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कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण – उत्तरकाण्ड पहिल अध्याय

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण

उत्तरकाण्ड – पहिल अध्याय

अथ उत्तरकाण्ड

।दोबय छन्द।

जय रघुवंश-तिलक कौशल्या – नन्दन दशरथ – बालक ।
दशमुख – नाशक पङ्कज-लोचन, जय मुनिजन – प्रतिपालक ॥

।चौपाइ।

एक समय गरिराज – कुमारि । शिव काँ पूछल समय विचारि ॥
रावणादि काँ मारल राम । राजा भेला अयोध्या – धाम ॥
भूतल रहला ओ कति वर्ष । श्री सीता सह बास सहर्ष ॥
से कयलनि महि – मण्डल त्याग । तृप्ति न कथा सुधा – सम लाग ॥
शिव कहलनि शुनु प्रिया महेशि । कथा पुछल अछि अपनैँ बेसि ॥
राम अकण्टक महि सुरराज । मुनिगण अयला आशिष काज ॥

।दोबय छन्द।

विश्वामित्र कण्व दुर्व्वासा, सित भृगु शिष्य अनेक ।
अत्रि अङ्गिरा वामदेव सभ, निर्मल सकल विवेक ॥
मुनि-मण्डली शिष्यसौँ परिवृत, अयला तथा अगस्त्य ।
द्वारपालकाँ कहलनि सभ मुनि, कोमल वचन प्रशस्त्य ॥
प्रतीहार बुझि सभ मुनि नाम । कहबनि आयल छथि एहिठाम ॥
नृप काँ आशीष देबक काज । आगत छी मुनि – मण्डलि आज ॥
द्वारपाल से बुद्धि – विशाल । गेला जतय राम महिपाल ॥
बद्धाञ्जलि ओ कयल प्रणाम । मुनि – आगमन कहल तहिठाम ॥
मुनि अगस्ति छथि बहुत चिन्हार । आशिष देता वृत्त छथि द्वार ॥
द्वारपाल काँ कहलनि राम । आदर सौँ आनू एहि ठाम ॥
नानारत्न – विभूषित धाम । पूजित मुनि गेला तहि ठाम ॥
मुनि – अभिमुख प्रभु जोड़ल हाथ । पूजा सविधि कयल रघुनाथ ॥
अर्घ्यादिक उत्तर गोदान । पृथक पृथक मुनिजन सन्मान ॥
सभ काँ कयलनि राम प्रणाम । दिव्यासन देलनि तहि ठाम ॥
सभ काँ कुशल पुछल रघुवीर । दिनमणि – वंश – शोरोमणि धीर ॥
सभ मुनि कहल कुशल सभ ठाम । रावणादि मारल सङ्ग्राम ॥
नहि आश्चर्य धनुष धय हाथ । सकल – लोक जित श्री रघुनाथ ॥
अति अद्भुत घननादक मरण । तनिक विजय रण साहस करण ॥
शुनि शुनि – वचन कहल श्रीराम । मेघनाद छल की बलधाम ॥
कुम्भकर्ण रावण अति वीर । कालहु काँ मन जतय न थीर ॥
काँपथि थर थर निकट न जाथि । देखयित तनिकाँ गमहि पड़ाथि ॥
मेघनाद तनिकहुँ सौँ शूर । कहल जाइ अछि नहि किछु फूर ॥

।दोहा।

कहलनि तखन अगस्ति मुनि, शुनु ईश्वर रघुनाथ ।
जन्म कर्म्म वरदान विधि, जे पाओल दशमाथ ॥

।चौपाइ।

मुनि पुलस्त्य विधि – तनय महान । मेरु निकट तप कर विद्वान ॥
तृणविन्दुक आश्रम मे जाय । कृतयुग मे एक धर्म्म सहाय ॥
सुर – गन्धर्व्व – कन्यका आब । अति रमणीयक आश्रम पाब ॥
गाबय नाचय वाद्य बजाय । हसय बहुत नहि एक लजाय ॥
बड़ि निरहटि सटि मुनि लग जाय । अतिशय उनमति युवता पाय ॥
मुनि मन बाढ़ल अतिशय कोप । करति तपोविधि जनु ई लोप ॥
हमर दृष्टिपथ अयोती नारि । गर्भवती हयतीह कुमारि ॥
बड़ दुःप्रथा कथा जे शून । केओ हुनि मुनि लग आब न पून ॥
तृणविन्दुक कन्या अज्ञात । मुनि – दृग – गोचर भेली प्रात ॥
भेलि गर्भिणी मन सन्ताप । गेलि तहाँ जहाँ छलथिनि बाप ॥
से राजर्षि बुझल वृत्तान्त । ज्ञान – नयन सौँ मुनिक नितान्त ॥
कन्य लय तृणविन्दु उदार । मुनि पुलस्त्य काँ कयल सदार ॥
मुनिसेवा मे लागलि रहथि । करथि टहल से मुनि जे कहथि ॥
सेवा – तुष्ट देल वरदान । कन्या काँ से मुनि भगवान ॥
उभयवंश – वर्द्धन एक तनय । हयतौ सदाचार सद्विनय ॥
विश्रुत – लोक विश्रवा नाम । तनिकाँ पुत्र भेला गुणधाम ॥
पिता – तुल्य तप ब्रह्मज्ञान । ख्यात महामुनि तपोनिधान ॥
देखल शीलादिक समुदाय । भरद्वाज तनि कयल जमाय ॥
तहि कन्या मे तनय धनेश । जनिकाँ अति प्रिय मित्र महेश ॥
विदित विरञ्चिक बहुत दुलार । पितातुल्य तप कयल अपार ॥
तनिकाँ विधि देलनि वरदान । वित्त अखण्डित वर विज्ञान ॥

