कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायणः सुन्दरकाण्ड चारिम अध्याय

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

कवि चन्द्र विरचित मिथिला भाषा रामायण

सुन्दरकाण्ड – चारिम अध्याय

।चौपाइ।

बाँधल काँ पुरजन मिलि मार । कौतुक पहुँचल दशमुख – द्वार ॥
त्रास-हीन हर्षित हनुमान । केवल कौशलेश – पद ध्यान ॥
मारि गारि सबहिक सहि लेथि । पारम काँ नहक उत्तर देथि ॥
मेघनाद कहलनि शुनु तात । कयलक ई वानर उतपात ॥
ब्रह्मास्त्रैँ हम जीतल जखन । वानर वशमे आयल तखन ॥
कहल जाय की समुचित मन्त्र । वानर काँ नहि करब स्वतन्त्र ॥
लौकिक वानर सन नहि कर्म्म । अपनहिँ जानब हिनकर मर्म्म ॥
ताकि प्रहस्त सचिव सौँ कहल । विषय विचार करक जे रहल ॥
पुछु वानर केँ मन्त्रि प्रहस्त । बौआयल कपि कालक ग्रस्त ॥
की आयल अछि की अछि काज । वानर सौँ बजइत हो लाज ॥
कथि लय कयलक उपवन नाश । राक्षस वध करइत नहि त्रास ॥
कहलनि मन्त्रि प्रहस्त प्रकाश । कपि मनमे नहि मानब त्रास ॥
प्रेषित ककर कहब से साँ । प्राण अहाँक अवश्ये बाँच ॥
कहलनि हरि बड़ गोट मोर भाग । दूरक ढोल सोहाओन लाग ॥

।दोवय छन्दः।

भूषल छलहुँ सङ्ग नहि खर्चा, तोड़ि तोड़ि फल खयलहुँ ।
रक्षक लण्ठ प्राण लेबा पर, बहुत नेहोरा कयलहुँ ॥
कान कपार एक नहि बूझल, पातैँ पात नुकयलहुँ ।
अपन स्वरूप धयल हम सभकाँ, कालक धाम पठयलहुँ ॥
पहिलय मारि बहुत हम सहलहुँ, पाछाँ अनुचित कयलहुँ ।
दश – मस्तक लङ्कापति राजा, की अपने खिसिअयलहुँ ॥
एक गोट वानर पर एते, सेना व्यर्थ पठयलहुँ ।
धर्म्म – शास्त्र – वेत्ता अपनैँ सन, न्याय करू अगुतयलहुँ ॥

।रावणोक्ति।
।वसन्त-तिलका छन्दः।

के तोँ थिकाँहि कत सौँ यत आबि गेलैँ
ककी नाम तोहर निशाचर – भक्ष्य भेलैँ ।
आज्ञा – विहीन फल तोड़ि बहुत खैलैँ
निर्हेतु रक्षक तहाँ किय मारि देलैँ ॥

।हनुमानक उक्ति।

रे दुष्ट लागल क्षुधा फल तोड़ खेलौ
कैलैँ उपद्रव ततै तरु तोड़ि देलौ ।
हैतौ बहूत नहि सम्प्रति विघ्न भेलौ
अस्त्र – प्रहार कयलैँ हम प्राण लेलौ ॥

।मालिनी-छन्दः।

रघुपतिक पठौलैँ लाँघि केँ सिन्धु ऐलौ
तनिक कुशल-वार्ता जानकी कैँ शुनेलौ ।
क्षुधित बहुत भेलैँ तैँ फलाहार कैलौ
मरुत‍-सुत हनुमान्नाम की बाँधि लैलौ ॥
किधु ेिन ४हि लङ्का सिन्धु केँ फानि जैबे
जनक-नृपति-पुत्री दुःख-वार्ता शुनैबे ।
प्रबल सकल सेना सङ्ग लै फेरि ऐबे
तखन बुझब जे छी से अहाकाँ बुझैबे ॥

।भुजङ्गप्रयातछन्दः।

चिन्हारे अहाँ छी विरञ्चि – प्रपौत्रे,
कुकर्म्मी अहाँ छी करैछी की श्रौत्रे ।
गिरीशार्च्चना छोड़ि ई करै छी,
परस्त्री अहाँ छद्म सौँ की हरैछी ॥

