मिथिलाभाषा रामायण – अयोध्याकाण्डः पाँचम अध्याय

स्वाध्याय पाठ

कविचन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण 

अयोध्याकाण्ड – पाँचम अध्याय

।चौपाइ।

।राग-तरङ्गिणी-ग्रन्थानुसारेण मंगलराज-विजय छन्दः।

केकयि कयल कुठाठ कठोर। गुपचुप रहल न भय गेल सोर॥
केकयि – कृत शुनि शुनि उतपात। कह पुरजन बड़ कयलक घात॥
देति राम काँ विपिन पठाय। देखल न एहन कसाइनि माय॥
कतहु कि केओ कहल भल लोक। शुनितहिँ सभकाँ होइछ शोक॥
ककरा नयन बहय नहि नोर। धिक धिक जीवन केकयि तोर॥
मूढि मन्थरा कहलक जैह। महरानी भय मानल सैह॥
बसय योग्य नहि ई थिक देश। जतय रहल नहि नीतिक लेश॥
वनिता – कारण सुत वनवास। कतगोट दशरथ नृपकाँ हास॥
चलु चलु सभ जन रामक सङ्ग। राजा रानीक जानल रङ्ग॥
वर दुख गौरव रौरव जाइ। एहन समाज बसिअ नहि भाइ॥
पयरहि चलती जनक – कुमारि। अति सुकुमारि स्वकीया नारि॥
आब रहल नहि ककरो शक्क। केकयि डाकिनि दशरथ ठक्क॥
की सुख मे भेल आनक आन। विधिगति अछि सभ सौँ बलवान॥
पशु पक्षी तृण भक्ष्य न खाय। लता वृक्ष सभ गेल सुखाय॥
केकयि-हृदय अशनि सन थीक। कयलक ककरो ई नहि नीक॥
यमराजा सौँ कहथि मनाय। एखनहि जौँ केकयि मरि जाय॥
पूजा करब लेब नित नाम। घर मे रहता सीता – राम॥
साधुवृन्द भेल व्याकुल – चित्त। वामदेव मुनि कहल निमित्त॥
शोच न करिअ धरिअ मन धीर। विष्णु अनादि थिकथि रघुवीर॥
लक्ष्मी माया जानकि जानु। वासुकि लक्ष्मणकाँ जिअ मानु॥
विधि हरि हर छथि त्रिगुण सरूप। कि कहब हिनकर चरित अनूप॥
प्रलय म धयल मत्स्य अवतार। वैवस्वत मनु पालन – हार॥
मथन समुद्र भेल जेहि बेरि। मन्दर गेल सुतलमे फेरि॥
कमठ-रूप बनि पर्व्वत धयल। उदधि सुरासुर मन्थन कयल॥
धरणी जखन रसातल जाय। शूकर – तन बनि लेल उठाय॥
फाड़ल कनककशिपु हठ वक्ष। विधि प्रभृतिक दुखहरण मे दक्ष॥
नारसिंह – तनु नख अति चोष। दुष्ट सहत के तनिकर रोष॥
वामन – तन बलि – छलनक काज। अदितिक अनुमति सुरपति – राज॥
परशुराम पुन एक अवतार। क्षत्रिय – क्षय-कर हर महि भार॥
रावणादि वध करता जैह। राम थिकथि परमेश्वर सैह॥
बड़ तप कयलनि दशरथ भूप। पुत्र – कामना देखल स्वरूप॥
सीता माया थिकि तनि सङ्ग। जे चाहथि से करथि तरङ्ग॥
लक्ष्मण रामक थिकथि सहाय। वन जयताह सङ्ग दुहु भाय॥
राजा – केकयि – कृत नहि दोष। कथिलय शोक हेतु की रोष॥
पूर्व्वहि दिन नारद कहि गेल। भूपहु काँ मति ईश्वर देल॥
रामचन्द्र कयलनि स्वीकार। चिन्ता त्यागिअ करिय विचार॥
नित्य रामजप निर्म्मल चित्त। रवि-सुत-भय नहि तनिक निमित्त॥
शुनु पुन कलिमे आन न युक्ति। राम राम रटलहिँ हो मुक्ति॥
काल जनिक डर थर थर काँप। दुख शङ्कर की तनिका व्याप॥
मुनि गेल अनत बुझल सभ लोक। किछु किछु छूटल मानस शोक॥
भूपक निकट मुदित सुखधाम। अविकल कहल जाय श्रीराम॥

