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कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण – लङ्काकाण्ड – नवम अध्याय

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण

– लङ्काकाण्ड – नवम अध्याय

।जयकरी छन्द।

कहल विभीषण समय – विचार । प्रभु सर्व्वज्ञ कयल स्वीकार ॥
लक्ष्मण काँ कहलनि अहँ जाउ । खल बधि समर अमर बनि आउ ॥
हनुमदादि यूथप सङ्ग रहथि । सन्मुख तनिक प्रहार जे सहथि ॥
जाम्बवान् सङ्ग रहता बूढ़ । तनिकहि डरय डराइछ मूढ़ ॥
सङ्ग विभीषण मन्त्री लेथु । सकल देखाय बाट ओ देथु ॥
पर्व्वत कतय विवर कोन ठाम । बुझल विभीषण काँ निज गाम ॥
कपिदल कति अर्व्वुद सङ्ग्राम । चलल सङ्ग कहि जय जय राम ॥
शुनि लक्ष्मण रघुवरक निदेश । प्रभु – प्रसाद कहलनि से वेश ॥
कयल राम काँ जाय प्रणाम । सुरपति – अरि – मारण मनकाम ॥
जौँ मोर रघुवर – किङ्कर नाम । तौँ घननाद जितब सङ्ग्राम ॥
आज समर शर अरि काँ मारि । स्नान करब भोगावति – वारि ॥
सहित विभीषण कर शर चाप । चलल महाबल विजय प्रताप ॥

।भुजङ्गप्रयान छन्द।

विदा भेलि आबैछ लङ्केश – सेना । चतुर्दिक्षु देखू घटाटोप जेना ॥
करू यत्न सौमित्रि छत्री अहाँ छी । सुरारीन्द्र – संहारकर्त्ता जहाँ छी ॥
सुरेशारि ई क्षेत्र मे वीरगुप्त । करैये महामोह से होय लुप्त ॥
दशग्रीव – भ्राताक से शूनि वानी । कहै छी समीचीन ई लेल मानी ॥
धनुर्व्वाण सन्धानि सौमित्रि मारै । चटाचट्ट दैत्येन्द्र – सेना – कपारै ॥
हनूमान ऋक्षेश यूथेश पक्का । महाशैल ओ वृक्ष लै मार धक्का ॥
तथा शत्रु – सेना महाअस्त्र मारै । महायुद्ध संघट्ट केओ न हारै ॥
हनूमान छी कौशलाधीश – दासे । महानन्द सौँ भाषि विद्वेषि नाशै ॥
महावीर सद्वीरता मध्य पूरा । कते शत्रु सेना मिलायेल धूरा ॥
कहाँ सौँ चलैयै महाधूम – धारे । त्वरा जाय देखी करू से विचारे ॥

।नाराच छन्द।

चलू चलू महागुहा कि होम ओ करैछ की ।
लगैछ आबि दुष्टगन्धि आगि मे धरैछ की ॥
तहाङ्गादादि जोर सोर मार आँखि कान मे ।
लड़ाए सौँ पड़ाय इन्द्रजीत ठक्क ध्यान मे ॥

।चामर छन्द।

छोड़ छोड़ ठक्क वक्क – ध्यान होम गाढ़ रे ।
चापबाण हाथ लै अनन्द द्वार ठाढ़ रे ॥
आज वीरताक बेरि मेघनाद तोर रे ।
बाप काँ बँधाय के पड़ाय पाप चोर रे ॥

