स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
बहुते दिन सँ सोचि रहल छलहुँ जे अपन एक गुरुजन सँ सुनल अत्यन्त प्रेरणादायी कथा-वृत्तान्त पर आधारित आ अपन एक पितामह (स्व. नीलाम्बर नारायण चौधरी) केँ नित्यगायन करैत सुनयवला भजन ‘भज गोविन्दं भज गोविन्दं’ केर मैथिली सारांश सहित अपने सभक बीच प्रकाशित करी । आइ मैथिली जिन्दाबाद पर एकरा पूरा कयल अछि ।
विदित हो जे ई भजन स्वयं आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा एक वैयाकरण केँ व्याकरणक नियमादिक बहस-उपदेश-तर्कक जवाब मे देबाक-बुझेबाक समय निर्माण भेल अछि । एहि भजनक शुरुआत व अन्त मे एहि भाव केर पंक्ति सेहो निहित अछि । हमरा सब केँ एहि भजन केँ ‘निर्गुण’ समान बुझिकय सदैव आत्मचिन्तन मे शामिल कयला सँ बहुत पैघ लाभ भेटत । आउ, एक-एक पंक्ति केँ ढंग सँ मनन करी –
भज गोविन्दं भज गोविन्दं,
गोविन्दं भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते काले,
न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥१॥
हे मोह सँ ग्रसित बुद्धिवला मित्र! गोविन्द केँ भजू, गोविन्द केर नाम लियह, गोविन्द सँ प्रेम करू । कियैक तँ मृत्युक समय व्याकरणक नियम याद रखला सँ अहाँक रक्षा नहि भ’ सकैत अछि ।
मूढ़ जहीहि धनागमतृष्णाम्,
कुरु सद्बुद्धिमं मनसि वितृष्णाम्।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तम्,
वित्तं तेन विनोदय चित्तं ॥२॥
हे मोहित बुद्धि! धन एकत्र करबाक लोभ त्यागू । अपना मन सँ एहि समस्त कामना सभक त्याग करू । सत्यताक पथ केर अनुसरण करू, अपन परिश्रम सँ जे धन प्राप्त हो वैह सँ अपन मोन केँ प्रसन्न राखू ॥२॥
नारीस्तनभरनाभीदेशम्,
दृष्ट्वा मागा मोहावेशम्।
एतन्मान्सवसादिविकारम्,
मनसि विचिन्तय वारं वारम् ॥३॥
स्त्री शरीर पर मोहित भ’ आसक्त जुनि होउ । अपना मन मे निरन्तर स्मरण करू कि ई मांस-वसा आदिक विकार केर अतिरिक्त किछु आर नहि थिक ॥३॥
नलिनीदलगतजलमतितरलम्,
तद्वज्जीवितमतिशयचपलम्।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं,
लोक शोकहतं च समस्तम् ॥४॥
जीवन कमल-पत्र पर पड़ल पानिक बून्द समान अनिश्चित एवं अल्प (क्षणभंगुर) अछि । ई बुझि जाउ जे समस्त विश्व रोग, अहंकार आर दु:ख मे डूबल अछि ॥४॥
यावद्वित्तोपार्जनसक्त:,
तावन्निजपरिवारो रक्तः।
पश्चाज्जीवति जर्जरदेहे,
वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे ॥५॥
जाबत धरि व्यक्ति धनोपार्जन मे समर्थ अछि, ताबत धरि परिवार मे सब ओकरा प्रति स्नेह प्रदर्शित करैत अछि । परन्तु अशक्त भ’ गेला पर ओकरा सामान्य बातचीत मे पर्यन्त कोनो पूछ नहि होइत छैक ॥५॥
यावत्पवनो निवसति देहे,
तावत् पृच्छति कुशलं गेहे।
गतवति वायौ देहापाये,
भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥६॥
जाबत धरि शरीर मे प्राण रहैत छैक ताबत धरि मात्र लोक कुशल पुछैत छैक । शरीर सँ प्राण वायु निकलिते पत्नी सेहो ओहि शरीर सँ डराइत छैक ॥६॥
बालस्तावत् क्रीडासक्तः,
तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः।
वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः,
परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः ॥७॥
बचपन मे खेल मे रूचि होइत छैक, युवावस्था मे युवा स्त्रीक प्रति आकर्षण होइत छैक, वृद्धावस्था मे चिन्ता सब सँ घेरायल रहैत अछि लेकिन प्रभु सँ कियो प्रेम नहि करैत अछि ॥७॥
का ते कांता कस्ते पुत्रः,
संसारोऽयमतीव विचित्रः।
कस्य त्वं वा कुत अयातः,
तत्त्वं चिन्तय तदिह भ्रातः ॥८॥
के अहाँक पत्नी छी, के अहाँक पुत्र छी, ई संसार अत्यन्त विचित्र अछि, अहाँ के छी, कतय सँ आयल छी, बन्धु ! एहि बात पर तँ पहिने विचार कय लियह ॥८॥
सत्संगत्वे निस्संगत्वं,
निस्संगत्वे निर्मोहत्वं।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं
निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः ॥९॥
सत्संग सँ वैराग्य, वैराग्य सँ विवेक, विवेक सँ स्थिर तत्त्वज्ञान आर तत्त्वज्ञान सँ मोक्ष केर प्राप्ति होइत छैक ॥९॥
वयसि गते कः कामविकारः,
शुष्के नीरे कः कासारः।
क्षीणे वित्ते कः परिवारः,
ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः ॥१०॥
आयु बित गेलाक बाद काम भाव नहि रहैछ, पानि सुखा गेलापर पोखरि नहि रहैछ, धन चलि गेलापर परिवार नहि रहैछ आर तत्त्व ज्ञान भेलापर संसार नहि रहैछ ॥१०॥
मा कुरु धनजनयौवनगर्वं,
हरति निमेषात्कालः सर्वं।
मायामयमिदमखिलम् हित्वा,
ब्रह्मपदम् त्वं प्रविश विदित्वा ॥११॥
धन, शक्ति आर यौवन पर गर्व जुनि करू, समय क्षण भरि मे एकरा नष्ट कय दैत छैक । एहि विश्व केँ माया सँ घेरायल जानिकय अहाँ ब्रह्म पद मे प्रवेश करू ॥११॥
दिनयामिन्यौ सायं प्रातः,
शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि
न मुन्च्त्याशावायुः ॥१२॥
दिन आर राति, साँझ आ भोर, सर्दी आर बसन्त बेर-बेर अबैत-जाइत रहैत छैक । काल केर एहि क्रीडा संग जीवन नष्ट होइत रहैत छैक, मुदा इच्छा सभक अन्त कहियो नहि होइत छैक ॥१२॥
द्वादशमंजरिकाभिरशेषः
कथितो वैयाकरणस्यैषः।
उपदेशोऽभूद्विद्यानिपुणैः,
श्रीमच्छंकरभगवच्चरणैः ॥१२.१॥
बारह गीत केर ई पुष्पहार, सर्वज्ञ प्रभुपाद श्री शंकराचार्य द्वारा एक वैयाकरण केँ प्रदान कयल गेल ॥१२.१॥
काते कान्ता धन गतचिन्ता,
वातुल किं तव नास्ति नियन्ता।
त्रिजगति सज्जनसं गतिरैका,
भवति भवार्णवतरणे नौका ॥१३॥
अहाँ केँ पत्नी आर धन केर एतेक चिन्ता कियैक अछि ? कि ओकर कियो नियंत्रक नहि अछि ? तीनू लोक मे मात्र सज्जन लोकनिक संग टा एहि भवसागर सँ पार उतरयवला नाव थिक ॥१३॥
जटिलो मुण्डी लुञ्छितकेशः,
काषायाम्बरबहुकृतवेषः।
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः,
उदरनिमित्तं बहुकृतवेषः ॥१४॥
बड़का-बड़का जटा, केश रहित मुन्ड, छिड़ियायल केश, काषाय (भगवा) वस्त्र आ भाँति-भाँतिक वेश – ई सब अपन पेट भरबाक लेल धारण कयल जाइत अछि, अरे मोहित मनुष्य! अहाँ ई सब देखियोकय कियैक नहि देखि पबैत छी ? ॥१४॥
अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं,
दशनविहीनं जतं तुण्डम्।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं,
तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम् ॥१५॥