।सोरठा।

वर विरञ्चि सौँ पाबि, ब्रह्म-दत्त पुष्पक चढ़ल ।
विश्रवाक लग आबि, कहल तपस्या-फल सकल ॥

।चौपाइ।

ब्रह्मा देल अखण्डित वित्त । वासस्थान न हमर निमित्त ॥
हिंसा – शून्य रही जत जाय । देल जाय सुखवास देखाय ॥
अछि सुत थल भल अहँइक योग । लङ्का बसू करू धन भोग ॥
विश्वकर्म्म – निर्म्मित ओ वास । परक कदापि परत नहि त्रास ॥
कहइत छी लङ्का – वृत्तान्त । भेल सुरासुर – समर नितान्त ॥
विष्णुक त्रासित असुर पड़ाय । रहल रसातल जाय नुकाय ॥
सागरमध्य पुरी मे वास । कयल धनद सुखमय निस्त्रास ॥
छला बहुत दिन ततहि धनेश । दिन दिन उज्वल भेल सुदेश ॥
राक्षस एक सुमाली नाम । अयला एक समय तहिठाम ॥
युवती कन्या तनिकाँ सङ्ग । जनु तनु प्रथम निवास अनङ्ग ॥
श्रीदेवी सम तनिकर रूप । चिन्तातुर राक्षस चुपचूप ॥
पुष्पक चढ़ल धनेश निहारि । राक्षस अपना चित्त विचारि ॥
कन्या काँ राक्षस से कहल । तोहरा समय कहय किछु रहल ॥
कन्या कहल कहू हे तात । करब न वचनक प्रत्याख्यात ॥
ब्रह्म – कुलोद्भव वर करु वरण । तनय हयत सभ सङ्कट – हरण ॥
धनदक सदृश रूप – सम्पन्न । करु गय पुत्रि पुत्र उत्पन्न ॥
विश्रवाक से आश्रम जाय । ठाढ़ि भाल चिर समय लजाय ॥
धरणी लिखथि चरण सौँ ठाढ़ि । चिन्ता एकाकिनि मन बाढ़ि ॥
अये के अहँ मुनि पुछल कि काज । कर जोड़ि कहल रहल नहि ब्याज ॥
ध्यानहिँ विदित होयत वृत्तान्त । आइलि छी एकसरि एकान्त ॥
मुनि कहलनि कयलह उत्पात । पुत्रर्थिनि मानस हो ज्ञात ॥
अयिलिह आश्रम दारुण काल । दारुण दुइ सुत लाभ विशाल ॥
कहल केकसी अति अन्याय । लोह सुवर्ण परशमणि पाय ॥
अपनहुँ सौँ जौँ एहने हयत । मर्य्यादा धर्म्मक उठि जयत ॥
मुनि पुन कहलनि सभहिक छोट । महा – भागवत से सुत गोट ॥
करथि केकसी निज निर्व्वाह । बितल कतो दिन चलल प्रवाह ॥
रावण लेल प्रथम अवतार । बीश बाहु दश गोट कपार ॥
धरणी – कम्प बहुत उतपात । कुम्भकर्ण दोसर सुत जात ॥
पर्व्वत सन तन कहल न जाय । देखितहिँ के नहि लोक डराय ॥
सूर्प्पनखा भेली उतपन्नि । जेहने भाय तेहनि अनमन्नि ॥
लेल विभीषण वर अवतार । अतिसुन्दर सुन्दर व्यवहार ॥
कर्म्म – परायण नियताहार । स्वाध्यायी से परमोदार ॥
जन – भय-कर रावण तन बाढ़ । कुम्भकर्ण पर्वत सन ठाढ़ ॥

सञ्चर ऋषिगण काँ धय खाथि । कुम्भकर्ण नहि कतहु अघाथि ॥
कहल राम काँ गत वृत्तान्त । कि कहब अपनैँ लक्ष्मीकान्त ॥
साक्षी सर्व्व हृदय मे वास । नित्योदित निर्म्मल निस्त्रास ॥
प्रभु सर्वज्ञ कहल किछु आबि । अपनैँक दयादृष्टि केँ पाबि ॥

।सोरठा।

अति प्रसन्न – मन राम, कुम्भज मुनि सौँ से कहल ।
अपनहुँ छी निष्काम, हमर कृपा निर्भय सदा ॥

।इति।

हरिः हरः!!

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