स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
मिथिलाभाषा रामायण – अरण्यकाण्ड
अध्याय २
।चौपाइ।
स्वगत भेला जखन विराध। तखन गगन सुरजन सम्बाध॥
प्रभु सानुज वैदेही सङ्ग। गेला ततय जतय शरभङ्ग॥
आयल छथि वन श्रीभगवान। मुनि जानल साधन विज्ञान॥
सत्वर विधि विष्टर देल नीक। पूजा कयल विहित जे थीक॥
प्रिय आतिथ्य कन्द फल मूल। कहल आइ दिन अति अनुकूल॥
एतय बहुत दिन तप जे कयल। पुण्यकर्म जे जे अछि धयल॥
अपनैँ विषय समर्प्पण भेल। दुर्ल्लभ दर्शन अपनैँ देल॥
फल – विरक्त हम पायब मुक्ति। एक कहक थिक वचन सुयुक्ति॥
सकल – हृदय – गृह नव घनश्याम। सरसिज – लोचन – रघुवर राम॥
चोराम्बर धर जटा – कलाप। सानुज श्रीपति हरु सन्ताप॥
चिता चढ़ल योगीश्वर बाज। हे रघुनन्दन देखू आज॥
देह दग्ध कय हम ब्रह्मत्व। जाइत छी अपनैँ क समक्ष॥
।दोहा।
बाम अङ्गमे जानकी, घन सपला समतूल।
पुरी-अयोध्या-पति रहथु, हृदय सदा अनुकूल॥
मुनि पुन आगि पजारिकेँ, कयलनि दग्ध शरीर।
दिव्य-देह लोकेश – पद, गेला कहि रघुवीर॥
।चौपाइ।
कत मुनिवर आयल तहिठाम। सभकाँ तिनु जन कयल प्रणाम॥
आशिष दय कहलनि प्रभु वेश। अयलहुँ छूटल मुनिक कलेश॥
मुनि शरभङ्गक देखल प्रयाण। प्रभुसौँ सबहिक हो कल्याण॥
टहलि घूमि वन देखल जाय। होयत ज्ञात घोर अन्याय॥
अस्थि कपाल पड़ल छल ढेर। राम पुछल की विषय अन्धेर॥
मुनि कह मृत मुनि लोकक हाड़। हिनका खयलक राक्षस राड़॥
करुणासौँ परिपूरित आँखि। श्री रघुनन्दन उठला भाखि॥
कयल प्रतिज्ञा प्रभु विख्यात। कयलक अछि जे जे उतपात॥
सभ राक्षसक करब संहार। विजय सुयश त्रिभुवन विस्तार॥
मुनिजन चिन्ता करु जनु आब। कि कहब अड़ड़ा लागल नाब॥
नाम सुतीक्ष्ण अगस्तिक शिष्य। शुचि संयम आहार हविष्य॥
रामक मन्त्रोपासक एक। भक्ति अनन्य धन्य सविवेक॥
तनिकर आश्रम गेला राम। सभ ऋतु कयल जतय विसराम॥
शुनल सुतीक्ष्ण अबै छथि राम। विधिवत पूजन कयल प्रणाम॥
मन्त्रोपासक भक्त सिनेह। अपनहि अयलहुँ हमरा गेह॥
विश्व – अगोचर देखल नयन। सकल लोक मानस-गृह शयन॥
अपनेक मन्त्र-विमुख – मति जैह। माया-मोहित होईछ सैह॥
जल-गत दिनकर-बिम्ब समान। मायामोहित जन – मन – धाम॥
विभु अपूर्व्व देखल से रूप। माया – मानुष सुन्दर भूप॥
कोटि – काम-छवि अति कमनीय। चाप बाण धरइत रमणीय॥
दया-सरस सुन्दर मुख – हास। हरथु हमर रघुवर भव – त्रास॥
अमल अजिन पट सीतासङ्ग। सेवक लक्ष्मण प्रीति अभङ्ग॥
गुणानन्त नीलोत्पल – कान्ति। वीर – धुरन्धर मानस – शान्ति॥
ब्रह्म राम चिद्घन कह वेद। बसथि मुनिक मन अति निर्व्वेद॥
देखल जे हम रूप समक्ष। हृदय बसथु से प्रभु परतक्ष॥
मुनिक विनय शुनि कहलनि राम। वचन कहैछी हम अभिराम॥
हमरा मन्त्रोपासक भक्त। हमरहि विषय सतत अनुरक्त॥
हमरा दर्शन सौँ हो मुक्त। भक्ति – भावना सौँ संयुक्त॥
दर्शन हमर न दुर्ल्लभ ताहि। दिअ तनिका हम सत्य निबाहि॥
कहलनि राम नयन – जलजाभ। होयत हमर सायुज्यक लाभ॥
गुरु अगस्ति मुनि नाथ अहाँक। शिष्य तपस्वी वृद्ध जहाँक॥
किछु दिन ततय रहब हम जाय। तकर बाट अँह देब देखाय॥
भेल बहुत दिन हमहूँ जयब। गुरुदर्शन कय पुनि एत अयब॥
प्रात भेल प्रभु कहि चललाह। सीता लक्ष्मण सङ्ग छलाह॥
मुनि अगस्ति कैँ छोटका भाय। मुनि सुतीक्ष्ण सभ देल देखाय॥
।इति।
हरिः हरः!!