शरणागति
ॐ श्री परमात्मने नमः!
[श्रीमद्भागवद्गीताक अठारहमा अध्यायक ६६मा श्लोकक विस्तृत विवेचन ]
– स्वामी रामसुखदासजी महाराज
(मैथिली भावानुवाद – प्रवीण नारायण चौधरी)
हमर भावः अपन जीवन मे ई पुस्तक हमरा बहुत पैघ मार्गदर्शन कएने अछि, आब अपन सन्तान व ओकर समतुर पीढ़ी लेल एकर मैथिली रूप प्रस्तुत करैत ओकरहु सभक जीवन मे ओहने सुन्दर मार्गदर्शनक अपेक्षाक संग ई लेखन कार्य केँ आइ सँ आरम्भ कय रहल छी ।
समर्पणः एहि पोथीक पढ़बाक लेल प्रेरणा देनिहार आध्यात्मिक गुरुदेव स्व. परविन्दर कुमार लाम्बा – Light Candles Instead of Cursing Darkness जेहेन प्रेरणादायी सूत्र सिखेनिहार व्यक्तित्व केँ नित्य प्रणामक संग ई अनुवादित पोथी समर्पण कय रहल छी ।
न विद्या येषां श्रीर्न शरणमपीषन्न च गुणाः
परित्यक्ता लोकैरपि वृजिनयुक्ताः श्रुतिजडाः ।
शरण्यं यं तेऽपि प्रसृतगुणमाश्रित्य सुजना
विमुक्तास्तं वन्दे यदुपतिमहं कृष्णममलम् ॥
‘जिनका पास न विद्या अछि, न धन अछि, न कोनो सहारा अछि; जिनका मे न कोनो गुण अछि, न वेद-शास्त्र सभक ज्ञान अछि; जिनका संसारक लोक सब पापी बुझिकय त्यागि देने छथि, एहनो प्राणी जाहि शरणागतपालक प्रभुक शरण लय कय संत बनि जाइछ आ मुक्त भ’ जाइछ, ओहि विश्वविख्यात गुणवला अमलात्मा यदुनाथ श्रीकृष्ण भगवान् केँ हम प्रणाम करैत छी ।’
श्लोक –
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥१८-६६॥
‘सम्पूर्ण धर्म सभक आश्रय केर त्याग कय केँ एक हमर शरण मे आबि जाउ । हम अहाँ केँ सम्पूर्ण पाप सब सँ मुक्त कय देब, शोक जुनि करू ।’
व्याख्या –
‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ – भगवान् कहैत छथि जे सम्पूर्ण धर्म सभक आश्रय, धर्मक निर्णय केर विचार छोड़िकय अर्थात् कि करबाक अछि आ कि नहि करबाक अछि – एकरा छोड़िकय एक हमर शरण मे आबि जाउ ।
स्वयं भगवान् केर शरणागत भ’ जायब – ई सम्पूर्ण साधन सभक सार थिक । एहि मे शरणागत भक्त केँ अपना लेल किछुओ करब शेष नहि रहि जाइछ; जेना – पतिव्रताक अपन कोनो काज नहि रहैछ । ओ अपन शरीरक सार-सम्भार सेहो पतिक नाते, पतिक लेल मात्र करैत छथि । ओ घर, कुटुम्ब, चीज-वस्तु, धियापुता आ अपन कहायवला शरीर तक केँ अपन नहि मानैत छथि, बल्कि पतिदेवहि केर मानैत छथि । तात्पर्य ई भेल जे जाहि तरहें पतिव्रता पतिक परायण भ’ कय पतिक गोत्र मे अपन गोत्र मिला दैत छथि आर पतियेक घर पर रहैत छथि, ताहि तरहें शरणागत भक्त सेहो शरीर केँ लयकय मानल जायवला गोत्र, जाति, नाम आदि केँ भगवानक चरण मे समर्पित कय केँ निश्चिन्त, निर्भय, निःशोक आर निःशंक भ’ जाइत छथि ।
गीताक अनुसार एतय ‘धर्म’ शब्द कर्तव्य-कर्मक वाचक अछि । कारण जे एहि अध्यायक ४१मा सँ ४४मा श्लोक धरि ‘स्वभावजं कर्म’ पद आयल अछि, फेर ४७मा श्लोकक पूर्वार्द्ध मे ‘स्वधर्म’ पद आयल अछि । तेकर बाद, ४७मा श्लोकहि केर उत्तरार्द्ध मे तथा (प्रकरणक अन्त मे) ४८मा श्लोक मे ‘कर्म’ पद आयल अछि । तात्पर्य ई भेल जे आदि आर अन्त मे ‘कर्म’ पद आयल अछि आ बीच मे ‘स्वधर्म’ पद आयल अछि त एहि सँ स्वतः ‘धर्म’ शब्द कर्तव्य-कर्म केर वाचक सिद्ध भ’ जाइत अछि ।
आब एतय प्रश्न ई उठैत अछि जे ‘सर्वधर्मपरित्यज्य’ पद सँ कि धर्म अर्थात् कर्तव्य-कर्म केर स्वरूप सँ त्याग मानल जाय ? एकर उत्तर ई अछि जे धर्मक स्वरूप सँ त्याग करब नहि तँ गीताक अनुसार ठीक अछि आ न एतुका प्रसंगक अनुसारे ठीक अछि; कियैक तँ भगवानक ई बात सुनिकय अर्जुन द्वारा कर्तव्य-कर्मक त्याग नहि कयल गेल अछि, मुदा ‘करिष्ये वचनं तव’ (१८/७३) कहिकय भगवानक आज्ञाक अनुसार कर्तव्य-कर्म केर पालन करब स्वीकार कयल गेल अछि । मात्र स्वीकारे टा नहि कयल गेल, बल्कि अपन क्षात्र-धर्मक अनुसार युद्ध सेहो कयल गेल । तेँ उपर्युक्त पद मे धर्म अर्थात् कर्तव्यक त्याग करबाक बात नहि अछि । भगवान् सेहो कर्तव्यक त्याग केर बात केना कहि सकैत छथि ? भगवान् एहि अध्यायक ६ठा श्लोक मे कहलनि अछि जे यज्ञ, दान, तप आ अपन-अपन वर्ण-आश्रम सभक जे कर्तव्य अछि, ओकर कखनहुँ त्याग नहि करबाक चाही, बल्कि ओकरा जरूर करबाक चाही ।
तेसर अध्याय मे त भगवान् कर्तव्य-कर्म केँ नहि छोड़बाक लेल प्रकरण पर प्रकरण केर चर्चा कयलनि अछि । तेसर अध्यायक ४था श्लोक मे – कर्म सभक त्याग कयला सँ नहि त निष्कर्मताक प्राप्ति होइछ आ नहिये सिद्धि भेटैछ । ३-५ मे – कोनो मनुष्य केहनो अवस्था मे क्षणहु मात्र कर्म कएने बिना नहि रहि सकैत अछि । ३-६ मे – जे बाहर सँ कर्म सभ केँ त्यागिकय भीतर सँ विषय सभक चिन्तन करैत अछि, ओ मिथ्याचारी थिक । ३-७ मे, जे मन-इन्द्रिय सब केँ वश कय केँ कर्तव्य-कर्म करैत अछि, वैह श्रेष्ठ अछि । ३-८ मे, कर्म कएने बिना शरीरक निर्वाह तक नहि होइछ, तेँ कर्म करबाक चाही । ३-९ मे, ‘कर्मणा बध्यते जन्तुः’ – एहि बन्धनक भय सँ सेहो कर्म सभक त्याग करब उचित नहि अछि, कियैक तँ केवल कर्तव्य-पालकनक लेल कर्म करब बन्धनकारक नहि होइछ, बल्कि कर्तव्य-कर्मक परम्परा सुरक्षित रखबाक सिवाय अपना लेल कोनो कर्म करनाइये टा बन्धनकारक अछि । ३-१० मे – ब्रह्माजी कर्तव्यसहित प्रजाक रचना कय केँ कहला जे एहि कर्तव्य-कर्म सँ तोरा लोकनिक वृद्धि हेतौक आर यैह कर्तव्य-कर्म तोरा सब केँ कर्तव्य-सामग्री दयवला हेतौक । ३-११ मे – मनुष्य और देवता – दुनू कर्तव्यक पालन करिते कल्याण केँ प्राप्त हेताह । ३-१२ मे – जे कर्तव्यक पालन कएने बिना प्राप्त सामग्रीक उपभोग करैत अछि, ओ चोर छी । ३-१३ मे – कर्तव्य-कर्म कय केँ अपन निर्वाह करयवला सम्पूर्ण पाप सब सँ मुक्त भ’ जाइत अछि आ जे मात्र अपनहि टा लेल कर्म करैत अछि, ओ पापी पाप मात्र केर भक्षण करैत अछि । ३-१६ मे – कर्तव्य-पालन सँ मात्र सृष्टिचक्र चलैत अछि, मुदा जे सृष्टि मे रहिकय अपन कर्तव्यक पालन नहि करैछ, ओकर जीनाय व्यर्थ छैक । ३-१९ मे – आसक्ति सँ रहित भ’ कय कर्तव्य-कर्म करयवला मनुष्य परमात्मा केँ प्राप्त भ’ जाइत अछि । ३-२० मे, जनकादि ज्ञानीजन सेहो कर्तव्य-कर्म कयले सँ सिद्धि केँ प्राप्त भेल छथि, लोकसंग्रहक दृष्टि सँ सेहो कर्तव्य-कर्म करबाक चाही । ३-२३/२४ मे – भगवान् अपन उदाहरण दैत कहैत छथि जे जँ हम सावधान रहैत कर्म-कर्तव्य नहि करब त हमहुँ वर्णसंकरताक उत्पादक आ लोक सब केँ नाश करयवला बनब । ३-२५ मे – ज्ञानी पुरुष केँ सेहो आसक्तिरहित भ’ कय आस्तिक अज्ञानीक जेकाँ अपन कर्तव्य-कर्म करबाक चाही । ३-२६ मे – ज्ञानी केँ चाही जे ओ अज्ञानी सब मे बुद्धिभेद पैदा नहि कय केँ कर्तव्यक नीक जेकाँ पालन करैत ओकरहु सब सँ ओहिना करबाबथि । एहि तरहें तेसर अध्याय मे भगवान् कर्तव्य-कर्म सभक पालन करय मे बहुत जोर देने छथि ।
गीताक पूरा अध्ययन कयला सँ ई पता चलैत अछि जे मनुष्य केँ कोनो हालत मे कर्तव्य-कर्मक त्याग नहि करबाक चाही । अर्जुन त युद्धरूप कर्तव्य-कर्म छोड़िकय भीख मँगनाय श्रेष्ठ बुझि रहल छलथि (२-५), मुदा भगवान् एकर निषेध कयलनि (२-३१ सँ २-३८ धरि) । एहि सँ सेहो यैह सिद्ध होइत अछि जे प्रयुक्त श्लोक १८-६६ मे स्वरूप सँ धर्मक त्याग नहि अछि ।
आब विचार ई करबाक अछि जे एतय सम्पूर्ण धर्म सभक त्याग सँ कि बुझबाक चाही ?