।चौपाइ।

मेघनाद गण्जन सह ढेर । इन्द्रादिक काँ जे नहि टेर ॥
सहि धिक्कार गारि ओ मारि । छोड़ल होम चलल शक्रारि ॥
धर धर धर्क्कट मर्क्कट गोल । आयल पशु बिनु कौड़िक मोल ॥
होम विघ्न कय वानर लोक । हँसि बहरायल एकहि झोँक ॥
मेघनाद देखल बहराय । जय – जय – कार ध्वजा फहराय ॥
देखल निज दल अर्दित रङ्ग । वानर भालुक कटक अभङ्ग ॥
रथपर चढ़ल धनुष शर हाथ । कहल कतय आबथु रघुनाथ ॥
क्षुद्र कीश थिक रह तोर भाग । वानर पर शर हमर न लाग ॥
सुरपति – वारण – कुम्भ विदार । लज्जावश न करय सञ्चार ॥
रे सौमित्रि हमर विष रोष । नहि देखल छौ की भरि पोष ॥
मेघनाद थिक हमरे नाम । जयबह कतय विषम सङ्ग्राम ॥
तहाँ विभीषण काँ देखि ठाढ़ । निष्ठुर वचन कोप मन बाढ़ ॥
उचिती पिती कहू कत आज । कुलघातक पातक नहि लाज ॥
लङ्का जन्म ततहि सब कर्म । छाड़ि देल निज वंशक धर्म ॥
लङ्केश्वर सन छोड़ल भाय । की छी आनक भृत्य कहाय ॥
पुत्रक विषय विषम विद्रोह । केहन हृदय भेल नहि मन मोह ॥
अहाँ कयल निज वंश – विनाश । राजा बनब एहन मन आश ॥
करयित छलहुँ अजय हम याग । अहाँ देखाओल गत – अनुराग ॥
ई कहि लक्ष्मण देखल वीर । हनुमत्पृष्ठ चढ़ल रण – धीर ॥
रथ – वर चढ़ल कुपित घननाद । उद्यत – अस्त्र कहल दुर्व्वाद ॥
वानर तोर रुधिर – पय – पान । करत हमर शर सर्प्पसमान ॥
लक्ष्मण धनुष – बाण कर सज्ज । वृथा तोर बल रे निर्लज्ज ॥
लक्ष्मण बाण मर्म्म मे मार । भेल घननाद रहित सञ्चार ॥
जागल एक मुहूर्त्त बिताय । मन – वैकल्य कहल की जाय ॥
लक्ष्मण काँ देखल छथि ठाढ़ । कहि कटु कथा कोप मन बाढ़ ॥
हमर शूरता पहिला बेरि । बुझि नहि पड़लहु तोहरा फेरि ॥
समर – विभव हम देबहु देखाय । शपथ थिकौ नहि जाह पड़ाय ॥
कहि लक्ष्मण काँ शर से सात । कयल प्रहार ससरि किछु कात ॥
उग्र बाण हनुमानक काय । सात लगौलक मर्म तकाय ॥
द्विगुण विभीषण पर कय कोप । कत शर मारल जिब आरोप ॥

।घनाक्षरी छन्द।

लक्ष्मण कहल ललकि मेघनाद तोर,
थोड़ अछि आयु की समर मे समट्टबैँ ।
दशमुख-बाल बड़ गोट अछि गाल तोर,
थोड़ काल मध्य महाकाल – गाल अट्टबैँ ॥
हट्टबैँ न युद्ध सौँ विरुद्ध अस्त्र कट्टबैँ जौँ,
चट्टबैँ महासुरा कतेक गप्प छट्टबैँ ।
ठठ्ठबैँ कुठाठ तौँ समर भूमि लट्टबैँ तौँ,
बाण ओ कृपाण सौँ काँकड़ि जकाँ फट्टबैँ ॥

।चौपाइ।

मेघनाद शर कयल प्रहार । लक्ष्मण पर बड़ कोप हजार ॥
भेल कवच – बिनु लक्ष्मण अङ्ग । लक्ष्मण कयल हुनक से रङ्ग ॥
युद्ध परस्पर केओ नहि हार । तन शोणित बह निर्झर धार ॥
लक्ष्मण तखन हनल शर पाँच । सारथि रथ न तुरग एक बाँच ॥
धनुष आन से आनल हारि । लक्ष्मण काटल तिनि शर मारि ॥
मेघनाद काँ रहल न चाप । शर सँ जर्ज्जर थर थर काप ॥
बड़ साहस सँ धनु पुन आनि । लक्ष्मण काँ शर मारय तानि ॥
रवि – सन्निभ शर लाख हजार । वानर भालु गोल मे मार ॥

।सोरठा।

जय रघुनाथ उचार, ध्यान राम पद कमल मे ।
मेघनाद काँ मार, कहि कहि लक्ष्मण ऐन्द्रशर ॥
धर्म्मात्मा रघुवीर, सत्यसन्ध दशरथ – तनय ।
रण मे एकहि तीर, तौँ घननादक हो मरण ॥

