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कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण – उत्तरकाण्ड – आठम अध्याय

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायणक स्वाध्यायक आइ आखिरी अध्यायक पाठ थिक । हमरा बुझने पहिल बेरुक पाठ मे आधा सँ बेसी बात आ वर्णन बुझय मे आबि गेल । परञ्च आगामी समय मे एकर मैथिली अनुवादक प्रकाशन सेहो अपना लेल आ अपन पाठक लेल राखब, ताहि वचनबद्धताक संग, ई अन्तिम अध्याय यथारूप मे राखि रहल छी ।

कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण

उत्तरकाण्ड – आठम अध्याय

।चौपाइ।

शुनु गिरिनन्दिनि कहल महेश । पालल रघुवर अपन निदेश ॥
लक्ष्मण – रहित पड़य नहि चयन । जनु निर्ज्झर झर पङ्कज – नयन ॥
गुरुमन्त्री केँ कहलनि राम । होथु भरत भूपति एहिठाम ॥
बन्धु – वियोग सहल नहि जाय । आज मिलब हम लक्ष्मण भाय ॥
शुनितहिँ प्रजा विकल खस केहन । छिन्नमूल सौँ तरुवर जेहन ॥
मूर्छित खसल भरत उठि भाख । राज्यभार के माँथा राख ॥
हम नहि करब राज्य – सुख भोग । जन्म अनेकहु छुट नहि रोग ॥
अपनैक चरण शरण मे रहब । स्वर्ग मर्त्य मे दुःख न सहब ॥
कुश लव कुमरक करु अभिषेक । कलकौशल उत्तर सुविवेक ॥
शुनल प्रजाजन मन अति भीति । कहल वसिष्ठ राम सौँ नीति ॥
विकल प्रजाजन देखक थीक । सेवक सबहिक हो जे नीक ॥
शुनल वसिष्ठ कहल भगवान । राम कयल सभ जन सन्मान ॥
कनइत सभ जन जोड़ल हाथ । आशापूर करू रघुनाथ ॥
जाइक इच्छा अछि जे ठाम । जायब सङ्गहिँ सभ से धाम ॥
पुत्र दार जन एक न त्यागि । नीतिधर्म्म पदयुग अनुरागि ॥
चलब सङ्ग कहलनि प्रभु बेश । जाइक इच्छा अछि जे देश ॥
कुश लव कुमरक कय अभिषेक । विदा कयल प्रभु दिव्य – विवेक ॥
देलनि दिव्य रथ आठ हजार । वन्दि हजार विरुद उच्चार ॥
साठि हजार सैन्य रण – धीर । एक एक काँ देल रघुवीर ॥
बहुत वित्त युत जन सङ्ग जाय । कयल प्रणाम चलल दुनु भाय ॥