आब विचार ई करबाक अछि जे एतय (सर्वधर्मान्परित्यज्य) मे सम्पूर्ण धर्म सभक त्याग सँ कि आशय अछि ? गीताक अनुसार सम्पूर्ण धर्म सब यानि कर्म सब भगवान् केँ अर्पित कयनाइये सर्वश्रेष्ठ धर्म थिक । एहि मे सम्पूर्ण धर्म सभक आश्रयक त्याग करब आ केवल भगवानक आश्रय लेब – दुनू बात सिद्ध भ’ जाइत अछि । धर्मक आश्रय लयवला बेर-बेर जन्म-मरण केँ प्राप्त होइत अछि – ‘एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते’ (गीता ९/२१) । एहि वास्ते धर्मक आश्रय त्यागिकय भगवानक मात्र आश्रय लेलापर फेर अपन धर्मक निर्णय करबाक जरूरत नहि रहैछ । आगाँ अर्जुनक जीवन मे एना भेबो कयलनि ।
अर्जुनक कर्ण संग युद्ध भ’ रहल छलन्हि । एहि बीच कर्णक रथक चक्का पृथ्वी मे धँसि गेलनि । कर्ण रथ सँ नीचाँ उतरिकय रथक चक्का केँ निकालबाक उद्योग करय लगलाह आर अर्जुन सँ कहलनि जे ‘जा धरि हम ई चक्का निकालि नहि ली, ताबत धरि तूँ रुकि जो; कियैक तँ तूँ रथपर छँ आ हम रथ सँ रहित छी आ दोसर काज मे लागल छी । एहेन समय रथी लेल उचित छैक जे ओकरा पर बाण नहि चलबय । तूँ सहस्रार्जुन समान शस्त्र आ शास्त्रक ज्ञाता छँ आर धर्म केँ जननिहार सेहो छँ, ताहि लेल हमरा उपर प्रहार करब उचित नहि अछि ।’ कर्णक बात सुनिकय अर्जुन बाण नहि चलबैत छथि । तखन भगवान् कर्ण सँ कहैत छथिन जे ‘तोरा जेहेन आततायी* केँ कोनाहु मारिये टा देनाइ धर्म थिक, पाप नहि; कियैक तँ आततायी केर छहो गोट लक्षण तोरा मे छौक** आर एखनहिं तूँ छः महारथी सब मिलिकय असगर अभिमन्यु केँ घेरिकय ओकरा मारि देलहिन । एहि लेल धर्मक दोहाइ देला सँ कोनो लाभ नहि छौक । हँ, ई सौभाग्यक बात भेलैक जे एहि समय तोरा धर्मक बात याद आबि रहल छौक, मुदा जे स्वयं धर्मक पालन नहि करैत अछि, ओकरा धर्मक दोहाइ देबाक कोनो अधिकार नहि छैक ।’
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आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन् ॥
नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन ।
– मनुस्मृति ८/३५०-३५१
‘अपन अनिष्ट करबाक लेल आबि रहल आततायीक बिना विचार कएने मारि देबाक चाही । आततायी केँ मारला सँ मारयवला केँ कोनो दोष नहि लगैत छैक ।’
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अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः ।
क्षेत्रदारापरहर्ता च षडेते ह्याततायिनः ॥
– वसिष्ठ ३/१९
‘आगि लगेनिहार, विष देनिहार, हाथ मे शस्त्र लयकय मारय लेल उद्यत, धन केर हरण करयवला, जमीन छीनयवला आर स्त्रीक हरण करयवला – ई छहो आततायी थिक ।’
एतेक कहिकय भगवान् अर्जुन केँ बाण मारबाक आज्ञा देलनि त अर्जुन बाण मारनाय आरम्भ कय देलाह ।
एहि प्रकारे यदि अर्जुन अपन बुद्धि सँ धर्मक निर्णय करितथि तँ गलती कय देने रहितथि, तेँ ओ धर्मक निर्णय भगवानहि पर छोड़ि देलनि आ भगवान् धर्मक निर्णय करबो कयलनि ।
अर्जुनक मोन मे सन्देह रहैक जे हमरा सभक (पाण्डव) लेल युद्ध करब श्रेष्ठ अछि अथवा युद्ध नहि करब श्रेष्ठ अछि । (गीता २/६) । यदि हम युद्ध करैत छी त अपन कुटुम्बक नाश होइत अछि आर अपन कुटुम्बक नाश करब बड़ा भारी पाप थिक – ‘स एव पापिष्ठतमो यः कुर्यात् कुलनाशनम्’ । एहि सँ त अनर्थ-परम्परा टा बढ़त (२/४०-४४) । दोसर दिश हम सब देखैत छी जे क्षत्रिय लेल युद्ध सँ बढ़िकय श्रेयक अन्य कोनो साधन नहि छैक । त, भगवान् कहैत छथि जे कि करबाक चाही आ कि नहि करबाक चाही, कि धर्म अछि आ कि अधर्म अछि, एहि सब पचड़ा मे अहाँ कियैक पड़ैत छी ? अहाँ धर्मक निर्णय केर भार हमरा उपर छोड़ू । यैह ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य’ केर तात्पर्य अछि ।
‘मामेकं शरणं व्रज’ – एहि पद मे ‘एकम्’ पद ‘माम्’ केर विशेषण नहि भ’ सकैत अछि; कियैक तँ ‘माम्’ (भगवान्) एक्कहि टा छथि, अनेक नहि । एहि लेल ‘एकम्’ पद केर अर्थ अनन्य टा लेनाय ठीक बैसैत अछि । दोसर बात, अर्जुन ‘तदेकं वद निश्चित्य’ (३/२) आर ‘यच्छ्रेय एतयोरेकम्’ (५/१) पद सब मे सेहो ‘एकम्’ पद सँ सांख्य आर कर्मयोग केर विषय मे एक निश्चित श्रेय केर साधन पुछलनि अछि । ओहि ‘एकम्’ पद केँ लयकय भगवान् एतय ई बताबय चाहैत छथि जे सांख्ययोग, कर्मयोग आदि जतेको भगवत्प्राप्तिक साधन अछि, ओहि सम्पूर्ण साधन सब मे मुख्य साधन एकटा अनन्य शरणागति मात्र अछि ।
गीता मे अर्जुन अपन कल्याणक साधनक विषय मे कतेको रास प्रश्न कयलनि आ भगवान् तेकर उत्तर सेहो देलनि । ओ सब साधन होइतो गीताक पूर्वापर केँ देखला सँ ई स्पष्ट देखाइत अछि जे सम्पूर्ण साधन सभक सार आ शिरोमणि साधन भगवानक अनन्य शरण होयब मात्र अछि ।
भगवान् गीता मे जगह-जगह अनन्यभक्तिक बहुत महिमा गेलनि अछि । जेना, ‘दुस्तर माया केँ सुगमता सँ पार उतरय लेल अनन्य शरणागति टाक उपाय अछि’ (गीता ७/१४); ‘अनन्यचेताक लेल हम सुलभ छी’ (८/१४); ‘परमपुरुषक प्राप्ति अनन्य भक्ति मात्र सँ होइत अछि’ (८/२२); ‘अनन्यभक्तक योगक्षेम हम वहन करैत छी’ (९/२२); ‘अनन्य भक्ति सँ मात्र भगवान् केँ जानल, देखल तथा प्राप्त कयल जाइछ’ (११/५४); ‘अनन्य भक्त केँ हम बहुत जल्दी उद्धार करैत छी’ (१२/६-७); ‘गुणातीत हेबाक उपाय अनन्य भक्तिये छी’ (१४/२६) । एहि तरहें अनन्यभक्तिक महिमा गाबिकय भगवान् एतय पूरा गीताक सार बतबैत छथि – ‘मामेकं शरणं व्रज।’ तात्पर्य ई अछि जे उपाय आ उपेय, साधन आ साध्य हमहीं टा छी ।
‘मामेकं शरणं व्रज’ केर तात्पर्य मन-बुद्धिक द्वारा शरणागति केँ स्वीकार करब नहि थिक, प्रत्युत स्वयं केँ भगवानक शरण मे लय गेनाय थिक । कारण जे स्वयं कें शरण भेलो पर मन, बुद्धि, इन्द्रिय, शरीर आदि सेहो ओहि मे आबि जाइत अछि, अलग नहि रहैत अछि ।
‘अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः’ – एतय कियो एना मानि सकैत अछि जे पहिल अध्याय मे अर्जुन जे युद्ध सँ पाप होयबाक बात कहने रहथि, ओहि पाप सब सँ छुटकारा दियेबाक प्रलोभन भगवान् देने छथि । मुदा ई मान्यता युक्तिसंगत नहि अछि; कियैक तँ जखन अर्जुन सर्वथा भगवानक शरण भ’ गेला अछि, तखन हुनकर पाप केना रहि सकैत अछि । (सन्मुख होइ जीव मोहि जबहीं । जन्म कोटि अस नासहिं तबहीं ॥(रामचरितमानस ५/४४/१) आर, ताहि लेल प्रलोभन कोना देल जा सकैत छैक, अर्थात् ओहि लेल प्रलोभन देनाय बनिते नहि छैक । हाँ, पाप सँ मुक्त करबाक प्रलोभन देनाय हो तँ ओ शरणागत होइ सँ पहिने देल जा सकैत छैक, शरणागत भेलाक बाद नहि ।
‘हम तोरा सब पाप सँ मुक्त कय देब’ – एकर भाव ई अछि जे जखन तूँ सम्पूर्ण धर्म सभक आश्रय छोड़िकय हमर शरण मे आबि गेलें आर शरण भेलोपर तोहर भाव, वृत्ति, आचरण आदि मे फर्क नहि पड़लौक, अर्थात् ओहिमे सुधार नहि भेलौक; भगवत्प्रेम, भवगद्दर्शन आदि नहि भेलौक आर अपना मे अयोग्यता, अनधिकारिता, निर्बलता आदि बुझि पड़ैत छौक तैयो ओकरा लयकय तूँ चिन्ता या डर एकदम नहि कर । कारण जे जखन तूँ हमर अनन्य-शरण भ’ गेले त ओ कमी तोहर केना रहलौक ? ओकरा सुधार करब तोहर काज केना रहलौक ? ओ कमी हमर कमी अछि । आब ओहि कमी केँ दूर कयनाय, ओकर सुधार कयनाय हमर काज रहल । तोहर त बस, एक्के टा काज छौक; ओ काज छौक – निश्चिन्त, निःशोक, निर्भय आ निःशंक भ’ कय हमर चरण मे पड़ल रहनाय । (काहू के बल भजन कौ, काहू के आचार । ‘व्यास’ भरोसे कुँवरि के, सोवत पाँव पसार ॥) मुदा अगर तोरा मे चिन्ता, भय, वहम आदि दोष आबि जेतौक त ओ शरणागति मे बाधक भ’ जेतौक आर सब भार तोरे पर आबि जेतौक । शरण भ’ कय अपनापर भार लेनाय शरणागति मे कलंक छैक ।
जेना विभीषण भगवान् रामक चरणक शरण भ’ जाइत छथि त फेर विभीषणक दोष केँ भगवान् अपनहि दोष मानैत छथि । एक समय विभीषणजी समुद्रक एहि पार अयलाह । ओतय विप्रघोष नामक एकटा गाम मे हुनका सँ अज्ञात ब्रह्महत्या भ’ गेलनि । एहिपर ओहिठामक ब्राह्मण सब एकजुट भ’ कय विभीषण केँ बड मारलनि-पीटलनि, मुदा ओ मरला नहि । फेर ब्राह्मण सब हुनका जंजीर सँ बान्हिकय जमीनक भीतर एकटा गुफा मे ल’ जाकय बन्द कय देलनि । रामजी केँ विभीषणक कैदी हेबाक बात पता लगलनि त ओ पुष्पकविमान सँ तत्काल विप्रघोष नामक ओहि गाम मे पहुँचि गेलाह आ ओतय विभीषणक पता लगाकय हुनका लग पहुँचलाह । ब्राह्मण सब रामजीक बहुत आदर-सत्कार कयलनि आ कहलनि जे ‘महाराज! ई ब्रह्महत्या कय देलक अछि । एकरा हम सब बहुते मारलहुँ, मुदा ई मरल नहि ।’ भगवान् राम कहलखिन, ‘हे ब्राह्मण लोकनि! विभीषण केँ हम कल्प धरिक आयु आ राज्य देने छियन्हि, ओ केना मारल जा सकैत छथि ! आर हुनका मारबाक जरुरते कि अछि ? ई त हमर भक्त छथि । भक्तक लेल हम स्वयं मरय लेल तैयार छी । दासक अपराध केर जिम्मेवारी वास्तव मे ओकर मालिके पर होइत छैक अर्थात् मालिके ओकर दण्डक पात्र होइत अछि । एहि वास्ते विभीषणक बदला मे अपने सब हमरे दण्ड दी ।
(वरं ममैव मरणं मद्भक्तो हन्यते कथम् । राज्यमायुर्मया दत्तं तथैव स भविष्यति ॥ भृत्यापराधे सर्वत्र स्वामिनो दण्ड इष्यते । रामवाक्यां द्विजाः श्रुत्वा विस्मयादिदमब्रुवन् ॥पद्मपुराण, पाताल. १०४/१५०-१५१॥)
भगवानक एहेन शरणागतवत्सलता देखिकय सब ब्राह्मण आश्चर्य करय लगलाह आर ओहो सब गोटे भगवानक शरण लय लेलनि ।
तात्पर्य ई भेल जे ‘हम भगवान् केर छी आर भगवान् हमर छथि’ – एहि अपनापनक समान योग्यता, पात्रता, अधिकारिता आदि किछुओ नहि अछि । ई सम्पूर्ण साधनक सार थिक । छोट-सन बच्चो अपनापनक बलपर आधा राति मे भैर घरक लोककेँ नचबैत अछि यानि जखन ओ राति मे कानय लगैत अछि त भैर घरक लोक उठि जाइत अछि आ ओकरा मनबय लगैत अछि । एहि वास्ते शरणागत भक्त केँ अपन योग्यता आदि दिश नहि देखिकय भगवानक संग अपन अपनापनक दिश देखैत रहबाक चाही ।
‘मा शुचः’ केर तात्पर्य अछि –
(१) हमर शरण भ’ कय तूँ चिन्ता करैत छँ, ई हमरा प्रति अपराध भेल, तोहर अभिमान छी आ शरणागति मे कलंक छी ।
हमर शरण भैयोकय हमर पूरा विश्वास, भरोसा नहि रखनाय हमरा प्रति अपराध छी । अपन दोष सब केँ लयकय चिन्ता करब वास्तव मे अपन बल केर अभिमान थिक; कियैक तँ दोष सब केँ मेटेबा मे अपन सामर्थ्यक बारे सोचले सँ मेटेबाक चिन्ता होइत छैक । हँ, अगर दोष सब केँ मेटेबाक चिन्ता नहि भ’ कय दुःख होइत छैक त दुःख भेनाय ओतेक दोषी नहि अछि । जेना, छोट बच्चा लग कुकुर अबैत छैक त ओ कुकुर केँ देखिकय कनैत अछि, चिन्ता नहि करैत अछि । एहिना दोष सब नहि सोहेनाय दोष नहि छी, प्रत्युत चिन्ता करब दोष छी । चिन्ता करबाक अर्थ यैह होइत छैक जे भीतर मे अपन नुकायल बल केर आश्रय छौक आर यैह तोहर अभिमान छौक । हमर भक्त भैयोकय अगर तूँ चिन्ता करैत छँ त तोहर चिन्ता दूर केना हेतौक ? लोको सब देखतौक त यैह कहतौक जे ई भगवानक भक्त छी आ चिन्ता करैत अछि । भगवान् एकर चिन्ता नहि मेटबैत छथिन ! तूँ हमर विश्वास नहि कयकेँ चिन्ता करैत छँ त विश्वासक कमी त छौ तोहर आ कलंक लगैत अछि हमरा उपर, हमर शरणागति उपर । तेँ चिन्ता केनाय तूँ छोड़ आ अटूट विश्वास राख जे भगवान सबटा ठीक कय देता, हम हुनकर शरण मे छी, बस ।
(२) तोहर भाव, वृत्ति सब, आचरण शुद्ध नहि भेल छौक तैयो तूँ एहि सभक चिन्ता एकदम नहि करे । एहि सभक चिन्ता हम करब ।
(३) दोसर अध्यायक सातम श्लोक मे अर्जुन भगवानक शरण भ’ जाइत अछि आ फेर आठम श्लोक मे कहैत अछि जे एहि भूमण्डलक धन-धान्य सँ सम्पन्न निष्कण्टक राज्यो भेटलापर अथवा देवतो लोकनिक आधिपत्य भेटलापर इन्द्रिय सब केँ सुखाबय वला हमर शोक दूर नहि भ’ सकैत अछि । भगवान् माने जे एना कहि रहल छथि जे तोहर कहनाय ठीके छौ, कियैक तँ भौतिक नाशवान् पदार्थ सभक सम्बन्ध सँ केकरहु शोक कहियो दूर नहि भेलेक, भैयो नहि सकैत छैक आर हेबाक सम्भावना तक नहि छैक । मुदा हमर शरण लयकय जँ तूँ शोक करैत छँ, ई तोहर बड भारी भूल थिकौक । तूँ हमर शरण भ’ कय भार अपना माथ लय रहल छँ ।
