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कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायणः लङ्काकाण्ड – पन्द्रहम अध्याय

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण

लङ्काकाण्ड – पन्द्रहम अध्याय

।चौपाइ।

केकयि – तनय विनय – सम्पन्न । किछु नहि मानस छल प्रच्छन्न ॥
भरत कहल शुनु बड़का भाय । अपनैँ नृपति दुखी वन जाय ॥
चौदह बरष छलहुँ वनवास । अयलहुँ अवधि पुराओल आस ॥
जे कृति कयलनि केकयि माय । से प्रभु नहि मन पाड़ल जाय ॥
प्रभु – आज्ञा मानल सभ गोट । सेवक थिकहुँ भाय हम छोट ॥
राज्य – भार करु अपन अधीन । रविकुल शुद्ध रीति प्राचीन ॥
ई कहि चरण पड़ल लपटाय । देल जाय प्रभु आधि घटाय ॥
केकयि कहल सहल उपहास । हरल हमहिँ प्रभु राज्य – विलास ॥
कहल नीक नहि विश्वक लोक । चौदह बरष सहल मन शोक ॥
भेल से भेल गेल दिन बीति । एखनहुँ राखक थिक कुलरीति ॥
हमहुँ अशक्य अहाँ काँ माय । देल कुमतिवश विपिन पठाय ॥
आज्ञा हमर यहन लिय मानि । रीति सनातन करु जनु हानि ॥
कहल वसिष्ठ कहै छथि माय । भरतक कथा कयल प्रभु जाय ॥
राम कयल राज्यक स्वीकार । भेल सकल थल जय – जयकार ॥
परमात्मा की करता राज । सभटा होइछ माया – व्याज ॥
समय जानि लक्ष्मण लघु भाय । नापित निपुण देल बजबाय ॥
तनिकर कृत्य भेल सम्पन्न । सकल लोक मन होथि प्रसन्न ॥
अभिषेकक आयल सम्भार । रघुवर हेतु वृत्त सभ द्वार ॥
प्रथमहिँ कयल भरत असनान । लक्ष्मण तखना स्नान – विधान ॥
सविधि स्नान कयल कपिराज । तथा विभीषण सभ्यसमाज ॥
भरतक जटा केश फुटकाब । चित्र – माल्य अनुलेप लगाब ॥
वसन महोत्तम पहिरल भरत । छवि – तुलना त्रिभुवन के करत ॥
भरत कराओल प्रभु प्रतिकर्म्म । मन मे मानल सेवक – धर्म्म ॥
रुचिशुचिमय – युत शोभाधाम । दिव्य – अलङ्कति – धृत प्रभुराम ॥

।कवित्त।

कौशल्या कुशलमति हरषि शृङ्गार कर,
अपनहि कर सौँ पुतोहु विधुवदना ।
वदन निहार ओ उचार शिवगौरीगीत,
हृदय लगाब बारबार शोभासदना ॥
सकल शाशुक सीता करथि प्रणाम आशु,
आशिष ओ देथि कहि कहि कुन्दरदना ।
जनकक कन्यका कनीनिका मे राखै योगि,
अयोध्या-मिथिलालोक आधिक निकन्दना॥

।सोरठा।

सभ रानी सीताक, कय शिंगार आनन्द कह ।
शिरोरत्न वनिताक, त्रिभुवन मे सीता अहाँ ॥

।दोबय छन्द।

आगत छली जते उत्सव मे, वानर-लोकक दारा ।
सभक शिंगार कयल कौशल्या, धृतशोभा विस्तारा ॥
कहलनि धर्म्म-पुतोहु थिकहुँ अहाँ, हमरा प्राणाधारा ।
लक्ष्मण रामचन्द्र हत युवती, लोचनतारा तारा ॥

