स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण
लङ्काकाण्ड – सातम अध्याय
।चौपाइ।
ललकि उठल रावण खिसिआय । कालनेमि – मुह गेल सुखाय ॥
रामचन्द्र मे तोहरा प्रीति । के न कहत थिक बहुत अनीति ॥
अभिप्राय हमरा किछु आन । ई शिखबय लगला अछि ज्ञान ॥
करह करह गय कहल उपाय । नहि तौँ यमघर देबहु पठाय ॥
कालनेमि मन कहि चललाह । उचित कहल लागल अधलाह ॥
तुहिनाचल पर तपवन कयल । मुनिसम स्वाङ्ग सकल से धयल ॥
योजन – मित एक आश्रम नीक । बुझि पड़ जनु मुनिजनहिक थीक ॥
शिव शिव कहथि सुवेष विवेक । कालनेमि मुनि शिष्य अनेक ॥
से आश्रम देखल हनुमान । लगला करय हृदय अनुमान ॥
कि भोथिआय गेल अछि पन्थ । कहता सभटा निकट महन्थ ॥
बाट सोझ हुनका सौँ जानि । जायब तखन पीबि लेब पानि ॥
आश्रम मध्य गेला हनुमान । ऐन्द्रयोग मुनि कर सविधान ॥
देखल शिव – पूजन – विधि वेश । मानल चित्त पुण्यमय देश ॥
मारुतनन्दन कयल प्रणाम । हनूमान सभ जन कह नाम ॥
रामकाज सौँ क्षीर – समुद्र । जाइत छी पालक छथि रुद्र ॥
हमरा सहज त्रिकाल – ज्ञान । भाग्यहिँ भेट भेल हनुमान ॥
रामक दिव्य विलोचन गर्व्व । बचला लक्ष्मण वानर सर्व्व ॥
छोट कमण्डलु वारि न पूर्त्ति । तृष्णा होइति अद्भुत मूर्त्ति ॥
कतय जलाशय से दिय देखाय । सुख सौँ पान करब जल जाय ॥
मुनि – आज्ञा शुनि भेल बटु आगु । मारुतसुत तनि पाछाँ लागु ॥
आँखि मूनि अहँ कय जलपान । सत्वर आउ निकट हनुमान ॥
मन्त्र एक हम देब उपदेश । त्वरितहिँ देखब औषधि वेश ॥
गेला जलाशय लोचन मूनि । पिबयित पानि शब्द भेल शूनि ॥
महती मकरी पयरे धयल । पवनक पुत्र पराक्रम कयल ॥
तनिकर मुह देल हाथेँ फाड़ि । अन्तरिक्ष गेलि से तन छाड़ि ॥
।रूपमाला छन्द।
दिव्यरूप – धराङ्गना से रूपमाली नाम ।
कहल सभ हनुमान काँ जे कपट छल तहिठाम ॥
हे कपीश्वर अहँक चरणक परशँ छूटल शाप ।
मुनि न थिक ओ विकट राक्षस कालनेमि सपाप ॥
ओकर जनु विश्वास करु मन मारु तनिकाँ जाय ।
जाउ द्रोणाचल त्वरित अहँ बाट विघ्न मेटाय ॥
ब्रह्म – जनपद हम चलै छी कयल पद – सय्योँग ।
तकर फल निष्पापिनी हम छुटल शापज भोग ॥
।चौपाइ।
शुनल देखल कपिवर से चरित । रुष्ट फिरल आश्रम मे त्वरित ॥
कालनेमि कह दहिना कान । लाउ निकट झट दय हनुमान ॥
उचित दक्षिणा जे अहँ देब । हम सन्तुष्ट पुष्ट भय लेब ॥
मुक्का एक मारल हनुमान । ग्रहण करू दक्षिणा विधान ॥
प्रकट भेल खल मरइक काल । लड़ल भिड़ल कय मायाजाल ॥
कतय कमण्डलु मायाजाल । कालनेमि काँ धयलक काल ॥
गेल महाबल गिरिवर द्रोण । चिन्हल न पर सञ्जीवन कोन ॥
गिरि समस्त काँ लेल उठाय । पवनक पुत्र पवन जकँ जाय ॥
उत रघुनन्दन सकरुण चित्त । करथि विलाप इ लोक निमित्त ॥
लक्ष्मण काँ लेल हृदय लगाय । कियक न प्राण प्रथम विधि जाय ॥
मसक – पक्ष – पवनक आघात । उड़ि बरु जाथि धराधर सात ॥