(४) शरणागत भेलाक बाद भक्तक लोक-परलोक, सद्गति-दुर्गति आदि कोनो बातक चिन्ता नहि करबाक चाही । एहि विषयमे कोनो भक्त कहने अछि –
दिवि वा भुवि वा ममास्तु नरके वा नरकान्त प्रकामम् ।
अवधीरित शारदारविन्दौ चरणौ ते मरणेऽपि चिन्तयामि ॥
“हे नरकासुरक अन्त करयवला प्रभो! अपने चाहे हमरा स्वर्ग मे राखी, चाहे भूमण्डलपर राखी आ कि चाहे यथेच्छ नरकहि मे राखी – अपने जेतय राखय चाही ओतय राखी । जे किछु करय चाही से करी । एहि विषय मे हमर किछुओ कहब नहि अछि ।हमर त बस एक्के टा मांग अछि जे शरद्-ऋतुक कमल केर शोभा केँ तिरस्कृत कयवला अपनेक अति सुन्दर चरण केँ मृत्यु-जेहेन भयंकर अवस्था मे चिन्तन करैत रही, अपनेक चरण टा केँ नहि बिसरी ।”
विशेष बात
शरणागत भक्त ‘हम भगवानक छी आ भगवान् हमर छथि’ एहि भाव केँ दृढ़ता सँ पकड़ि लैत अछि, स्वीकार कय लैत अछि त ओकर चिन्ता, भय, शोक, शंका आदि दोष सभक जैड़ कटि जाइत छैक अर्थात् दोष सभक आधार कटि जाइत छैक । कारण जे भक्तिक दृष्टि सँ सबटा दोष भगवाक विमुखता मात्र पर टिकल रहैत छैक ।
भगवानक सम्मुख भेलो पर जँ संसार आ शरीरक आश्रय रहैत छैक, सेहो भगवानक सम्बन्ध केर दृढ़ता भेलापर मेटा जाइत छैक, आर ई मेटाइते देरी सबटा दोष सेहो मेटा जाइत छैक । भगवानक सम्बन्धक दृढ़ता भेलापर जखन संसार-शरीरक आश्रय सर्वथा नहि रहैछ, तखन जियय के आशा, मरबाक भय, करबाक राग आ पेबाक लालच – ई चारू मे सँ कोनो नहि रहि जाइछ ।
सम्बन्धक दृढ़ भेनाय कि थिकैक ? चिन्ता, भय, शोक, शंका, परीक्षा आ विपरीत भावनाक नहि होयब टा सम्बन्धक दृढ़ होयब भेलैक । आब एहि पर विचार करू –
(१) निश्चिन्त भेनाय – जखन भक्त अपन मानल गेल वस्तु-सहित अपना-आपकेँ भगवान् केँ समर्पित कय दैत अछि, तखन ओकरा लौकिक-पारलौकिक किंचिन्मात्र धरिक चिन्ता नहि होइत छैक । यानि, आब जीवन निर्वाह कोना होयत ? कतय रहय पड़त ? हमर कि दशा होयत ? कि गति होयत ? आदि चिन्ता सब बिल्कुले नहि रहि जाइत छैक ।
चिन्ता दीनदयालको, मो मन सदा आनन्द ।
जायो सो प्रतिपालसी, रामदास गोविन्द ॥
भगवानक शरण भेलापर शरणागत भक्त मे ई एकटा बात अबैत छैक जे ‘जँ हमर जीवन प्रभुक लायक सुन्दर आ शुद्ध नहि बनल तँ भक्त सभक बात हमर आचरण मे कहाँ आयल ? यानि नहि आयल; कियैक तँ हमर वृत्ति सब ठीक नहि रहैत अछि ।’ वास्तव मे ‘हमर वृत्ति सब अछि’ एना माननाइये दोष थिक, वृत्ति सब ओतेक दोषी नहि अछि । मन, बुद्धि, इन्द्रिय, शरीर आदि मे जे ‘अपनापन’ अछि, यैह गलती छी; कियैक त जखन हम भगवाक शरण भ’ गेल छी आर जखन सब किछु हुनका समर्पित कय देने छी त मन, बुद्धि आदि हमर कहाँ रहल ? एहि वास्ते शरणागतक मन, बुद्धि आदिक अशुद्धिक चिन्ता कखनहुँ नहि करबाक चाही । यानि हमर वृत्ति सब ठीक नहि अछि, एहेन भाव कखनहुँ नहि अनबाक चाही । कोनो कारणवश अचान एहेन वृत्ति सब आबियो जाय त आर्तभाव सँ ‘हे हमर नाथ! हे हमर प्रभो! बचाउ! बचाउ!! बचाउ!!!’ एना प्रभु केँ पुकारबाक चाही; कियैक तँ ओ हमर स्वामी छथि, हमर सर्वसमर्थ प्रभु छथि आ आब हम चिन्ता कियैक करू ? आर भगवान् सेहो कहि देने छथि जे ‘तूँ चिन्ता जुनि कर’ (मा शुचः) । एहि वास्ते हम निश्चिन्त छी – एना कहिकय मोन सँ भगवानक चरण मे गिरू आ निश्चिन्त भ’ कय भगवान् सँ कहि दियौन – ‘हे नाथ! ई सब अपनेक हाथक बात थिक, अपने जानब ।’
सर्वसमर्थ प्रभुक शरण सेहो भ’ गेलहुँ आ चिन्ता सेहो करब – ई दुनू बात बड़ा विरोधी भेल’ कियैक तँ शरण भ’ गेलहुँ त चिन्ता केहेन ? आ चिन्ता होइत अछि त शरणागति केहेन ? एहि वास्ते शरणागत केँ एना सोचबाक चाही जे जखन भगवान् ई कहेत छथि जे हम सम्पूर्ण पाप सब सँ छोड़ा देब त कि एहेन वृत्ति सब सँ छुटकारा पेबाक लेल हमरा किछु करय पड़त ? ‘हम त बस अहाँक छी । हे भगवन्! हमरा मे एहि वृत्ति सब केँ अपन मनबाक भाव कखनहुँ एब्बे नहि करय । हे नाथ! शरीर, इन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्धि – ई सब कखनहुँ हमर देखेबे नहि करय । मुदा हे नाथ! सब किछु अपने केँ देलाक बादहु जँ ई शरीर आदि कखनहुँ-कखनहुँ अपन देखा जाइत अछि; त एहि अपराध सँ हमरा अपने अवश्य छोड़ाउ’ – एना कहिकय निश्चिन्त भ’ जाउ ।
(२) निर्भय भेनाय – आचरण मे कमजोरी भेला सँ भीतर सँ भय पैदा होइत छैक आ साँप, बिच्छू, बाघ आदि सँ बाहर सँ भय पैदा होइत छैक । शरणागत भक्त लेल ई दुनू प्रकारक भय मेटा जाइत छैक । एतबे टा नहि, पतंजलि महाराज जाहि मृत्युक भय केँ पाँचम क्लेश मानलनि अछि (अविद्यास्मितारागद्वेषभिनिवेशाः क्लेशाः। योगदर्शन २/३), आर जे बड़का-बड़का विद्वान् लोकनि केँ सेहो होइत छन्हि (स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढोऽभिनिवेशः। योगदर्शन २/९), ओहो भय सर्वथा मेटा जाइत अछि ।
तथा न ते माधव तावकाः क्वचिद् भ्रश्यन्ति मार्गात्त्वयि बद्धसौहृदाः ।
त्वयाभिगुप्ता विचरन्ति निर्भया विनायकानीकपमूर्धसु प्रभो ॥
– श्रीमद्भागवद्गीता १०/२/३३)
‘भगवन्! जे अपनेक भक्त अछि, जे अपनेक चरण मे अपन सच्चा प्रीति जोड़ने अछि, ओ कहियो ज्ञानाभिमानी सब जेकाँ अपन साधन सँ नहि खसैत अछि । प्रभो! ओ बड़का-बड़का विघ्न दयवला सेनाक सरदार सभक माथपर पैर राखिकय निर्भय भ’ कय विचरन करैत अछि, कोनो विघ्न ओकर मार्ग मे रुकावट नहि डालि सकैत अछि ।’
आब हमर वृत्ति खराब भ’ जायत – एहेन भय केर भाव सेहो साधक केँ भीतर सँ निकालि देबाक चाही; कियैक तँ ‘हम भगवानक कृपा मे तरान्तर भ’ गेल छी, आब हमरा कोनो बातक भय नहि अछि । एहि वृत्ति सब केँ अपन मानि लेला मात्र सँ हम एकरा शुद्ध नहि कय सकैत छी; कियैक तँ एकरा अपन मननाइये मलिनता थिक – ममता मल जरि जाइ’ (मानस ७/११७क) । एहि लेल आब हम कहियो एकरा सब केँ अपन नहि मानब । जखन वृत्ति हमर अछिये नहि तखन हमरा भय कोन बातक ? आब त बस भगवानक कृपे-कृपा अछि ! भगवानक कृपे सर्वत्र परिपूर्ण भ’ रहल अछि । ई बहुत खुशी केर, बहुते प्रसन्नताक बात थिक ।’
लोक सब एना शंका करैत अछि जे भगवानक शरण भ’ कय हुनकर भजन कयला सँ त द्वैत भ’ जायत अर्थात् भगवान् आ भक्त – ई दू भ’ जायत आ दोसर सँ भय होइत छैक – ‘द्वितियाद्वै भयं भवति’ । मुदा ई शंका निराधार अछि । भय दोसर सँ त होइत छैक, मुदा आत्मीय सँ भय नहि होइत छैक अर्थात् भय दोसर सँ होइत छैक, अपन सँ नहि । प्रकृति आर प्रकृतिक काज शरीर-संसार दोसर थिक, एहि वास्ते एकरा सब सँ सम्बन्ध रखले पर टा भय होइत छैक; कियैक तँ एकरा सभक संग सब दिन सम्बन्ध रहिये नहि सकैत अछि । कारण ई छैक जे प्रकृति आ पुरुष केर स्वभाव सर्वथा अलग-अलग अछि; जेना एकटा जड़ अछि आ दोसर चेतन; एकटा विकारी अछि आ दोसर निर्विकार; एकटा परिवर्तनशील अछि आ एकटा अपरिवर्तनशील; एकटा प्रकाश्य अछि आ एकटा प्रकाशक इत्यादि ।
भगवान् दोसर नहि छथि । ओ त आत्मीय छथि; कियैक तँ जीव हुनक सनातन अंस थिक, हुनकहि स्वरूप थिक । एहि वास्ते भगवानक शरण भेलापर हुनका सँ भय केना भ’ सकैत अछि ? प्रत्युत हुनकर शरण भेलापर मनुष्य सदाक लेल अभय भ’ जाइत अछि । स्थूल दृष्टि सँ देखल जाय तँ बच्चा सब केँ अपन माय सँ दूर रहलेपर भय होइत छैक, मुदा मायक कोरा मे चलि गेला पर ओकर भय मेटा जाइत छैक; कियैक तँ माय ओकर अपन थिकैक । भगवानक भक्त अहु सँ विलक्षण होइत अछि । कारण जे बच्चा आ माय मे त भेदभाव देखाइत छैक, मुदा भक्त आ भगवान् मे भेदभाव सम्भवे नहि अछि ।
(३) निःशोक भेनाय – जे बात बीत गेल अछि, तेकरो लेल शोक करैत छी । बीतल बात लेल शोक करब बहुत पैघ गलती करब होइछ; कियैक तँ जे भेलैक ओ अवश्यम्भावी रहैक आर जे नहि होइवला छैक से कहियो भइये नहि सकैत छैक तथा एखन जे भ’ रहल छैक सेहो ठीक-ठीक (वास्तविक) होइयेवला भ’ रहल छैक, तखन ओहिमे शोक करबाक कोनो बाते नहि छैक ।
राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई । करै अन्यथा अस नहिं कोई ॥
– मानस १/१२८/१
होइहि सोइ जो राम रचि राखा । को करि तर्क बढ़ावै साखा ॥
– मानस १/५२/४
प्रभुक एहि मंगलमय विधान केँ जानिकय शरणागत भक्त सदा निःशोक रहैत अछि, शोक ओकरा लग कहियो अबिते नहि छैक ।
(४) निःशंक होयब – भगवान् केर सम्बन्ध मे कहियो ई सन्देह नहि करू जे हम भगवानक भेलहुँ या नहि ? भगवान् हमरा स्वीकार कयलनि या नहि ? प्रत्युत एहि बात केँ देखू जे ‘हम त अनादिकाल सँ भगवानहि केर छलहुँ, भगवानहि केर छी आ आगुओ सब दिन भगवानहि केर रहब । हम अपन मूर्खता सँ अपना केँ भगवान् सँ विमुख (अलग) मानि लेने रही । मुदा हम अपना केँ भगवान् सँ कतबो अलग मानि ली तैयो हुनका सँ अलग भइये नहि सकैत छी आ से भेनाय सम्भवो नहि अछि । जँ हम भगवान् सँ अलग होइयो लेल चाहब त अलग केना भ’ सकब ? कियैक तँ भगवान् कहने छथि जे ई जीव हमरहि अंश थिक – ‘मम एव अंशः’ (गीता १५/७) । एहि तरहें ‘हम भगवानक छी आ भगवान् हमर छथि’ – एहि वास्तविकताक स्मृति अबिते शंका-सन्देह मेटा जाइत छैक, शंका-सन्देह सभक लेल किंचिन्मात्रो गुंजाइश नहि रहैत छैक ।
(५) परीक्षा नहि करब – भगवानक शरण भ’ कय एहेन परीक्षा नहि करू जे ‘जखन हम भगवानक शरण भ’ गेल छी त हमरा मे एहेन-एहेन लक्षण घटबाक चाही । जँ एहेन-एहेन लक्षण हमरा मे नहि अछि त हम भगवानक शरण केना भेलहुँ ? प्रत्युत ‘अद्वेष्टा’ आदि (गीता १२/१३-१९) गुण सब केँ अपना मे कमी देखाय त आश्चर्य करी जे हमरा ई कमी केना रहि गेल ।* एहेन भाव अबिते एहेन कमी नहि रहत, कमी मेटा जायत । कारण जे ई ओकर प्रत्यक्ष अनुभव थिकैक जे पहिने अद्वेष्टा आदि गुण जतेक कम रहय, ओतेक कम आब नहि अछि । शरणागत भेलापर भक्त सभक जे-जतेक लक्षण अछि, से सब बिना प्रयत्न कयने आबि जाइत अछि ।
* ई बुझबाक लेल एक ग्रामीण कथा अछि । एक माय केर तीन टा बेटा रहय । दुइ टा पैघ छल आ काज-धन्धा सेहो करैत छल । तेसर बेटा बड सीधा-सादा आ भोला छल । अचानक माय मरि गेलि । त दुनू बड़का भाइ छोटका भाइ सँ कहलक जे माँक अस्थिकलश गंगाजी मे विसर्जित कय आबे, एतबे काज तूँ कय दे । छोटका भाइ कहलकैक जे ठीक छैक । ओ मायक अस्थिकलश लय अपन घर सँ विदाह भेल । घर सँ गंगाजी ३०० कोस दूर रहथि । पैदल रस्ता – चलैत-चलैत ओ थाकि गेल त केकरो सँ पुछलकैक – भैया! गंगाजी कतेक दूर छथि ? जवाब भेटलैक जे १५० कोस तूँ आबि गेल छह, आर १५० कोस आगू छथि गंगाजी । ओ सोचलक जे गंगाजी कहिया पहुँचब आ फेर घुरिकय कहिया आयब ! एना दुःखी भ’ कय ओ हड्डी सब जंगलहि मे फेक देलक आ गामहि लगक बरखाक मीठ पानि बर्तन मे भरि लेलक, कियैक तँ गंगाजी जाइत अछि लोक त ओतय सँ घुरैत काल गंगाजल भरिकय अनैत अछि । फेर ओ ओतय सँ पाछू चलि आयल आ अपन गाम पहुँचि गेल । बड़का भाइ सब सोचय लागल जे अगर ई गंगाजी जाकय अबैत त एतनी दिन मे नहि आबि सकैत छल, ई गंगाजी गेबे नहि कयल । बड़का भाइ सब ओकरा सँ पुछलक, “तूँ गंगाजी जाकय अयलें की ?” ओ कहलकैक – ‘हाँ, गंगाजी जाकय अयलहुँ; ठेंठ गंगाजीक ब्रह्मकुण्ड मे अस्थि विसर्जित कय ओतय सँ गंगाजीक ई जल अनलहुँ हँ ।” एना ओ झूठ बाजि गेल । भाइ सब बुझलक जे ई सही बात नहि बता रहल अछि, ताहि सँ ओ सब चुप्पे रहि गेल ।
दोसर दिन नींद सँ उठिकय एक बड़का भाइ छोटका सँ कहलक – ‘अरे भाइ! तूँ सच बात बता दे, कि तूँ ठेंठ गंगाजी भ’कय अयलें आ अस्थि ठेंठ गंगाजी मे प्रवाहित कय देलें ?’ छोटका कहलकैक, ‘हाँ, बिल्कुल गंगाजी जाकय अयलहुँ हँ ।’ बड़का भाइ कहलकैक, ‘देख, राति सपना मे हमरा माँ भेटल छल आ माँ हमरा सँ कहलक जे ई त हमरा ठेंठ गंगाजी पहुँचेबे नहि कयलक, बीच्चे मे फेकिकय चलि आयल । तखन आब तूँहीं कहे जे माँ के बात सच आ कि तोहर बात सच ?’ छोट भाइ जवाब देलकैक, ‘माँ एम्हर कियैक आयल, ओम्हर कियैक नहि गेल ?’ अर्थात् १५० कोस त हम पहुँचइये देने रही, एम्हर नहि आबि ओम्हर चलि जइतय त ठेंठ गंगाजी पहुँचि जइतय !
