स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
ज्ञान कर्म संन्यास योग (कर्म, अकर्म आ विकर्म केर निरुपण) – भाग ३
गीताक चारिम अध्याय केँ ‘ज्ञान कर्म संन्यास योग – कर्म, अकर्म आ विकर्म केर निरुपण’ शीर्षक मे विद्वान् लोकनि प्रस्तुत कयलनि अछि।
विगत किछु समय सँ बेर-बेर एहि अध्यायक अध्ययन करैत एकरा अलग-अलग टुकड़ा मे प्रस्तुत करबाक निर्णय कयल अछि। एक्के पोस्ट मे पूरा अध्याय कठिन अछि।
एकर पहिल भाग आ दोसर भाग पहिने प्रकाशित कय चुकल छी। (देखू – मैथिली जिन्दाबाद परः मोक्ष दुर्लभ नहि छैक जँ एतबे बात बुझि जाय तँ – लिंकः https://maithilijindabaad.com/?p=21969, https://maithilijindabaad.com/?p=21994 )
एहि प्रकाशित लेख मे एतेक बात आबि गेल छल जे चारि वर्णक सृष्टि मे मुक्तगामी बनि कर्म-बन्धन सँ मुक्त हेबाक इच्छा रखनिहार भगवानक दिव्य प्रकृति केँ बुझिकय कर्तव्य-कर्म कइयो कय मोक्षक प्राप्ति कयलक, तेँ हम सब ओहने मुक्तलोकक अनुसरण कय केँ अपन कर्तव्यक पालन करी। फेर यज्ञक विभिन्न रूप कर्म सँ तुलना कय कर्त्ताभाव मे आत्मा आ फेर आत्मा सँ इतर प्रकृति (परमात्मा) केँ बुझि अपन कर्तव्य-कर्मपथ पर अग्रसर रहबाक सूत्र आ जीवन मे सब किछु ब्रह्म केँ अर्पण कय रहल छी केवल यैह टा भाव राखि यज्ञ करैत यानि कर्म करैत बढैत रहब त बन्धन नहि होयत आ अहाँ मुक्तजीव (जिबिते मोक्षप्राप्त जीव) रूप मे अपन जीवन सफल करब, से व्याख्या कयने छथि। आब आउ, आगू ध्यान दी।
ज्ञान योगक निरूपण आ मोक्षक उपाय
(ज्ञान की महिमा)
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥४-३३॥
“धन-सम्पदाक द्वारा कयय जायवला यज्ञक अपेक्षा ज्ञान-यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ अछि तथा सब तरहक कर्म ब्रह्म-ज्ञान मे पूर्ण-रूप सँ समाप्त भ’ जाइत अछि।”
ई सूत्र कहिकय भगवान् अपन प्रियपात्र अर्जुन सँ ज्ञान प्राप्तिक स्रोत ‘गुरु’ कहि कि कहैत छथि ताहि पर खुब नीक सँ ध्यान दियौक, ज्ञान एहिना प्राप्त नहि भ’ सकैत अछि जाबत योग्य गुरु सँ समुचित शिक्षा ग्रहण नहि करब। गुरु सँ सत्संग कयला सँ हमरा सभक अज्ञानता दूर होइत अछि आ मन-मस्तिष्क मे ज्ञानक ज्योति पूर्ण प्रकाशमान् भ’ जाइत अछि। आउ देखी भगवान् कृष्ण कि सब कहलनि अछि –
“यज्ञ केर ओहि ज्ञान केँ अहाँ गुरु लग जा कय बुझबाक प्रयत्न करू। हुनका प्रति पूर्ण-रूप सँ शरणागत भ’ कय, सेवा कय केँ, विनीत-भाव सँ जिज्ञासा कयला पर ओ तत्वदर्शी ब्रह्म-ज्ञानी महात्मा अहाँ केँ ओहि तत्व-ज्ञान केर उपदेश करता। से तत्व-ज्ञान केँ जानि कय फेर अहाँ कहियो एहि प्रकारक मोह (जे अर्जुन युद्ध कर्म नहि करबाक चाही ताहि अबस्था मे चलि गेल छलाह) केँ प्राप्त नहि होयब आ एहि जानकारी द्वारा आचरण कय केँ अहाँ सब प्राणी मे अपनहि आत्माक प्रसार देखिकय हम परमात्मा मे प्रवेश पाबि सकब। यदि अहाँ सब पापियहु सँ बेसी पाप करयवला छी, तैयो अहाँ हमर ज्ञानरूपी नौका द्वारा निश्चित रूप सँ सब प्रकारक पाप सब सँ छूटिकय संसार-रूपी दुःखक सागर केँ पार कय जायब। जाहि तरहें आइग जारैन (ईंधन) केँ जराकय भस्म कय दैत अछि, तहिना ई ज्ञान-रूपी अग्नि सब सांसारिक कर्म-फल सब केँ जराकय भस्म कय दैत अछि। एहि संसार मे ज्ञानक समान पवित्र करयवला निःसंदेह किछुओ नहि अछि, एहि ज्ञान केँ अहाँ स्वयं अपन हृदय मे योग केर पूर्णताक समय अपनहिं आत्मा मे अनुभव करब।”
एतेक कहि भगवान् कृष्ण अर्जुन सँ ज्ञान प्राप्तिक न्यूनतम् योग्यताक वर्णन करैत कहलनि अछि –
“जे मनुष्य पूर्ण श्रद्धावान अछि आर जे इन्द्रिय केँ वश मे कय लेने अछि, वैह मनुष्य दिव्य-ज्ञान केँ प्राप्त भ’ कय ओ तत्क्षण भगवतप्राप्तिरूपी परमशान्ति केँ प्राप्त भ’ जाइत अछि। जाहि मनुष्य केँ शास्त्रक ज्ञान नहि छैक, शास्त्र पर श्रद्धा नहि छैक आर शास्त्रो सब केँ शंकाक दृष्टि सँ देखैत अछि ओ मनुष्य निश्चित रूप सँ भ्रष्ट भ’ जाइत अछि, एहि तरहें भ्रष्ट भेल संशयग्रस्त मनुष्य नहि तँ एहि जीवन मे आ नहिये ऐगले जीवन मे सुख केँ प्राप्त होइत अछि। जे मनुष्य अपन समस्त कर्म केर फल केँ त्याग कय देलक आ जेकर दिव्य-ज्ञान द्वारा समस्त संशय मेटा गेलैक, एहेन आत्मपरायण मनुष्य केँ कर्म कहियो नहि बान्हैत छैक।”
आर, एकर बाद अन्त मे श्रीकृष्णक निर्देशन वाक्य अछिः
तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः ।
छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥४-४२॥
“अत: हे भरतवंशी अर्जुन! अहाँ अपन हृदय मे स्थित एहि अज्ञान सँ उत्पन्न अपन संशय केँ ज्ञानरूपी शस्त्र सँ काटू, आर योग मे स्थित भ’ कय युद्ध लेल ठाढ़ भ’ जाउ।”
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे दिव्यज्ञानयोगो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥
एहि तरहें उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद्भगवद्गीता केर श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद मे दिव्यज्ञान-योग नामक चारिम अध्याय संपूर्ण भेल॥
हरिः हरः!!