।जयकरी छन्द।

आज्ञा शत्रुघ्नक शुनि कान । रथ सुमन्त रवि – रुचि शुचि आन ॥
तेहिपर चढ़ला राम नरेश । देखितहिँ सभ जन विगत – कलेश ॥
कपिपति अङ्गद ओ हनुमान । तथा विभीषण वरमति – मान ॥
कयलनि स्नान अलङ्कृत अङ्ग । गज बाजी चढ़ि चल प्रभु सङ्ग ॥
कपिपति वनिता काँ अतिमान । सीतासङ्ग चललि चढ़ि यान ॥
जेहन हरित – हय – रथ त्रिदशेश । चलल महत्पुर प्रभु रुचिवेश ॥
रत्नदण्ड – कर सारथि भरत । छविमय के समता जग करत ॥
शत्रुघ्नक कर छत्र सुन्धबल । पंखा लक्ष्मण कर लस नवल ॥
एक चामर शत्रुघ्नक हाथ । दोसर कर धर असुरक नाथ ॥
सिद्धसंघ कर जय – जय – कार । मधुर मनोहर वचन उचार ॥
वानर सुन्दर मनुज – स्वरूप । गजवर चढ़ल चढ़ल जनु भूप ॥
बाजन नानातरहक बाज । रामचन्द्र पाओल निज राज ॥
पुरवासी जन सकल निहार । दुर्व्वादल – श्यामल सुकुमार ॥
रत्नकिरीटालङ्कृत अङ्ग । शोणकमलदल लोचन रङ्ग ॥
पीताम्बर वरमुक्ता – हार । भाग्य अपन मन प्रजा विचार ॥
सुग्रीवादिक कपि – प्रधान । सभ सौँ सेवित श्री भगवान ॥
कस्तूरी चन्दन घनसार । कल्पमहीरुह – सुमनक हार ॥
उच्च अटापर चढ़ि वरनारि । एकटक रघुवर – रूप निहारि ॥
निज गृहकाज देल परित्यागि । शान्ति कयल मन आधिक आगि ॥
हसि हसि करथि प्रसूनक वृष्टि । गेल पुरी सौँ शोकक सृष्टि ॥
इषत – हसित – मुख राम निहार । प्रजाचित्त छूटल दुखभार ॥

।रूपमाला।

अमरपति – पुर तुल्य शोभा, लसित दशरथ – धाम ।
सकल लोक कृतार्थ करयित, पहुँचला श्रीराम ॥
देवतामति मातृलोकक, कयल चरण प्रणाम ।
प्रभु-चुमाओन विविध उत्सव, भेल विधि तहिठाम ॥
भरत काँ रघुनाथ कहलनि, हमर जे छल धाम ।
सर्व्वसम्पति-युक्त समुचित, वास हो ओहिठाम ॥
मित्र कपिपति ओ विभीषण, राक्षसेन्द्रक नीक ।
सुख-निवास कपि-प्रधानक, आज देवक थीक ॥

।सोरठा।

सभक देल सुख – वास, भरत जेहन आज्ञा प्रभुक ।
भेल चित्त निस्त्रास, दिन जाइत जानथि न से ॥
थिक विचार इत एक, भरत कहल कपिनाथ सौँ ।
करब प्रभुक अभिषेक, आबय सात – समुद्र – जल ॥

।कवित्त।

कहल कनक – घट सातहु समुद्र – जल
आनु गय झट दय कपीन्द्र प्रधान काँ ॥
अङ्गद सुषेण शुनि बहुत हर्षित चित्त
प्रभुक निमित्त वेग मारुतसमान काँ ॥
आनल सकल जन जल सातो समुद्रक
दूर पथ कत जाम्बवान हनुमान काँ ॥
आयल सकल तीर्थ – जल से कहल जाय
मन्त्रिसङ्ग शत्रुघ्न वसिष्ठ वर-ज्ञान काँ ॥

।सवैया चकोर छन्द।

रत्न – सिंहासन शुद्ध मनोहर, संस्थित जानकि – संयुत राम ।
उत्सव – मध्य त्रिलोकिक लोक, प्रधान प्रधान छला तहिठाम ॥
रावण – गर्व्व – विनाशन सर्व्व, स्वरूपसौँ निर्ज्जित कोटिक काम ।
स्वस्ति समस्त प्रशस्त विलक्षण, गाब विरञ्चि मनोहर साम ॥

।कवित्त।

गौतम जावालि ओ वसिष्ठ वाल्मीकि वृद्ध,
ब्राह्मण बहूत वेद – विद्या – निधान सौँ ॥
ऋत्विज अनेक ओ कुमारी तथा मन्त्रिगण,
औषधि समस्त रस देब सन्मान सौँ ॥
लोकप सगण मन मगन समस्त लोक,
पाओल अभीष्ट फल राम भगवान सौँ ॥
तुलसी गन्ध पुष्प जल कोमल कुशाग्र – हस्त,
राम – अभिषेक भेल वेदक विधान सौँ ॥