एहि कहानीक तात्पर्य भेल जे भगवानक शरण भेलाक बाद ई नाप-जोख लोक करैत अछि, जाँच-परीक्षा करैत अछि जे ‘भक्त सभक, सन्त सभक लक्षण हमरा मे आयल नहि त हम भगवानक शरण नहि भेलहुँ’ – ई माँ उल्टा कियैक आयल, सुलटे कियैक नहि गेल जे ‘जखन हम भगवानक शरण भ’ गेलहुँ त एहि-एहि लक्षण सभक कमीक कोना रहि गेल ? हमरा मे ई लक्षण सब कियैक नहि आयल ?’ एहेन मान्यता सँ अहाँ शरणागत भ’ जायब आ पूर्णता सेहो आबि जायत । मुदा एना मान्यता राखब जे ‘हमरा मे फल्लाँ-फल्लाँ लक्षण नहि आयल त हम शरण नहि भेलहुँ’ त धोखा भ’ जायत ।
६. विपरीत धारणा नहि बनेनाय – भगवानक शरणागत भक्त मे ई विपरीत धारणा सेहो केना भ’ सकैत छैक जे ‘हम भगवानक नहि छी’ कियैक त ई हमरा मनला अथवा नहि मनला पर निर्भर नहि करैछ । भगवानक आ हमर परस्पर सम्बन्ध जे अछि, ओ अटूट अछि, अखण्ड अछि, नित्य अछि, हम एहि सम्बन्धक दिश खियाले नहि कएने रही, से हमर गलती छल । आब ओ गलती मेटा गेल त फेर विपरीत धारणा भइये केना सकैत अछि ?
जे मनुष्य सच्चा हृदय सँ प्रभुक शरणागति केँ स्वीकार कय लैत अछि, ओकरा मे चिन्ता, भय, शोक आदि दोष नहि रहैत छैक । ओकर शरण-भाव स्वतः रूप सँ दृढ़ होइत चलि जाइत छैक, ओहिना, जेना विवाह भेलाक बाद कन्याक अपन पिताक घर सँ सम्बन्ध विच्छेद आ पतिक घर सँ सम्बन्ध स्वतः रूप सँ दृढ़ होइत चलि जाइत छैक । ओ सम्बन्ध एतय तक दृढ़ भ’ जाइत छैक जे जखन ओ कन्या दादी-परदादी बनि जाइत अछि, तखन ओकरा सपनहुँ मे ई भाव नहि अबैत छैक जे हम एहिठामक नहि छी । ओकर मोन मे यैह भाव दृढ़ भ’ जाइत छैक जे हम त एहि ठामहि के छी आर ई सब हमरहि सखा-सन्तान सब थिक । जखन ओकर पौत्रक कनियाँ अबैत छैक आ घर मे उद्दण्डता करैत छैक, खटपट मचैत छैक त ओ (दादी) कहैत छैक जे ई पराया घरक छौंड़ी आबिकय हमर घर बिगाड़ि देलक, मुदा ओहि बुढ़िया दादी केँ ई बात नहि अबैत छैक जे हमहुँ पराये घरक जन्मल छी । तात्पर्य ई भेल जे जखन बनावटी सम्बन्ध मे सेहो एतेक दृढ़ता भ’ सकैत छैक, तखन भगवानक अंश ई प्राणीक सेहो भगवानक संग जे नित्य सम्बन्ध छैक, ओ दृढ़ भ’ जाय त कि आश्चर्य होयत ! वास्तव मे भगवानक सम्बन्ध केर दृढ़ताक लेल मात्र संसारक मानल गेल सम्बन्ध सभक त्याग करबाक जरूरत छैक ।
सच्चा हृदय सँ प्रभुक चरण केर शरण भेलापर ओहि शरणागत भक्त मे जँ कोनो भाव, आचरण आदिक किंचित् कमी रहियो जाय, समय पर विपरीत वृत्ति उत्पन्न भ’ जाय अथवा कोनो परिस्थिति मे पड़िकय परवशता सँ कखनहुँ किंचित् कोनो दुष्कर्मो भ’ जाय, त ओकर हृदय मे जलन उत्पन्न भ’ जायत । एहि वास्ते ओकरा लेल आर कोनो प्रायश्चित करबाक जरूरत नहि छैक । भगवान् कृपा कयकेँ ओकर ओहि पाप केँ सर्वथा नष्ट कय दैत छथिन ।*१
भगवान् भक्तक अपनापन टा केँ देखैत छथि, गुण आ अवगुण सब केँ नहिं*२ अर्थात् भगवान् केँ भक्तक दोष नहि देखाइत छन्हि, हुनका त केवल भक्तक संग जे अपनापन अछि, वैह टा देखाइत अछि । कारण जे स्वरूप सँ भक्त सदा सँ मात्र भगवानक अछि । दोष आगन्तुक हेबाक कारण अबैत-जाइत रहैछ आर ओ नित्य-निरन्तर जहिना-के-तहिना रहैत अछि । एहि वास्ते भगवानक दृष्टि मात्र अपन बच्चा दिश टा जाइत छन्हि, बच्चाक मैल दिश नहि जाइत छन्हि । बच्चाक दृष्टि सेहो मैल दिश नहि जाइछ । माँ साफ करय वा नहि करय, मुदा बच्चाक दृष्टि मे त मैल अछिये नहि, ओकर दृष्टि मे त मात्र माँ टा अछि । द्रौपदीक मोन मे कतेक द्वेष आ क्रोध भरल रहनि जे जखन दुःशासनक खून सँ अपन केश धोयब, तखनहि केश बान्हब ! मुदा द्रौपदी जखनहुँ भगवान् केँ पुकारैत छथि, भगवान् चट आबि जाइत छथि’ कियैक तँ भगवानक संग द्रौपदीक गाढ़ अपनापन छलन्हि ।
*१.
स्वपादमूलं भजतः प्रियस्य त्यक्तान्यभावस्य हरिः परेशः ।
विकर्म यच्चोत्पतितं कथञ्चिद् धुनोति सर्व हृदि संनिविष्टः ॥
– श्रीमद्भागवतपुराण ११/५/४२
‘जे प्रेमी भक्त भगवानक चरणक अनन्यभाव सँ भजन करैत अछि, ओकरा द्वारा जँ अकस्मात् कोनो पाप-कर्म भइयो जाय तँ ओकर हृदय मे विराजमान परमपुरुष भगवान् श्रीहरि ओकर पाप केँ सर्वथा नष्ट कय दैत छथि ।’
*२.
रहति न प्रभु चित चूक किए की । करत सुरति सय बार हिए की ॥
– मानस १/२९/३
भगवान् संग अपनापन होइ मे दुइ टा भाव रहैत अछि – (१) भगवान् हमर छथि आर (२) हम भगवान् केर छी । एहि दुनू मे भगवानक सम्बन्ध समान रीति सँ रहितो ‘भगवान् हमर छथि’ – एहि भाव मे भगवान् सँ अपन अनुकूलताक इच्छा भ’ सकैत अछि जे जँ भगवान् हमर छथि तँ इच्छाक पूर्ति कियैक नहि करैत छथि ? आर ‘हम भगवानक छी’ एहि भाव मे भगवान् सँ अपन अनुकूलताक इच्छा नहि भ’ सकैछ’; कियैक तँ हम भगवान् केर छी तँ भगवान् हमरा लेल जेहेन ठीक बुझथि, तहिना निःसंकोच भ’ कय करथि । एहि वास्ते साधक केँ चाही ओ भगवानहि केर मर्जी मे सदिखन अपन मर्जी मिला दियए; भगवान् पर अपन कनिकबो आधिपत्य नहि मानय, प्रत्युत अपनापर हुनकर पूरा आधिपत्य मानय । कतहु भगवान् हमर मोनक बात कय देथि त संकोच हो जे हमरा लेल भगवान् केँ एना करय पड़लन्हि ! यदि अपन मोनक बात पूरा भेला सँ संकोच नहि होइत अछि, प्रत्युत संतोष होइत अछि त ई शरणागति नहि थिक । शरणागत भक्त शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धिक प्रतिकूल परिस्थिति मे सेहो भगवानहि केर मर्जी बुझिकय प्रसन्न रहैत अछि ।
शरणागत भक्त केँ अपना लेल कखनहुँ कनिकबो किछो करनाय शेष नहि रहैछ; कियैक तँ ओ सम्पूर्ण ममतावाली वस्तु (सम्बन्ध) आदिक संग अपना-आप केँ भगवान् केँ समर्पित कय देलक, जे वास्तव मे प्रभुएक रहनि । आब करय, कराबय आदिक सब काज भगवानहि केर रहि गेलनि । एहेन अवस्था मे ओ कठिन-सँ-कठिन आ भयंकर-सँ-भयंकर घटना, परिस्थिति मे सेहो अपना उपर प्रभुक महान् कृपा मानिकय सदिखन प्रसन्न रहैत अछि, मस्त रहैत अछि । जेना, गरुड़जीक पुछलापर काकभुशुण्डिजी अपन पूर्वजन्मक ब्राह्मण-शरीरक कथा सुनौलनि, जाहि मे लोमश ऋषि द्वारा शाप दय हुनका (ब्राह्मणकेँ) पक्षी सब मे नीच चाण्डाल पक्षी (कौआ) बना देलनि; मुदा काकभुशुण्डिजीक मोन मे न कनिकबो भय भेलनि आ न कनिकबो दीनताक भावे अयलनि ! ओ ओहि मे भगवानक शुद्ध विधान टा बुझलनि । मात्र बुझबे टा नहि कयलनि, प्रत्युत मनहि-मन बाजियो उठलाह – ‘उर प्रेरक रघुबंस बिभूषन’ (मानस ७/११३/१) । एहेन भयंकर श्राप भेटलोपर जखन काकभुशुण्डिजी केँ प्रसन्नता मे कोनो कमी नहि अयलनि, तखन लोमश ऋषि हुनका भगवानक प्यारा भक्त बुझिकय अपना पास बजौलनि आ बालक रामजीक ध्यान करबाक रीति बुझेलनि । फेर भगवानक कथा सुनौलनि आर अत्यन्त प्रसन्न भ’ कय काकभुशुण्डिजीक माथ पर हाथ फेरैत आशीर्वाद देलनि – ‘हमर कृपा सँ तोहर हृदय मे अबाध, अखण्ड रामभक्ति रहतौक । तूँ रामजी केँ प्रिय भ’ जेमें । तूँ सम्पूर्ण गुण सभक खान बनि जेमें । जाहि रूप केर इच्छा करमें, से रूप धारण कय लेमें । जाहि स्थान पर तूँ रहमें, ओतय एक योजन पर्यन्त मायाक कण्टक (काँट) किंचिन्मात्रो नहि आबि सकत ‘ आदि-आदि । एहि प्रकारे बहुते-रास आशीर्वाद दैते देरी आकाशवाणी होइत अछि – ‘हे ऋषे! अपने किछु कहलहुँ, ओ सब सत्य होयत; ई मन, वाणी, कर्म सँ हमर भक्त अछि ।’ एहि बात केँ लयकय भगवानक विधान मे सदा प्रसन्न रहयवला काकभुशुण्डिजी कहलनि अछि –
भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप ।
मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप ॥
– मानस ७/११४ख
एतय ‘भजन प्रताप’ शब्दक अर्थ अछि – भगवानक विधान मे हर समय प्रसन्न रहनाय । विपरीत-सँ-विपरीत अवस्थहु मे प्रेमी भक्तक प्रसन्नता अधिक-सँ-अधिक बढ़ैत रहैत अछि; कियैक तँ प्रेमक स्वरूपे प्रतिक्षण वर्द्धमान अछि ।
ई नियम छैक कि जे चीज अपन होइछ, ओ सदैव अपना नीक लगैछ । भगवान् सम्पूर्ण जीव केँ अपन प्रिय मानैत छथि – ‘सब मम प्रिय सब मम उपजाए’ (मानस ७/८६/२) आर एहि जीव केँ सेहो प्रभु स्वतः प्रिय लगैत छथि । हाँ, ई बात दोसर अछि जे ई जीव परिवर्तनशील संसार आ शरीर केँ भूलवश अपन मानिकय अपन प्रिय प्रभु सँ विमुख भ’ जाइत छथि । जीव केर विमुख भेलोपर भगवान् अपना दिश सँ केकरहु त्याग कयलनि आ न कहियो कइये सकैत छथि । कारण ई जे जीव सदा सँ साक्षात् भगवानहि केर अंश अछि । एहि वास्ते सम्पूर्ण जीव केर संग भगवानक आत्मीयता अक्षुण्ण, अखण्डितरूप सँ स्वाभाविके बनल रहल अछि । एहि सँ ओ मात्र जीवपर कृपा करबाक लेल अर्थात् भक्तक रक्षा, दुष्टक विनाश आ धर्मक स्थापना – एहि तीन बातक लेल समय-समय पर अवतार लैत छथि ।* एहि तीन बात मे केवल भगवानक आत्मीयता टा टपकैत अछि, नहि त भक्तक रक्षा, दुष्टक विनाश आ धर्मक स्थापना सँ भगवानक कोन प्रयोजन सिद्ध होइछ ? यानि कोनो प्रयोजन सिद्ध नहि होइछ । भगवान् तँ ई तीनू काज मात्र प्राणिमात्रक कल्याण लेल टा करैत छथि । एहि सँ सेहो प्राणिमात्रक संग भगवानक स्वाभाविक आत्मीयता, कृपालुता, प्रियता, हितैषिता, सुहृता आर निरपेक्ष उदारता टा सिद्ध होइत अछि आर एतहु एहि दृष्टि सँ अर्जुन सँ कहैत छथि – ‘मद्भक्तो भव, मन्मना भव, मद्याजी भव, मां नमस्कुरु’ । एहि चारि बात मे भगवानक तात्पर्य केवल जीव केँ अपन सम्मुख आनब टा छन्हि, जाहि सँ सम्पूर्ण जीव असत् पदार्थ सँ विमुख भ’ जाय; कियैक तँ दुःख, संताप, बेर-बेर जन्मब-मरब, मात्र विपत्ति आदि मे मुख्य हेतु भगवान् सँ विमुख होयब टा अछि ।
*परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
– गीता ४/८
भगवान् जेहो किछु विधान करैत छथि, ओ संसारमात्रक सम्पूर्ण प्राणीक कल्याणक लेल टा करैत छथि – बस, भगवानक एहि कृपा दिश प्राणीक दृष्टि भ’ जाय त फेर ओकरा लेल कि करब बाकी रहि गेलय ? प्राणीक हितक लेल भगवानक हृदय मे एक तरहक तड़फन छन्हि, ताहि सँ भगवान् ‘सर्वधर्मपरित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ वला अत्यन्त गोपनीय बात कहि दैत छथि । कारण जे भगवान् जीवमात्र केँ अपन मित्र मानैत छथि – ‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ (गीता ५/२९) आर ओकरा ई स्वतंत्रता दैत छथि जे ओ कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि जतेक साधन सब अछि, ताहि मे सँ कोनो साधन द्वारा सुगमतापूर्वक हमर प्राप्ति कय सकैत अछि आर दुःख, संताप आदि केँ सदाक लेल समूल नष्ट कय सकैत अछि ।