पन्नगेश काँ भेको खाय । चीटी – उदर करीन्द्र समाय ॥
मेषी देखि सिंह बन त्याग । सुधा – अधिक मधु हो कटु साग ॥
ई बरु होय कथा थिक अल्प । मिथ्या नहि रघुकुल – सङ्कल्प ॥
रहल मनोरथ ठामहिँ ठाम । अस्त भेल रघुवंशक नाम ॥
लक्ष्मण सन नहि भेटता भाय । विधिहुक घर अतिशय अन्याय ॥
रावण जिबइत रहबे कयल । कथि लय बाण धनुष कर धयल ॥
चौदह वर्षक अछि अवसान । समय कयल विधि आनक आन ॥
जायब की घर बनल सशोक । शुनि शुनि कि कहत ओतयक लोक ॥
शिव शिव जीवन हमरो व्यर्थ । रमणी – कारण मरण अनर्थ ॥
वैदेही ई शुनतिह कान । मरती विलपि होइछ अनुमान ॥
माता तकयित हयती बाट । नोरक लेल धरणि धुर पाट ॥
धिक धिक जीवन एहि संसार । कुलकलङ्क बिगड़ल व्यवहार ॥
दुष्ट दैव काँ कि कहब आज । भल जन बस नहि तनिक समाज ॥
उठु उठु सत्वर लक्ष्मण भाय । दिनमणि – कुलक कलङ्क मेटाय ॥
शिव शिव कतय गेला हनुमान । जनि कर अर्पल तन ओ प्राण ॥
देखि पड़इछ सभटा प्रत्यक्ष । ककरो केओ नहि दैव विपक्ष ॥
की राक्षस हनुमान सौँ युद्ध । कयलक पथ मे हमर विरुद्ध ॥
महावीर काँ कयलक आँट । राक्षस – संघ कि रोकल बाट ॥
जौँ जौँ बीतलि रजनी जाथि । रामचन्द्र तौँ तौँ अकुलाथि ॥
केओ सेनाधिप प्रश्न विचारि । चढ़ि तरु भूधर उपर निहार ॥
औषधि सञ्जीवनक समीप । रविसम कान्ति अखण्डित दीप ॥
नभ मे शुनि पड़ धुनि बड़ गोट । हर्ष विषाद हृदय नहि छोट ॥
रविशशि बिनु की गगन प्रकाश । क्षण मन हर्ष क्षणहिँ मन त्रास ॥
।सोरठा।
गिरि समेत हनुमान, प्रभु – सन्निधि आयल मुदित ।
शुनु रघुपति भगवान, गिरि आनल औषधि सहित ॥
हर्ष कहल नहि जाय, करुण गमन वीरागमन ।
प्रभु लेल हृदय लगाय, जगत्प्राण – नन्दन बली ॥
।मत्तगजेन्द्र छन्द।
वैद्य सुषेणक सम्मति सौँ, रघुनन्दन दिव्य महौषधि लैकैँ ।
लक्ष्मण वीरक प्राण बचाओल, जे अनुपान यथाविधि दैकैँ ॥
सूतल जागल-रीति जकाँ, उठि ठाढ़ तहाँ रण-हर्षित भैकैँ ।
गेल कहाँ रणसौँ खल रावण, मारब आज धनुर्द्धर धैकैँ ॥
।जयकरी छन्द।
ई कहयित लक्ष्मण लय अङ्क । लागल नहि रघुवंश कलङ्क ॥
महावीर रुद्रक अवतार । कष्ट – महोदधि कयलहुँ पार ॥
देखल निरामय लक्ष्मण वीर । अहँक प्रसाद भेल मन थीर ॥
कष्ट नष्ट कयलहुँ हनुमान । ई उपकार – दक्ष के आन ॥
।रूपक।
।दण्डक छन्द।
जय जय अतिबल रघुवर सानुज, कहि कपि कयल तयारी, बड़ भारी ।
रण-बाजा सभ बाजय लागल, गिरि चढ़ि देखथि मारी, त्रिपुरारी ॥
चलल सकल दल लङ्कागढ़ पर, तरुवर लेल उखारी, गिरिधारी ।
कपि सुग्रीव विभीषण अनुमति, रोकल चारू द्वारी, रिपुहारी ॥
।जयकारी छन्द।
रामक शर सौँ जर्ज्जर काय । बैसल निज सिंहासन जाय ॥
सिंहक त्रासित जनु गजराज । पराभूत फणि गरुड़ – समाज ॥
कहल दशानन जन सौँ खेद । शरपीड़ित तन मन निर्व्वेद ॥
मरण कहल विधि मानुष – हाथ । सैह उपस्थित छथि रघुनाथ ॥