।दोहा।

बहुत दूत शत्रुघ्न केँ, चलल बजाबय काज ।
जाय कहल वृत्तान्त से, जे रघुवीर समाज ॥

।चौपाइ।

कालपुरुष – आगमनक भीति । अत्रिपुत्र अयला जे रीति ॥
राम – प्रतिज्ञा बन्धु – वियोग । कुशी – लवक अभिषेक प्रयोग ॥
प्रजा सहित कहु की हम आन । करता राम महाप्रस्थान ॥
शुनि शत्रुघ्न व्यथित मन त्रास । धैर्य्य धयल नहि दुःख प्रकाश ॥
पुत्र दुहूक कयल अभिषेक । मथुरा विदिश नगर एक एक ॥
तनय सुवाहु प्रजा – सुख – हेतु । यूपकेतु पालक श्रुति – सेतु ॥
गेला अयोध्या अपनैँ शूर । रामचन्द्र देखि आशा पूर ॥
देखल रघुवर दिनकर – कान्त । मुनिजन – परिवृत सुन्दर शान्त ॥
कयल प्रणाम कहल कल जोड़ि । चलब नाथ नहि हमरा छोड़ि ॥
बालक दुहुजन काँ दय राज । सावधान हम अयलहुँ आज ॥
राम बूझि भाइक दृढ़ भाव । कहल सज्ज रहु दुपहर आब ॥
दिन दुपहर भल दिन प्रस्थान । सभ सौँ कालपुरुष बलवान ॥
वानर भालु देव – अवतार । समर – सहायक बल – विस्तार ॥
शुनि अयला सुग्रीवक सङ्ग । रामचन्द्र – पद – प्रीति अभङ्ग ॥
पहुँचलाह सत्वर हनुमान । प्रभु – आज्ञाकर वीर – प्रधान ॥
भक्त विभीषण पहुँचि सबेरि । एक हरिजन क्षण कयल न देरि ॥
सभ काँ सँग चलइक मन थीर । जानल करुणाकर रघुवीर ॥
तहँ सुग्रीव कहल कर जोड़ि । रहब न हम प्रभु मैत्री तोड़ि ॥
अङ्गद काँ राजा हम कयल । अपनैँक सङ्ग अचल – मति धयल ॥
कहल विभीषण काँ रघुनाथ । सुखित रहब करइत गुण – गाथ ॥
राक्षस – राज्य करू गय जाय । यावत धरा प्रजा सुख पाय ॥
हमर शपथ थिक करु स्वीकार । हठ उत्तरक त्यागु व्यवहार ॥
शुनु शुनु मारुतसुत हनुमान । रहु चिरंजीवि कहब की आन ॥
आज्ञा हमर यहन लिअ मानि । एक तरह नहि होयत हानि ॥
जाम्बवान द्वापर परयन्त । रहु गय अकथ कतौ वृत्तान्त ॥
सभजन काँ कहलनि पुन राम । चलु चलु सभ जन हमरा धाम ॥
प्रातहिँ कमल – नयन भगवान । गुरु वसिष्ठ काँ कहल विधान ॥
अग्निहोत्र चल हमरहि सङ्ग । तुष्ट वसिष्ठ कयल से रङ्ग ॥
रघुवर धौताम्बर कुशहस्त । महा – प्रयाणक बुद्धि प्रशस्त ॥
चलला छोड़ि नगर ओ धाम । कोटि कलाकर – छवि – जित राम ॥
कञ्ज – करा कमला चलु सङ्ग । सुषमा सुषमा – सिन्धु – तरङ्ग ॥
अस्त्रशस्त्र सङ्ग चलु धनु तीर । आगु भेल भल धयल शरीर ॥
धयल शरीर वेद सभ गोट । चलल महामुनि महिमा मोट ॥
श्रुति – माता प्रणवक सँग मेलि । व्याहृति मिलि रघुवर मिलि गेलि ॥
पुत्रदार परिवृत चल सङ्ग । प्रजालोक मन प्रीति अभङ्ग ॥
अतःपुर अनुचर सह नारि । चलल भरत शत्रुघ्न विचारि ॥
चलला राम चलल सुरलोक । बाल वृद्ध ककरा के रोक ॥
चारू वर्ण शरण भल पाब । शान्त तपस्वी जन अगुआब ॥
चल सुग्रीव सदल सदभाव । श्रीअनन्त रघुवर गुण गाब ॥
सभ आनन्द गमन – उत्साह । विषय मनोरथ अस्त प्रवाह ॥
स्थावर जङ्गम रहल न एक । सभ विरक्त बनि शुद्ध विवेक ॥
शून्य अयोध्या जनसौँ तखन । पुरसौँ चलल महाप्रभु जखन ॥
सरयूनदी देखल रघुवीर । अति प्रसन्न मन धर्म – शरीर ॥
अयला ततय विरञ्चि महान । सकल देव ऋषि सिद्ध सुमान ॥
गगन विराजय कोटि विमान । अतिथि काज रवि – कोटि समान ॥
अतिशय सुरभि पवन बह बेश । सुमन – वृष्टि – संकुल से देश ॥
विद्याधर किन्नर गण गाब । नानायन्त्र मृदंग बजाब ॥
परश कयल सरयू – जल राम । पयरहि सर्वशक्ति गुणधाम ॥
विधि तहिठाम जोड़ि दुहु हाथ । कहल समक्ष ठाढ़ रघुनाथ ॥
अपने परब्रह्म परमेश । सदानन्द विभु विष्णु रमेश ॥
जनता – पालक जगन्निवास । कहब तथापि थिकहुँ हम दास ॥
भ्राता सहित मिलल जत जाय । आदि देह निज इच्छा पाय ॥
अथवा निजरुचि उत्तम देह । करिय प्रवेश भक्त – पर – नेह ॥
देव – देव वर – पुरुष पुराण । चरण प्रणाम कोटि कल्याण ॥
विनत – विरञ्चि – वचन बुझि राम । देव सकल देखइत घनश्याम ॥
महा – प्रकाश सुलक्षण सहित । भेला चतुर्भुज चिन्ता – रहित ॥
लक्ष्मण शेष – नाग – तन सैह । धयल धराधर छल छथि जैह ॥
शङ्ख चक्र शोभा विस्तार । भरत भेलाह तथा लवणारि ॥
सीता रमा रमेश्वर राम । तन प्राचीन सुछवि गुणधाम ॥
बलाराति – गण विष्णु विलोक । परमेश्वर – गति जन के रोक ॥

