स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण
उत्तरकाण्ड – तेसर अध्याय
।चौपाइ।
कह सानुज बालिक उतपत्ति । जनिका छल अति बल सम्पत्ति ॥
रावण तनि तट तृणक समान । बालिक सदृश शूर के आन ॥
राम – प्रश्न मुनि शुनल अगस्त्य । चरित कहय लगलाह प्रशस्त्य ॥
कनक – सुमेरु – शिखर बड़ गोट । शतयोजन मणिमय मध्य कोट ॥
योगारूढ़ शारदानाथ । आनन्दाश्रु बहल लेल हाथ ॥
से कर धयलहि धयलनि ध्यान । त्याग कयल पुन चरित के जान ॥
तहि सौँ जनमल भल कपिराज । कहल विधाता बसह समाज ॥
किछु दिन बितलय हयतौ नीक । सुखित रहह किछु दिन निर्भीक ॥
यहिगत गत भेल बहुतो वर्ष । ऋक्षाधिप रह सतत सहर्ष ॥
भ्रमयित गिरिवर फल – मूलार्थ । विधि – निवास मे सकल पदार्थ ॥
वापी एक पड़ल तनि दृष्टि । मणिमय तत जल अमृतक सृष्टि ॥
करय ततय गेला जलपान । दृष्टि पड़ल प्रतिबिम्ब समान ॥
भ्रम अन्तर अछि के ई आन । कुदि पड़ला जल कपि अज्ञान ॥
बहरयला पुन जल सौँ फानि । स्त्री बनला पुरुषत्वक हानि ॥
अति विसम्य मन होइनि लाज । कि कहब ककरा रहित समाज ॥
पूजि चतुर्मुख काँ अमरेश । दूइ पहर दिन चलला देश ॥
।सोरठा।
देखल से वर नारि, काम-विवश सुरपति ततय ।
नहि शकलाह सम्भारि, वीज-पतन हुनि बाल पर ॥
जन्म लेल एक बाल, बालहिँ सौँ संज्ञा तनिक ।
बालि भेल तत्काल, स्वर्णमाल दय हरि चलल ॥
रविहुक तेहने हाल, वीज तनिक ग्रीवा खसल ।
जनमल बाल विशाल, ग्रीवा सौँ सुग्रीव तैँ ॥
देलनि तनि रक्षार्थ, हनूमान काँ भानु तत ।
वन – फलादि भक्ष्यार्थ, बहुत देखि रवि नभ चलल ॥
।चौपाइ।
युगल पुत्र लेल सङ्ग लगाय । सुति रहली कहुँ से अलसाय ॥
भेल प्रात जौँ निद्रा भङ्ग । पुन बनि गेला पूर्व्वक रङ्ग ॥
युगल बाल सङ्ग बहु फल मूल । प्राप्त ततय जत विधि अनुकूल ॥
दल विधाता बड़ आश्वास । कीशराज काँ भेल विश्वास ॥
विधि एक अमर दूत बजबाय । कहलनि किष्किन्धा मे जाय ॥
कपिपति होथि तहाँ महाराज । सत्वर करु गय ई गोट काज ॥
सकल द्वीप जे वानर लोक । हिन कपिपति – वश – वर्त्ति विशोक ॥
रामक जखन हयत अवतार । असुर – विनाश हरण महि – भार ॥
तनिकर सभ कपि करब सहाय । देवदूत देल कथा बुझाय ॥
विधि सौँ जेहन बुझल ओ दूत । कपिपति ततक कयल पुरहूत ॥
तेहि दिन सौँ किष्किन्धा वास । बालि प्रभृति छल छथि निस्त्रास ॥
विधि – प्रार्थित अपनैँ परमेश । भूमि – भार टारल अकलेश ॥
ब्रह्म अखण्डानन्द – स्वरूप । कोन पराक्रम नरवर भूप ॥
तदपि भक्तजन वर्णन करथि । गुणगण गाबि दुःख सौँ तरथि ॥
जे कीर्त्तन कर कपिपति – जनन । कथा तनिक हो पातक – हनन ॥
अथ हम कथा कहै छी आन । श्रीरघुनन्दन शुनु दय कान ॥
रावण कयलनि सीता – हरण । प्रकट तकर फल दुर्ग्गति मरण ॥
सनत्कुमार प्रजापति – तनय । कृतयुग रावण कयलनि विनय ॥
