कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायणः लङ्काकाण्ड – तेसर अध्याय

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण

लङ्काकाण्ड – तेसर अध्याय

।हरिपद छन्द।

नाम विभीषण जन कहइत छथि, दशमुख – सोदर – भाय ।
चरण – शरण मे राखु दयानिधि, अयलहुँ विकल पड़ाय ॥
बहुत कहल हम नीति सभा मे, नहि मानल दशभाल ।
मेघनाद रावण – सुत मन्त्री, रावण – मत वाचाल ॥
विश्वजननि वैदेही देवी, रामचन्द्र भगवान ।
तनिक विरोध कुशल नहि ककरहु, ककरो बचत न प्राण ॥
वचन हमर शुनितहिँ तहँ रावण, हाथ धयल तरुआरि ।
भयसौँ झटिति तनिक तट त्यागल, सहि नहि सकलहुँ मारि ॥
मन्त्री हमर चारि जन सङ्गी, हिनकर उत्तम कर्म्म ।
विदित सकल विभु परमेश्वर काँ, सकल शुभाशुभ मर्म्म ॥

।चौपाइ।

के थिक के थिक भय गेल सोर । पकड़ पकड़ लङ्कापुर – चोर ॥
कह सुग्रीव राम सौँ जाय । हिनकर विश्वासे अन्याय ॥
रावण काँ लघु सोदर भाय । शान्त वेष की कारण पाय ॥
आयल छथि मन्त्री सङ्ग चारि । कपट करत देत अहँ काँ मारि ॥
धरु धरु बाँधि कहय किछु आन । राक्षस – गोलक बोल प्रमाण ॥
हिनका सभ जन मारि खलाउ । शुभ संग्रामक सगुन बनाउ ॥
शुनु कपि – वीर कहल हँसि राम । के हमरा जीतत संग्राम ॥
उतपति पालन लय सामर्थ्य । हमरा ककरो भय से व्यर्थ ॥
हम देल अभय लाउ अरिआति । बड़ सज्जन छथि राक्षस जाति ॥
हम छी अहंक शरण कहि धयल । सकृत प्रपन्न अभय जन कयल ॥
कहितथि रावण अपनहुँ आय । काल – कवल सौँ लितहुँ बचाय ॥
ई व्रत दृढतर हमरा मित्र । शतदोषी मन रहै पवित्र ॥
शुनि सुग्रीव गूढ़तर भाव । प्रभु – वचनक नहि उत्तर आव ॥
बड़ आनन्द ततय पुन जाय । निकट विभीषण देल बजाय ॥
कपिपति सङ्ग प्रभुक शुभ वास । अयला अचल – भक्ति निस्त्रास ॥
नयन सजल साष्टाङ्ग प्रणाम । कयल विभीषण कहि निज नाम ॥
धनुर्ब्बाणधर शोभाधाम । देखल सानुज प्रभु घनश्याम ॥
परमेश्वर करता प्रतिपाल । स्मित – सुन्दर मुख नयन विशाल ॥

।पादाकुल।

महाराज सीता – मनरञ्जन, चण्ड चाप धर भक्त – दयानिधि ।
शान्त अनन्त राम परमेश्वर, सुग्रीवक प्रभु मित्र स्वयंनिधि ॥
जगदुत्पत्ति पालना लय कर, तीनि – लोक – गुरु आदि सनातन ।
स्वेच्छाचार चराचर-संस्थित, बाहर भीतर भीति – रहित – मन ॥
व्यापक व्याप्य विश्वमे भासित, देव जगन्मय सभटा अनुमत ।
अपनैँ कमायासौँ जग मोहित, पुण्य – पाप-वश सकल गतागत ॥
तावत्सत्य विश्व भासित हो, रजत – भ्रान्ति शुक्ति मे जेहन ।
अपनैँ क दया ज्ञानसौँ छूटय, प्रभु – पद – भक्त धन्य जे तेहन ॥

।चौपाइ।

अपनहि विधि हरि हर सुर सर्व्व । हरण करिय जग दुष्टक गर्व्व ॥
अणुसौँ अनु थूलहुँ सौँ थूल । जननी जनक सकल जन मूल ॥
सभसौँ रहित सहित सन काज । स्तुति हम कि करब होइछ लाज ॥
सकल अगोचर विभु परमेश । हरण कयल प्रभु हमर कलेश ॥
हम राक्षस सत्कर्म – विहीन । अयलहुँ चरण – शरण हम दीन ॥
भासित माया-मानव – रूप । रावणारि जय जय विभु भूप ॥
जे छल साबित हमरा पाप । से क्षय भेल सेवाक प्रताप ॥
ज्ञानयोग प्रभु सौँ हो प्राप्त । लङ्का दुर्न्नय – दशा समाप्त ॥