।चौपाइ।

इन्द्रक शत्रु लड़ल भरि पोष । लगलनि लक्ष्मण शर से चोष ॥
रोकि न शकला से उतपात । धर सौँ शिर भय गेलनि कात ॥
रवि – मण्डल – रुचि कुण्डल कान । समर शयित से दैव प्रधान ॥
कत कह जिबतहि अछि घननाद । कत कह मरि गेल विविध विवाद ॥
अमर सकल नभ कर गुण – गान । जय रघुनाथ देव भगवान ॥
स्तुति कर बहुत वृष्टि कर फुल । देखल सृष्टि इष्ट अनुकूल ॥
दुन्दुभि शब्द भेल आकाश । इन्द्रादिक मन छुटि गेल त्रास ॥
जिबितहिँ दशमुख शम उतपात । जनि सापक टूटल विषदाँत ॥
स्थिरा धरा निर्म्मल भेल गगन । जय जय शब्द करथि जन मगन ॥
लक्ष्मण वीर जखन श्रम रहित । बालि तनय मारुत सुत सहित ॥
शंखक धुनि धनुषक टङ्कार । लक्ष्मण कयल विजय व्यवहार ॥
शुनि शुनि हर्षक नाद विशाल । मूर्छित उठल हटल श्रम – जाल ॥
अतिशय हर्षित कपि – दल सर्व्व । मारल मेघनाद बड़ गर्व्व ॥
जय जय लक्ष्मण जय रणधीर । कालहु जित सित अपनैँक तीर ॥
हनुमदादि सेनाधिप – सहित । तथा विभीषण दूषण – रहित ॥
रामचन्द्र काँ कयल प्रणाम । कुशल सकल जीतल सङ्ग्राम ॥
अपनैँ चरणक मुख्य प्रसाद । रण मे शयित अहित घननाद ॥
लड़ल निरन्तर भरि भरि राति । अतिमायाबल राक्षस जाति ॥
मारल खल काँ लक्ष्मण वीर । हृदय लगाओल कहि रघुवीर ॥
मेघनाद छल बड़ा लड़ाक । तनिकाँ मारल अहाँ तड़ाक ॥
हिनकहि धरि छल अछि सङ्ग्राम । हिनि जितलय जीतल सभ ठाम ॥
शर – जर्ज्जर सब सेना – गात्र । जिति अयलहुँ अहाँ विगत त्रिरात्र ॥
पुत्र – शोक सौँ दशमुख दीन । कि कर पौरुष जल बिनु मीन ॥
रावण मन मानल सुत – मरण । अतिशय आकुल अन्तष्करण ॥
झट झट अट्ट – शिखर चढ़ि ताक । चढ़ल विकल चित्त चिन्ता – चाक ॥

।घनाक्षरी छन्द।

जय – जय – कार धुनि अमर उचार कर,
शुनि पड़ कान हनुमान – हर्ष हाक रे ।
ध्वज फहरायल बहराय कैँ शिखर चढ़ि,
यन्त्र मे लगाय दृष्टि दूरही सौँ ताक रे ॥
आज मेघनादक समाद न शुनल शुभ,
जैह सूर्प्पनखाक काटल कान नाक रे ॥
सैह राम – भाय हाय कैलक अन्यय जनु,
अनुमान होइछ देलक शिर डाक रे ॥

।जयकरी छन्द।

पक्ष – हीन जनु पड़ल पहाड़ । रावण महा – विपट पतझाड़ ॥
दुष्ट विभीषण खूनल मूल । सोदर भाय हाय प्रतिकूल ॥
विधि भेल वाम इष्ट भेल ठक्क । कालपुरुष नहि ककरो शक्क ॥
जोर नोर बह वोणहु आँखि । खग भेल लोथ कतरलय पाँखि ॥
कि कहब मन्दोदरी – विषाद । जिबयित मरण शरण घननाद ॥
निर्भय भेल देवगण आज । ऋषि मुनि जन मन बनि गेल काज ॥
धिक थिक हमरहु शत्रु कलङ्क । पड़ल गजेन्द्र विषम थल पङ्क ॥
तापस से पुन दैत्य संहार । जिबयित रावण कपि – सञ्चार ॥
धिक धिक मेघनाद बल तोर । उठि की कुम्भकर्ण भेल जोर ॥