।चौपाइ।

लङ्कापति हमछी निर्भीत । फेरि गबैछी गओले गीत ॥
ब्रह्म विष्णु रामक अवतार । के गुण कहत हुनक विस्तार ॥
वेद न पाबथि कहयित पार । जनिकर सिरजल थिक संसार ॥
तनिकर माया सीता – रूप । हरि आनल वनसौँ चुप चूप ॥
गञ्जन बन्धन कर्म्मक भोग । अयलहुँ नदिया – नाव – संयोग ॥
तनिकर दूत चोर हम धयल । करब उपाय एखन की कयल ॥
अनुभव बाली – बल विस्तार । तनिक राम कयलनि संहार ॥
दीनक झेर देखल दरबार । अयलहुँ दबि छपि सागर पार ॥
राम – सख्य सुग्रीवक संग । किछु दिन बितलय देखव रङ्ग ॥
कपिपति सचिव थिकहुँ हनुमान । अञ्जनि नजनि जनक पवमान ॥
वानर चर फिरइछ सभ ठाम । हम लङ्का अयलहुँ शुनि नाम ॥
नीति धर्म्म हम देल शुनाय । सत्य कहय से मारल जाय ॥
हृदय अहाँक अधिक अछि मैल । झिटुको सौँ फुटि जाइछ घैल ॥
प्रभुक कुशल सीता सँ भाषि । लोभ भेल एक फल केँ चाषि ॥
लोभहिँ पतन कहय संसार । हमरा अपनहि पड़ल कपार ॥
बड़ गोट वंश ओ विस्तर राज । अयशक नहि किछु मन मे लाज ॥
करब न अहँसौँ किछु हम लाथ । अहँक नीक रघुनन्दन – हाथ ॥
पण्डित वेश कुपथ की धयल । हाथी सौँ हथि – बेसन कयल ॥
हमरा मारल बाँधल बेश । बुद्धि – वृद्धि हो लगलेँ ठेस ॥
हसि बजला तखना दशकण्ठ । ई वानर अछि बड़का लण्ठ ॥
मृतसम बाँधल मन अभिमान । हमरहु निकट छँटै अछि ज्ञान ॥
मानुष राम गहन मे वास । हमरा तकर देखाबै त्रास ॥
तनिका मारब दनुज पठाय । वानर बिलटत रहित – सहाय ॥
सीता – कारण अछि उतपात । करब तनिक हम प्राणक घात ॥
सनकल अछि कपि बड़ वाचाल । हिनका माथ नचै अछि काल ॥
मारुत – नन्दन उत्तर कहल । रावण – कुवचन एक न सहल ॥

।द्वितीय त्रिभंगी छन्द।

दशमुख-वचन शुनल कपि कहलनि,
चुप रह रे अभिमानी, करतौ हानी, कटु बानी ।
प्रभुकर-शरक निकर विषधर सन,
लगलैँ के बच प्रानी, शठ अज्ञानी, वक-ध्यानी ॥
अपनहिँ मन नृप बनल सनल छह,
कहतौ के गुरु तोरा, शुनु स्त्री-चोरा, कुल-बोरा ।
हित अनहित अनहित हित कयलह,
प्रभुक न कयल निहोरा, मति घोरा, शुभ थोरा ॥

।घनाक्षरी।

सत्य हनुमान तौँ प्रमाण ई वचन जान,
मर्क्कट विकट भालु – भट वश परबैँ ।
प्रभु – दल प्रबल जखन उतरत इत,
दशमुख तखन उपाय कोन करबैँ ॥
मुष्टिका – आघात लात – घात – सन्निपात वश,
शोचवश रण मे त्राहि त्राहिकेँ कहरबैँ ।
‘चन्द्र’ भन रामचन्द्र सर्व्वनाथ-हाथ-तीर,
लगतहु जखन तखन मूढ मरबैँ ॥

