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एकहि दाइब सँ लाड़ल बुझाइत चुप्पी सधने सभटा टुकूर -टुकूर देखि रहल

लेख विचार
प्रेषित: सिंदु झा
श्रोत: दहेज मुक्त मिथिला समूहलेखनी के धार ,बृहस्पतिवार साप्ताहिक गतिविधि

विषय :- “ अप्पन शत्रु अपनहि ( स्वैक्षिक)

कतए सँ सुरु करीह! नव लोक सँ किंवा पूरान लोक सँ।केकरा नीक कहबनि आ केकरा बेजाय!सभ केओ त’ एकहि दाइब सँ लाड़ल बुझाइत छथि। चुप्पी सधने सभटा टुकूर -टुकूर देखि रहल।कतेक पारम्परिक विध व्यवहार छुटि गेल। दिनानुदिन आधुनिकता रीति रिवाजक बाढिमे भसिआएल जाइत छी। हमरा लोकनि कतय सँ कतय पहुँचि गेलहुँ, परण्च एकटा विध ओहिनाक ओहिना अछि। चिचिआ चिचिआक’ भोकारि पारि विलखि रहल, तथापि ककरहु कोनो सुधि नहि।

  1. वृद्ध, अधबेसु किंवा तरुण वएस, सभ ‘विधवाक’ संग एक्कहि रंग विध। कनिकबो ककरहु देह नहि सिहरैछ।
    अंतिम दर्शन, मुँह देखेबाक बहाने दू चारि गोटे सँ घिचने तिरने चचरी पर आनि पटकि दैत ‌अछि। तकरा बाद एहन विध जे कि भगवानक नहि, मनुखक बनौल अछि।
    केओ चूड़ी त’ केओ सिनुर छिटि दैत ‌अछि।स्त्रिए सभ स्त्री केर दुश्मन बनि जाइत छथि।कनिकबो हाथ नहि कपैत छनि। हम अहि समाजक सभ प्राणी सँ पुछैत छी! कहल जाउ,-‘की ई उचित रिवाज थिक’?
    दाई माई केर कथनी जे- “सभ सिंगार घरेवला रहैत जनि जाति करैत अछि। तैँ ओकरा संगे सभटा उछेहक’ द’ देल जाइत अछि”।
    एहेन तरहक रिवाज सोचवा लेल मजबूर क’ देलक। हमरा लोकनिकेँ त’ नेनपनहिमे माए आ बाबी नाक कान छेदा दैत छथि। तकरा बाद हाट बजार, मेला आ तीर्थाटन सँ रंग बिरंगक झुमका , नथिया, चूड़ी,बाला आदि।
    विआह सँ पूर्वहि जनि जाति सभ रंगक परिधान, गहना गुढिआ आ सिंगार पेटार करैत अछि। विआहो काल त’ अपनहि सँ आकि सखी सभ मिलि जुलिक’ किंवा पार्लर जाक’। मात्र एक चुटकी सिनुरे टात’ पति लगबैत छैक!
    तथापि ओकरा चलि गेला पर एहेन भेष-भूषा किऐक?
    विधुरक लेल कोनो प्रतिबंध नहि कोनो विध नहि। केओ किछु बजनिहार तक नहि।
    एकटा स्त्रीकेँ खान पान,पहिरबा ओढबा सँ ल’क’ हँसबा बजबा पर तक टोक टाक!
    ई त’ सभ जनैत अछी जे पति-पत्नी केर बन्धन अति पवित्र आ अटूट होइछ। ताहि हेतु ओहि पवित्र संबन्धक हाथक लहठी आ नाकक बूट्टा खोलिक’ अपमानित नहि कएल जाऊ। किऐक त’ गेनहारो केर अत्मा दुखित होएतैक।
    अतएव हम मिथिलाक संग अपन देशक स्त्री -पुरुष सभसँ नेहोरा करैत छी।
    जौँ पति-पत्नी केर बिछोहक घरि सिनुरक आदान-प्रदान परमावश्यक विध छिऐक त’ओकर रुप रंग किऐक ने हम सभ बदलि दिऐक!
    जेना सिनुरक गद्दी पत्नीक माथ पर नहि छिटिक’ पति केर सिरमाँमे किंवा देह पर ओहिना राखि दिऐक। चूड़ी आ कोनो गहना पत्नीक अंग सँ नहि ऊतार’ दिऐक। एहेन सन परिस्थितिमे अपन करेज मजबूत क’ अपनहि घरक सदस्य आगू आबथि।तखनहि ई असहनीय प्रथा पर रोक लागत। एहिमे हमर पुरुष समाज जे मूकदर्शक बनल रहैत छथि हुनक भरि पोख सहयोग चाही।
    अत: एक बेर फेर से सभ सँ अनुरोध जे हमर मंतव्य पर सभ केओ संज्ञान ल’ सलाह दी। समाज केर उठान करी।

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