।मत्तगजेन्द्र छन्द।

वास सदा मणिमन्दिर मे, तहँ खाट मनोहर सन्मणि – पाबा ।
गेलि विलास – कला सकला, उत धान धरी मुह होइछ लाबा ॥
कोटि विलाप करै वनिता, कहि भेलहुँ आज – उपाय अभाबा ।
की लिखि देल ललाटक पट्ट मे, बूझि न से बुढ़वा विधि बाबा ॥

।चकोर छन्द।

लै कहु खड्ग दशानन दौड़ल रामप्रिया हम मारब आज ।
मन्त्रि सुपार्श्व बुझाब विपत्तिमे हे प्रभु ई नहि भूपति काज ॥
वीर अहाँ रणधीर महाशय तुल्य अहाँक कहाँ महराज ।
ई शुनि देखि कहू ककरा नहि स्त्रीबध उत्सव हो मन लाज ॥

।सोरठा।

सभ जन मिलि तत जाय, मारब लक्ष्मण राम काँ ।
अहँ पौलस्त्य कहाय, स्त्रीबध अनुचित सर्व्वथा ॥
लज्जित भवन प्रवेश, कयल दशानन विकल-मन ।
पुछल सकल दनुजेश, प्रात सभा मे आबि पुन ॥

।चौपाइ।

मानव वानर दानव मार । आनब बल हम कोन अपार ॥
शलभ नाम मन्त्री बल बनल । चलल समर रघुवर शर – अनल ॥
जत राक्षस आबथि सङ्ग्राम । सभ काँ लोटपोट कर राम ॥
अपनहुँ बहुत दशानन लड़ल । रघुवर – शर – जर्ज्जर भय पड़ल ॥
दृदय – मध्य बेधित एक बाण । लङ्का अयला मुर्छित प्राण ॥

।दोहा।

लङ्का सती सुलोचना, पति घननाद समाप्त ।
लक्ष्मण-शर-प्रेरित सुभुज, तनि आङ्गन सम्प्राप्त ॥

।चौपाइ।

दासी एक देखल से नयन । स्वामिनि सौँ कहलनि दुख अयन ॥
आङ्गन मध्य गगन सौँ बाँहि । खसल वाणयुत भेलहुँ बताहि ॥
स्वामिनि चलु चलु देखू आज । आपत की मर्य्यादा लाज ॥
पन्नगेश – तनया तत गेलि । भुज काँ देखि विकल – मन भेलि ॥
फरकै छल अछि दक्षिण अङ्ग । परिणत फल की लगइ रङ्ग ॥
करु करुणा अरुणायतनयन । भुज-जित-विश्व समर – महि शयन ॥
लवणोदधि हो अमृत समान । कनकाचल त्यागथि स्वस्थान ॥
सुरगुरु मूक मूक वाचाल । झपटि सिंह काँ मार शृगाल ॥
अद्भुत नहि विस्तर संसार । वानर नर सुरवर – जित मार ॥
पतिभुज तन्त्रा करु परित्याग । हयब सती हम पूरण भाग ॥
जौँ हम सत्य सती मन साँच । लिखि प्रमाण कहु सब जन बाँच ॥