।चौपाइ।

मारुत – वचन शुनल लङ्केश । कोप – विवश जन देल निदेश ॥
हम कटु वचन शुनै छी कान । वानर बजइछ आनक आन ॥
हिनका मारय लय कय खण्ड । हिनकर सभ छूटय पाखण्ड ॥
कपिकाँ मारय दौड़ल जखन । अयला सभा विभीषण तखन ॥
कहलनि नीतिशास्त्र – अनुसार । चारक वध नहि अछि व्यवहार ॥
दूत बेचारा मारल जयत । रामचन्द्र सौँ युद्ध न हयत ॥
अङ्कित हयता कहता जाय । राखक नहि थिक दूत बझाय ॥
नीति विभीषण कहलहुँ नीक । मानल वचन सदर्थ अहीँक ॥
शण मन बहुत वस्त्र घृत तेल । ढेर भेल नृप आज्ञा देल ॥
कपि – वालधि मे सभ लपटाब । कौतुक करइत नृपति हसाब ॥
किछु तहि ऊपर आगि लगाव । के बुझ भावी काल स्वभाव ॥
मारथि गारि देथि कय बेरि । योगी सौँ कयलनि धुरखेरि ॥
नाना तरहक बाजन बाज । प्रबल चोर काँ पकड़ल आज ॥
पश्चिम द्वार पवन – सुत जाय । बन्धन लेलनि सहज छोड़ाय ॥
सूक्ष्मरूप सौँ गेल बहराय । सभ राक्षस-मन देल शुखाय ॥
सभ जन हृदय कदलि सन काँप । जनु कपि भेल चोटाओल साँप ॥
कपिकाँ मन मे अछि बड़ रोष । करत उपद्रव पुन भरि पोष ॥
रावण – सभा उठल घमलौड़ि । ऐठन जरल न जरि गेल जौड़ि ॥
के थिक केहन न कयल विचार । मूर्खक लाठी माँझ कपार ॥
के कह कपि कपि – रूपी काल । नहि बुझ लङ्कापति दशभाल ॥

।घानक्षरी।

अग्निमान त्रिकूट – अचल अनुमान भेल,
धूम – धार नाम घन प्रलय समान रे ।
आगि आगि पानि भेल धह धह छानि भेल,
कपि-मन आनि भेल सङ्ग पदमान रे ॥
वानर न जानि भेल हसयित हानि भेल,
हास्य राजधानी भेल रावण मलान रे ।
आनही सौं आन भेल सर्व्व सावधान भेल,
रावण – प्रताप हर हरि हनुमान रे ॥

।चौपाइ।

बहल बहल तत प्रलय बिहाड़ि । जनु पर्व्वत काँ देत उखाड़ि ॥
कपिक पूछ मे धधकल आगि । विकल पड़ायल सभ घर त्याति ॥
गोपुर ऊपर कपि चढ़ि फानि । सभ मन छूटल मारिक वानि ॥
गरजि गरजि कपि ठोकल ताल । राड़क असँघै जिवक जञ्जाल ॥

।रूपक घनाक्षरी।

गगन अनिल ओ अनल जल महि विश्व,
सिरिजल जनिक तनिक दूत जरबहु ॥
कोटि कोटि रावण समान गण लड़बह,
मृग-गण – मारक मृगेन्द्र जकाँ पड़बहु ॥
देखल प्रचण्ड रण हमर उदण्ड बल,
भेल आब कोप अभिमान लोप करबहु ॥
कालहुक काल विकराल सौँ नै भोति अछि,
तोहरा लोकनि बुतै हम कतै मरबहु ॥

।चौपाइ।

जरय न कपि जरइत अछि गाम । कह जन भेल विधाता वाम ॥
लोहस्तम्भ कपिक अछि हाथ । जे लग भिड़थिन फोड़थिन माँथ ॥
सगर नगर अनल क सञ्चार । विना विभीषण घर ओ द्वार ॥
धर धर कहथि निकट नहि जाथि । हाथी कुक्कुर रीति डराथि ॥
पीटथि छाती वनिता कानि । कपि – उतपात भेल सभ हानि ॥
जरल कनक – मणिमय वर गेह । सम्पति रह की पाप – सिनेह ॥
दूत – पराक्रम कहल न जाय । भाग्यवान काँ भूत कमाय ॥
कपि कह लङ्का करब विनाश । घैल काँच केँ मुगरक आश ॥
धिक रावण आनन न मलान । चोरक मुह जनु चमकय चान ॥
दशकन्धर की रहबह चैन । भल-घर-मध देलह अछि बैन ॥
हनुमानक लग के-ओ न जाय । मारिक डर सौँ भूत पड़ाय ॥