अनरण्यक हमरा अछि शाप । से दिन निकट हृदय बड़ काँप ॥
कहयित छी अरण्यक उक्ति । से दिन लगिचायल सभ युक्ति ॥
परमात्मा हमरा कुल आबि । लेता जन्म समय अछि भावि ॥
तोहरा पुत्रादिक जे हयत । राम – हाथ मृति पर – पुर जयत ॥
कहि अनरण्य गेला परलोक । तकरे कारण उपगत शोक ॥
रामक हाथ हमर अछि मरण । त्यागब हम नहि वीराचरण ॥
सभजन मिलि केँ तहँ अहँ जाउ । कुम्भकण काँ जाय जगाउ ॥
कहबनि हमर दशा सभ गोट । बड़ गोट काय कर्म्म की छोट ॥
रावण काँ प्राणान्तिक कष्ट । अहँ की शयन – सुखी धिक भ्रष्ट ॥
सभ जन कयलनि बहुत उपाय । कुम्भकर्ण लग ढोल बजाय ॥
बहुत उपाय करय लगलाह । कुम्भकर्ण तैँ नहि जगलाह ॥
हुनकर वनिता देल उपदेश । लय आनू गायिनि जनि वेश ॥
उठता शुनि शुनि वनिता – गान । जे कहनीय कहब से कान ॥
एक दिश कानन एक दिश नाँच । भोग रहल लङ्का दिन पाँच ॥
कुम्भकर्ण उठला निज सेज । लय पहुँचल राक्षस गण भेज ॥
गिरिसम मासुक ढेरी कयल । तीव्र सुरा अगणित घट धयल ॥
मदिरा मासु गेला पिबि खाय । कहल बजौलनि बड़का भाय ॥
जाय भूप काँ कयल प्रणाम । दीन वचन कह दशमुख नाम ॥
कुम्भकर्ण हम पड़लहुँ कष्ट । लङ्का – विभव – निवह हत नष्ट ॥
पुत्र पौत्र बान्धव हत समर । वानर कुशल बनल अछि अमर ॥
वानर राक्षस – भट संहार । समुचित की कर्त्तव्य विचार ॥
रामचन्द्र सुग्रीव – सहाय । लङ्का पहुँचल उदधि बँधाय ॥
हमरो दशा देखै छी नयन । अहँ चिर काल करै छी शयन ॥
सकल सुभट सौँ लङ्का हीन । बचि रहलहुँ अछि गनती तीन ॥
वानर मरय करू से काज । काज जगाय मँगाओल आज ॥
।सोरठा।
अट्टहास शुनि कयल, कुम्भकर्ण भ्राता – वचन ।
नीति कान नहि धयल, पूर्वहि मन्त्र – विचार मे ॥
।चौपाइ।
उपगत शत शत जत तत पाप । दिन दिन छिन हो प्रबल प्रताप ॥
पूर्व कहल नारायण राम । सीता आदि प्रकृति श्री – नाम ॥
नगर विशाला वन गिरि सानु । हम देखल नारद जनु भानु ॥
कत चललहुँ अछि हे मुनिनाथ । हम पूछल करु एक न लाथ ॥
सकल देव काँ मन्त्र – विचार । होइछ ततय कयल सञ्चार ॥
अहँ सौँ रावण सौँ सभ अमर । पीड़ित कय न शकथि केओ समर ॥
कहल विष्णु काँ होउ सहाय । रावण काँ मारू महि जाय ॥
त्राहि त्राहि हम धयलहुँ चरण । मानुष – कर अछि तनिकर मरण ॥
मानुष बनि प्रभु सुख – अवतार । हरण करू अवनिक सभ भार ॥
नारायण कयलनि स्वीकार । सैह थिकथि रघुवर अवतार ॥
भल भय भय सौँ रहु घर बैशि । नहि तौँ मरण समर – महि पैशि ॥
तनिक चरण – पङ्कज करु भक्ति । यावत अछि एतबो तन – शक्ति ॥
भक्तिभाव सौँ पायब ज्ञान । भक्ति मुक्तिदा वेद प्रमाण ॥
सहज उपाय करब नहि भाय । दुर्म्मति धरब मरब रण जाय ॥
नारायणक बहुत अवतार । कहयित कथा बहुत विस्तार ॥
सभ सौँ श्रेष्ठ ज्ञानि अवतार । से आयल छथि लङ्काद्वार ॥
नहि उपाय सम्प्रति किछु आन । रामक शरण करण कल्याण ॥
।इति।
हरिः हरः!!