मोक्ष दुर्लभ नहि छैक जँ एतबे बात बुझि जाय तँ – भाग १

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

ज्ञान कर्म संन्यास योग (कर्म, अकर्म आ विकर्म केर निरुपण) – भाग १

(गीताक चारिम अध्याय पर आधारित स्वाध्याय आलेख)

– प्रवीण नारायण चौधरी

गीताक चारिम अध्याय केँ ‘ज्ञान कर्म संन्यास योग – कर्म, अकर्म आ विकर्म केर निरुपण’ शीर्षक मे विद्वान् लोकनि प्रस्तुत कयलनि अछि। विगत किछु समय सँ बेर-बेर एहि अध्यायक अध्ययन करैत एकरा अलग-अलग टुकड़ा मे प्रस्तुत करबाक निर्णय कयल अछि। एक्के पोस्ट मे पूरा अध्याय कठिन अछि। आउ आरम्भ करी –

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्‌ ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्‌ ॥
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्‌ ॥

श्री भगवान कहलखिन – हम ई अविनाशी योग-विधाक उपदेश सृष्टिक आरम्भ मे विवस्वान (सूर्य देव) केँ देने छलहुँ, विवस्वान से उपदेश अपन पुत्र मनुष्य सभक जन्म-दाता मनु केँ देलनि आर मनु ई उपदेश अपन पुत्र राजा इक्ष्वाकु केँ देलखिन। एहि तरहें गुरु-शिष्य परम्परा सँ प्राप्त ई विज्ञानसहित ज्ञान केँ राज-ऋषि लोकनि विधिपूर्वक बुझलन्हि, मुदा समयक प्रभाव सँ ओ परम-श्रेष्ठ विज्ञान सहित ज्ञान एहि संसार सँ प्राय: छिन्न-भिन्न भ’ कय नष्ट भ’ गेल। आइ हमरा द्वारा वएह प्राचीन योग (आत्माक परमात्मा सँ मिलनक विज्ञान) अहाँ केँ कहल जा रहल अछि, कियैक तँ अहाँ हमर भक्त आ प्रिय मित्र सेहो छी। तेँ अहीं एहि उत्तम रहस्य केँ बुझि सकैत छी।

ई बात सुनिकय अर्जुन एक साधारण मनुष्यक भाँति भगवान् श्रीकृष्ण केर एहि उक्ति सँ आरो विस्मय मे पड़ि गेलाह। हुनकर मोन मे फेर सँ एकटा दुविधा आबि गेलनि। ओ सोचय लगलाह जे विवस्वान, मनु, इक्ष्वाकु आदि तँ बहुत पहिनहि भ’ चुकल छथि, फेर ई कहि रहला हँ जे ‘हम ई अविनाशी योग-विधाक उपदेश सृष्टिक आरम्भ मे विवस्वान केँ देने रहियनि’, ई केना सम्भव छैक?

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥

ओ कहैत छथिन – सूर्य देव केर जन्म तँ सृष्टिक प्रारम्भ मे भेलनि आर अपनेक जन्म तँ आब भेल हँ, तखन फेर हम केना बुझू जे सृष्टिक आरम्भ मे अपनहिये एहि योग केर उपदेश देने रहियनि?

भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुनक एहि दुविधाक स्थिति केँ सेहो बड़ा ढंग सँ समाधान कयलनि। ओ एहि बात केँ स्पष्ट कयलनि जे –

“हमर-अहाँक जन्म बहुतो बेर पहिनहुँ भ’ चुकल अछि। हमरा त सबटा जन्मक याद बनले अछि, अहाँ (अर्जुन, यानि हम सब सामान्यजन) केँ किछुओ याद नहि अछि। जखन कि हम अजन्मा आ अविनाशी समस्त जीवात्माक परमेश्वर (स्वामी) होइतो अपन अपरा-प्रकृति (महा-माया) केँ अधीन कय केँ अपन परा-प्रकृति (योग-माया) सँ प्रकट होइत छी। जखनहिं आ जेतय कतहु धर्मक हानि होइछ आ अधर्मक वृद्धि होइछ, तखनहिं हम अपन स्वरूप केँ प्रकट करैत छी। भक्त सभक उद्धार करबाक लेल, दुष्ट सब केँ सम्पूर्ण विनाश करबाक लेल तथा धर्म केँ फेर सँ स्थापना करबाक लेल हम प्रत्येक युग मे प्रकट होइत छी। हमर जन्म आ कर्म दिव्य (अलौकिक) अछि। एहि प्रकार सँ जे कियो वास्तविक स्वरूप सँ हमरा जनैत अछि, ओ शरीर केँ त्यागिकय एहि संसार मे फेर सँ जन्म केँ प्राप्त नहि होइछ, बल्कि हमरा यानि हमर सनातन धाम केँ प्राप्त भ’ जाइत अछि।”

गौर कयने हेबय – सर्वसमर्थ श्रीकृष्ण अर्जुन केँ भक्त मानि बहुत पैघ तत्त्वज्ञानक उपदेश देबाक बात कहलखिन। लेकिन मोन खिन्न रहबाक कारणे ओ सहर्ष ओहि तत्त्व केँ स्वीकार करबाक तत्परता देखेबाक बदला अपनहि खिन्नताक पक्ष मे उल्टे भगवान् सँ पुछि बैसलाह जे सृष्टि कहिया आरम्भ भेल, अहाँ आइ भेलहुँ अछि… तखन हम केना मानि लिय’ जे ओ अविनाशी योग-विधाक उपदेश अपने विवस्वान केँ देने रहियनि।