।घनाक्षरी।

अनुचित भेल न विचार दृढ़ कय लेल,
छोड़ि देल वानर विकट अधबध कै ।
दिन भेल वक्र आब ककरो न शक अछि,
एक छानि आगि तौँ हजार घर धधकै ॥
प्रलय-कृशानु सन तखनुक भानु सन,
वीर हनुमान सनमुख जित – युधकै ।
ताल घहराय के वारण करै जाय,
जत कयल अन्याय फल रावण अबुध कै ॥

।शिखरिणी छन्दः।

अरे बाबा दावानल – सदृश लङ्का जरइयै ।
अधर्म्मी लङ्केशे तनिक सभ पापे करइयै ॥
पड़ा रे रे बाबू किछु न मन काबू परइयै ।
विना पानी लङ्का – नृपति – पट-रानी मरइयै ॥

।नाराच।

पड़ा पड़ा बड़ा बड़ा गृहाट्ट जारि देलकौ
विदेह – कन्यका – विपत्ति जानि कानि लेलकौ ।
बहूत छोट वानरे सभैक हाल कैलकौ
प्रचण्ड दण्ड – देनिहार दूत चोर धैलकौ ॥

।समानिका।

मेघनाद की कहू, बुद्धि – हीन छी अहूँ ।
बाप पाप कैल को, मृत्यु-मार्ग धैल को ॥

।दोवय छन्दः।

हरि-पद – विमुख कतहु सुख पाबथि, धिक थिक दशमुख – ज्ञाने ।
दुर्गति कय कपि लङ्का जारय, धयलहिँ छथि अभिमाने ॥
एहि सौँ आब कि गण्जन देखता, मरणाधिक अपमाने ।
के कपि पकड़ लड़य के कालसौँ, नहि कपि-वीर समाने ॥

।चौपाइ।

लङ्का – नगर सगर कपि डाह , स्वामि – कार्य्य शूरत्वि निवाहि ॥
कुदि खसला सागर मे जाय । पुच्छल बाँधल आगि मिझाय ॥
स्वस्थ – चित्त भेला हनुमान । यहन पराक्रम कर के आन ॥
सीता – आशिष – बल नहि जरल । लङ्कापतिक गर्व्व सभ हरल ॥
अग्नि वायु दुनु थिकथि इयार । जरल न सखि – सम्बन्ध विचार ॥
जनिक नाम जपि छुट तिन ताप । भवकृत – दोष – लेश नहि व्याप ॥
तनि रघुवरक दूतवर जानि । प्राकृत अनल कयल नहि हानि ॥
हनुमानक डर केओ नहि बाज । जनु कपि पायोल रामक राम ॥
जनकनन्दिनी छलि जहि ठाम । घुरि पुन तनिकर कयल प्रणाम ॥
सानुज प्रभुवर अयोता तखन । जननि ततय पहुँचब हम जखन ॥
तीनि प्रदक्षिण ई कहि देल । आगाँ ठाढ़ जोड़ि कर भेल ॥
जे किछु बनल कयल हम काज । दशकन्धर निर्ल्लज्ज कि बाज ॥
कहल जानकी शुनु कपि धीर । सकल – नियन्ता श्रीरघुवीर ॥
तनिकर इच्छा होयत जेहन । कार्य्य – सिद्धि होयत शुभ तेहन ॥

।पादाकुल दोहा।

(श्री सीताक प्रति हनुमानक वचन – तिरहुति)

ओरे से दिन बीतल । नयनक नोर तोर वसन तितल ॥
आबि एकगोट कपि रावण जितल । करमक लिखल कतहु नहि विचल ॥
करु करु जानकी जी हृदय शीतल । लङ्कापुर जरइछ प्रलय अनल ॥
सुखपाख सभ जन रावण हीतल । “चन्द्र” भन ठाढ़ जनु प्रतिमा लिखल ॥

।षट्पद छन्द।

हम किङ्कर हनुमान, देवि चिन्ता चित परिहरु ।
हमरा काँधा चढ़लि, घोर सागर काँ सन्तरु ॥
क्षण मे श्रीरघुनाथ निकट कौशल पहुँचायब ।
आज्ञा प्रभुसौँ पाबि, फेरि लङ्का घुरि आयब ॥
प्रलय करब लङ्कापुरी, हमरा के रोकत सुभट ।
जौँ ई रुचि हा स्वामिनी, देल जाय आज्ञा प्रगट ॥

