संकलन – प्रवीण नारायण चौधरी
(स्रोत: मिथिला पंचांग एवं अन्य)
मिथिला केँ तंत्रभूमि – सिद्धभूमि – तपोभूमि आदिकाल सँ मानल जाइत रहल अछि। एतय एक सँ बढि कय एक ऋषि-मुनि-महात्माक वास भेल अछि। आइयो लौकिक जीवन पद्धति किछु एहेन अछि जे आदिकाल सँ हिन्दू पुराण अनुसार विकसित समाजक वर्णन मे वर्णित अछि। जेना लोक ओतहि वास लैथ जतय पानिक स्रोत पूर्ण हो, पोखैर-इनार जरुर खुनायल गेल हो, अरण्य-वन (बाग-बगीचा-फूलबाड़ी) जरुर लगायल गेल हो, खेबा योग्य खेती लायक भूमि मौजूद हो, अनाज संग-संग फल हेतु गाछी-बिरछी सेहो लगायल गेल हो, आवागमन हेतु पगडंडी सँ लैग उच्च राजमार्ग धरि जुड़ल मार्ग सुगमता सँ उपलब्ध हो, शिक्षालय केर समुचित इन्तजाम हो, स्वास्थय परीक्षण हेतु समुचित साधन उपलब्ध हो, गाम मे सब जाति आ समुदाय लेल वासक व्यवस्था हो जाहि सँ कोनो बातक प्रयोजन अर्थात् आवश्यकता भेला पर तत्क्षण माँग केर पूर्तिक अर्थशास्त्रीय पद्धति पूरा कैल जा सकय।
मिथिला लेल गर्वक बात अछि जे एतुका कर्मकाण्डी पद्धति केँ सब ठाम सम्मान भेटल अछि। भारतवर्षक लगभग समस्त राज मे मिथिला पद्धति केँ मान्यता भेटल अछि। मिथिला पद्धतिक जटिलता केँ देखैत एहिमे आवश्यक सहजता अनबाक सेहो प्रयास भेल जेकरा बाद मे ‘बनारसी पद्धति’क दर्जा देल गेल। परञ्च बनारसी पद्धति केँ उत्कृष्ट नहि मानल जाइछ। आइयो हिन्दू संस्कारक प्रचलित व्यवस्था मे मिथिला पद्धति केँ पूर्ण वैदिक मानल जाइछ। बहुते ठाम आइयो सुनय लेल भेटैत अछि जे वेद केँ विलुप्त भेलोपर मिथिलाक कर्मकाण्डीय व्यवहार सँ वेद केँ पुनर्जीवित कैल जा सकैत अछि। तऽ आउ, कर्मकाण्डक किछु अत्यन्त आवश्यक मंत्र केँ एतय मैथिली जिन्दाबाद पर सन्दर्भ आ उपयोगिता मुताबिक समेटी।
आवश्यक व्यावहारिक मन्त्र
रक्षा (सूत्र) बन्धन मंत्र:
येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः।
तेनत्वाप्रतिवध्नामि रक्षे माचल माचलः॥
कुशोत्पाटन:
कुशाग्रे वस्ते रूद्रः कुशमध्ये तु केशवः।
कुशमूले वसेद् ब्रह्मा कुशन्मे देहि मेदिनी।
कुशोऽसिकुशपुत्रोऽसि ब्रह्मणा निर्मिता पुरा।
देवपितृ हितार्थाय कुशमुत्पाट्याम्यहम्।
चौठचन्द्र:
सिंहः प्रसेनवमवधीत सिंहो जाम्बवताहतः।
सुकुमारक मारोदीः तवह्येषः स्यमन्तकः॥
चौठचन्द्र (चौरचनमें) हाथ उठा चान के प्रणाम करबाक मन्त्र:
दधिसंखतुषाराभम् क्षीरोदार्णव सम्भवम्।
नमामि शशिनं भक्त्वा संभोर्मुकुट भूषणम्॥
उल्का भ्रमण:
शास्त्राशस्त्रहतानांच भूतानांभूत दर्शयोः।