।चौपाइ।

तत शत्रुघ्न छत्र कर धयल । श्वेतरङ्ग प्रभु – सेवा कयल ॥
चामर धयल धवल तहँ हाथ । वानरेन्द्र ओ राक्षस – नाथ ॥
स्तुति कर सकल देव तहिठाम । जय – जय वैदेहीपति राम ॥
जगत्प्राण देल हेमक माल । इन्द्रक अनुमति कान्ति विशाल ॥
सर्व्व – रत्न मणि कञ्चन हार । इन्द्र देल भक्तिक व्यवहार ॥
स्तुति कर पुन पुन सुरगन्धर्व्व । नाचथि किन्नर अप्सर – सर्व्व ॥
देव दुन्दुभी गगन बजाब । पुष्प – वृष्टि नभ सौँ भल आब ॥
नव – दूर्व्वादल – सुन्दर श्याम । पङ्कजलोचन श्रीयुत राम ॥
कोटि – प्रभाकर – छवियुत अङ्ग । नव – किरीटि छवि-विजित-अनङ्ग ॥
पीताम्बर धर दिव्याभरण । सकल – लोक आनन्दित करण ॥
सीता शोभित वामा भाग । श्री देवी काँ अति – श्री लाग ॥
अतिशय शोभा धृत – कर – कमल । सर्व्वाभरण – विभूषित बनल ॥
उमा – सहित सम्प्राप्त महेश । स्तुति कर अति आनन्दित देश ॥

।घनाक्षरी छन्द।

नमो नमो रामाय सशक्तिकाय निर्गुणाय,
नीलोत्पलसुप्रभातिकोमलाय विष्णवे ।
मीनकमठादिरूपधारिणे धरित्रीधृजे,
देव – महि-कण्टक-समस्त‍-खल-जिष्णवे ॥
किरिट – हाराङ्गदविभूषण – विभूषिताय,
सिंहासनस्थाय रामचन्द्र – भूप – वेधसे ।
लीलारूपधारकाय सर्व्वविश्वकारकाय
सकलमहसामपि देवपूर्णतेजसे ॥

।सोरठा।

स्तुति करयित अमरेश, बद्धाञ्जलि प्रभु सौँ कहल ।
जय – जय राम नरेश, वेश कयल सुरकार्य्य प्रभु ॥
रावण विधि – वर पाबि, देवताक सुख हरल छल ।
मारल खल काँ आबि, पाओल प्रभुक प्रसाद से ॥

।चौपाइ।

सकल देव कह निज कर जोड़ि । सङ्कट – बन्ध देल प्रभु तोड़ि ॥
रावण – कृत कि नियत छल वास । गमहि गमहि सहि अतिशय त्रास ॥
रावण हरि लेल यज्ञक भाग । ब्रह्म – दत्त – वर सौँ के लाग ॥
रावण काँ मारल प्रभु जाय । सर्वसहापर भेलहुँ सहाय ॥
पितरलोक कहलनि कलजोड़ि । शरण न आन चरण ई छोड़ि ॥
रावण – वध सौँ सुख बड़ गोट । खायब पिण्ड प्रमोद सँ मोट ॥
रावण मख सभ हरि लय जाय । भाग गयादिक अपनहि खाय ॥
यज्ञ न रहल सहल बड़ कष्ट । रावण मुइल भेल दुख नष्ट ॥
गबइत गीति प्रीति सौँ सर्व्व । कहल राम सौँ गण गन्धर्व्व ॥
सहल बहुत दशकन्ध – अनीति । प्रभु – गुणगान छुटल सब भीति ॥
तनि गुण गाबि बचाओल प्राण । आज कयल सब सङ्कट त्राण ॥
प्राप्त महोरग किन्नर – लोक । स्तुति कर कह हम भेलहुँ अशोक ॥
बसु मुनि गुह्यक पक्षी सकल । सहित प्रजापति छल छथि विकल ॥
बड़ गोट उत्सव देखल नयन । दुःखैँ रहित सकल मन चयन ॥
पृथक पृथक स्तुति सभ जन कयल । रामचरण – पङ्कज मन धयल ॥
लक्ष्मण – सीता – सय्युँत राम । विधि – अभिषिक्त बिराज सुधाम ॥
ब्रह्मादिक निज पद प्रस्थान । कयल कयल प्रभु बड़ सन्मान ॥

।दण्डक छन्द।

नवघन – रङ्ग हे ।
राम भूपति थित – सिंहासन, अवनिगत जनु पाकशासन ।
कान्ति – कोटि – दिनेश – भासन, कृत – दशानन – भङ्ग ॥
जानकी – लक्ष्मण – मरुत्सुत, मुनि-निवह हरिगणसँ-संयुत ।
रामचन्द्र – समीप बसि नित, भजन भाव प्रसङ्ग ॥
गगन – सङ्कुल त्रिदश बाजन, पुष्प बर्षण कर मुदित मन ।
करथि प्रभु – गुण-गान परसन, विपुल – पुलक सअङ्ग ॥
राम प्रभु गुण-धाम स्मित-सुख, सदा दायक भक्त जन सुख ।
कयल अर्दित दनुज – गण तुख, कान्ति – विजित – अभङ्ग ॥

।इति।

हरिः हरः!!

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