आत्मशान्ति – कियैक आ केना ?

अत्यन्त मननीय लेख

आत्मशान्ति – कियैक आ केना ?

हरेक मानव केँ आत्मशान्तिक अभिलाषा रहैत छैक । ओना त आत्मशान्ति आत्माक स्वभावहि मे निहित छैक, मुदा जाहि तरहें स्वयं केर नाभि मे रहल कस्तुरी सँ हिरण अनभिज्ञ रहैत अछि, तहिना अन्तरंगक आत्मशान्तिक हम सब अनुभव नहि कय पबैत छी । समुद्रक मध्यबिन्दु मे लहरक उथल-पुथल नहि होइत छैक बल्कि किनारा सँ टकराइत ओ लहर कखनहुँ अन्दर कखनहुँ बाहर होइत रहैत अछि । तहिना मोनक माध्यम सँ इच्छा आ आकांक्षा सभक तरंग उठैत रहैत छैक, जे आकुलता-व्याकुलता उत्पन्न करैत अछि । आकुलता-व्याकुलता आ संकल्प-विकल्प केर उद्गम स्थल मोनहि थिक । मोनविहीन आत्मा परमशान्तिक धाम थिक । मोन ओहने सीढ़ीक समान अछि, जाहिपर चढ़ल जा सकैत अछि आ नीचाँ सेहो उतरल जा सकैत अछि । मोन आत्मारूपी तालाक ओ चाबी थिक, जाहि सँ ताला खुजितो छैक आ बन्दो होइत छैक ।

मोनक एकाग्रता सँ आत्माक शान्ति सम्भव छैक, मुदा मोनक एकाग्रता एतेक सरल नहि छैक, बल्कि बहुत कठिन प्रयास सँ मात्र ई सम्भव छैक । जगत् मे मानवमात्र आत्मशान्ति, आत्मतृप्ति तथा आत्मसन्तोषक लेल जीवनपर्यन्त भाग-दौड़ करैत रहैत अछि, एहि आशाक संग जे अमुक इच्छा, अभिलाषाक पूर्ति भेलापर सम्भवतः आत्मसन्तोष अथवा आत्मतृप्ति भ’ जाय, मुदा इच्छा, आकांक्षाक शृंखला बिना अंकुश लगौने समाप्त होयवला नहि होइत छैक । कहल गेल छैक –

आयु घटे यौव हटे, कट कट जाय शरीर ।
आशा तृष्णा ना मिटे, कह गये दास कबीर ॥

आत्मशान्तिक लेल सब सँ मूलभूत आवश्यकता छैक जे मोह, माया, लोभ, तृष्णा आदिक त्याग करय । प्रभु सब केँ मूलभूत आवश्यकता लेल पर्याप्त सामग्री उपलब्ध करौने छथि । हमरा लोकनि केँ ओतबहि मे सन्तोष करबाक चाही, मुदा एकर तात्पर्य ई नहि छैक जे अपन प्रगतिक लेल हम सब किछुओ नहि सोची तथा प्रयास नहि करी । लेकिन प्रगतिक विषय मे सोच आ प्रयास धर्मसम्मत होबक चाही । ओहि सँ केकरहु शारीरिक या मानसिक रूप सँ पीड़ा नहि पहुँचय, तखनहि हमरा सब केँ सेहो आत्मशान्ति भेटत । वैह व्यक्ति प्रगति कय सकैत अछि, जेकर लक्ष्य उच्च होइत छैक तथा वैह अपन लक्ष्य केर प्राप्ति मे सफल होइत अछि, जे सदिखन परिश्रमशील होइत अछि । खाली अपन नाम केर वास्ते अत्यधिक धनोपार्जन कय केँ सम्पत्ति बढ़ेला सँ आत्मशान्ति प्राप्त नहि भ’ सकैत अछि; कियैक तँ जेना-जेना धन आ सुख-साधन मे वृद्धि होयत, तृष्णा ओतेक बढ़त । सुख-साधनक वृद्धि भेला सँ प्रभुक सुमिरन कम होयत । सन्त सब कहने छथि –

दुख में सुमिरन सब करै, सुख में करै न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करै, दुख काहे को होय ॥

– कबीर

सुख मे मनुष्य प्रभु केँ बिसरि जाइत अछि, ओकर अहंकार बढ़ि जाइत छैक आर अहंकारी व्यक्ति केँ आत्मशान्ति प्राप्त नहि भ’ सकैत छैक । अतः मायाक वशीभूत नहि भ’ सदिखन प्रभुक स्मरण निश्चिते टा करबाक चाही । रोज टीवी देखनाय, गपशप कयनाय आ अपन शरीर केँ सजबय मे हमरा सब कतेको घन्टा उपयोग करैत छी, मुदा हमरा सब केँ आत्मशान्ति कोना भेटत – एहि पर विचार करबाक लेल हमरा सब लग समय नहि रहैत अछि । आत्मावलोकन लेल किछु समय अवश्य निकालबाक चाही । जाहि तरहें अपन कोनो व्यवसाय मे कतेक लाभ-हानि भेल, प्रतिवर्ष एहि पर विचार करैत छी, ओहि तरहें अपन आत्मा केँ जगेबाक लेल किछु क्षण अपन अमूल्य समय मे सँ देबय तँ निःसन्देह आत्मशान्ति, अलौकिक आभा, आत्मचिन्तन तथा आध्यात्मिक चरमोत्कर्ष केँ प्राप्त कय सकैत छी । एहि लेल निराशा छोड़िकय आशावादी बनबाक चाही । आत्ममन्थन द्वारा आध्यात्मिक नवनीत प्राप्त होइत अछि आर आत्मशान्तिक प्राप्ति होइत अछि ।

– मूल लेखकः श्री कृष्णचन्द्रजी टवाणी, अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी

हरिः हरः!!