उज्ज्वल ज्योतिषा देहं निदहेव्योमवह्निना॥
अग्निदग्धाश्च ये जीवा येऽप्यदग्धाः कुले मम।
उज्ज्वलज्योतिषा दग्धास्ते यान्तु परमाङ्गतिम्॥
यमलोकं परित्यज्य आगता महालये।
उज्ज्वलज्योतिषा वत्मं पश्यन्तो व्रजन्तुते॥
अगस्त्यार्घदान:
कुम्भयोनिसमुत्पन्न मुनीना मुनिसत्तम्।
उदयन्ते लंकाद्वारे अर्घोऽयंप्रतिगृह्यताम्॥
शंख पुष्पं फलं, तोयं रत्नानि विविधानि च।
उदयन्ते लंकाद्वारे अर्घोऽयंप्रतिगृह्यताम्॥
अगस्त्य-प्रार्थना:
आतापि भक्षितो येन वातापि च महाबलः।
समुद्र शोषितो ये न स मेऽगस्त्य प्रसीदत्॥
अनन्त भगवान् पूजन मन्त्र:
ॐ अनन्त संसार महासमुद्रे मग्नासया अभ्युद्धर वासुदेव।
अनन्त रूपे विनियोजयस्य अनन्त रूपायनमोनमस्ते॥
देवोत्थान (देवउठाउन एकादशी पूजन मन्त्र):
ब्रह्मेन्द्ररुद्ररभिवन्द्यमानो भवानुषिर्वन्दित वन्दनीयः।
प्राप्ता तवेयं किलकौमुदाख्या जागृष्व जागृष्व च लोकनाथ॥
मेघा गता निर्मल पूर्णचन्द्रः शारद्यपुष्पाणि मनोहराणि।
अहं ददानीति च पुण्यहेतो जागृष्व च लोकनाथ॥
उत्तिष्ठोतिष्ठ गोविन्द त्यज निन्द्रां जगत्पते।
त्वय चोत्थीय मानेन उत्थितं भुवनत्रयम्॥
घटदान विधि:
ॐ वरिपूर्णघटाय नमः। – ३
ॐ ब्राह्मणाय नमः। – ३
ॐ अद्येत्यदि मेषार्क संक्रमण प्रयुक्तपुण्याहे अमुकगोत्रस्य पितुः (गोत्राया मातु) अमुक शर्मा (देव्या) स्वार्गकामः (कामा) इमं वारिपूर्ण घट यथानामगोत्राय ब्राह्मणाय अहंददे। ॐ अद्यकृतैत् वारिपूर्णघटदान प्रतिष्ठार्थम् एतावद्द्रव्यमूल्यक हिरण्यमग्निदेवतं यथानामगोत्राय ब्राह्मणाय दक्षिणां महंददे।
दूर्वाक्षत मन्त्र:
ॐ आब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसौ जायतामाराष्ट्रे राजन्यः शूर इषवोऽतिव्याधि महारथी जायताम् दोग्ध्री धेनुर्वोढाऽनड्वानाशुः सप्ति पुरन्ध्रिर्योषा विष्णुरथेष्ठा सभेयो युवाऽस्ययजामानस्य विरोजायताम् निकामे निकामे नः पर्ज्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्ताम् योगक्षेमोन कल्पताम् मन्त्रार्थाय सिद्धयः सन्तु पूर्णा सन्तु मनोरथा शत्रुणां बुद्धिनाशोस्तु मित्राणामुदयस्तव।
वाजसनेयी धारण यज्ञोपवीत मन्त्र:
ॐ यज्ञोपवीतम् परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्रयं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतम् बलमस्तुतेजः॥
छन्दोग: ॐ यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य त्वोपवीतेनोपनह्यामि।
संक्षिप्त वैतरणी दान:
ॐ कृष्णगव्यै नमः। – ३
ॐ ब्राह्मणाय नमः। – ३