वास्तव मे जीव केर उद्धार केवल भगवत्कृपा टा सँ होइत छैक । कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, अष्टांगयोग, लययोग, हठयोग, राजयोग, मंत्रयोग आदि जतेको रास साधन सब छैक, ओ सभक-सब भगवान् द्वारा आ भगवत्तत्त्व केँ जानयवला महापुरुष लोकनि द्वारा मात्र प्रकट कयल गेल छैक ।* यैह वास्ते एहि सब साधन मे भगवत्कृपा मात्र भरल अछि । साधन करय मे तँ साधक निमित्तमात्र होइछ, मुदा साधनक सिद्धि मे भगवत्कृपा टा मुख्य छैक ।
*हेतु रहित जग जुग उपकारी । तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥
– मानस ७/४७/३
शरणागत भक्त केँ त एहनो चिन्ता कहियो नहि करबाक चाही जे एखन भगवानक दर्शन नहि भेल, भगवानक चरण मे प्रेम नहि भेल, एखन वृत्ति सब शुद्ध नहि भेल, आदि । एहि तरहक चिन्ता करब मानू बानरक बच्चा बनब भेल । बनरीक बच्चा स्वयं बनरी केँ पकड़ने रहैत अछि, बनरी कुदैत-फनैत, कतहु जाय, बच्चा स्वयं बनरीक संग कतहु चिपकि गेल करैत अछि । भक्त केँ तँ अपन सबटा चिन्ता भगवानहि पर छोड़ि देबाक चाही अर्थात् भगवान् दर्शन देथि वा नहि देथि, प्रेम देथि वा नहि देथि, वृत्ति सब केँ ठीक करथि वा नहि करथि, हमरा लोकनि केँ शुद्ध बनबथि वा नहि बनबथि – ई सब बात भगवानक मर्जी पर छोड़ि देबाक चाही । शरणागत भक्त केँ तँ बिलाड़ि के बच्चा जेकाँ बनबाक चाही । बिलाड़िक बच्चा अपन माय पर निर्भर रहैत अछि । बिलाड़ि अपन मर्जी सँ बच्चा केँ उठाकय लय जाइछ त बच्चा अपन पैर अपने समेटि लैत अछि । एहिना शरणागत भक्त संसारक तरफ सँ अपन हाथ-पैर समेटिकय मात्र भगवानक चिन्तन, नामजप आदि करैत भगवानक तरफ मात्र देखैत रहैत अछि । भगवानक जे विधान छन्हि, ओहि मे परम प्रसन्न रहैत अछि, अपन मोनक किछु नहि लगैछ ।
जेना, कुम्हार पहिने माटि केँ माथ पर उठाकय अनैत अछि त कुम्हारक मर्जी, फेर ओहि माटि केँ भिजाकय ओकरा सानैत (रौंदैत) अछि त कुम्हारक मर्जी, फेर चक्का पर चढ़ाकय घुमबैत अछि त कुम्हारक मर्जी । माटि कखनहुँ किछु नहि कहैछ जे अहाँ हमरा घैला बनाउ, सरवा बनाउ, मटकुरी बनाउ । कुम्हारक मर्जी (मन) जे बनाबय, ई सब ओकरहि मर्जी पर अछि । तहिना शरणागत भक्त अपन कोनो मर्जी (मोन) केर बात नहि रखैछ । ओ जतबे निश्चिन्त आ निर्भय होइत अछि, भगवत्कृपा ओकरा अपनेआप ओतबे बेसी अपन अनुकूल बना लैछ आर जतेक ओ चिन्ता करैत अछि, अपन बल मानैत अछि, ओतबे ओ अपना लग अबैत भगवत्कृपा मे बाधा उत्पन्न करैत अछि अर्थात् शरणागत भेलापर भगवान दिश सँ जे विलक्षण, विचित्र, अखण्ड, अटूट कृपा अबैत अछि, अपन चिन्ता कयला सँ ओहि कृपा मे बाधा उत्पन्न भ’ जाइछ ।
जेना धीवर (मछुआ, मल्लाह) मछरी केँ पकड़बाक लेल नदी मे जाल फेकैत अछि त जालक भीतर आबयवाली सबटा माछ पकड़ल जाइत अछि; मुदा जे मछरी जाल फेकयवला मछुआक पैर लग आबि गेल रहैछ, से माछ जाल मे नहि पकड़ाइछ । तहिना भगवानक माया संसार मे ममता कय केँ जीव फँसि जाइत अछि आर जन्मैत-मरैत रहैत अछि; मुदा जे जीव मायापति भगवानक चरणक शरण मे चलि जाइछ, ओ माया केँ तरि जाइत अछि – ‘मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते’ (गीता ७/१४) । एहि दृष्टान्तक एक्कहि टा अंश ग्रहण करबाक चाही; कियैक तँ धीवर (मछुआ) केर तँ माछ पकड़बाक भाव रहैत छैक; मुदा भगवान केर जीव केँ माया मे फँसेबाक किंचिन्मात्रहु भाव नहि रहैत छन्हि । भगवानक भाव तँ जीव केँ मायाजाल सँ मुक्त कय केँ ‘मामेकं शरणं व्रज’ । जीव संयोगजन्य सुख केर लोलुपता (लोभ) सँ अपने आप माया मे फँसि जाइत अछि ।
जेना चलैत चक्कीक भीतर आबयवला सबटा दाना पिसा गेल करैत अछि; मुदा जेकर आधार पर चक्की चलैत छैक, ताहि कील (धुरी) केर आसपास रहयवला दाना जहिनाक तहिना साबूत रहि गेल करैछ । एहिना जन्म-मरण रूप संसारक चलैत चक्की मे पड़ल सबटा जीव पिसा गेल करैछ यानि दुःख पबैछ; मुदा जेकर आधार पर संसार चक्र चलैत अछि, ताहि भगवानक चरण केर सहारा लयवला जीव पिसाय सँ बचि गेल करैछ – “कोई हरिजन उबरे, कील माकड़ी पास ।” – ई दृष्टान्त सेहो पूरा नहि घटित होइछ; कियैक तँ दाना त स्वाभाविक रूप सँ कील लग रहि जाइछ । ओ सब बचबाक कोनो उपाय नहि करैछ । मुदा भगवानक भक्त संसार सँ विमुख भ’ कय प्रभुक चरणक आश्रय लैत अछि । तात्पर्य ई अछि कि जे भगवानक अंश भइयो कय संसार केँ अपन बुझैत अछि, यानि संसार सँ किछु चाहैत अछि, वैह जन्म-मरणरूपी चक्र मे पड़िकय दुःख भोगैत अछि ।
संसार आर भगवान् – एहि दुनूक सम्बन्ध दुइ तरहक होइछ । संसारक सम्बन्ध केवल मानल गेल अछि आर भगवानक सम्बन्ध वास्तविक अछि । संसारक सम्बन्ध तँ मनुष्य केँ पराधीन बनबैछ, गुलाम बनबैछ, मुदा भगवानक सम्बन्ध मनुष्य केँ स्वाधीन बनबैत अछि, चिन्मय बनबैत अछि आ आरो बना दैत अछि भगवानहु केर मालिक !
कोनो बात केँ लयकय अपना मे कनिको विशेषता देखाइत अछि, ओ वास्तव मे पराधीनता थिक । जँ मनुष्य विद्या, बुद्धि, धन-सम्पत्ति, त्याग, वैराग्य आदि कोनो बात केँ लयकय अपन विशेषता मानैत अछि त ई ओहि विद्या आदिक पराधीनता, दासता टा छी । जेना, कियो धन केँ लयकय अपना मे विशेषता मानैत अछि त ई विशेषता वास्तव मे धनहि केर भेल, अपन नहि भेल । ओ अपना केँ धनक मालिक मानैत अछि, मुदा वास्तव मे ओ धनक गुलाम छी ।
संसारक यैह कायदा छैक जे सांसारिक पदार्थ लयकय जे अपना मे किछु विशेषता मानैत अछि, तेकरा वैह सांसारिक पदार्थ तुच्छ (नीच) बना दैत छैक, पद-दलित कय दैत छैक । मुदा जे भगवानक आश्रित भ’ कय सदा भगवानहि पर निर्भर रहैत अछि, ओकरा अपन कोनो विशेषता देखाइते नहि छैक, बल्कि भगवानहि केर अलौकिकता, विलक्षणता, विचित्रता टा देखाइत छैक । भगवान् चाहे ओकरा अपन मुकुटमणि बना लेथि आ कि चाहे अपन मालिक बना लेथि, तैयो ओकरा अपना मे कोनो टा विशेषता नहि देखाइत छैक । प्रभुक यैह कायदा छन्हि जे जाहि भक्त केँ अपना मे कोनो विशेषता नहि देखाइत छैक, अपना मे कोनो बातक अभिमान नहि होइत छैक, ताहि भक्त मे भगवानक विलक्षणता अभैर जाइत छैक । केकरो-केकरो मे त एतय धरि विलक्षणता आबि जाइत छैक जे ओकर शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि प्राकृत पदार्थ सेहो चिन्मय बनि जाइत छैक । ओकरा मे जड़ताक अत्यन्त अभाव भ’ जाइत छैक । एहेन भगवानक प्रेमी भक्त भगवानहि मे समा गेल अछि, अन्त मे ओकर शरीर तक नहि भेटलैक । जेना, मीराबाई शरीरसहित भगवानक श्रीविग्रह मे लीन भ’ गेलीह । मात्र पहिचानक लेल हुनकर साड़ीक छोट टा छोर श्रीविग्रहक मुंह मे रहि गेल आर किछो नहि बचल । एहने सन्त श्रीतुकारामजी शरीरसहित वैकुण्ठ चलि गेलाह ।
ज्ञानमार्ग मे शरीर चिन्मय नहि होइछ; कियैक त ज्ञानी असत् सँ सम्बन्ध विच्छेद कय केँ, असत् सँ अलग भ’ कय स्वयं चिन्मय तत्त्व मे स्थिर भ’ जाइत अछि । मुदा जखन भक्त भगवानक सम्मुख होइत अछि त ओकर शरीर, इन्द्रिय, मन, प्राण आदि सबटा भगवानक सम्मुख भ’ जाइत छैक । तात्पर्य ई भेल जे जेकर दृष्टि मात्र चिन्मय तत्त्व पर टा रहैत छैक यानि जेकर दृष्टि मे चिन्मय तत्त्व छोड़ि आन कोनो जड़ताक स्वतंत्र सत्ते नहि होइत छैक त ओ चिन्मयता ओकर शरीरहु आदि मे आबि जाइत छैक आर ओ शरीर आदि चिन्मय भ’ जाइत छैक । हँ, लोकक दृष्टि मे त ओकर शरीर मे जड़ता देखाइत छैक, मुदा वास्तव मे ओकर शरीर चिन्मय होइत छैक ।
भगवान् केर सर्वथा शरण भ’ गेलापर शरणागतक लेल भगवानक कृपा विशेषता सँ प्रकट होइते टा छैक, मुदा मात्र संसारक स्नेहपूर्वक पालन करयवाली आ भगवान् सँ अभिन्न रहयवाली वात्सल्यमयी माता लक्ष्मीक प्रभु-शरणागत पर कतेक बेसी स्नेह होइत छन्हि, ओ कतेक बेसी स्नेह प्रदान करैत छथि, एकर कियो वर्णनो तक नहि कय सकैत अछि । लौकिन व्यवहार मे सेहो देखय मे अबैत अछि जे पतिव्रता स्त्री केँ पितृभक्त पुत्र बहुत प्रिय लगैत छन्हि ।
दोसर बात, प्रेमभाव सँ परिपूरित प्रभु जखन अपन भक्त केँ देखबाक लेल गरुड़पर बैसिकय अबैत छथि त माता लक्ष्मी सेहो प्रभुक संग गरुड़पर बैसिकय अबैत छथि, जाहि गरुड़क पाँखि सँ सामवेदक मन्त्र केर गान होइत रहैत अछि ! मुदा कियो भगवान् केँ नहि चाहिकय मात्र माता लक्ष्मी टा केँ चाहैत अछि त ओकर स्नेहक कारण लक्ष्मीजी आबियो जाइत छथि, धरि हुनकर वाहन दिवान्ध उल्लू होइत अछि । एहेन वाहनवाली लक्ष्मी केँ प्राप्त कय केँ मनुष्य सेहो मदान्ध भ’ जाइत अछि । अगर ओहि माँ केँ कियो भोग्या बुझि लैत अछि त ओकर बड़ा भारी पतन भ’ जाइत छैक; कियैक त ओ अपन माँएं केँ कुदृष्टि सँ देखैत अछि, एहि वास्ते ओ महान् अधम थिक ।
तेसर बात, जेतय मात्र भगवानक प्रेम होइत अछि, ओतय सँ भगवान् सँ अभिन्न रहयवाली लक्ष्मी भगवानक संग आबिये टा जाइत छथि, मुदा जेतय मात्र लक्ष्मीक चाहना अछि, ओतय लक्ष्मीक संग भगवान् सेहो आबि जाइथ – एहेन नियम नहि छैक ।
शरणागतिक विषय मे एकटा कथा अबैत अछि । सीताजी, रामजी आ हनुमानजी जंगल मे एकटा गाछक नीचाँ बैसल रहथि । ओहि गाछक डार्हि-ठार्हि पर एकटा लत्ती (लता) चतरल छल । लत्तीक कोमल-कोमल मुरी सब पसैर रहल छलैक । ओहि मुरी सब मे कतहु-कतहु नव-नव कोपल निकलि रहल छल, आर कतहु-कतहु ताम्रवर्णक पत्ता सेहो निकलि रहल छल । फुल आ पात सँ ओ लत्ती लदल छल । ओहि सँ गाछक खुब सुन्दर शोभा बढ़ि रहल छल । गाछ बहुते सोहाओन लागि रहल छल । ओहि गाछक शोभा केँ देखिकय भगवान् श्रीराम हनुमानजी सँ कहला – “देखू हनुमान्! ई लत्ती कतेक सुन्दर अछि ! गाछक चारू दिश केना पसरल अछि ! ई लत्ती अपन सुन्दर-सुन्दर फल, सुगन्धित फूल आ हरियर-हरियर पात सब सँ एहि गाछक केना शोभा बढ़ा रहल अछि । एहि सँ जंगल केर आन सब गाछ सँ ई गाछ कतेक सुन्दर देखा रहल अछि ! एतबा नहि, एहि गाछक कारण ई सारा जंगल केर शोभा भ’ रहल छैक । एहि लत्तीक कारणे सरा पशु-पक्षी एहि गाछक आश्रय लैत अछि । धन्य अछि ई लत्ती !”