शरसौँ शोषि समेद्र सेतु, शर – निकरक करता ।
सानुज से प्रभु आबि, रावणक प्राणे हरता ॥
सुग्रीवक सभ सैन्य, आबि लङ्का केँ लूटै ।
सुयश लोक मे होयत, अचल लङ्कागढ़ टूटै ॥
हम मारुत-सुत प्राण काँ, कोनहुँ यत्न राखब एतय ।
कुशल-क्षेम सौँ जाउ अहँ, श्रीरघुनन्दन छथि जतय ॥

।दोबय छन्दः।

कयल प्रणाम अनेक बार कपि, पर्व्वत पर चढ़ि गेला ।
योजन तीश प्रमाण उच्च गिरि, समभूमिक सम भेला ॥
पर्व्वत वायु वेग सौँ महितल, दबि गेला तत्काले ।
सागर तरथि घोर धुनि करइत, धर्म्मक सोर पताले ॥

।चौपाइ।

अङ्गदादि कयलनि अनुमान । अबइत छथि हर्षित हनुमान ॥
शब्द एहन करता के आन । श्रवण-सुखद बर अमृत समान ॥
एतहु सकल कपि बालि – किशोर । हर्षक शब्द कयल नहि थोर ॥
गिरि पर पहुँचि गेला हनुमान । मृतक देह जनु पलटल प्राण ॥
कार्य्यसिद्धि होइछ अनुमान । हर्षक सुख मुख – शोभा आन ॥
शस्त्रक क्षत कत देखिय अङ्ग । भेल समर जनि लगइछ रङ्ग ॥
महावीर कह शुनु प्रिय सर्व्व । प्रभु – प्रताप किछु हमर न गर्व्व ॥
देखि जनकजा बिपिन उजारि । रक्षक जन केँ रण मे मारि ॥
कि करब ततय पड़ल बड़ मारि । राम – प्रताप कतहु नहि हारि ॥
दशकन्धर सौँ वाद विवाद । बचलहुँ श्री रघुनाथ – प्रसाद ॥
अयलहुँ बहुत सुभट केँ मारि । रावण – पालित लङ्का जारि ॥
राम-कपीशक तट हम जयब । एखनहि ततहि स्वस्थ हम हयब ॥
वानर – वृन्द मिलल भरि अङ्क । जेहन परशमणि पाबथि रङ्क ॥
पूछ चूमि गुणगण सभ बाँच । हरषि हरषि हरिगण भल नाँच ॥

।सारबती छन्दः।

राम कहू पुन राम कहू, मारुत – नन्दन धन्य अहूँ ।
आब चलू छथि नाथ जहाँ, की सुखलाभ अनन्त तहाँ ॥

।सोरठा।

चलल वीर-समुदाय, महावीर अगुआय चल ।
प्रस्रवणाचल जाय, कपिपति – मधुवनप्राप्त सभ ॥

।दोबय छन्दः।

वानर सकल कहल अङ्गद काँ, अहँ छी भूपक बालक ।
आज्ञा देल जाय मधुवन – फल, खायब अपनैँ पालक ॥
जनितहि छी सभ जन छी भुखले, फलमधु यहन न पायब ।
खाय पीबि सन्तुष्ट चित्तसौँ, प्रभुक निकट मे जायब ॥