ॐ वष्मे वर्षति शीते वा मारुते वाति वा भृषम्। दातारं त्रायते यस्मात्तस्माद्वैतरणी स्मृता। यमद्वारे महाघोरे कृष्णां वैतरणी नदी। तासन्तर्तुन्ददाम्येनं कृष्णां च गाम्। इति पठित्वा कूशत्रयतिलजलान्यादाय – “ओमद्यामुकगोत्रस्य पितुरमुकशर्मण यमद्वार स्थित-वैतरणीनदी सुखसन्तरणकाम इमां कृष्णांगांरुद्रदैवताममुकगोत्रायऽमुक शर्मणे ब्राह्मणाय तुभ्यमेहं सम्प्रददे।” ॐ स्वस्तीति प्रतिवर्चनम्। ओमद्य कृतैस्तत् कृष्णगवीदानप्रतिष्ठार्थमेतावद्द्रव्यमूल्यक हिरेण्यमग्निदैवतम् – दक्षिणा प्रतिग्रहीता ॐ स्वस्तीत्युक्त्वा गोपुच्छं गृहणान् यथा सांखं कामस्तूति पठेत्। गोसन्निधाने ॐ एतावद्द्रव्यमूल्यक कृष्णगव्यै नमः पूर्ववत्।
संक्षिप्त दाह संस्कार:
कर्ता स्नान कय नूतनवस्त्रादि पहीरि पूर्वमुँह बैसि नूतनमृत्तिका पात्रमें जल अभिमंत्रित करैथि –
ॐ गयादीनि च तीर्थानि ये च पुण्याः शिलोच्चयाः। कुरुक्षेत्रं च गङ्गा च यमुनां च सरिद्वराम्॥ कौशाकि चन्द्रभागाञ्च सर्वपापप्रणाशिनीम्॥ भद्रावकाशां सरयू गण्डकी तमसान्तया। धैनवञ्च वराहञ्च तीर्थपीण्डारकन्तथा। पृथिव्यां यानि तीर्थानि चतुरः सागरास्तथा॥
– मनसँ ध्यान करैत जलसँ दक्षिण सिर शवके स्नान करा नूतन वस्त्रद्वयं यज्ञोपवित पुष्प चन्दनादिसहित अलंकृत कय चिता पर उत्तर मुँह अधोमुख पुरुष के तथा स्त्रीगणके उत्तान शयन करा, अपसव्य भऽ दक्षिणाभिमुख भऽ वाम हाथमें ऊक लय –
ॐ देवश्चाग्निमुखः सर्वे कृतस्नपनं गतायुषमेनं दहन्तु।
मनमें ध्यान करैत –
ॐ कृत्वा सुदुष्करं कर्म जानता वाप्यजानता। मृत्युकालवशं प्राप्तं नरं पञ्चत्वमागतम्। धर्माधर्मसमायुक्तं लोकमोहसमावृत्तम्। दहेयं सर्वगात्राणि दिव्याल्लोकान् स गच्छतु।
– ई मंत्र पढैत तीन बेर प्रदक्षिणा करैत मुखाग्नि दी –
इति मन्त्रद्वयं पठित्वा त्रिः प्रदक्षिणीकृत्यज्वलदुल्मुकं – शिरो देशे दद्यात्। ततस्तृकाष्टघृतादिकं चितायां निक्षिप्य कपोतावशेषं दहेत। ततः प्रदेश मात्र सप्तकाष्टकाभिः सह प्रदक्षिणा सप्तकं विधाय कुठारेण उल्मुकं प्रति प्रहार सप्तकं निधाय क्रव्यादाय नमस्तुभ्यमित्येकैकां काष्टिकामग्नौ क्षियेत्। ततः ॐ अहरहर्न्नयमानो गामश्वं पुरुषं पशुम्। वैवस्वतो न तृप्यति सुराभिरिव दुर्मतिः। इति यमगाथा गायन्तो बालपुरस्सराः वृद्धपश्चिमा पादेन पादस्पर्शम् अकुर्वाणाः जलाशयं गच्छेयु। ओमद्यामुकगोत्रायःऽमुक प्रेत एष तिलतोयाञ्जलिस्ते मया दीयते तवोप्रतिष्ठताम्।
बादमें लोहा, पाथर, आगिक स्पर्श।
ॐ तत्सत्!