।हरिपद।

कपट-रहित स्तुति कयल विभीषण शुनि प्रभु हर्षित-चित्त ।
माँगू वर वरदानी हम छी जे अभीष्ट से वृत्त ॥
कहल विभीषण देव धन्य हम भेल सकल सिधि काज ।
प्रभु – पद – कमल नयन भरि देखल सत्य मुक्त हम आज ॥

।दोबय छन्द।

कर्म्मक बन्ध – विनाश हेतु हम, भक्तिज्ञान काँ पाबी ।
देल जाय परमार्थ ध्यान निज, अपनैँक दास कहाबी ॥
विषय – सुखक वैराग्य बनल रह, अपनैँक पद थिर भक्ती ।
अपनैँ सौँ प्रभु किछु दुर्ल्लभ नहि, परमेश्वर वरशक्ती ॥
विमल विराग हमर जन योगी, शान्त हृदय से वासा ।
सीतासहित हमर अछि निश्चय, करब ध्यान प्रत्याशा ॥

।चौपाइ।

दर्शन हमर लाभ फल एक । सम्प्रति अहँक राज्य – अभिषेक ॥
लङ्कापति बनि भोगू राज । यावत गगन सूर्य्य द्विजराज ॥
शुनु कपीश जल घट भरि लाउ । हिनकाँ लङ्का – नृपति बनाउ ॥
घट भरि आयल सागर – पानि । भेल अभिषेक लग्न शुभ जानि ॥
देखि देखि जन जोड़ल हाथ । प्रणत – आर्त्ति – हर जय रघुनाथ ॥
अरि रावणक सहोदर भाय । करुणाकर लेलनि अपनाय ॥
मिलि कपीश कह लङ्कानाथ । सानुकूल प्रभु श्रीरघुनाथ ॥
रावण – वध मे होउ सहाय । किङ्कर – कोटि मे मुख्य कहाय ॥
कहल विभीषण शुनु कपिनाथ । सब गति मति रघुनन्दन – हाथ ॥
किङ्कर – कर्म्म कुशल हम करब । अपने सबहिक सह सञ्चरब ॥
रावण दूत पठाओल चार । पर नर वानर बुझि व्यवहार ॥
रुसि गेला अछि हमरा भाय । लङ्का किदहु देता उलटाय ॥
शुक नामक चर गगन उचार । शुनु सुग्रीव समय अनुसार ॥
राक्षसेन्द्र कहलनि संवाद । नहि किछु कपिपति संग विवाद ॥
भ्राता सदृश वंश बड़ गोट । कर्म्म उठाओल अछि की छोट ॥
वनचर – राजा बड़ गोट नाम । आयल छी छिः की एहिठाम ॥
राजकुमारक हृत भेलि नारि । अहँक दोष नहि कयल विचारि ॥
घुरि सेना लय सदनहिँ जाउ । स्वेच्छाचार अमृत फल खाउ ॥
वानर जीतय लङ्का हाय । तौँ अकाल ध्रुव उदधि सुखाय ॥
वनचर – राजा ई नहि ज्ञान । वञ्चक – वचन गमायब प्रान ॥
जतय अमरपति मानथि हारि । ततय करत नर वानर मारि ॥
वानर शुनल उड़ल कय गोट । शुक काँ पटकि कयल लोटपोट ॥
रामचन्द्र काँ कहथि शुनाय । आहि दूत नहि मारल जाय ॥
वानर हटल जाय महराज । प्राण लेबय चाहै अछि आज ॥
अपनैँक देखयित ई बड़ शोच । दाढ़ी मोछ कठिन कपि नोच ॥
रामचन्द्र हँसि देल छोड़ाय । शुक लङ्का मुख चलल पड़ाय ॥
पुन आकाश जाय संभाष । कपिपति रहल कहक अभिलाष ॥
लङ्केश्वर सौँ कि कहब जाय । कहल जाय से कथा शुनाय ॥
कह सुग्रीव कहबगय सैह । बालिक गति भेलनि अछि जैह ॥
राक्षस – नगर निन्द्य व्यवहार । आबि करब हम अरि – संहार ॥
रामाङ्गना हरल खल चोर । जयबह कतय अन्त दिन तोर ॥
आज्ञा देल तखन रघुनाथ । बाँधि धरू हिनका दुनू हाथ ॥
रावण – दूत नाम शार्दूल । छल देखयित राक्षस प्रतिकूल ॥
कपि मे कपि बनि गेल मिझड़ाय । चिन्हल भेल तौँ गेल पड़ाय ॥
रावण सौँ कहलक से जाय । अनइत छी नहि दूत छोड़ाय ॥
भाग्यहिँ बचि अयलहुँ हम आज । प्राण के अर्प्पय काल – समाज ॥
अतिचिन्तातुर नृप लङ्केश । अन्तःपुर मे कयल प्रवेश ॥