कयल प्रणाम जोड़ि विश हाथ । प्रभु सर्व्वज्ञ कहल हे नाथ ॥
जनिकर जनम मरण नहि एक । भर्त्ता विश्वक विशद विवेक ॥
जनिकर बल सौँ सुर – समुदाय । शत्रु जितै छथि अमर कहाय ॥
यजन करै छथि द्विजगण ककर । योगी ध्यान करै छथि जकर ॥
ई सभ संशय सनत्कुमार । कहल जाय प्रभु परमोदार ॥
।सोरठा।
शुनि पुन सनत्कुमार, योगिदृष्ट सौँ मौन क्षण ।
प्रश्नोत्तर उच्चार, समुचित कयल दशास्य-हित ॥
शुनु शुनु सुत लङ्केश, अव्यय नारायण थिकथि ।
जतय दुःखक लेश, विश्वम्भर तनि जन्म नहि ॥
तनि बल सौँ सङ्ग्राम, अमर जितै छथि योगि पुन ।
ध्यान निरन्तर नाम, करथि जपथि संसृति तरथि ॥
पुन पुछलनि दशभाल, दैत्यादिक जे विष्णु सौँ ।
निहर समर वश काल, जाइत छथि कहु कोन गति ॥
असुर मरथि सुर – हाथ, से जाइत छथि स्वर्ग्ग – पद ।
शुनु रावण दशमाथ, रहित – पुण्य सौँ महि-पतन ॥
विष्णुक हाथ विनाश, जनिकर से हरिगति पहुँच ।
जेहन शुद्धाकाश, निर्म्मल मन नहि वासना ॥
।चौपाइ।
रावण शुनल मुनिक मुख वचन । मन मन करय लगल भल रचन ॥
समर करब हम विष्णुक सङ्ग । रावण – मन सङ्कल्प अभङ्ग ॥
मुनि जानल रावण मन – वृत्ति । कहलनि भल थल चित्त – प्रवृत्ति ॥
सिद्ध अभीष्ट विगत किछु काल । चिन्ता करु जनु मन दशभाल ॥
तनिक स्वरूप कहै छी आज । स्थावर जङ्गम सभ सम्राज ॥
एक वस्तु नहि हुनि सौँ हीन । अन्तर अन्तर सभ मे लीन ॥
नद ओ नदी जलधि जत नीर । पर्व्वत पृथिवी गगन शरीर ॥
ओ सावित्री ओ ओङ्कार । ओ पुन सत्य समस्ताधार ॥
कच्छप शेष धरणिधर जतेक । अनल आदि जत ओ प्रभु एक ॥
जे जे पड़यिछ अहँ काँ दृष्टि । से सभटा थिक से प्रभु सृष्टि ॥
ओ प्रभु सकल चराचर व्याप्त । हुनकहि मे पुन अन्त समाप्त ॥
नीलोत्पलदल – सुन्दरश्याम । चपला – वर्णाम्बर अभिराम ॥
जम्बूनद – रुचि श्री तन वाम । प्रेम परस्पर प्रभु गुणधाम ॥
हिनका देखि शकथि नहि आन । ओ प्रभु अपनहि अपन समान ॥
हुनकर भक्त ततहि रत – प्राण । ततहि निरन्तर मन सज्ञान ॥
मननादिक सौँ निर्मल नयन । तनिका हृदय करथि प्रभु शयन ॥
जौँ अछि हुनकर दर्शन काज । त्रेता मे हयता रघुराज ॥
दशरत – सुत तनि आज्ञा पाबि । माया – लीला करता आबि ॥
निजमाया काँ लयोता सङ्ग । दण्डक – वन मुनिजन दुखभङ्ग ॥
अनुज – सहित वन वन सञ्चरत । कहु कत नरवर लीला करत ॥
अहुँ हुनि प्रभु मे भक्ति बढ़ाउ । सभ जनितहिँ छी कते पढ़ाउ ॥
।सोरठा।
कहलनि सनत्कुमार, रावण कयल विचार मन ।
करब विरोध प्रकार, मरब समर कय वीरता ॥
रावण हर्षित – चित्त, युद्धार्थी सभ लोक फिर ।
सीताहरण निमित्त, अपनैँक हाथेँ मरण हो ॥
।दोहा।
पढ़थि शुनाबथि शुनथि जे, ई चरित्र सभ योग्य ।
सुख अनन्त आयुष्य बढ़, बढ़ अनन्त आरोग्य ॥
।इति।
हरिः हरः!!