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कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायणः अरण्यकाण्ड चारिम अध्याय

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण
अरण्यकाण्ड – चारिम अध्याय
।चौपाइ।
शैलशृङ्ग सम सन एकटा गृद्ध। देखलनि राम बाट पर वृद्ध॥
मुनि – भक्षक राक्षस सन लाग। असुआयल अछि तैँ नहि जाग॥
लक्ष्मण धनुष हाथ कय देब। चटपट प्राण हिनक हम लेब॥
शुनि भय-विकल कहल खगराज। कयल जाय प्रभु एहन न काज॥
हम दशरथ भूपालक मित्र। मुनिजन मे अछि हृदय पवित्र॥
नाम जटायु सकल जन जान। हम खग दुष्ट न शुनु भगवान॥
पञ्चवटी हम अपनैँक काज। रहब निरन्तर हे रघुराज॥
सभ दिश टकटक तकितहि रहब। अरि – आगमन प्रथम हम कहब॥
मृगयार्थी लक्ष्मण वन जयत। आश्रम शून्य तखन जौँ हयत॥
हम सीताकाँ रहब अगोरि। दुष्ट हृदयकाँ मारब झोरि॥
शुनल जटायु – वचन रघुवीर। साधु कहल जानल अहाँ धीर॥
वृद्ध एक जन राखल सङ्ग। तैँ नहि होअ मनोरथ भङ्ग॥
अङ्ग लगाय निमन्त्रित कयल। पञ्चवटी मे डेरा धयल॥
ततय कयल मन्दिर विस्तार। लक्ष्मण वीर महा बुधिआर॥
गङ्गा उत्तर थल भल जानि। निर्ज्जन निरुपद्रव मन मानि॥
केरा कटहर बड़हर आम। फल अनेक वन कत कहु नाम॥
कन्द मूल फल लक्ष्मण आन। भोज्य वस्तु हो अमृत समान॥
सगर राति जागल बिति जाय। कोटबार धन्वी छोट भाय॥
तिनु जन सङ्गहि सङ्गहि जाथि। नदी गौतमी नीर नहाथि॥
लक्ष्मण आनथि भरि भरि वारि। रघुनन्दन आज्ञा नहि टारि॥
तिनु जन सुखसौँ कयलनि वास। गृहसौँ शतगुण विपिन – विलास॥
।दोहा।
श्रीप्रभुसौँ लक्ष्मण कहल, एकान्तहि कर जोड़ि।
ज्ञानसहित विज्ञान कहि, दिअ मन संशय तोड़ि॥
गोपनीय उपदेश शुनु, तखन कहल श्रीराम।
जे सुनला सौँ लोककाँ, भ्रमतम नहि तहि ठाम॥
।रूपमाला।
प्रथम माया-रूप कहि हम ज्ञान – साधन कहब।
जानि ज्ञेय परात्मकाँ मन भयरहित नित रहब॥
आत्मबुद्धि शरीर आदिमे करथि जे व्यवहार।
सैह बुद्धिक नाम माया ताहि सौँ संसार॥
।चौपाइ।

देखल शुनल स्मरण हो भाव। से अनित्य मानक थिक आव॥
स्वप्न मनोरथ वितथ समान। ई शरीर मे आत्म – ज्ञान॥
तरु संसार मूल थिक गेह। मानि लेब मन निस्सन्देह॥
तकर मूल सुत – वनिता – बन्ध। सनयन जन मानिय मन अंध॥
नाम जनिक जानल ई गात्र। स्थूलभूत से पचतन्मात्र॥
अहङ्कार मति इन्द्रिय सर्व्व। चिदाभास मन प्रकृतिक पर्व्व॥
हिनकर नाम क्षेत्र करु ज्ञान। जीव विलक्षण एहिसौँ आन॥
ओ परमात्मा आमय – रहित। ज्ञान तनिक शुनु साधन सहित॥
जीव परात्मा काँ नहि भेद। निश्चय ज्ञात रहय नहि खेद॥
हिंसा – शून्य दया – संलीन। अहङ्कार – दम्भादि – विहीन॥
अकुटिल सकल अपन व्यवहार। सहथि परक आक्षेप प्रहार॥
गुरु – सेवन मन वचनेँ काय। भीतर बाहर शुद्ध बनाय॥
उत्तम कर्म्म मे थिरता वेश। मनमे हो न अधर्म्मक लेश॥
हम हम ई मति सत्वर छोड़ि। भ्रमसौँ सर्प होइ अछि जोड़ि॥
करयित करयित – सज्जन संग। तखना हो ज्ञानोदय रंग॥
ज्ञानोदय सौँ संशय दूर। तिमिर रहय की उगलेँ सूर॥
स्वर्ग – वास ज्ञानामृत शर्म्म। सकल मूल थिक केवल धर्म्म॥
सदाचार जे जे सद्‌ग्रन्थ। मुक्ति युक्ति गुरु-सेवा पन्थ॥
श्रद्धा – हीन भक्ति नहि पाब। भक्ति – विमुख मे ज्ञान न आब॥
ज्ञान – रहित केँ दुर्ल्लभ मुक्ति। हमरे सेवा साधन युक्ति॥
विधिसन जौँ उपदेशक आब। सकल त्याग बिनु मोक्ष न पाब॥
शुनल अनन्त शेष भगवान। रामचन्द्र सन वक्ता ज्ञान॥
प्राकृत जन की वर्णन करत। स्मृति पुराण अनुमति सञ्चरत॥

।दोहा।

कयल बहुत उपदेश प्रभु, लक्ष्मण मन आनन्द।
किछु विषाद नहि चित्तमे, तुष्ट पुष्ट निर्द्वन्द॥

।इति।

हरिः हरः!!

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