।सोरठा।

भुज देल हाथ पसारि, देखल सती सुलोचना ।
सुमती चित्त विचारि, खड़ी धरायोल हाथ मे ॥

।चौपाइ।

मणिमय आँगन लिखलनि हाथ । परमेश्वर जानू रघुनाथ ॥
धरा – भार – धर पन्नग जैह । जानय थिक लक्ष्मण काँ सैह ॥
तनिकहि हाथ हमर भेल मरण । सुखमय अभय स्वर्ग भेल शरण ॥
निद्राहार विहार विराग । मनस्पस्यहु नहि दूषण लाग ॥
सति शुभमति चिन्ता नहि करिय । सङ्ग हमर सुरपुर सञ्चरिय ॥
राम समक्ष माँथ अछि धयल । लय आनू लिखि सूचित कयल ॥
निरुपद्रव रघुनाथ – समीप । श्वशुर विभीषण छथि कुल – दीप ॥
की सुख राज्यभोग अवसान । उत्तम गति देलनि भगवान ॥
सुरपति – जित – गृहिणी निज गेह । तन धन जन मन सौँ तजि नेह ॥
सकल अनित्य विश्व मन मानि । चललि दशानन – तट गुरु जानि ॥
मणिमय यान पतिक भुज धयल । अपनहुँ चढ़लि शोक नहि कयल ॥
अमरेश्वर – जित – अबला सङ्ग । चलल पदाति महीपति – रङ्ग ॥
दासी सकल विकल भय कान । आज अभाग्य देल भगवान ॥
वैतालिक आगाँ एक जाय । विकल दशानन कहल बुझाय ॥

।सोरठा।

सती पुतोहु अहाँक, आइलि छथि कहतीह किछु ।
हुनि शिर पड़ि गेल डाक, मेघनाद-शिर समर अछि ॥
देखल आँखि उघारि, लय आनू तट पालकी ।
बिश लोचन बह वारि, कहल विकल दशकण्ठ तहं ॥
पति भुज देल उघारि, सती धरणि मूर्छित खसलि ।
पुन उठि समय विचारि, श्वशुर-चरण लपटाय कह ॥

।गीत।
।वियोगि-मालव छन्द।

से पहु हमर गेला रे, रे परलोक ।
हमरहि हृदय असह शोक ॥
जरब न पहु सङ्ग रे, रे यावत ।
विरह – दहन – दुख तावत ॥
सकल – भुवन – राज रे, रे सम सुख ।
जखन देखब इन्द्रजित मुख ॥
आब हमर मन रे, रे निरभय ।
सुमति युगुति सति जीव दय ॥

।त्रिभङ्गी छन्द।

पतिसङ्ग हम जायब अनल समायब
घुरि नहि आयब पुन धरणी ।
शुनु गुरु दशकन्धर दनुज – पुरन्दर
सुन्दर पातिव्रत – सरणी ॥
पति-शिर दिय आनी अपनैँ ज्ञानी
शोक न मानी विधि – करणी ।
अयलहुँ यहि आशा हत – जगदाशा
गत – पशुपाशा सुत – घरणी ॥

।सोरठा।

शुनि सुतवधू – विलाप, रावण बहुत भरोस दय ।
कहल हृदय – सन्ताप, सुमति विलम्ब दिनैक करू ॥

।चौपाइ।

उपगत विपति हयत की कानि । मारब शत्रु भेल मन आनि ॥
रामादिक शिर प्रथमहि काटि । देवि देब दिक्पति बलि बाँटि ॥
पति – शिर समर सहज अहँ लेब । अरि – शिर वाम चरण अहँ देब ॥
शुनि दशकन्धर – वचन कठोर । क्षण चुप रहलि नयन भर नोर ॥
पुन कहलनि गुरु आगाँ ठाढ़ि । सभ सौँ आशा काँ अछि बाढ़ि ॥
जौँ कदाच अरि काँ लेब जीति । करब राज्य अरि – रहित सुनीति ॥
अपनैँ काँ भेटत जन सर्व्व । एखनहुँ धरि मन मे अछि गर्व्व ॥
श्वशुर – समाज मुख्य नृप – द्वार । रहल न आज लाज व्यवहार ॥
यावत गगन भानु रह चन्द । तावत सुयश रहत स्वच्छन्द ॥
छल छथि दशमुख काँ एक पूत । जीतल अमर समर पुरहूत ॥
हमरहु नहि मन मे किछु शोक । हर्षित अमर रहथु निज लोक ॥
पहु बिनु जीवन सुख की राज । बरु भल रौरब नरक समाज ॥
चलब आब गुरु – अनुमति पाय । विधिक रेख के शकत मेटाय ॥
शुनलनि वचन पुतोहुक कान । कि करथु दशमुख विधि बलवान ॥
आशु शाशु – घर कनयित जाय । कहल सकल तनि पद लपटाय ॥
कहलनि श्वशुरक वचन विचार । दैव ज्ञान हर अस्त्र न मार ॥
हम कटु कहल न बड़ गुरु जानि । कालाधीन गुणल नहि हानि ॥
मन्दोदरी कहल वृत्तान्त । नारद जे कहलनि एकान्त ॥
समर – विमुख दशमुख नहि हयत । सकुल सदल कालक घर जयत ॥
सभ सौँ हुनका अछि अरि-भाव । दशकन्धर नहि बचता आब ॥
लङ्का लूटत वानर आबि । मुनि वृत्तान्त गेला कहि भावि ॥
एतय विभीषण नृपति कहाय । करता भोग वस्तु – समुदाय ॥
परमात्मा परमेश्वर राम । ज्ञाते छथि लक्ष्मण गुणधाम ॥
हनूमान रुद्रक अवतार । मुख्य सकल दल रहित – विकार ॥
ततय विभीषण श्वशुर प्रधान । समदर्शी लग सकल समान ॥
जाउ जाउ थिक मुख्य विचार । ओतय न लेश असत व्यवहार ॥
उप – लक्ष्मण गति समुचित पूर । सती आगु स्वर्गे कत दूर ॥