भगवान् श्रीराम केर मुख सँ लत्तीक प्रशंसा सुनिकय सीताजी हनुमानजी सँ कहली – “देखू पुत्र हनुमान् ! अहाँ ध्यान देलहुँ कि नहि ? देखू, एहि लत्तीक उपर चढ़ि गेनाय, फूल-पत्ती सब सँ लदल रहनाय, एकर मुरी आ कोपल सभक पसरनाय – ई सबटा एहि गाछक आश्रित अछि, गाछहि केर कारण अछि । एहि लत्तीक शोभा सेहो गाछहि केर कारण अछि । एहि वास्ते मूल मे त एहि गाछहि केर महिमा अछि । आधार त गाछे छी । गाछक सहारा बिना ई लत्ती स्वयं कि कय सकैत अछि ? आब कहू हनुमान् ! अहीं कहू, महिमा गाछहि टाक भेल न ?”
रामजी कहलखिन – ‘कि हनुमान् ! ई महिमा त लत्ती टाक भेल न ?’
हनुमानजी बजलाह – ‘हमरा त तेसरे बात टा सुझाइत अछि ।’
सीताजी पुछलखिन्ह – ‘से कि पुत्र ?’
हनुमानजी बजलाह – ‘माँ ! गाछ आ लताक छाहरि बड सुन्दर अछि । एहि वास्ते हमरा त एहि दुनूक छाहरि मे रहनाइये टा नीक लगैत अछि, यानि हमरा त अहाँ दुनू गोटाक छाहरि (चरणक आश्रय) टा रहनाय नीक लगैत अछि ।’
सेवक सुत पति मातु भरोसें ।
रहय असोच बनइ प्रभु पोसें ॥
– मानस ४/३/२
एहिना भगवान् आ हुनक दिव्य आह्लादिनी शक्ति – दुनू एक-दोसरक शोभा बढ़बैत छथि । मुदा कियो त ओहि दुनू केँ श्रेष्ठ बतबैत अछि, कियो मात्र भगवान् केँ श्रेष्ठ बतबैत अछि आर कियो मात्र हुनकर आह्लादिनी शक्ति केँ श्रेष्ठ बतबैत अछि । शरणागत भक्तक लेल त प्रभु आर हुनक आह्लादिनी शक्ति – दुनूक आश्रय टा श्रेष्ठ छैक ।
एक बेर एक गोटे प्रज्ञाचक्षु (नेत्रहीन) सन्त हाथ मे लाठी पकड़ने आगराक लेल यमुनाक तीरे-तीरे चलल जा रहल छलथि । नदी मे बाढ़ि आयल छलैक । तेँ एक ठाम महार (किनारा) पानि मे ढहि गेल रहैक त बाबाजी पानि मे खसि पड़लाह । हाथ सँ लाठी छुटि गेल छलन्हि । देखाइत त रहनि नहि, आब हेलथि (तैरथि) तँ केम्हर हेलथि ? भगवानक शरणागतिक बात याद अबिते प्रयासरहित भ’ कय शरीर केँ निढ़ाल (ढीला) छोड़ि देलनि त हुनका लगलनि जे कियो हाथ पकड़िकय महार उपर राखि देलक । ओतहि दोसर लाठी सेहो हाथ मे आबि गेलनि आ ओहिक सहारे ओ चलि पड़लाह । तात्पर्य ई भेल जे भगवानक शरण भ’ कय भगवान् पर निर्भर रहैत अछि, ओकरा अपना लेल करब किछु नहि रहैत छैक । भगवानक विधान सँ जे भ’ जाय, ओहि मे प्रसन्न रहैत अछि ।
बहुतो-रास भेड़-बकरी सब जंगल मे चरय गेल । ओहि मे सँ एक बकरी चरैत-चरैत एकटा झाड़ मे ओझरा गेल । ओकरा ओहि झाड़ मे सँ निकलय मे बहुते काल लागि गेलैक, ताबत धरि आर सब भेड़-बकरी अपन घर पहुँचि गेल । अन्हार भ’ रहल छलैक । ओ बकरी घुमैत-घुमैत एकटा सरोवरक तट पर पहुँचि गेल । ओतय महार पर कनेक दलदल सन जमीन पर सिंह केर एकटा पैरक चिह्न (छाप) मढ़ल छल । ओ ओहि चरण-चिह्नक शरण भ’ ओकरे लग बैसि गेल । राति मे जंगली सियार, भेड़िया, बाघ आदि प्राणी बकरी केँ खेबाक लेल लग मे जाइत अछि त ओ बकरी कहैत छैक – ‘पहिने देख लिहें जे हम केकर शरण मे छी; तखन हमरा खइहें !’ ओ सब चिह्न देखिकय कहैत छलैक – ‘अरे, ई त सिंहक चरण चिह्नक शरण थिक, जल्दी भाग एतय सँ ! सिंह आबि जायत त हमरा मारि देत ।’ एहि तहरें सब प्राणी भयभीत भ’ कय भागि जाइत छल । अन्त मे जेकर चरण-चिह्न रहैक, से सिंह स्वयं आयल आर बकरी सँ कहलक – ‘तूँ जंगल मे अकेले केना बैसल छँ ?’ बकरी कहलक – ‘ई चरण-चिह्न छी, एकरे शरण भेल हम बैसल छी ।’ सिंह देखलक, ‘ओह! ई त हमरहि चरण-चिह्न छी, ई बकरी त हमरहि शरण भेल !’ सिंह सेहो बकरी केँ आश्वासन देलक जे आब तूँ डरा नहि, निर्भय भ’ कय रह ।
राति मे जखन जल पिबय लेल हाथी आयल त सिंह हाथी सँ कहलक – ‘तूँ एहि बकरी केँ पीठ पर चढ़ा ले । एकरा जंगल मे चराकय आनल कर आ हरदम पीठहि पर राखल करे, नहि त तूँ जनैत छँ, हम के छी ? मारि देबौक !’ सिंहक बात सुनिकय हाथी थर-थर काँपय लागल । ओ अपन सूँड़ सँ झट बकरी केँ पीठ पर चढ़ा लेलक । आब ओ बकरी निर्भय भ’ कय हाथीक पीठ पर बैसल-बैसल गाछक उपरका नव-नव जन्मल कोमल मुरी (कोपल) खायल करय आ मस्त रहैत छल ।
खोज पकड़ सैंठे रहो, धणी मिलेंगे आय ।
अजया गज मस्तक चढ़े, निर्भय कोंपल खाय ॥
एहिना जखन मनुष्य भगवानक शरण भ’ जाइत अछि, हुनकर चरणक सहारा लय लैत अछि त ओ सम्पूर्ण प्राणी सब सँ, विघ्न-बाधा सब सँ निर्भय भ’ जाइत अछि । ओकरा कियो भयभीत नहि कय सकैत अछि, कियो किछु बिगाड़ि नहि सकैत अछि ।
जो जाको शरणो गहै, वाकहँ ताकी लाज ।
उलटे जल मछली चले, बह्यो जात गजराज ॥
भगवानक संग काम, भय, द्वेष, क्रोध, स्नेह आदि सँ सेहो सम्बन्ध कियैक न जोड़ल जाय, ओहो जीव केर कल्याण करयवला मात्र होइत छैक* । तात्पर्य ई भेल जे काम, भय, द्वेष, आदि कोनो तरह सँ जेकरा भगवानक संग सम्बन्ध जुड़ि गेलैक, ओकर त उद्धार भइये गेलैक, मुदा जेकरा कोनो तरहें भगवानक संग सम्बन्ध नहि जुड़लैक, उदासीने रहल, ओ भगवत्प्राप्ति सँ वंचित रहि गेल !
*कामाद् द्वेषाद् भयाद् स्नेहाद् यथा भक्त्येश्वरे मनः ।
आवेश्य तदघं हित्वा बहवस्तद्गतिं गताः ॥
गोप्यः कामाद् भयात् कंसो द्वेषाच्चैद्यादयो नृपाः ।
सम्बन्धाद् वृष्णयः स्नेहाद् यूयं भक्त्या वयं विभो ॥
– श्रीमद्भागवतकथा पुराण ७/१/२९-३०
एक्केटा नहि, अनेकों मनुष्य काम सँ, द्वेष सँ, भय सँ आ स्नेह सँ अपन मोन केँ भगवान् मे लगाकय तथा सबटा पाप धोकय ओनाही भगवान् केँ प्राप्त भेल अछि, जेना भक्त भक्ति सँ । जेना, गोपी सब काम सँ, कंस भय सँ, शिशुपाल-दन्तवक्त्र आदि राजा लोकनि द्वेष सँ, यदुवंशी परिवारक सम्बन्ध सँ, अहाँ लोकनि (पाण्डव) स्नेह सँ आर हम सब (नारदजी) भक्ति सँ अपन मोन भगवान् मे लगेने छी ।’
सत्सङ्गेन हि दैतेया यातुधाना मृगाः खगाः ।
गन्धर्वाप्सरसो नागाः सिद्धाश्चारणगुह्यकाः ॥
विद्याधरा मनुष्युेषु वैश्याः शूद्राः स्त्रियोऽन्त्यजाः ।
रजस्तमःप्रकृतयस्तस्मिंस्तस्मिन् युगेऽनघ ।
बहवो मत्पदं प्राप्तास्त्वाष्ट्रकायाधवादयः ॥
वृषपर्वा बलिर्बाणो मयश्चचाथ विभीषणः ।
सुग्रीवो हनुमानृक्षो गजो गृध्रो वणिक्पथः ।
व्याधः कुब्जा व्रजे गोप्यो यज्ञपत्न्यस्तथापरे ॥
ते नाधीतश्रुतिगणा नोपासितमहत्तमाः ।
अव्रतातप्ततपसः सत्सङ्गान्मामुपागताः ॥
– श्रीमद्भावतकथा पुराण ११/१२/३-७
भगवान् कहैत छथि – ‘निष्पाप उद्धवजी ! ई एक युग मात्रक नहि, सब युगक एक्के सन बात अछि । सत्संग अर्थात् हमरहि सम्बन्ध द्वारा दैत्य-राक्षस, पशु-पक्षी, गन्धर्व-अप्सरा, नाग-सिद्ध, चारण, गुह्यक आर विद्याधर लोकनि केँ हमर प्राप्ति भेलनि अछि । मनुष्य मे वैश्य, शूद्र, स्त्री आर अन्त्यज आदि रजोगुणी-तमोगुणी प्रकृतिक बहुतो-रास जीव सब हमर परमपद प्राप्त कयलक अछि । वृत्रासुर, प्रह्लाद, वृषपर्वा, बलि, बाणासुर, मयदानव, विभीषण, सुग्रीव, हनुमान्, जाम्बवान्, गजेन्द्र, जटायु, तुलाधार वैश्य, धर्मव्याध, कुब्जा, व्रज केर गोपी लोकनि, यज्ञपत्नी लोकनि तथा दोसरो लोक सब सत्संगक प्रभाव सँ मात्र हमरा प्राप्त कय सकल अछि ।
ओ सब नहि तँ वेदक स्वाध्याय कएने छल आ न विधिपूर्वक महापुरुष लोकनिक उपासने कएने छल । एहि तरहें ओ कृच्छ्रचान्द्रायण आदि व्रत या कोनो तपस्या सेहो नहि कएने छल । बस, मात्र सत्संग – हमर सम्बन्धक प्रभाव टा सँ ओ हमरा प्राप्त भ’ गेल ।
भगवान् केर अनन्य भक्त लेल नारदजी कहलनि अछि –
नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियादिभेदः ।
– नारदभक्तिसूत्र ७२
‘ओहि भक्त मे जाति, विद्या, रूप, कुल, धन, क्रिया आदिक भेद नहि अछि ।’
तात्पर्य ई भेल कि जे सर्वथा भगवान् केँ अर्पित भ’ गेल अछि यानि जे भगवाक संग आत्मीयता, परायणता, अनन्यता आदि वास्तविकता केँ स्वीकार कय लेने अछि त स्थूल, सूक्ष्म आ कारण-शरीर केँ लयकय सांसारिक जतेको जाति, विद्या आदि भेद भ’ सकैत छैक से ओकरा उपर लागू नहि होइत छैक* । कारण जे ओ अच्युत भगवानहि टाक अछि – ‘यतस्तदीयाः’ (नारदभक्तिसूत्र ७३), संसारक नहि । अच्युत भगवानक भेला सँ ओ ‘अच्युत गोत्र’ मात्रक कहाइत अछि** ।
*पुंस्त्वे स्त्रीत्वे विशेषो वा जातिनामाश्रमादयः ।
न कारण मद्भजने भक्तिरेव हि कारणम् ॥
– अध्यात्मरामायण अरण्यकाण्ड १०/२०
‘हमर भजन मे पुरुष-स्त्रीक भेद अथवा जाति, नाम आर आश्रम कारण नहि अछि, प्रत्युत हमर भक्ति टा एकमात्र कारण अछि ।’
किं जन्मना सकलवर्णजनोत्तमेन किं विद्यया सकलशास्त्रविचारवत्या ।
यस्यास्ति चेतसि सदा परमेशभक्तिः कोऽन्यस्ततस्त्रिभुवने पुरुषोऽस्ति धन्यः ॥
– स्कन्दपुराण, ब्रह्मखण्डः, ब्रह्मोत्तर खण्डः, अध्याय १७, श्लोक ६१
‘सम्पूर्ण वर्ण मे उत्तम वर्ण (ब्राह्मण-कुल) मे जन्म भेले सँ कि होयत ? सम्पूर्ण शास्त्र केर गहींर अध्ययन कएने सँ कि होयत ? यानि किछु नहि होयत । जेकर हृदय मे भगवानक भक्ति विराजमान अछि, एहि त्रिलोकी मे ओकर समान दोसर कोन मनुष्य धन्य भ’ सकैत अछि ?’
