स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण
– लङ्काकाण्ड चारिम अध्याय
।सवैया छन्द।
बाँधल भेल बाँध वारिधि मे, दशवदनक विजयक मन काज ॥
शिवरामेश्वर तत संस्थापन, कयल सविधि प्रभु श्रीरघुराज ॥
रामेश्वरक करथि जे दर्शन, सेतुबन्ध काँ करथि प्रणाम ॥
ब्रह्मघात – आदिक पातक सौँ, छूटथि से कहलनि श्रीराम ॥
वाराणसी जाय गङ्गाजल, लय रामेश्वर कर अभिषेक ॥
सेतुबन्ध – सागर कर मज्जन, ब्रह्म होथि सम्प्राप्त – विवेक ॥
महिमा हिनक अनन्त कहब कत, सकल मनोरथ – दायक रुद्र ॥
शङ्कर – ध्यान निरन्तर जे कर, कि करत तनिका पापक क्षुद्र ॥
।षट्पद छन्द।
एक दिन मे लेल सेतु बाँधि, चौदह योजन धरि ॥
योजन बोश प्रमाण, दुसर दिन बाँधल नल हरि ॥
एकइस योजन सेतु, दिवस तेसर से कयलनि ॥
बाइस योजन सेतु, चारि वासर निर्म्मयलनि ॥
योजन तैस प्रमाण पुन, पाँचम दिन बाँधल अचल ॥
बाँधल बाँधल जलधिकाँ, जय रघुनन्दन धुनि मचल ॥
थल सन नल-कृत सेतु, चढ़ल भल चलल सकल दल ॥
दलमल मेदिनि डोल, कोल कक्षप अहि हलचल ॥
चल भेल बड़ बड़ अचल, प्रबल कपि मन घन कड़कल ॥
कल कल कय कपि उड़ल, व्योम रवि-बाजी भड़कल ॥
विकल – लोक लङ्कापुरी, तङ्काकुल डङ्का शुनल ॥
नल बाँधल अछि उदधिकाँ, वानर-दल अबइछ अनल ॥
।रूपमाला।
पवन-नन्दन तथा अङ्गद काँध चढ़ि दुहु भाय ।
देखल लङ्का दुर्ग्ग वेलाचल-शिखर पर जाय ॥
ध्वज प्रसाद सुवर्ण तोरण स्वर्णमय प्राकार ।
किला परिखा ओ शतघ्नी बनल सभ हथिआर ॥
भवन एक विचित्र विस्तृत स्थित जतय दशभाल ।
दश किरीट अपूर्व्व चमकय दशो मोलि विशाल ॥
काल – मेघ समान कान्तिक कज्जलाद्रि समान ।
रत्नदण्ड सितात पत्रेँ लसित अति अभिमान ॥
सचिव सह लङ्केश करइत छला जतय विचार ।
राम देल छोड़ाय शुक काँ गेला निज दरबार ॥
पुछल रावण कहू शुक बुध की ततय वृत्तान्त ।
रङ्ग अर्दित सन कहू की कहल सीताकान्त ॥
।चौपाइ।
दशमुख वचन शुनल शुक कान । कहलनि ईश्वर राखल प्राण ॥
गेलहुँ सागर – उत्तर तीर । संस्थित जत सानुज रघुवीर ॥
शोभित पुरुष मुख्यतम् चारि । मान न कालहु सौँ से हारि ॥
सानुज राम नवल लङ्केश । कपिनायक देखल ओहि देश ॥
हम गगनस्थ कहल संवाद । कपि उड़ि धयलक कय हरिनाद ॥
कपि – कृत कत कहु की उतपात । सहल बहुत हम मूका लात ॥
बाँधल छलहुँ मनहुँ बड़ शोच । दाँत काट केओ नख सौँ नोच ॥
हम देखल बल कयल विचार । वानर – मात्र दनुज संहार ॥
राम समाद कहल श्रीमान । हम अयलहुँ शुनि अपनहि कान ॥
जे बल सीता कयलह हरण । समर देखाबह वीराचरण ॥
आब विजय मे नहि अछि देरि । भोरहि लङ्का हम लेब घेरि ॥
हमरहु हृदय भेल अछि रोष । बाण एक तोहर बल शोष ॥
अनकर कथा कहू की आज । अपनैक निन्दा बजितहिँ लाज ॥
।चौबेल छन्द।
कपि – मेला वेलाचल ऊपर, तरु तोड़ै अछि लटकि-लटकि ॥
लोचन – पथ लङ्काक लोक जौँ, तनिका मारय पटकि-पटकि ॥
शुनु दशभाल काल दल जानू, चल अबइत अछि झटकि-झटकि ॥