।रूपमाला छन्द।

चललि पति – भुज पालकी धय, रामचन्द्र समाज ।
कहल दल वनिता – सबारी, अबै अछि की आज ॥
जनु दशानन हारि मानल, मेघनादक नाश ।
जनकजा पठबाय देलनि, मानि रघुवर – त्रास ॥
चिन्हल दासी भृत्यजन काँ, तट विभीषण जाय ।
उतरि शीघ्र सुलोचना, गुरुचरण गेलि लपटाय ॥
कहल अपनैँक कयल से नहि, कयल अति अपमान ।
तकर फल परिणत अचिर अछि, भेल आनक आन ॥

।सोरठा।

से कर्त्तव्य उपाय, पहु-शिर लय जरि जाइ हम ।
दल जाय मङबाय, आज्ञा वैदेही – पतिक ॥
कहल विभीषण जाय, श्रीरघुनन्दन सौँ ततय ।
भाय हमर अन्याय, कयल पड़ल साध्वीक शिर ॥

।रूपमाला छन्द।

मेघनादक थिकथि गृहिणी, देव शुनु रघुनाथ ।
सती नाम सुलोचना लिखि, देल स्वामी हाथ ॥
शिर एतहि अछि मेघनादक, मुख्य अयबा काज ।
स्वामि मिलि पावक समाइति, शरण आइलि आज ॥

।दण्डक छन्द।

जय महेश्वर – चाप-खण्डन, जनक – नगरी-कृत-सुमण्डन,
पालिताखिल-भक्त-सज्जन, दलित-दुर्ज्जन हे ॥
सत्य-सन्ध मनोज-सुन्दर, जनक-जननी-सत्य-धृतिकर,
महाराज मही – पुरन्दर, प्राप्त-निर्ज्जन हे ॥
जय धनुर्द्धर दनुज – नाशन, सदा – शासित – पाकशासन,
कृत – विहङ्गम – नायकासन, पन्नगासन हे ॥
जय महोदधि – सेतु – कारक, दशवदन-कुल, विपुर-मारक,
विहित-मारुततनय-चारक, नुत-विषाशन हे ॥

।गीत।

जय रघुराज ।
मन मति वचनक पहुँ जतय नहि, निर्ग्गुण ब्रह्म देखल आज ॥
हम राक्षसी इन्द्रजीत – गृहिणी, विषयविलास सतत काज ।
योगिनि बनि अयलहुँ शरणागत, करिय प्रणाम रहित-लाज ॥
प्रभु जगदिष्ट इष्ट – सम्पादक, तुच्छ सकल पुर समाज ।
अन्तर्य्यामी रघुनन्दन अहँ, व्यर्थ वैखरी के बाज ॥
अपनैँ कयल दनुज – कुल – भेदन, प्रभु समर्थ बड़ रण – शूर ।
हमरा जन्य बीज – रवि भेदब, करब मनोरथ निज पूर ॥
देल जाय मँगबाय पतिक शिर, आज न हो प्रभु सङ्ग्राम ।
जय रघुनन्दन दुर्ग्गति – खण्डन, भव-जलनिधि-तारण नाम ॥