।रूपमाला।

देखल वारिधि तखन रघुवर कोप लोचन लाल ॥
देखु लक्ष्मण दुष्ट वारिधि कयल गर्व विशाल ॥
हमर दर्शन हेतु ई नहि अबै छथि एक बेरि ॥
हमर की करताह वानर मनुज ई मन टेरि ॥

।जलहरण छन्द।

अथ जलनिधि-तट कहु निज निज मत
कोन गति जलनिधि विषम तरू ॥
कमलनयन कुशशयन बहुत दिन
अनशन व्रत प्रभु कयल बरू ॥
लछुमन कहल कुपि भय शुनु शुनु
निज कर शर – वर – धनुष धरू ॥
जड़ जलनिधि नहि कहल करथि हठ
हिनक सकल जलहरण करू ॥

।मिथिला सङ्गीतानुसारेण केदार छन्दः।

कहल प्रभु जलनिधि महाजड़, कयल अति अपमान ॥
खनल हमरे पूर्व्व पूरुष, अहित हमरहि मान ॥
तरत बल शोषण करब धय, बाण अनल – समान ॥
प्रीति भय बिनु कतहु प्रायः, शुनल अछि नहि कान ॥
कालकाल कराल शासन, धयल कर शर चाप ॥
शैल कानन सहित वसुधा – बलय भय – भर काँप ॥
एक योजन कूल त्यागल, जलधि मन सन्ताप ॥
वारिचर-गण विकल-तर मन, करथि विकल विलाप ॥

।चौपाइ।

डर सौँ सागर थर थर काँप । देखल रामक प्रबल प्रताप ॥
दिव्यरूप धय मणि लय हाथ । गेला जतय राम रघुनाथ ॥
पदपङ्कज पर मणि देल राखि । त्राहि त्राहि पुन उठला भाखि ॥
हम बड़ जड़ खल – निकट निवास । एत दिन हम छल छी निस्त्रास ॥
समुचित हमरा होमहि बूझ । परमेश्वर जनिकाँ नहि सूझ ॥
नाश करू की राखू नाथ । अयलहुँ शरण करण प्रभु हाथ ॥
पुन नहि एहन करब हम दोष । परमेश्वर मन परिहरु रोष ॥
सागर – विनय शुनल प्रभु कान । मन प्रसन्न भेला भगवान ॥
अभय देल शरणागत जानि । जलधि तोहर नहि होयत हानि ॥
हम जे चाप चढ़ाओल बाण । तकर कहू की गति हो आन ॥
उत्तर देश नाम गिरि कुल्य । पापी बसइछ बहुत अतुल्य ॥
ततहि तीर प्रभु फेकल जाय । जैँ आभीर जरय समुदाय ॥
बाण – निपाति ततय भेल जाय । जारि घूरि तूणीर समाय ॥
पुन सागर कहलनि शुनु राम । सहज उपाय सङ्ग एहिठाम ॥
बहुत परिश्रम हो की हेतु । नल भल करता प्रस्तर – सेतु ॥
मर्य्यादा प्रभु राखू आज । अनायास मे होइछ काज ॥
कय प्रणाम गेल सागर पैशि । तखन विचार एतय भेल बैशि ॥
कपिपति लक्ष्मणयुत श्रीराम । नल बजबाय लेल तहिठाम ॥
शुनु नल शत योजन बन सेतु । अगध जलधि लङ्का – जय हेतु ॥
प्रभु भल कहल कहल नल वीर । चल दल संगी प्रबल समीर ॥
कत अर्ब्बुद वानर बलवान । लाबथि गिरिवर तोड़ि पखान ॥
नल काँ सभ कल पढ़ले पाठ । ढेर भेल पाथर ओ काठ ॥
अप्रधान के ततय प्रधान । राम – काज मे सकल समान ॥
वर प्रसाद नल लेलन्हि काँधि । शत योजनक बाँध लेब बाँधि ॥

।इति।

हरिः हरः!!