एतय बड़ा आनन्दक स्थिति छैक हमरा सब जेहेन चिन्तन-मनन करनिहार लेल। हमरा सभक वास्ते कियो अमृत दय लेल तैयार छथिन, मुदा हम सब अमृत लेबाक बदला मे अपनहि मोनक अबस्था मे डुबकी लगबैत ओहि अमृतक महत्ता तक केँ दरकिनार कय दैत छियैक। याद रहय, भक्तवत्सल भगवान् सदिखन दया आ माया बरसाबैत रहैत छथि, लेकिन हम सब ओहि दया-माया सँ विमुख रहि अपनहि मोनक भाव मे ओझरायब पसिन करैत छी। अर्जुन बिल्कुल हमरा सब जेहेन सामान्यजनक प्रतिनिधित्व कय रहला अछि। ध्यान मे राखि भक्तवत्सल भगवानक वात्सल्यता देखू। ओ स्पष्ट कय देलनि जे जन्मक प्रक्रिया निरन्तरता मे अछि, ई बेर-बेर भ’ रहल अछि, अविनाशी तत्त्व आ समस्त सृष्टिक रचयिता परमात्मा अपन अपरा-प्रकृति (महामाया) केँ अधीन कय परा-प्रकृति (योगमाया) सँ प्रकट होइत छथि, हम जीवात्मा कर्म-बन्धनक कारण अपरा-परा प्रकृतिक नियम मे बान्हल रहबाक कारणे बेर-बेर जन्म लैत छी, याद किछुओ नहि रहि जाइछ, आ ई बन्धनक भोग भोगैत रहबाक आ फेर नव-नव कर्म सँ आर बन्धन सब बढ़बैत रहबाक मायाजाल मे ओझरायल छी। मुक्तिक मार्ग सेहो भगवान् लगले हाथ देलनि। की? ओ कहि देलनि जे हमर वास्तविक स्वरूप केँ जानि लैछ से फेर एहि संसार केँ नहि अपितु हमर सनातन धाम केँ प्राप्त भ’ जाइत अछि। आ फेर कि कहलनि ताहि पर गम्भीरतापूर्वक ध्यान दियौ आ तदनुसार सब कियो आचरण करू –

“आसक्ति, भय तथा क्रोध सँ सर्वथा मुक्त भ’ कय, अनन्य-भाव (शुद्ध भक्ति-भाव) सँ हमर शरणागत भ’ कय बहुतो लोक हमर एहि ज्ञान सँ पवित्र भ’ कय तप द्वारा हमरा अपनहि-भाव सँ हमर-भाव केँ प्राप्त कय चुकल अछि। जे मनुष्य जाहि भाव सँ हमर शरण ग्रहण करैत अछि, हमहुँ ताहि भावक अनुरुपे ओकरा फल दैत छियैक।”

एकर अतिरिक्त आर स्पष्ट करैत भगवान् कहलनि अछि –

“प्रत्येक मनुष्य सब तरहें हमरहि बाट केर अनुगमन करैत अछि। एहि संसार मे मनुष्य फलक इच्छा सँ (सकाम-कर्म) यज्ञ करैत अछि आर फलक प्राप्तिक लेल ओ देवता सभक पूजा करैत अछि, ओहि मनुष्य केँ ओहि कर्म सभक फल एहि संसार मे निश्चित रूप सँ शीघ्रहि प्राप्त भ’ जाइत छैक।”

सृष्टिक निर्माण मे चारि प्रमुख वर्ग (वर्ण) जे प्रकृति-प्रदत्त अछि, तेकरो स्पष्ट करैत भगवान् कि कहलनि सेहो खुबे ध्यान सँ मनन करियौक –

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्‌ ॥

“प्रकृति केर तीन गुण (सत, रज, तम) केर आधार पर कर्म केँ चारि विभाग (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आ शूद्र) मे हमरहि द्वारा रचल गेल अछि, एहि तरहें मानव समाज केर कहियो नहि बदलयवला व्यवस्थाक कर्त्ता भेलो पर अहाँ हमरा अकर्त्ते बुझब।कर्म केर फल मे हमर आसक्ति नहि हेबाक कारण कर्म हमरा लेल बन्धन उत्पन्न नहि कय पबैत अछि। एहि तरहें जे हमरा जानि लैत अछि, ओहि मनुष्यहुक कर्म ओकरा लेल कहियो बन्धन उत्पन्न नहि करैत छैक। पूर्व समय मे सेहो सब प्रकारक कर्म-बन्धन सँ मुक्त हेबाक इच्छा रखनिहार लोक हमर एहि दिव्य प्रकृति केँ बुझिकय कर्तव्य-कर्म कइयो कय मोक्षक प्राप्ति कयलक, ताहि लेल अहाँ ओहने मुक्त लोक सभक अनुसरण कय केँ अपन कर्तव्य केर पालन करू।”

भाग-१ केँ विराम। भाग-२ क्रमशः आगू…..

हरिः हरः!!