।चौपाइ।

अङ्गद कहल सुखित फल खाउ । किछ नहि ककरो डरैँ डराउ ॥
कपि फल खाथि करथि मधुपान । रक्षक हटल पटल नहि मान ॥
दधिमुख – अनुशासन काँ पाय । देल रक्षक सभकैँ लठिआय ॥
अतिबल वानर भूखल घूरि । सभ रक्षक काँ देलनि चूरि ॥
दधिमुख – मुख भय गेल मलान । कुपित न बजला से मतिमान ॥
सभ रक्षक केँ संग लगाय । कपिपति काँ कहि देल देखाय ॥
तारा तनय हठी हनुमान । जेहन आगि केँ पवन दिवान ॥
मधुवन फल भल खयलय जाथि । किछु नहि अपनैक त्रास डराथि ॥
हम नहि करब बिपिन रखबारि । किछु बजितौं तौँ खइतहुँ मारि ॥
मधुवन फल राखल छल ढेर । लूटि भेल ककरहु नहि टेर ॥
युवराजक हनुमान प्रधान । बिपिन विनाशक कि कहब ज्ञान ॥
हम छी कपि – भूपालक माम । नहि घुरि जायब गञ्जन ठाम ॥
सत्य कहै छी शुनु कपिनाथ । मर्य्यादा रह अपनहिँ हाथ ॥
मधुवन फल मधु कयलक नाश । भूतक घर सन्ततिक निवास ॥
शुनल वचन कहलनि जे माम । कपिपति-मन नहि कोपक ठाम ॥
हर्षक नोर भरल दुहु आँखि । अयला अयला उठला भाखि ॥
सीता देखि आयल हनुमान । हमरा मन से निश्चय ज्ञान ॥
से शुनि पुछलनि अपनहि राम । मारि भेल अछि की कोन ठाम ॥
की कहयित छथि कपिपति माम । लेल कि जनकनन्दिनी नाम ॥
कहलनि गेल जे दक्षिण देश । आयल सभ जन रहित कलेश ॥
कार्य्यसिद्धि कयलनि हनुमान । मधुवन फल के चाखत आन ॥
दधिमुखकाँ कहलनि अहँ जाउ । सभ जनकाँ सत्वर लय आउ ॥
बहुत शीघ्र से वन मे जाय । अङ्गदादि काँ कहल बुझाय ॥
रामचन्द्र लक्ष्मण कपिराज । बड़ सन्तुष्ट भेल छथि आज ॥
शीघ्र बजौलनि करू प्रयाण । भाग्य ककर तुल अहँक समान ॥
शुनितहिँ चलल सकल जन तुष्ट । प्रभुक समक्ष मुदित – मन पुष्ट ॥
अङ्गद आदि सहित हनुमान । प्रणत कहल हरिभक्त – प्रधान ॥
मारुत – नन्दन जोड़ल हाथ । कृपा – जलधि जय जय रघुनाथ ॥
वैदेही हम देखल आँखि । कुशल प्रभुक विधिवत सभ भाखि ॥

।दोबयछन्दः।

मलिनवसन एक – वेणी अतिदुख, निराहार दुबराइलि ।
राम राम रट सकरुण धुनि कय, शुद्ध समाधि समाइलि ॥
अहह अशोकवाटिकाभ्यन्तर, वृक्ष-शिंशुपा छाया ।
लङ्कापुरी राक्षसी – धेड़लि, छथि प्रभु अपनैँक माया ॥

।चौपाइ।

कि करब यत्न फुरल नहि आन । कयल तखन रघुपति – गुण-गान ॥
जैँ विधि प्रभु लेलनि अवतार । हरण हेतु पृथिविक खल-भार ॥
धनुषभङ्ग परिणय जे रीति । सकल शुनाओल मङ्गल गीति ॥
अयला प्रभु जे विधि वनवास । सकल कथा से कयल प्रकाश ॥
आश्रमशून्य जानि लङ्केश । देवी हरि अनलक एहि देश ॥
कथा शुनथि वैदेही कान । मन-मन करथि बहुत अनुमान ॥
मैत्री जैँ विधि कयल कपीश । अपनाओल प्रभु अपना दीश ॥
अनुज – नारि – रत बालि विचारि । तनिकाँ रघुपति सत्वर मारि ॥
से सुग्रीव विदित कपिराज । सम्प्रति प्रभु छथि तनिक समाज ॥
तनिक सचिव हम श्रीपति – दास । सीता देखक बहुत प्रयास ॥
से कोन देश कोन से ठाम । दूत पठाओल जतय न राम ॥
आज फलित भेल हमर प्रयास । मानस – दुःख – राशि भेल नाश ॥
तकलनि कहलनि अमृत – समान । वचन शुनाओल के ई कान ॥
लोचन-गोचर से भय जाथु । कहथु कथा नहि एखन नुकाथु ॥
दूरहि सौँ हम कयल प्रणाम । अञ्जलि – बद्ध ठाढ़ तहिठाम ॥
सूक्ष्म – रूप वानर – आकार । हम प्रभु – चरित कहल विस्तार ॥
परिचय पुछलनि पुछलनि नाम । नर – वानर – सङ्गति कोन ठाम ॥
स्वामिनि कथा पुछल जय बेरि । हमहुँ शुनाओल से सभ फेरि ॥
प्रत्ययमूल मुद्रिका देल । तखन प्रतीति तनिक मन भेल ॥