व्याधस्याचरण ध्रुवस्य च वयो विद्या गजेन्द्रस्य का
का जातिर्विदुरस्य यादवपतेरुग्रस्य किं पौरुषम् ।
कुब्जायाः किमु नाम रूपमधिकं किं तत्सुदाम्नो धनं
भक्त्या तुष्यति केवलं न च गुणैर्भक्तिप्रियो माधवः ॥
‘व्याधक कोन श्रेष्ठ आचरण छलैक ? ध्रुवक कोन बेसी उमेर भेल छलैक ? गजेन्द्रक पास कोन तेहेन विद्या छलैक ? विदुरक कोन बड़का जाति छलैक ? यदुपति उग्रसेन केर कोन तेहेन पराक्रम छलैक ? कुब्जा केर कोन तेहेन सुन्दर रूप छलैक ? सुदामा लग कोन तेहेन धन छलन्हि ? तैयो हिनका सब केँ भगवान् केर प्राप्ति भ’ गेलनि । कारण जे भगवान् केँ मात्र भक्ति टा प्रिय छन्हि, ओ केवल भक्ति सँ मात्र संतुष्ट होइत छथि, आचरण, विद्या आदि गुण सब सँ नहि ।’
**पितृगोत्री यथा कन्या स्वामिगोत्रेण गोत्रिका ।
श्रीरामभक्तिमात्रेणाच्युतगोत्रेण गोत्रकः ॥
(नारदपंचरात्र)
शरणागतिक रहस्य
शरणागतिक रहस्य कि छैक ? – ई वास्तव मे भगवानहि टा जनैत छथि । तैयो अपना बुझय मे आयल बात कहबाक चेष्टा कयल जाइत अछि; कियैक तँ हरेक आदमी जे बात कहैत अछि, ओहि सँ ओ अपन बुद्धि मात्रक परिचय दैत अछि । पाठक लोकनि सँ प्रार्थना अछि जे ओ एतय आयल बात सभक उलटा अर्थ नहि निकालथि; कियैक तँ प्रायः लोक कोनो तात्त्विक, रहस्यवाली बात केँ गहराई सँ बुझने बिना एकर उलटा अर्थ जल्दी निकालि लेल करैत अछि । एहि वास्ते एहेन बात सब कहय-सुनय लेल पात्र बहुत कम होइत अछि ।
भगवान् गीता मे शरणागतिक विषय मे दुइ बात बतेलनि अछि – (१) ‘मामेकं शरणं व्रज’ (१८/६६) ‘अनन्यभाव सँ केवल हमर शरण मे आबि जाउ’ (२) ‘स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत’ (१५/१९) ‘ओ सर्वज्ञ पुरुष सर्वभाव सँ हमरा भजैत अछि’, ‘तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत’ (१८/६२) – ‘अहाँ सर्वभाव सँ ओहि परमात्माक शरण मे जाउ’ । त हम भगवानक शरण कोना भ’ जाय ? केवल एक भगवानक शरण भ’ जाय अर्थात् भगवानक गुण, ऐश्वर्य आदिक दिश दृष्टि नहि राखि आ सर्वभाव सँ भगवानक शरण भ’ जाय अर्थात् संग मे अपन कोनो सांसारिक कामना नहि राखी ।
केवल एक भगवानक शरण होयबाक रहस्य ई अछि जे भगवानक अनन्त गुण छन्हि, प्रभाव छन्हि, तत्त्व छन्हि, रहस्य छन्हि, महिमा छन्हि, लीला सब छन्हि, नाम छन्हि, धाम छन्हि; भगवानक अनन्त ऐश्वर्य छन्हि, माधुर्य छन्हि, सौन्दर्य छन्हि – एहि विभूति सभक दिश शरणागत भक्त देखबे नहि करैछ । ओकर यैह एक भाव रहैत छैक जे ‘हम केवल भगवानक छी आ केवल भगवानहि टा हमर छथि’ । अगर ओ गुण, प्रभाव आदिक तरफ देखिकय भगवानक शरण लैत अछि त वास्तव मे ओ गुण, प्रभाव आदि टाक शरण मे भेल, भगवानक शरण नहि भेल । धरि एहि बातक उलटा अर्थ नहि लगा लेल जाउ ।
उलटा अर्थ लगायब की भेल ? भगवानक गुण, प्रभाव, नाम, धाम, ऐश्वर्य, माधुर्य, सौन्दर्य आदि केँ माननाइये नहि अछि, एहि दिश जेबाके नहि अछि । आब किछु करबाके नहि अछि, न भजन करबाक अछि, न भगवानक गुण, प्रभाव, लीला आदि सुननाय अछि, न भगवानक धाम मे गेनाय अछि – ई सब उलटा अर्थ लगायब भेल । एकर एहेन अर्थ लगेनाय महान् अनर्थ करब भेल ।
केवल एक भगवानक शरण होयबाक तात्पर्य भेल – केवल भगवान् हमर छथि, आव ओ ऐश्वर्य-सम्पन्न छथि त बड नीक बात आर कोनो ऐश्वर्य नहि अछि तैयो बड नीक बात । ओ बहुत दयालु छथि त बड नीक बात आ बड़ा निष्ठुर छथि, कठोर छथि आ कि हुनका समान दुनिया मे कठोर दोसर कियो नहि अछि तैयो बड नीक बात । हुनकर बड पैघ प्रभाव छन्हि तैयो नीक बात आ हुनका मे कोनो प्रभाव नहि छन्हि तैयो बड नीक बात । शरणागत मे एहि बात सभक कोनो परवाह नहि होइत छैक । ओकर त एक्के गोट भाव रहैत छैक जे भगवान् जेहने छथि, हमर छथि* । भगवानक एहि बात सभक परवाह नहि भेला सँ भगवान् केर ऐश्वर्य, माधुर्य, सौन्दर्य, गुण, प्रभाव आदि चलि जायत, एहेन बात नहि छैक । मुदा हमर एहि सब बातक परवाह नहि करब त हमरा असली शरणागति होयत ।
*असुन्दरः सुन्दरशेखरो वा गुणैर्विहीनो गुणिनां वरो वा ।
द्वेषी मयि स्यात् करुणाम्बुधिर्वा श्यामः स एवाद्य गतिर्ममायम् ॥
‘हमर प्रियतम श्रीकृष्ण असुन्दर होइथ या सुन्दर-शिरोमणि होइथ, गुणहीन होइथ या गुणीयो सब मे श्रेष्ठ होइथ, हमरा प्रति द्वेष रखैत होइथ या करुणासिन्धु-रूप सँ कृपा करैत होइथ; ओ चाहे जेहेन होइथ, हमर त वैह एकमात्र टा गति छथि ।’
आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मामदर्शनान्मर्महतां करोतु वा ।
यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः ॥
‘ओ चाहे हमरा गला सँ लगा लेथि या चरण मे लेपटायल हमरा अपन लात सँ लतिया देथि अथवा दर्शन नहि दयकय मर्माहते करथि । ओ परम स्वतंत्र श्रीकृष्ण जेना चाहथि तेना करथि, हमर त वैह टा प्राणनाथ छथि, दोसर कियो नहि ।’
जेतय गुण, प्रभाव आदि सब लयकय भगवानक शरण होइत अछि, ओतय केवल भगवानक शरण नहि होइत अछि, बल्कि गुण, प्रभाव आदियेक शरण होइत अछि; जेना – कियो रुपैयावला केँ आदर करय त वास्तव मे ओ आदर ओहि आदमीक नहि, रुपैयाक थिक । कोनो मिनिस्टर केर कतबो आदर कयल जाय त ओ आदर ओकर नहि, मिनिस्टरी (पद) केर होइछ । कोनो बलवान् लोकक आदर कयल जाय ओ ओकर बल केर आदर होपछ, ओकर अपन आदर नहि । मुदा जँ कियो मात्र कोनो व्यक्तिक आदर करय, ओकर धन आदिक नहि, त एहि सँ ओकर धन या मिनस्टरी आदि चलि जायत से बात नहि, ओ त रहबे करत । तहिना केवल भगवानक शरण भेला सँ भगवानक गुण, प्रभाव आदि चलि जायत से बात नहि । मुदा हमरा लोकनिक दृष्टि तँ केवल भगवानहि टा पर रहबाक चाही; हुनक गुण आदि पर नहि ।
सप्तर्षि लोकनि जखन पार्वतीजीक सोझाँ शिवजीक अनेकों अवगुण सभक आ विष्णु भगवानक अनेकों सद्गुण सभक वर्णन करैत हुनका शिवजीक ध्यान छोड़य लेल कहलनि त पार्वतीजी हुनका यैह उत्तर देलनि –
महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम ।
जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम ॥
– मानस १/८०
एहने बात गोपी लोकनि सेहो उद्धवजी सँ कहने रहथि –
ऊधौ! मन माने की बात ।
दाख छोहारा छाड़ि अमृतफल बिषकीरा बिष खात ॥
जो चकोर को दै कपूर कोउ, तजि अंगार अघात ।
मधुप करत घर कोरे काठ में, बँधत कमल के पात ॥
ज्यों पतंग हित जान आपनो, दीपक सौं लपटात ।
‘सूरदास’ जाको मन जासों, ताको सोइ सुहात ॥
भगवान् केर प्रभाव आदि तरफ देखयवला केँ, ताहि सँ प्रेम करयवला केँ मुक्ति, ऐश्वर्य आदि तँ भेटि जायत, मुदा भगवान् नहि भेटि सकैत छथि । भगवानक प्रभाव दिश नहि देखनिहार भगवत्प्रेमी भक्त टा भगवान् केँ पाबि सकैत छथि । एतबा नहि, ओ प्रेमी भक्त भगवान् केँ बान्हियो सकैत छथि, हुनकहु बिक्री कय सकैत छथि ! भगवान् देखैत छथि जे ओ हमरा सँ प्रेम करैत अछि, हमर प्रभाव दिश देखितो नहि अछि, त भगवानक मोन मे ओहेन भक्त प्रति बहुत पैघ आदर रहैत छन्हि ।
प्रभाव दिश देखनाय ई सिद्ध करैत अछि जे अपना मे किछु पेबाक कामना अछि । अपन मोन मे ओहि कामनावला वस्तुक आदर अछि । जाबत धरि अपना मे कामना रहैछ, ताबत धरि अपने सब प्रभाव केँ देखैत छी । अगर हमरा मोन मे कोनो कामना नहि रहय त भगवानक प्रभाव, ऐश्वर्य दिश हमर दृष्टि नहि जायत । मात्र भगवानक तरफ दृष्टि रहत त हम भगवानक शरण भ’ जायब, भगवानक अपन भ’ जायब ।
विचार करू, पूतना राक्षसी जहर लगाकय स्तन मुख मे दैत अछि । ओकरा भगवान् मायक गति देलनि* । ‘जसुमति की गति गति पाई’ अर्थात् जे मुक्ति यशोदा मैया केँ भेटलनि, वैह मुक्ति पूतना केँ भेट गेलैक । जे मुंह मे जहर दैत अछि, ओकरा त भगवान् मुक्ति दय देलनि । आब जे रोज दूध पियबैत छथि, ताहि मैया केँ भगवान् कि देथि ? त अनन्त जीव सब केँ मुक्ति देनिहार भगवान् मैयाक अधीन भ’ गेलथि, हुनका स्वयं अपना-आप केँ दय देलनि । मैयाक वशीभूत भ’ गेलाह जे मैया छड़ी देखबैत छथिन त ओ डराकय कानय लगैत छथि । कारण जे मैयाक दृष्टि भगवानक प्रभाव आ ऐश्वर्य दिश छन्हिये नहि । एहि तरहें जे कियो भगवान् सँ मुक्ति चाहैत अछि, ओकरा भगवान् मुक्ति दय दैत छथिन, मुदा जे किछुओ नहि चाहैत अछि, ओकरा भगवान् अपना-आप केँ दय दैत छथिन ।
सर्वभाव सँ भगवानक शरण होयबाक रहस्य ई छैक जे हमर शरीर ठीक अछि, इन्द्रिय वश मे अछि, मन शुद्ध निर्मल अछि, बुद्धि सँ हम ठीक-ठीक जनैत छी, हम पढ़ल-लिखल छी, हम यशस्वी छी, हमर संसार मे मान अछि – एहि प्रकार सँ ‘हमहुँ किछु छी’ एना मानिकय भगवानक शरण भेनाय शरणागति नहि छी । भगवानक शरण भेलाक बाद शरणागत केँ एहेन विचारो तक नहि करबाक चाही जे हमर शरीर एना हेबाक चाही, हमर बुद्धि एहेन हेबाक चाही, हमर मन एहेन हेबाक चाही, हमरा एना ध्यान लगबाक चाही, हमर एहेन भावना हेबाक चाही, हमर जीवन मे एहेन-एहेन लक्षण एबाक चाही, हमर एहेन आचरण हेबाक चाही, हमरा मे एहेन प्रेम हेबाक चाही जे कथा-कीर्तन सुनला पर आँखि सँ नोर बहय लागय, कण्ठ गदगद भ’ जाय, आब जँ ई सब तरहक बात हमरा जीवन मे हेब्बे नहि कयल त हमर भगवानक शरणागत केना भेलहुँ ? आदि-आदि । ई सब बात अनन्य शरणागतिक कसौटी (परिचायक) नहि थिक । जे अनन्य शरण भ’ जाइत अछि, ओ ई देखिते नहि अछि जे शरीर बीमा अछि या स्वस्थ अछि ? मन चंचल अछि या स्थिर अछि ? बुद्धि मे जानकारी अछि या अनजानापन अछि ? आदि । एहि सब दिश ओ सपनहुँ मे नहि देखैछ, कियैक त ओकर दृष्टि मे ई सब चीच कूड़ा-कचड़ा थिक, जे अपना संग नहि लैत अछि । जँ एहि सब चीज दिश देखत त अभिमान टा बढ़त जे हम भगवानक शरणागत भक्त छी या फेर निराश होबय पड़त जे भगवानक शरण त भ’ गेलहुँ, मुदा भक्तक गुण (अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च । निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥ इत्यादि, गीता १२/१३-१९) त हमरा मे आयल नहि ! तात्पर्य ई भेल जे अगर अपना मे भक्तक गुण देखाय देत त ओकर अभिमान भ’ जायत, आ जँ नहि देखाय देत त निराशा भ’ जायत । एहि वास्ते ई नीक छैक जे भगवानक शरण भेलाक बाद एहि गुण सब दिश बिसरियोकय नहि देखी । एकर उलटा अर्थ नहि लगा लेब जे हम चाहे वैर-विरोध करी, चाहे द्वेष करी, चाहे ममता करी, चाहे जे किछु करी ! ई अर्थ बिल्कुल नहि भेल । तात्पर्य यैह अछि जे एहि गुण सब दिन दिमागे नहि जेबाक चाही । भगवानक शरण होयवला भक्त मे ई सबटा-के-सबटा गुण अपने-आपे आओत, लेकिन एकर एला या नहि एला सँ कोनो मतलब नहि रखबाक चाही । अपना मे एहेन कसौटी नहि लगेबाक चाही जे अपना मे ई गुण या लक्षण अछि या नहि ।
सच्चा शरणागत भक्त त भगवानहु केर गुण दिश नहि देखैत अछि आर अपनो गुण दिश नहि देखैत अछि । ओ भगवानक बड़का-बड़का प्रेमी सब दिश सेहो नहि देखैत अछि जे बड़का प्रेमी सब एहेन-एहेन होइत छथि; तत्त्व केँ जननिहार जीवन्मुक्त लोक एहेन-एहेन होइत छथि ।
प्रायः लोक एहेन कसौटी लगबैत अछि जे ई भगवानक भजन करैत अछि त फेर बीमार केना भ’ गेल ? भगवानक भक्त भ’ गेल त ओकरा बुखार कियैक एलय ? ओकरा उपर दुःख कियैक एलय ? ओकर बेटा कियैक मरि गेलय ? ओकर धन कियैक चलि गेलय ? ओकर संसार मे अपयश कियैक भेलय ? ओकर निरादर कियैक भ’ गेलय ? आदि-आदि । एहेन कसौटी कसब बिल्कुल फालतू बात भेल, अत्यन्त नीच दर्जाक बात भेल । एहेन लोक सब केँ कि बुझायब ! ओ सत्संगक नजदीके नहि गेल, एहि वास्ते ओकरा एहि बातक पते नहि छैक जे भक्ति कि होइत छैक ? शरणागति कि होइत छैक ? ओ एहि बात केँ बुझिये नहि सकैत अछि, मुदा एकर अर्थ ईहो नहि जे भगवानक भक्त दरिद्र होइते टा अछि, ओकर संसार मे अपमान होइते टा छैक, ओकर निन्दा होइते टा छैक । शरणागत भक्त केँ त निन्दा-प्रशंसा, रोग-निरोगता आदि कोनो मतलबे नहि होइत छैक । एकरा दिश ओ देखिते नहि अछि । ओ ई देखैत अछि जे हम छी आ भगवान् छथि, बस । आब संसार मे कि अछि, कि नहि अछि ? त्रिलोकी मे कि अछि, कि नहि अछि ? प्रभु एहेन छथि, ओ उत्पत्ति, स्थिति आ प्रलय करयवला छथि – एहि बात सब दिश ओकर दृष्टि जाइते नहि छैक ।
कियो एक सन्त सँ पुछलक – ‘अपने कोन भगवानक भक्त छी ? जे उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय करैत छथि, हुनकर भक्त छी की ?’ त ओहिपर सन्त उत्तर देलनि – ‘हमर भगवान केँ त उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय सँ कोनो सम्बन्धे नहि छन्हि । ई त हमर प्रभुक एक ऐश्वर्य अछि । ई कोनो विशेष बात नहि भेल ।’ शरणागत भक्त केँ एहने हेबाक चाही । ऐश्वर्य आदिक दिश ओकर दृष्टिये नहि हेबाक चाही ।
ऋषिकेश मे गंगाजीक किनार टीबड़ी पर साँझक समय सत्संग भ’ रहल छल । गरमी पड़ि रहल छल । ओम्हर सँ गंगाजीक ठंढा हवाक लहर आयल त एक सज्जन बजलाह – ‘केहेन ठंढा हवाक लगर आबि रहल अचि !’ लगे बैसर दोसर सज्जन हुनका सँ कहला – ‘हवा केँ देखय लेल अहाँ केँ समय कोना भेटि गेल ? ई ठंढा हवा आयल, या गरम हवा आयल – एहि दिश अहाँक ध्यान कोना चलि गेल ?’ भगवानक भजन मे लागल छी त हवा ठंढा आयल कि गरम आयल, सुख आयल या दुःख आयल – एहि सब दिश जाबत ध्यान रहत, ताबत भगवानक दिश ध्यान कोना जायत ? एहि विषय मे एकटा कथा सुनने छी । कथा त निम्न दर्जाक अछि, मुदा ओकर निष्कर्ष बहुत नीक अछि ।
एकटा कुलटा स्त्री रहय । ओकरा कोनो पुरुष सँ संकेत भेटलैक जे एहि समय अमुक स्थान पर तूँ आबि जइहें । त ओ समय पर अपन प्रेमी लग जा रहल छल । रास्ता मे एकटा मस्जिद पड़ैत छलैक । मस्जिदक देवाल छोट-छोट रहैक । देवाले लग ओहिठामक मौलवी झुकिकय नमाज पढ़ि रहल छलथि । ओ कुलटा अनजाने मे हुनकहि उपर पैर राखिकय निकलि गेल । मौलवीजी केँ बहुते तामस चढ़लैक जे केहेन औरत अछि ई ! ई हमरा उपर जूतीसहित पैर राखिकय हमरा नापाक (अशुद्ध) बना देलक ! ओ ओतय बैसिकय ओकरा देखैत रहला जे घुरिकय कखन आओत । जखन ओ कुलटा पाछू घुरिकय आयल त मौलवीजी ओकरा धमकौलनि जे ‘केहेन बेअक्ल छँ तूँ ! हमर परवरदिगारक बंदगी मे बैसल रही, नमाज पढ़ि रहल छलहुँ आ तूँ हमरा उपर पैर राखिकय चलि गेल छलें !’ तखन ओ बाजल –
मैं नर-राची ना लखी, तुम कस लख्यो सुजान ।
पढ़ि कुरान बौरा भया, राच्यो नहिं रहमान ॥
एकटा पुरुषक ध्यान मे रहलाक कारण हमरा एहि बातक पते नहि चलल कि सामने देवाल छैक या कोनो मनुक्ख, मुदा तूँ त भगवानक ध्यान मे रहें, फेर तूँ हमरा केना चिन्ह गेलें जे ओ महिला हमहीं रही ? तूँ खाली कुरान पढ़ि-पढ़िकय बावला भ’ गेल छँ । जँ तूँ भगवानक ध्यान मे रचल रहितें त हमरा चिन्हि लीतें ? के आयल, केना आयल, मनुष्य छल कि पशु-पक्षी छल, कि, कि नहि छल, के उपर आयल, के नीचाँ आयल, के पैर रखलक – एहि सब दिश तोहर ध्याने कियैक जइतौक ? तात्पर्य ई भेल जे एकटा भगवान् केँ छोड़िकय दोसर पर ध्याने केना जाय ? दोसर बातक पते केना लागत ? जाबत धरि दोसर बातक पता लगैत अछि, ताबत धरि ओ शरणा कहाँ भेल ?