एको जन राक्षस नहि तेहन, करत युद्ध रण अटकि-अटकि॥
सम्यक कयल उमेशाराधन, तथा चतुष्टय साधन ॥
तप – प्रताप लङ्का गढ़ पाओल, सभ सौँ भेलहुँ महाधन ॥
जगदम्बा वन सौँ हरि आनल, कुल – मर्य्या बोरल ॥
मति विपरीति अनर्थ समय हो, पोखरिहि माहुर घोरल ॥
।सबैया छन्द।
अगणित विकट कटक मर्क्कट भट आयल निकट विरचि बड़व्यूह ॥
शङ्का – विरहित लङ्का – गढ़ काँ लूटत करता के प्रत्यूह ॥
नहि प्रमाण प्रत्यक्ष मध्य किछु निज लोचन सौँ देखल जाय ॥
जे जे तीर प्रधान ततय छथि तनिकाँ दै छी एखन चिन्हाय ॥
।षट्पद छन्द।
गढ़ पर चाहथि कुदय, राम – आज्ञा नहि पाबथि ।
पर-दल-खण्डन-शील नील, कपि नाम कहाबथि ॥
शत सहस्र संग यूथपाल, अनलक बुझु बालक ।
सङ्गर – सुभट अजेय, त्रास हिनका नहि कालक ॥
सुग्रीवक सेनाधिपति, अव्याहत गति सकल थल ।
लङ्कापति परिचय कहल, अचल उखाड़थि रण अचल ॥
विदित विश्व भरि छला, प्रबल अरिमर्दन बाली ।
तनिक पुत्र युवराज नाम, अङ्गद बलशाली ॥
कान्ति कमल – किञ्जल्क, पर्वताकार सुशोभित ।
धरणि पटक लाङ्गूल, शत्रु – कुल कर संक्षोभित ॥
शुनु लङ्केश्वर हिनक हम, कहब कहाँ धरि बुद्धिबल ।
संग्रामक उत्साह मन, रघुपति – सेवक मन विमल ॥
पवन – पुत्र हनुमान, ललकि लङ्का – पुर जारल ।
अछय ज्ञाब अछय, अछय – दल काँ संहारल ॥
जे अशोक – वन जाय, स्वामिनी – दर्शन कयलनि ।
कयल सकल रघुराज-काज, भल भल फल खयलनि ॥
सगर नगर घर घर जनिक, नाम शुनय कम्पित रहय ।
स्वर्ण – शैल – सङ्काश तन, रुद्रमूर्ति बल के कहय ॥
।रूपमाला।
श्वेत राजत – अवनिधर रुचि, प्रबल बुद्धि विशाल ।
कपिपतिक तट गतागत कर, चतुरतर सभ काल ॥
रम्भ नामक अतुल – विक्रम, केसरी – सङ्काश ।
बार बार विलोक लङ्का, करय चाहथि नाश ॥
शरभ नामक कोटि – यूथप, थिकथि नायक वीर ।
दृष्टि दय दशभाल देखल जाय, ई बड़ धीर ॥
देखि रहला पुरी लङ्का, दग्ध जनु करताह ।
जखन युद्ध विरुद्ध, उद्यत रोकि के सकताह ॥
।सोरठा।
पनस महा-बलवान, मन्द द्विविद वानर तथा ।
कपि हनुमान समान, आन आन संख्या – रहित ॥
।घनाक्षरी।
बाणक प्रताप जलनिधि थर थर काँप
एको जन आबि न चढ़ल दीर्घ तरणी ।
वानर बहुत व्योम विहग समान ऊड़
रोकल न रहय कतहु कपि – सरणी ॥
वीर दशकन्ध नहि चलत प्रबन्ध किछु
निरधन्ध बुद्धि की वानरमय धरणी ॥
प्रबल जनिक दल विदित सकल थल
कलबल नलक समुद्र – सेतु – करणी ॥
।अनुष्टुप् छन्द।
विधाता सर्व्वलोकानामयं रामो धनुर्द्धारी ।
मनोवाचामदृश्योऽसौ प्रभुस्सर्व्वत्र सञ्चारी ॥
रघोर्व्वंशे समुत्पन्नस्समर्थो भाति संसारी ।
घनानां घोरपापानां खलानां गर्व्वसंहारी ॥
कृतं कार्य्यं त्वया नेष्टं छलान्नीतात्र वैदेही ।
शरण्यस्सेव्यतां सम्यक् भव त्वं तत्पदस्नेही ॥
हृता भ्रान्त्या जगन्माता प्रानत्यातां प्रयच्छास्मै ।
असून् संरक्ष तद्वाणैरनीती रोचते कस्मै ॥
।इति।
हरिः हरः!!