।घनाक्षरी छन्द।

गञ्जन ताड़न राक्षसीक सहै पड़इछ, एहन विपति पड़उन जनु अनका ॥
हमर विपत्ति देखतहिँ छीय अपनहुँ, सपनहुँ चैन नहि दिन राति मनकाँ ॥
जनु मनु राखथु अपराध किछु, निवेदन कय देब धरणी-धरण काँ ॥
सकरुण सजल-नयन देवी कहलनि, कहबनि अहाँ कपि विपति-हरण काँ ॥

।चौपाइ।

सीता – वचन करुण – परिपूर । शुनि शुनि कि करब से नहि फूर ॥
हे प्रभु कहलहुँ बहुत बुझाय । तनि घन – नयन न नीर सुखाय ॥
कर औँठी कङ्कण प्रभु – हाथ । तुअ वियोग भृश कृश रघुनाथ ॥
जायब अभिज्ञान काँ पाय । देल जाय श्रीजानकि माय ॥
चूड़मणि देलनि कहि कानि । कत हम कयल विरञ्चिक हानि ॥
वासवसुत वायस वनवास । खल छल पहुँचल मन निस्त्रास ॥
फल भल पौलनि स्वामि – समीप । भय भ्रमि अयला सातो दीप ॥
अति सामर्थ्य प्रभुक सभ काल । के थिक दुर्न्नय खल दशभाल ॥
प्रभु – पत्नी पाबिय दुख घोर । जलधर जितल अखण्डित नोर ॥
देवर काँ हम वचन कठोर । कहल तकर फल भेल न थोर ॥
अनुचित क्षमा करत के आन । कहब दयामय देवर – कान ॥
संकट सौँ लय जाथि छोड़ाय । प्रभुक अनुज से करथु उपाय ॥
चलि नहि रहि नहि हा तहिठाम । आज्ञा बिनु कत करु सङ्ग्राम ॥
विकल स्वामिनी – दशा निहारि । चलयित कयलहुँ बिपिन उजारि ॥
भेल लड़ाई तहाँ घमसान । बहुत वीर समरहिं निःप्रान ॥
दशवदनक सुत अक्षय कुमार । हमरहि सौँ तनिकर संहार ॥
मेघनाद आयल खिसिआय । रण – निर्ज्जित कयलक अन्याय ॥
ब्रह्मास्त्रक से कयल प्रयोग । बाँधल गेलहुँ कयल दुख – भोग ॥
लङ्का मे सञ्चित घृत तेल । हमरा बालधि अर्प्पित भेल ॥
सन ओ वसन लपेटल पूछ । मन जरि जायत वानर तूछ ॥
प्रभु – प्रताप नहि मानल हारि । सगर नगर घर देल हम जारि ॥

।सोरठा।

कर्म्म करत के आन, सुरदुर्ल्लभ हनुमान सन ।
हित अहँक समान, सजल – नयन रघुनाथ कह ॥
अतिसाहसधर वीर, अविरल भक्तिक भवन अहँ ।
पिता अहाँक समीर, जगत्प्राण-सुत उचित थिक ॥

।घनाक्षरी।

नाव अरि लाब नहि, उतरक दाब नहि,
एक बुद्धि आब नहि सागर अपार मे ।
वीर अरि छोट नहि, सङ्ग एक गोट नहि,
लङ्का लघु कोट नहि विदित संसार मे ॥
दनुज अबल नहि, पुरी गम्य थल नहि,
प्रदेश अमल्ल नहि युद्धक विचार मे ।
अहाँक समान महि वीर हनुमान नहि,
सर्व्वस्वक दान नहि तूल उपकार मे ॥

इति श्री चन्द्रकवि-विरचिते मिथिलाभाषा-रामायणे सुन्दरकाण्डे चतुर्थोध्यायस्समाप्तः ॥

सुन्दरकाण्ड समाप्त

हरिः हरः!!