के तीर मारिकर ओकरा मारि खसौलनि जे मुनि सभक लेल बलाय (आफद) छल । ओ बड़ा पापिनि छल । मुनि लोकनिक प्राण हरयवाली मानू नागिन छल । ओकरा कनिकबो दया नहि रहैक । ओ मुनि सभक आश्रम लेल एकटा संकट छल । ओकरा मरला सँ मुनि सब सुखपूर्वक रहय लगलाह ॥३७-३८॥

।अनुष्टुप्-छन्द।

बला अतिबला विद्या देव – निर्म्मित देल से ।
क्षुधा – तृष्णादि – शान्त्यर्थ राम सानन्द लेल से ॥३९॥

भावार्थः

मरैत समय ताटका रामजी केँ बला आ अतिबला नामक विद्या देलक, जेकर आविष्कार देव लोकनि कएने रहथि । एहि विद्या सँ भूख आ प्यास केँ दबायल जा सकैत अछि । रामचन्द्र सेहो आनन्दपूर्वक ओ ग्रहण कयलनि ॥३९॥

।छन्द मलिका।

कण्ठ अङ्कमे लगाब। कौशिकादि सौख्य पाब ॥४०॥
धन्य धन्य भूप-बाल। दुष्ट राक्षसीक काल ॥४१॥

भावार्थः

विश्वामित्र व अन्य ऋषि लोकनि निश्चिन्त भ’ कय हुनका गला आ छाती सँ लगौलनि आ कहलनि – “दुष्ट राक्षसी ताटकाक अन्त करयवला राजकुमार – अपने धन्य छी! अपने धन्य छी!!” ॥४०-४१॥

।पादाकुल दोहा।

विश्वामित्र चरित्र राम-कृत देखल प्रमुदित चित्त ।
मन्त्र सहित सर्व्वास्त्र राम काँ देलनि समर निमित्त ॥४२॥

भावार्थः

विश्वामित्र प्रसन्न चित्त सँ रामक ई करतूत देखलनि आ राम केँ युद्ध करबाक लेल मन्त्र-समेत सबटा अस्त्र देलनि ॥४२॥

।चौपाइ।

मुनि – संकुल कामाश्रम राम । एक राति कयलनि विश्राम ॥४३॥
उठि प्रभात गेला मुनि सङ्ग । सिद्धाश्रम देखल भल रंग ॥४४॥
सब सौँ कहलनि विश्वामित्र । अतिथि एहन के आन पवित्र ॥४५॥
हिनकर पूजन मन दय करिअ । दुष्ट – निशाचर – भय सौँ तरिअ ॥४६॥
विश्वामित्र कहल मुनि जेहन । रामक कयल से पूजा तेहन ॥४७॥
रामचन्द्र कौशिक आवेश । कहलनि दिक्षा करू प्रवेश ॥४८॥
राक्षस दुहु काँ दिअओ देखाय । सावधान हम दूनू भाय ॥४९॥
तेहन कयल तत मुनि-समुदाय । यज्ञारम्भ कयल मुनि जाय ॥५०॥
काम – रूप राक्षस दुहु फेरि । खल आयल मध्यान्हे बेरि ॥५१॥
तनिकाँ ज्ञात न दोसर सृष्टि । शोणित हाड़ कयल खल वृष्टि ॥५२॥
रामचन्द्र दुइ शर सन्धानि । मारल दुष्ट निशाचर जानि ॥५३॥

भावार्थः

तखन रामजी मुनि लोकनिक भीड़ सँ भरल कामाश्रम मे एक राति विश्राम कयलनि । भोरे उठिकय मुनि विश्वामित्रक संग विदाह भेलाह आ खुब नीक सँ आश्रम केँ देखलनि । सब आश्रमवासी लोकनि विश्वामित्र सँ कहलनि – “एहेन पवित्र अतिथि आर के होयत! हृदय सँ हिनकर पूजा कयल जाय आर दुष्ट राक्षस सभक भय सँ त्राण पाओल जाय ।” ॥४३-४६॥

जेना विश्वामित्र कहला तहिना ओ लोकनि ओतय रामजीक सत्कार कयलनि । रामचन्द्रजी कौशिक सँ कहला – “आब दीक्षा मे प्रवेश करू, यज्ञारम्भ कयल जाउ । हम दुनू भाइ सावधान छी । ओहि दुनू राक्षस केँ देखा देल जाउ ।” ॥४७-४९॥

तखन मुनि लोकनि ओहिना कयलनि, आर विश्वामित्र यज्ञ शुरू कयलनि । इच्छानुसार अपन स्वरूप बदलय मे समर्थ ओ दुनू दुष्ट राक्षस दुपहरियाक समय फेरो पहुँचि गेल । ओहि दुनू केँ ई बुझल नहि छलैक जे दुनिया बदलि गेल अछि । फेरो ओ सब हड्डी आ रक्त बरसाबय लागल । रामचन्द्र निशाना साधिकय दुइ गोट तीर ओहि दुनू दुष्ट राक्षस पर चलौलनि ॥५०-५३॥

।हरिपद।

रामचन्द्र – कर – धनुष – मुक्त – शर – परवश खल मारीच ।
शत योजन घुमि मृतक सदृश जुमि खसला जलनिधि बीच ॥५४॥
ठामहि वीर सुबाहु भस्म भेल रघुवर मख रखबार ।
अति अद्भुत नर-वर रण-लीला अविकल सकल निहार ॥५५॥

भावार्थः

रामजीक हाथक धनुष सँ छुटल तीर सँ घायल भ’ कय दुष्ट मारीच १०० योजनक चक्कर लगाकय मुर्दा समान समुद्रक बीच मे खसल । आर सुबाहु ओहिठाम जरिकय भस्म भ’ गेल । यज्ञक रक्षक पुरुषोत्तम रामचन्द्रजीक एहि अति अद्भुत रण-लीला केँ सब कियो खुजल आँखि सँ देखिते रहि गेलाह ॥५४-५५॥

।बरबा।

तदनुयायि अततायिकँ हनिहनि तीर ।
सभकेँ लक्ष्मण मारल बड़ रणधीर ॥५६॥

भावार्थः

तेकर बाद ओहि दुनू राक्षस सब केँ संग दयवला नृशंस राक्षस सब केँ परम रणधीर लक्ष्मणजी तीर चला-चलाकय मारि देलनि ॥५६॥

।रोला।

पुष्प – वृष्टि सुर कयल देव दुन्दुभी बजाओल ।
जय जय ध्वनि उच्चार सिद्ध-चरण गुण गाओल ॥५७॥
हर्षित विश्वामित्र ततय पूजा विधि कयलनि ।
सानुज श्रीरघुनाथ भक्ति सौँ हृदय लगओलनि ॥५८॥

भावार्थः

देवता सब फुल बरसाबय लगलाह । स्वर्ग मे उत्सववाद्य दुन्दुभी बाजय लागल । जय-जयकार होबय लागल । सिद्ध ओ चारण लोकनि गुणगान कयलनि ।खुब प्रसन्न भ’ कय विश्वामित्र ओतय यज्ञ-कर्म कयलनि आर छोट भाइ लक्ष्मण-सहित श्री रामचन्द्रजी केँ छाती सँ लगा लेलनि ॥५०-५८॥

॥इति श्री मैथिल चन्द्रकवि-विरचिते मिथिलाभाषा रामायणे बालकाण्डे चतुर्थोऽध्यायः॥

॥मैथिल चन्द्रकवि-विरचित मिथिला भाषा रामायण मे बालकाण्डक चारिम अध्याय समाप्त भेल॥

हरिः हरः!!

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