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मिथिलाभाषा रामायण – अयोध्याकाण्ड अध्याय ७

मिथिलाभाषा रामायण

(कविचन्द्र विरचित मिथिला भाषा रामायण)

अयोध्याकाण्ड – अध्याय ७

।चौपाइ।

मुनि वसिष्ठ मंत्री-गण सहित। नृपतिक सभा गेला नृप-रहित॥
सुरपति-सभा समान विराज। अतिशय शोभित विबुध समाज॥
ब्रह्मा सन आसन – आसीन। धर्म्म-कर्म्म-रत धर्म्म-धुरीण॥
भरतहु काँ तत लेल बजाय। देश काल विधि कहल बुझाय॥
भरत सुमति शुनु कहल वसिष्ठ। कर्म्म शुभाशुभ काल बलिष्ठ॥
अहाँ महाशय महि सविवेक। करब अहाँक राज्य – अभिषेक॥
केकयि – कहल रहल सिद्धान्त। कहि गेला छल भूप नितान्त॥
राजा राज्य करिय स्वीकार। सभ लोकक अछि सत्य विचार॥
भरत कहल शुनु शुनु ई राज। हमरा नहि सपनहुँ मे काज॥
हम किङ्कर राजा श्रीराम। अनुचित नृपति बनब एहि ठाम॥
नृपवर किङ्कर नृपति भिषारि। सन्मार्गक जनु टूटल आरि॥
सत्य कहैछी भुजा उठाय। हम नहि करब राज्य अन्याय॥
केकयि-सुत बुझि जे जे कहब। हम अपराधी से से सहब॥
लय अनितहु सत्वर तरुआरि। मन हो केकयि दीतहुँ मारि॥
पतित मातृहा शुनि रघुनाथ। परश हमर नहि करता हाथ॥
आनव तिनु जनकाँ घर फेरि। जायब जङ्गल प्रात सबेरि॥
जटिल वेष धरणीमे शयन। व्रतनिधि देखब पंकजनयन॥
जे विधि बनि वन बड़का भाय। गेला तेहिं गत हमहूँ जाय॥
पयरहि चलब वनो व्यवहार। कन्द मूल फल प्राणाधार॥
वन शत्रुघ्न सेहो चलताह। भवन सविघ्न वृथा रहताह॥
चलु चलु गुरु तत होयब सहाय। अयबे करता बड़का भाय॥
कहि चुप रहला जखना भरत। सभ्य सकल कह एहन के करत॥
साधु कहल सज्जन-समुदाय। रघुनन्दन काँ समुचित भाय॥
बड़ गोट मनमे छल अछि त्रास। भरत पुरत सबहिक मन आस॥

।दोबय छन्द।

सगर नगरमे बाजल डङ्का, भरत न राजा हयता।
आनय हेतु राम नृप – वरकाँ पयरहि सोनुज जयता॥
सेना सम तैयार चलै सङ्ग साजल घोड़ा हाथी।
गुरु वसिष्ठ द्विज-गण महरानी, कौशल्यादिक जाथी॥
चढ़लि लालकी केकयि रानी, सुमरि सुमरि निज करणी।
जाइ पताल तेहन हो लज्जा, फाटि जाथि जौं धरणी॥
हा विधि गुणनिधि पुत्र पुतोहुक, कयल दुर्दशा भारी।
रघुनन्दन लक्ष्मण की कहता, कि कहति जनक-दुलारी॥

।दोहा।

गजरथ गोरथ तरगरथ, शिविका सैन्य-समूह।
गुहो शुनलनि भरतागमन, मन मन कर किछु ऊह॥
जौँ हम देखब राज्य-मद, तौँ न उतारब पार।
रामक कारण कण्ठ दय, समर करब अनिवार॥