क्षीण अंग, पाकल केश, दाँतो सँ रहित मुंह आर हाथ मे लाठी लय केँ चलयवला वृद्ध सेहो आशा-पाश सँ बान्हल रहैत अछि ॥१५॥
अग्रे वह्निः पृष्ठेभानुः,
रात्रौ चुबुकसमर्पितजानुः।
करतलभिक्षस्तरुतलवासः,
तदपि न मुञ्चत्याशापाशः ॥१६॥
सूर्यास्तक बाद, राति मे आगि जराकय आ ठेहुन मे माथ नुकाकय जाड़ सँ बचयवला, हाथ मे भिक्षाक अन्न खायवला, गाछक नीचाँ रहयवला सेहो अपन इच्छा सभक बंधन केँ नहि छोड़ि पबैत अछि ॥१६॥
कुरुते गङ्गासागरगमनं,
व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहिनः सर्वमतेन,
मुक्तिं न भजति जन्मशतेन ॥१७॥
कोनो धर्मक मुताबिक ज्ञानरहित भ’ कय गंगासागर गेला सँ, व्रत रखला सँ आर दान देला सँ सौओ (सैकड़ों) जन्म धरि मे मुक्ति नहि भेटि सकैत अछि ॥१७॥
सुर मंदिर तरु मूल निवासः,
शय्या भूतल मजिनं वासः।
सर्व परिग्रह भोग त्यागः,
कस्य सुखं न करोति विरागः ॥१८॥
देव मंदिर या गाछक नीचाँ निवास, पृथ्वी जेहेन शय्या, असगरे रहयवला, सब संग्रह आ सुख सब केँ त्याग करयवला वैराग्य सँ केकरो आनन्द केर प्राप्ति नहि होइछ ॥१८॥
योगरतो वाभोगरतोवा,
सङ्गरतो वा सङ्गवीहिनः।
यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं,
नन्दति नन्दति नन्दत्येव ॥१९॥
कियो योग मे लागल हो या भोग मे, संग मे आसक्त हो या निसंग मे, धरि जेकर मोन ब्रह्म मे लागल अछि वैट टा आनन्द करैत अछि, आनन्द मात्र करैत अछि ॥१९॥
भगवद् गीता किञ्चिदधीता,
गङ्गा जललव कणिकापीता।
सकृदपि येन मुरारि समर्चा,
क्रियते तस्य यमेन न चर्चा ॥२०॥
जे भगवद्गीताक कनिकबो अध्ययन कयलनि अछि, भक्ति रूपी गंगा जल केर कण मात्रहु पीलनि अछि, भगवान कृष्णक एकहु बेर समुचित प्रकार सँ पूजा कयलनि अछि, यम केर द्वारा हुनक चर्चा नहि कयल जाइत अछि ॥२०॥
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं,
पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे बहुदुस्तारे,
कृपयाऽपारे पाहि मुरारे ॥२१॥
बेर-बेर जन्म, बेर-बेर मृत्यु, बेर-बेर माँ केर गर्भ मे शयन, एहि संसार सँ पार पाबि गेनाय बड कठिन छैक, हे कृष्ण कृपा कय केँ हमर एहि सँ रक्षा करू ॥२१॥
रथ्या चर्पट विरचित कन्थः,
पुण्यापुण्य विवर्जित पन्थः।
योगी योगनियोजित चित्तो,
रमते बालोन्मत्तवदेव ॥२२॥
रथक नीचाँ अयलाक कारण फाटि गेल कपड़ा पहिरनिहार, पुण्य आ पाप सँ रहित भ’ रथ पर चलनिहार, योग मे अपन चित्त केँ लगबयवला योगी, बालक केर समान आनन्द मे रहैत अछि ॥२२॥
कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः,
का मे जननी को मे तातः।
इति परिभावय सर्वमसारम्,
विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न विचारम् ॥२३॥
अहाँ के छी, हम के छी, कतय सँ आयल छी, हमर माँ के अछि, हमर पिता के छथि ? सब प्रकार सँ एहि विश्व केँ असार बुझिकय एकरा एकटा सपना जेँ त्यागि दी ॥२३॥
त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णुः,
व्यर्थं कुप्यसि मय्यसहिष्णुः।
भव समचित्तः सर्वत्र त्वं,
वाञ्छस्यचिराद्यदि विष्णुत्वम् ॥२४॥
अहाँ मे, हमरा मे तथा अन्यत्रो सर्वव्यापक विष्णु टा छथि, अहाँ व्यर्थहि क्रोध करैत छी, यदि अहाँ शाश्वत विष्णु पद केँ प्राप्त करय चाहैत छी तँ सर्वत्र समान चित्तवला बनि जाउ ॥२४॥
शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ,
मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ।
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं,
सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम् ॥२५॥
शत्रु, मित्र, पुत्र, बन्धु-बांधव सँ प्रेम आर द्वेष जुनि करू, सब मे अपना आप टा केँ देखू, एहि प्रकारे सर्वत्रे भेदरूपी अज्ञान केँ त्यागि दिय’ ॥२५॥
कामं क्रोधं लोभं मोहं,
त्यक्त्वाऽत्मानं भावय कोऽहम्।
आत्मज्ञान विहीना मूढाः,
ते पच्यन्ते नरकनिगूढाः ॥२६॥
काम, क्रोध, लोभ, मोह केँ छोड़िकय, स्वयं मे स्थित भ’ कय विचार करू जे हम के छी, जे आत्म-ज्ञान सँ रहित मोहित व्यक्ति अछि ओ बेर-बेर नुकायल रहल एहि संसाररूपी नरक मे पड़ैत अछि ॥२६॥
गेयं गीता नाम सहस्रं,
ध्येयं श्रीपति रूपमजस्रम्।
नेयं सज्जन सङ्गे चित्तं,
देयं दीनजनाय च वित्तम् ॥२७॥
भगवान विष्णुक सहस्त्र नाम केँ गबिते हुनकर सुन्दर रूप केर अनवरत ध्यान करू, सज्जन सभक संग मे अपन मन केँ लगाउ आर गरीब सभक अपन धन सँ सेवा करू ॥२७॥
सुखतः क्रियते रामाभोगः,
पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः।
यद्यपि लोके मरणं शरणं,
तदपि न मुञ्चति पापाचरणम् ॥२८॥
सुखक लेल लोक आनन्द-भोग करैत अछि जेकरा बाद एहि शरीर मे रोग भ’ जाइत छैक । यद्यपि एहि पृथ्वी पर सभक मरण सुनिश्चित छैक तैयो लोक पापमय आचरण केँ नहि छोड़ैत अछि ॥२८॥
अर्थंमनर्थम् भावय नित्यं,
नास्ति ततः सुखलेशः सत्यम्।
पुत्रादपि धनभजाम् भीतिः,
सर्वत्रैषा विहिता रीतिः ॥२९॥
धन अकल्याणकारी अछि आर एहि सँ कनिकबो सुख नहि भेटि सकैत अछि, एहेन विचार प्रतिदिन करबाक चाही । धनवान लोक त अपन पुत्रहु सँ डराइत अछि, ई सब केँ बुझले अछि ॥२९॥
प्राणायामं प्रत्याहारं,
नित्यानित्य विवेकविचारम्।
जाप्यसमेत समाधिविधानं,
कुर्ववधानं महदवधानम् ॥३०॥
प्राणायाम, उचित आहार, नित्य एहि संसारक अनित्यता केँ विवेक पूर्वक विचार करू, प्रेम सँ प्रभु-नाम केर जाप करिते समाधि मे ध्यान दिय’, बहुते ध्यान दिय’ ॥३०॥
गुरुचरणाम्बुज निर्भर भक्तः,
संसारादचिराद्भव मुक्तः।
सेन्द्रियमानस नियमादेवं,
द्रक्ष्यसि निज हृदयस्थं देवम् ॥३१॥
गुरु केर चरणकमल टा’ केर आश्रय मानयवला भक्त बनिकय सदाक लेल एहि संसार मे आवागमन सँ मुक्त भ’ जाउ, एहि प्रकारे मन आ इन्द्रिय सभक निग्रह कयकेँ अपन हृदय मे विराजमान प्रभुक दर्शन करू ॥३१॥
मूढः कश्चन वैयाकरणो,
डुकृञ्करणाध्ययन धुरिणः।
श्रीमच्छम्कर भगवच्छिष्यै,
बोधित आसिच्छोधितकरणः ॥३२॥
एहि प्रकारे व्याकरणक नियम सब केँ कंठस्थ करिते कोनो मोहित वैयाकरण केर माध्यम सँ बुद्धिमान श्री भगवान शंकर केर शिष्य बोध प्राप्त करबाक लेल प्रेरित कयल गेलाह ॥३२॥
भजगोविन्दं भजगोविन्दं,
गोविन्दं भजमूढमते।
नामस्मरणादन्यमुपायं,
नहि पश्यामो भवतरणे ॥३३॥
गोविन्द केँ भजू, गोविन्द केर नाम लिय’, गोविन्द सँ प्रेम करू । कियैक तँ भगवानक नाम जप केर अतिरिक्त एहि भव-सागर सँ पार जाय केर आर कोनो मार्ग नहि अछि ॥३३॥
हरिः हरः!!