स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण
लङ्काकाण्ड – सोलहम अध्याय
।चौपाइ।
रामक भेल जखन अभिषेक । महाराज काँ नीति विवेक ॥
सकल लोक काँ अति सुख प्राप्त । सकल शस्य सौँ धरणी व्याप्त ॥
भल भल सुफल महीरुह लाग । राम नृपति प्रकृतिक बड़ भाग ॥
जे छल सुमन गन्ध सौँ रहित । भेल अपूर्व्व सुगन्धिक सहित ॥
घोड़ा दान हजार हजार । धेनु दान कर परमोदार ॥
शत शत वृषभ विप्र काँ देथि । आशिष शिष्टलोक सौँ लेथि ॥
तीस कोटि पाओल भल दान । वर सुवर्ण ब्राह्मण गुणवान ॥
वस्त्राभरण रत्न वसु आन । नित नित ब्राह्मण जन काँ दान ॥
सूर्य्यकान्ति सम रत्न उदार । देल सुग्रीव – गरा मे हार ॥
अङ्गद काँ अङ्गद देल राम । लगला करय सुयश सभ ठाम ॥
चन्द्रकोटि मणि – रत्न सुहार । वैदेही काँ देल उदार ॥
पहिरि हार निज कर मे धयल । दृष्टि पवन – नन्दन दिश कयल ॥
प्रभु – मुख वारहिँ वार निहार । हार – दान मे केहन विचार ॥
।दोहा।
जतय तुष्ट मन अहँक अछि, दिय तनि जन काँ हार ।
वैदेही काँ कहल प्रभु, हमरो सैह विचार ॥
हार देल हनुमान काँ, लेल से कण्ठ लगाय ।
बद्धाञ्जलि नत ठाढ़ तहँ, भक्ति कहल की जाय ॥
।चौपाइ।
वर अभिलाषित माँगु हनुमान । कहलनि रघुनन्दन भगवान ॥
त्रिभुवन सुर – दुर्लभ वरदान । देब अहाँक समान न आन ॥
कहि नहि हो हनुमानक हर्ष । गद गद कण्ठ नयन जल वर्ष ॥
यावत अपनैँक रह जन नाम । तावत हमहुँ रही तहि ठाम ॥
रहय निरन्तर नामस्मरण । प्रभुक चरण – वश अन्तष्करण ॥
ई वर छोड़ि न माँगब आन । छल सौँ रहित कहल हनुमान ॥
राम तथास्तु कहल तहि ठाम । जीवन्मुक्त अहाँ गुणधाम ॥
कल्पान्तहु हमरे सायुज्य । सतत सुखी रहु तन नैरुज्य ॥
वैदेही देलनि वरदान । जतय ततय बसु गय हनुमान ॥
तताह मनोभिलाषित फल पयब । आशिष हमर न चिन्तित हयब ॥
।सोरठा।
धरणी धय निज माथ, कयल प्रणाम समीर – सुत ।
वैदेही रघुनाथ, सानुकूल रहु की कहब ॥
।किरीट छन्द।
वृक्षक पत्र जकाँ रघुनायक, जाय कहूँ अपनैँक कहायब ।
वानर छी वन मे बास केँ, झरना-जल पान ततै फल खायब ॥
जीवन मुक्त निरन्तर ध्यान, विदह – सुता प्रभु-गान शुनायब ।
जाइतछी हिमवान मँ हे प्रभु, इ सुख – पुञ्ज कतै हम पायब ॥
।चौपाइ।
हाथ जोड़ि कहि कयल विदाय । गुह निषाद काँ हृदय लगाय ॥
घर थिक अपन निरन्तर आउ । मित्र अपन पुर सम्प्रति जाउ ॥
चिन्ता हमर चित्त स धरब । विपुल भोग – सुख सुख सौँ करब ॥
मित्र हमर सारूप्ये पयब । अन्त समय नहि दुर्गति जयब ॥
दिव्याभरण राज्य कय दश । देल मित्र काँ राम नरेश ॥
नयन सजल मिलि मिलि चललाह । राम – वियोग न किछ बजलाह ॥
सुग्रीवादिक सकल प्रधान । सभ जन पाओल वर सन्मान ॥
वानर – निकरक कय सन्मान । वसनाभरण अमूल्य अमान ॥
सन्मानित सभ भेल विदाय । गदगद कण्ठ नयन जल जाय ॥
सभजन अपन अपन गेल गेह । अचल रहल रामक पद नेह ॥
किष्किन्धा कपि – पति सह – दार । चलल सैन्य सह भरिया भार ॥
लङ्का गेला निज जन सहित । भक्त विभीषण कण्टक – रहित ॥
रघुवर कयल बहुत सत्कार । जे पवित्र मित्रक व्यवहार ॥
लक्ष्मण काँ बल सौँ युवराज । कयल रघूत्तम सहित समाज ॥
कर्म्माध्यक्ष तदपि नहि बन्ध । परमात्मा मन सौँ निद्धन्ध ॥
स्वात्मानन्दहिँ प्रभु सन्तुष्ट । जन उपदेश करथि मन तुष्ट ॥
हयमेधादिक यज्ञ अनेक । कयल यथाविधि विमल – विवेक ॥
विपुल दक्षिणा जन सन्तुष्ट । त्रिभुवन जन मन रहल न रुष्ट ॥
प्राप्त ततय नहि विधवा योग । नहि सर्प्पादिक भय नहि रोग ॥
तस्करादि नास्तिक नहि लोक । प्राप्त न ककरहु पुत्रक शोक ॥
रामाचरित प्रजा समस्त । वस्तु प्रशस्त सतत सभ सस्त ॥
सकल प्रजाकेँ धर्म्महिँ प्रीति । बड़ मन धृति नहि ईतिक भीति ॥
बरष वलाहक समय सुबेरि । ब्रीहि ब्रीहि मय महि मे ढेरि ॥
वर्णाश्रम – गुणयुत जन सर्व्व । ककरो नहि मन अङ्कुर गर्व्व ॥
प्रजा पुत्र सम कर प्रतिपाल । रामचन्द्र उत्तम महिपाल ॥
दशसहस्र वर्षावधि राज । कयल राम बसि अवनि – समाज ॥
चिरतर जीवन तन आरोग्य । धन धान्यादिक उत्तम भोग्य ॥
अतिपुणयद श्रीरघुवर – चरित्र । श्रवण पठन धन – करण पवित्र ॥
पढ़थि रामायण शुनथि समग्न । प्राप्ति सुपुत्र न मनो हो व्यग्र ॥
समय – शूर रण निकट न आब । रामचरित काँ सहज स्वभाब ॥
बन्ध्या रामायण मन लाब । रजस्वला उत्तम सुत पाब ॥
रामायण जे पढ़थि विचारि । सुलभ तनिक कर – गत फल चारि ॥
रोग न रहय पाप क्षय जाय । ग्रह – विघ्नादिक दूर पड़ाय ॥
श्रद्धायुत जे पढ़ इ पुराण । ईश्वर तनिकाँ देथिनि ज्ञान ॥
करथि उमेश तनिक प्रतिपाल । निकट न आबै तनिका काल ॥
इति मैथिल श्रीचन्द्रकवि – विरचिते मिथिला – भाषा – रामायणे लङ्काकाण्ड षोडशोऽध्यायः समाप्तः ।
॥लङ्काकाण्ड समाप्त॥
हरिः हरः!!