।चौपाइ।

शृंगवेरपुर दल विशराम। छल छथि जेहि थल लक्ष्मण राम॥
गुहजन यदपि निषादक जाति। साँठल भारहि भार उपाति॥
कन्द मूल फल लागल ढेर। आगाँ राखल मिलइक बेर॥
भरत स्वरूप देखल गुह जखन। संशय मनक मेटायल तखन॥
चीराम्बर धर श्याम-शरीर। जटा-मुकुट धर जनु रघुवरी॥
लेश न मन मे राजस रोच। राम राम रट मन बड़ शोच॥
सीता लक्ष्मण नाम उचार। अकपट निकट देखल व्यवहार॥
गुरु वसिष्ठ मन्त्री मिलि सङ्ग। संस्थित सानुज राम रङ्ग॥
कयल प्रणाम कहल गुह नाम। भरत हमर अछि निकटहि गाम॥
गुह अहँ थिकहुँ कहैत उठि जाय। लेल भरत झट हृदय लगाय॥
कुशल क्षेम अछि पुछल अनेक। मित्र अहाँकाँ विसद विवेक॥
रामचन्द्र परमेश अनन्य। तनिसौँ मिललहुँ अहँ अतिधन्य॥
रघुनन्दन सौँ वार्त्तालाप। गुह अहँ नियत भेलहुँ निष्पाप॥
सीता सहित छला जत राम। मित्र शीघ्र चलु लय से ठाम॥
नयन सजल थल देखितहि जाय। शयन कयल जत घास ओछाय॥
सीताभरणक कनकक विन्दु। कहुँ कहु खण्ड खसल जनु इन्दु॥
मन अति दुखित तखन भेल भरत। कह विधि विपति हमर कोना टरत॥
अति सुकुमारि कुशासन शयन। मन बड़ व्याकुल देखइत नयन॥
हमर निमित्त राम काँ कष्ट। केकयि-सुत बनि भेलहुँ नष्ट॥
धन्य सुमित्रा लक्ष्मण धन्य। जनि काँ अछि रामक सौजन्य॥
रामक सङ्ग सुयश सभ ठाम। भल के कहता केकयि नाम॥
हम रामक दासक जे दास। तनिको दास एक मन आश॥
छथि प्रभु कतय अहाँ काँ ज्ञात। मित्र कहू हम चलब प्रभात॥
हमरे कारण सभक किछु दोष। रघुनन्दन मन तदपि न रोष॥
घुरि घर चलता कहबनि कानि। होयत न हमर मनोरथ हानि॥
रघुपति-भक्त भरत अहँ धन्य। सकल – लोक – सम्मानित गण्य॥
एहन न भक्ति शुनल छल कान। अपनैँ काँ देखि भेलि प्रमान॥

।दोहा।

चित्रकूट मन्दाकिनी, निकट कुटी निर्म्माय।
सानुज सीताराम छथि, कहब देब पहुचाय॥

भरत कहल सुरसरिता तरिय। मित्र उपाय तेहन अहँ करिय॥
गुह कह भरत विलम्ब न आब। कयलहुँ वृत्त पाँच शय नाव॥
राज – नाव एक अपनहि खेबि। गुह आनल सभसौँ भल टेबि॥
कौशल्यादिक सानुज भरत। गुरु वसिष्ठ एहिसौँ सन्तरत॥
सकल सैन्य गुण उतरल पार। घोड़ा हाथी भरिया भार॥
उठइत चलइत पथ विश्राम। कहल सकल जन सीताराम॥

।दोहा।

भरद्वाज – आश्रम निकट, सभ कयलनि विश्राम।
गेला सानुज भरत तत, मुनि-पद कयल प्रणाम॥

।चौपाइ।

मुनिकैँ केकयि-तनय चिन्हार। कुशल क्षेम पुछलनि व्यवहार॥
कहु कहु भरत अहाँ महराज। आयलछी की मुनिक समाज॥
की अहँ जटा बनाओल केश। हँसी करत जे देखत देश॥
रामक सन वलकल की धयल। भूपति भय अति अनुचित कयल॥
कन्द मूल फल निःफल खाइ। जङ्गल जङ्गल जनु बौआइ॥
भरत अहाँ घुरिकेँ घर जाउ। बड़ गोट राज्यक सुखकेँ पाउ॥