।गीतिका छन्द।

आनन्द लोचन नीर निर्झर, निरख निर्जर रूप से ।
जन यक्ष देव समक्ष लक्षण – युक्त सुन्दर भूप से ॥
मुनि पितर प्रभृति प्रशंस गुण-गण, तितल आनन्द-नोर सौँ ।
तन पुलक – निचय उचार जन जन, देखु लोचन-कोर सौँ ॥

।सोरठा।

देखल द्रुहिण – समाज, कहल दयामय समय शुभ ।
सेवक जन सभ आज, जयता हमरहि सङ्ग सुख ॥
जत वानर जत भालु, जत राक्षस सेवक सुखद ।
कहलनि दीन – दयाल, हमर धाम सङ्गहिँ चलथि ॥

।रूपमाला।

कहल विधि शुनु विष्णु गुण-निधि, बुझल शासन नीक ।
नाम जपि भवसिन्धु तर नर, इ तौँ समुचित थीक ॥
वन्द्य वानर – वृन्द वर-गुण, भालु भाग्य – उदार ।
भक्ति – महिमा देख सुर-गण, केहन करुणागार ॥

।दोहा।

अज्ञानहुँ जे करय नर, राम नाम उच्चार ।
अन्त पाब गति उत्तमा, घुरि न आब संसार ॥

।सोरठा।

परसथि सरयू – नीर, हृष्टपुष्ट नहि कष्ट मन ।
पाबथि प्रथम शरीर, जय जय धुनि कपि कोटि कर ॥

।चौपाइ।

दिनकर – देह विमल कपिराज । देखथि सुचरित देव – समाज ॥
सरयूजल नर कर असनान । दिव्यरूप बनि चढ़ल विमान ॥
स्वर्ग चलल भल कीट पतङ्ग । विष्णुक नगर अमर सन रङ्ग ॥
देखय तमासा अयला जैह । तनिकर गति भेल उत्तम सैह ॥
उत्तर – राम – चरित गिरिजेश । श्री गिरिजा सौँ कहलनि बेश ॥
पढ़थि शुनथि जे चरित उदार । उत्तम गति पाबथि संसार ॥
की कर यमकिङ्कर स्वर – रोष । हर गिरिजा रघुवर सन्तोष ॥
रामायण पड़ एको चरण । पातक – चय निश्चय हो हरण ॥
अतिप्रसन्न रह उमा – महेश । एतय ओतए नहि रहय कलेश ॥
आदि – काव्य रामायण थीक । पढ़थि शुनथि जन रह निर्भीक ॥
विष्णुसदन पाबथि से अन्त । श्रद्धासहित पढ़थि जे सन्त ॥

। इति मैथिल श्रीचन्द्रकवि – विरचिते मिथिला – भाषा – रामायणे उत्तरकाण्डेऽष्टमोऽध्यायः समाप्तः ।

* । श्रीरामायण समाप्त । *

॥ श्रीरस्तु शुभमस्तु ॥

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