कौरव-पाण्डव जखन बच्चे रहथि त ओ सब अस्त्र-शस्त्र सिखि रहल छलथि । सिखिकय जखन तैयार भ’ गेलाह त हुनका सभक परीक्षा लेल गेलनि । एकटा गाछपर एक गोट बनावटी चिड़िया बैसा देल गेलैक आ सब सँ कहल गेलनि जे ओहि चिड़ियाक कण्ठपर तीर मारिकय देखाउ । एक-एक कयकेँ सब आबय लगलाह । गुरुजी पहिने सब सँ अलग-अलग पुछैत छथि जे कहू अहाँ केँ कि देखा रहल अछि ? त कियो कहैत छल जे हमरा त गाछ देखाइत अछि; कियो कहैत छल जे हमरा त ठाढ़ि देखाइत अछि; कियो कहैत छल जे हमरा त चिड़िया देखाइत अछि, ओकर चोंच सेहो देखाइत अछि, पाँखि सेहो देखाइत अछि । एहेन कहयवला सब केँ ओतय सँ हंटा देल गेलनि । जखन अर्जुनक पारी आयल त हुनका सँ पूछल गेल जे अहाँ केँ कि देखाइत अछि त अर्जुन कहलखिन जे हमरा त काली कण्ठे टा देखाइत अछि आर किछु नहि देखाइत अछि । तखन अर्जुन सँ बाण मारय लेल कहल गेलनि । अर्जुन अपन बाण सँ ओहि चिड़ियाक कण्ठ बेधि देलखिन कियैक तँ हुनकर दृष्टि ठीक लक्ष्य पर मात्र छलन्हि । जँ चिड़िया देखाइत अछि, गाछ, ठाढ़ि आदि देखाइत अछि त लक्ष्य कहाँ साधल भेल ? एखन त दृष्टि एम्हर-ओम्हर पसरल अछि, छितरायल अछि । लक्ष्य भेलापर त वैह देखायत जे लक्ष्य रहत । लक्ष्यक अलावे दोसर किछुओ नहि देखायत । एहि प्रकारे जाबत धरि मनुष्यक लक्ष्य एक नहि भेल अछि, ताबत धरि ओ अनन्य केना भेल ? अव्यभिचारी ‘अनन्ययोग’ हेबाक चाही – ‘मयि चानन्ययोगेन भक्तिव्यभिचारिणी’ (गीता १३/१०) । ‘अन्ययोग’ नहि हेबाक चाही – मतलब जे शरीर, मन, बुद्धि, अहं आदिक सहायता नहि हेबाक चाही । ओतय त मात्र एकटा भगवान् टा हेबाक चाही ।
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज सँ कियो पुछलकनि – “अहाँ जेहि रामललाक भक्ति करैत छी, ओ त बारह कलाक अवतार छथि, लेकिन सूरदासजी जे भगवान् कृष्णक भक्ति करैत छथि, ओ सोलह कलाक अवतार छथि ! ई सुनिते गोस्वामीजी महाराज हुनकर पैर पर खसि पड़लाह आ कहलाह – “अहो! अपने बहुत पैघ कृपा कय देलहुँ ! हम त राम केँ दशरथजीक लाडला कुँवर टा बुझिकय भक्ति करैत छलहुँ । आब पता लागल जे ओ बारह कलाक अवतार छथि ! एतेक पैघ छति ओ ? आइ अपने नव बात बताकय बड पैघ उपकार कयलहुँ ।” आब कृष्ण सोलह कलाक अवतार छथि, से बात ओ सुनबे नहि कयलनि, ताहि दिश ध्याने नहि गेलनि ।
भगवानक प्रति भक्त लोकनिक अलग-अलग भाव होइत छन्हि । कियो कहता जे दशरथजीक कोरा मे खेलायवला जे रामलला छथि, वैह हमर इष्ट छथि – ‘इष्टदेव मम बालक रामा’ (मानस ७/७५/३); राजाधिराज रामचन्द्रजी नहि, छोट सन रामलला । कियो भक्त कहता जे हमर इष्ट त लड्डूगोपाल छथि, नन्दक लाला छथि । ओ भक्त सब अपन रामलला केँ, अपन नन्दलाला केँ सन्त सब सँ आशीर्वाद दियबैत छथि त भगवान् केँ इ बात बहुत प्रिय लगैत छन्हि । तात्पर्य भेल जे भक्तक दृष्टि भगवानक ऐश्वर्य दिश जाइते नहि छन्हि ।
या ब्रजरज की परस से, मुकति मिलत है चार ।
वा रजको नित गोपिका, डारत डगर बुहार ॥
अँगनाक जाहि धुरा मे कन्हैया खेलाइत छथि, ओ धुरा कियो लय लियय त ओकरा चारू प्रकारक मुक्ति भेटि जायत । मुदा यशोदा मैया ओहि धुरा केँ बहारिकय फेंकि दैत छथि । मैयाक लेल त ओ कूड़ा-करकट अछि । आब मुक्ति केकरा चाही ? मैया केँ मात्र कन्हैये टा दिश ध्यान छन्हि । नहि त कन्हैयाक ऐश्वर्य दिश ध्यान छन्हि आ न योग्यताक दिश कोनो ध्यान छन्हि ।
सन्त सब कहलनि अछि जे यदि भगवान् सँ भेटबाक अछि त संग मे संगी नहि हेबाक चाही आ सामान सेहो नहि हेबाक चाही, अर्थात् संगी आ सामान बिना हुनका सँ भेटू । जखन संगी, सहारा संग मे अछि अहाँ कि भेटब भगवान् सँ ? आर मन, बुद्धि, विद्या धन आदि सामान संग मे बान्हल रहत, त ओकर परदा (व्यवधान) रहत । परदा मे मिलन थोड़बे होइत छैक ? ओतय तँ कपड़हु केर व्यवधान रहैत छैक । कपड़े टा नहि, माला सेहो आड़ मे आबि जाय त मिलन कि होयत ? एहि वास्ते संग मे कोनो संगी आ सामान नहि हो तखन भगवान् सँ जे मिलन होयत, ओ बड़ा विलक्षण आ दिव्य होयत ।
एकटा महात्माजी केँ खेत मे काज करयवला एक गोटे ब्रजवासी ग्वाला भेटि गेलनि । ओ भगवानक भक्त छल । महात्माजी ओकरा सँ पुछलनि – “तूँ कि काज करैत छह?” – ओ जवाब देलकनि, “हम त अपन लाला कन्हैयाजीक काज करैत छी ।” महात्माजी कहलखिन, “हम भगवान् केर अनन्य भक्त छी, तूँ कथी छ ?” ओ कहलकनि, “हम फनन्य भक्त छी ।” महात्माजी फेर पुछलखिन, “ई फनन्य भक्त कथी होइत छैक?” ताहिपर ओहो पुछि देलकनि, “ई अनन्य भक्त कथी होइ छै?” महात्माजी जवाब देलखिन, “अनन्य भक्त ओ होइछ जे सूर्य, शक्ति, गणेश, ब्रह्मा आदि केकरहु नहि मानय, मात्र अपन कन्हैया केँ मानय ।” त ओ ग्वाला कहलकनि, “महात्माजी! हम त हिनकर नामो नहि जनैत छी जे ई कथी होइत छथि, कथी नहि होइत छथि; हमरा त हिनकर पते नहि अछि; त हम फनन्य भेलहुँ कि नहि?” एहि तरहें ब्रह्म कि होइत छैक? आत्मा कि होइत छैक? सगुण आ निर्गुण कि होइत छैक? साकार आ निराकार कि होइत छैक? इत्यादि बात सब दिश शरणागत भक्तक ध्याने नहि रहबाक चाही ।
व्रज केर एकटा आर बात अछि । एकटा सन्त इनार (कुआँ) पर केकरो संग बात कय रहल छलथि जे ब्रह्म छथि, परमात्मा छथि, जीवात्मा अछि आदि । ओतय एकटा गोपी जल भरय एलथि । ओ कान लगेलनि जे बाबाजी कि सब बात कय रहल छथि । जखन ओ गोपी दोसर गोपी संग भेटल त ओकरा सँ पुछलक – ‘अरे सखी! ई ब्रह्म कि होइत छैक?’ दोसर कहलकैक – ‘अपना सभक लाला (कन्हैया) केर कोनो अड़ोसी-पड़ोसी, सगा-सम्बन्धी हेथिन ! हम सब त चिन्हैत नहि छियनि सखी ! ई सब हुनकहि धुन मे छथि न ? तेँ ई सब हुनका जनैत छथि । अपना सभक त एकटा नन्दलाल टा छथि । कोनो काज रहउ त नन्दबाबा सँ कहि देबनि, गिरिराज सँ कहि देबनि जे महाराज! अपने कृपा करू । कन्हैया त भोला-भाला अछि, ओ कि बुझत आ कि करत ? कन्हैया सँ कथी भेटत ? अरे सखी ! ओ कन्हैये अपना सभक छी, आर कथी भेटत ओकरा सँ ?’ अपनो सब अकेले छी आ ओ कन्हैया सेहो अकेले अछि । अपनो सब लग कोनो सामान नहि अछि आ ओकरो लग कोनो सामान नहि छैक, बिल्कुल नंग-धड़ंग बाबा – ‘नगन मूरति बाल-गोपालकी, कतरनी बरनी जग जालकी’ । आब एहेन कन्हैया सँ कथी भेटत ।
यशोदा मैया दाऊजी सँ कहैत छथि – ‘देख दाऊ ! ई कन्हैया बहुत भोला-भाला अछि, तूँ एकर ध्यान राखल कर जे कतहु ई जंगल मे बेसी दूर नहि चलि जाय ।’ दाऊजी कहैत छथि – ‘मैया! ई कन्हैया बड चंचल अछि । जंगल मे हमरा संगे चलैत अछि त चलिते-चलिते कोनो साँपक बिल देखैत अछि आ ओहि मे हाथ घोंसिया दैत अछि, आब एकरा कोनो साँप काटि लेतय तखन ?’ मैया कहैत छथिन, ‘बेटा! एखन ई छोट अबोध बच्चा अछि, तूँ पैघ छँ, एहि लेल तूँ एकरा पर नजरि राखल कर ।’ आर तखन दाऊ भैया आ आरो सब ग्वाल-बाल सब कन्हैया पर नजरि रखैत छथि । ग्वाल-बाल आ यशोदा मैया सँ कियो कहय जे कन्हैया त सम्पूर्ण दुनियाक पालन करैत छथि त ओ सब यैह कहता जे तोहर एहेन भगवान् हेथुन जे सारा दुनियाक पालन करैत हेथुन । हमर त एहेन कियो नहि अछि । हमर छोट-सन कन्हैया दुनियाक कि पालन करत ?
क्रमशः….
हरिः हरः!!