।सोरठा।

सभ अपनैँ काँ ज्ञात, कृपा करिय कारुणिक मुनि।
कहि नहि होइछ तात, सजल-नयन कहलनि भरत॥

।चौपाइ।

कयल राम-राज्यक अविघात। केकयि से हमरा नहि ज्ञात॥
मुनि हम छलछी मामक ग्राम। वन अयला सानुज श्रीराम॥
कहइतछी छुबि अपनैँक चरण। हमरा नहि कलहक आचरण॥
ई कहि मुनिपद छुइलनि जाय। अपनैँ सौँ मन कि रह नुकाय॥
जनइत छी हम पाप अपाप। अनुचित कयलनि माता बाप॥
हमरा नहि राज्यक अधिकार। प्रभु-पद-किङ्कर एहन विचार॥
रामचन्द्र-पद मन आरोपि। राज्य-भार हुनकहि देव सोपि॥
हमरा मनमे मुनि दृढ टेक। रामक करब एतहि अभिषेक॥
छथि गुरुजन पुरजन समुदाय। सङ्ग नगर कर्त्तव्य सहाय॥
प्रभुकाँ अपन नगर लय जयब। तनि चरणक किङ्कर हम हयब॥
मुनि कह साधु साधु अहाँ भरत। अपथ कि अहँक हृदय सञ्चरत॥
रघुनन्दनक अहाँ महाभक्त। सौमित्रिहुँ सौँ मन अनुरक्त॥
हम आतिथ्य करब किछु आइ। बाबू भरत आइ जनु जाइ॥
ज्ञान-नयनसौँ सभ अछि ज्ञात। कयल अमर – गण सभ उतपात॥
स्मरण कयल मुनि भारद्वाज। कामधेनु करु समुचित काज॥
आयल छथि पाहुन बड़ गोट। भोज्य वस्तु वर्षण हो ओट॥
एकर मर्म्म आन नहि जान। दिव्य वस्तु भोजन विधि पान॥
कामधेनु – कृत सभ सम्पन्न। जनिकाँ जेहन तेहन तत अन्न॥
मुनिक पठाओल दिव्य उपाति। सुखसौँ सभ जन खयलनि राति॥
कयल वसिष्ठक मुनि सत्कार। तखन भरत – वग्गक व्यवहार॥
कयल भरत उठि मुनिक प्रणाम। सुखसौँ एतय कयल विशराम॥
भोर भेल आज्ञा देल जाय। सभ जन चलब महेश मनाय॥
भरद्वाज मुनि कहलनि जाउ। रघुनन्दन सौँ दर्शन पाउ॥

।दोवय छन्दः।

सानुज भरत सुमन्त सङ्ग मे, गुह निषाद अनुरागी।
चित्रकूट पर्व्वत तट गेला, जतय बहुत मुनि त्यागी॥
सैन्य सकल गिरि नीचहि राखल, कयलनि भरत पुछारी।
बासा कतय कयल रघुनन्दन, लक्ष्मण जनक – दुलारी॥
आम सफल भल भल फल कटहर, केरा घौड़िहि पाकल।
कोविदार चम्पा बकुलादिक, बहुत जतय जे ताकल॥
मन्दाकिनी गङ्गासौँ उत्तर, गिरिसौँ पश्चिम आशा।
सीता सहित सलक्ष्मण रामक, श्रीधर सुन्दर बासा॥

।सोरठा।

मुनिजन देल देखाय, श्रीरघुनन्दन‍-वन-भवन।
भरत चलल अगुआय, बहुत हर्ष उत्कर्ष मन॥
मुनिजन – सेवित धाम, तरु लटकल बलकल अजिन।
राम-भवन अभिराम, सानुज देखल दूरसौँ॥

हरिः हरः!!

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