।चौपाइ।

शुनि सुलोचना साध्वी उक्ति । रघुवर कहलनि वचन सुयुक्ति ॥
करु जनु शुभमति चित्त विषाद । मन हो तौँ जीबथि घननाद ॥
निर्व्विषाद अपना घर जाउ । युवती सती वियोग न पाउ ॥
हाथ जोड़ि कर दण्ड – प्रणाम । कह सुलोचना शुनु गुणधाम ॥
एक गुहा भ दुइ मृगराज । समुचित नहि निर्व्वाहक काज ॥
पिती नृपति देखरा शक्रारि । एक कोस मे दुइ तरुआरि ॥
जेहि लय योग ज्ञान वैराग्य । सुलभ प्राप्त से हमर सुभाग्य ॥
प्रभु – पद देखि छुटल भव – राज । मन नहि कतहु विषय – सुख लाग ॥
गगन कहक थिक गगनाकार । जलधि जलधि उपमाक विचार ॥
सुरपति – अरि हमरा प्राणेश । कोन वस्तु नहि तनिका देश ॥
निर्ग्गुण ब्रह्म सगुण – तन धयल । भूप – रूप बड़ माया कयल ॥
जे जे निहत भेल सङ्ग्राम । से से पाओल उत्तम धाम ॥
कीर्त्ति – शरीर अचल युग चारि । बनल काज की देब बिगारि ॥
प्रभु – रुचि जानि आनि देल मुण्ड । देखयित कौतुक वानर – झुण्ड ॥
जेहन परशमणि पाबथि रङ्क । पति – शिर लेल हरषि भरि अङ्क ॥
आँचर सौँ मुह धूरा पोछ । भ्रमराली – निभ दाढ़ी – मोछ ॥
जीतल समर अमर अमरेश । आज हमर भेल योगिनि – भेश ॥
रामचन्द्र काँ कयल प्रणाम । जहि मे सकल – विश्व – विश्राम ॥
रामाकार सकल थल भास । छुटल राग संसार प्रयास ॥
चलयिक समय हँसल से मुण्ड । हलचल माचल वानर – झुण्ड ॥
बाहु लिखल लक्ष्मण – गुण पूर । अँसिहि कयल जन – संशय दूर ॥
हँसल मुण्ड भुज – लिपि भेल ठीकि । पति – सह – गामिनि धन्या थोकि ॥
चललि प्रदक्षिण प्रभु काँ कयल । शिर – भुज पुन पालकि पर धयल ॥
बड़ बड़ बाजन चलल निशान । आर्त्तनाद सौँ पूरित कान ॥
सञ्चर बहुत निशाचर लोक । प्रभु – आज्ञा सौँ रोक न टोक ॥
सिन्धुक सङ्गम थल भल जाय । चिता बहुत विस्तार बनाय ॥
श्रीखण्डादिक लागल ढेर । वनिता पुरुष सकल दिश घेर ॥
घृत घट बहुत चिता मे ढारि । धय भुज शिर नागेश – दुलारि ॥
आहिताग्नि दय देलनि ताहि मर्य्यादा कुल – युगल निबाहि ॥
पति सह सती परमगति गेलि । द्वेषराग सौँ रहिता भेलि ॥
सभ वृत्तान्त देखल लङ्केश । मन्दोदरी सहित तहि देश ॥
अयला कि करथु मन बड़ शोक । संसारक निन्दा कर लोक ॥
एहि संसारक ई व्यवहार । उतपति थि त होइछ संहार ॥
सभ जन घुरि लङ्का गढ़ प्राप्त । जय – प्रत्याशा भेल समाप्त ॥
अतिशय विकल दशानन कान । कर उपदेश आन काँ ज्ञान ॥
एहि संसारक भंगुर भोग । प्रपादेश संयोग वियोग ॥
ककरो विभव रहल नहि थीर । जेहन कमल – दल चञ्चल नीर ॥
वर्त्तमान कत कत कत जाय । कालपुरुष सभ सुख धय खाय ॥

।इति।

हरिः हरः!!

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