।दोहा।

लक्ष्मण सीता सहित हम, अयलहुँ केकयि माय।
नृप-आज्ञा सुनि लेब किछु, अपनैक साध्य उपाय॥
पिता वृद्ध सौजन्यमय, सत्य – प्रतिज्ञ उदार।
वन-गमनेँ अयलहुँ निकट, सह – लक्ष्मण सह-दार॥

।गीतछन्दस्तु मिथिलासंगीतानुसारेण धनछी मालवीयम्।

(१)

पिता रहु हमरा उपर दयाल।
सीता लक्ष्मण सहित विपिन हम जाइत छी यहि काल।
परिहरु शोक शरीर वृद्ध अछि कम्म लिखल फल भाल।
प्रजा-दुःख सभ भरत हरत नित कि कहत जन वाचाल।
कन्द मूल फल वन बसि खायब ओढ़ब हम मृगछाल।
गुरु गारुड़िक मन्त्र जनइत छी वाधा करत न व्याल।
वन जायक हमरा भेल आज्ञा दुइ हठि आगत हाल।
हाहा रामचन्द्र नृप कहलनि मनमे आधि विशाल।

(२)

चरणमे जानकि गेलि लपटाय।
गुरु सङ्कोच शोच बड़ भारी, कहलनि किछु न लजाय॥
कहलनि लक्ष्मण थिकथि जनकजा केकयि दुर्ग्रह पाय।
बड़ हठ ठानल कहल न मानल कि करथु बड़का भाय॥
नव – पल्लव पङ्कज-दल सन पद, शिरिस सुमन मृदु काय।
से पुन पयरहि कानन जायती, कि कहब केकयि माय॥
दशरथ कहलनि हम बड़ पापी, कयल कठिन अन्याय।
हाय सकल सुख नाशि बैसलहुँ, शोक – समुद्र समाय॥

।चौपाइ।

।मैथिललोचनशम्म – सङ्गीतानुसारेण घनछी-पञ्चस्वरा छन्दः।

शुनि केकयि उठि सत्वर जाय। मुनिक चीर काँ लइलि उठाय॥
देलनि तिनुजनकाँ ओ चीर। प्रथमहि पहिरल श्रीरघुवीर॥
अपन वसन कयलनि परित्याग। कह केकयि हसि सुन्दर लाग॥
सीताकाँ मन उपगत लाज। पहिर न जानथि गुरुक समाज॥
धयल दुहूटा रामक हाथ। मुख देखलनि बुझलनि रघुनाथ॥
वसन राम राखल लपटाय। राजदार देखि भूमि लोटाय॥
गुरु वसिष्ठ काँ देखि न भेल। धिक धिक केकयि कुमति कि लेल॥
कालकूट सौँ किछु घट्टि। कि कहब भेलहुँ अहाँ निरहट्टि॥
एतय न भरत नृपक ई हाल। बाघिनि सनि अहाँ बनलहुँ काल॥
लक्ष्मण वीर ठाढ़ सन्नद्ध। डर नहि करता कचबाबद्ध॥
केकयि तखन कहल हसि फेरि। देल सनेहै चलइक बेरि॥
केकयीक की हृदय कठोर। कि हयत दुर्ग्गति आगाँ तोर॥
एक बेर रामचन्द्र वनवास। लक्ष्मण सीताकाँ की त्रास॥
देल कि सीताकाँ इ चीर। देखलय ककर जीव रह थीर॥
रामक सङ्ग पतिव्रत काज। जाइत छथि अहँकाँ नहि लाज॥
नैहर हिनकर तिरहुति थीक। कर्म्म हिनक सभटा अछि नीक॥
दिव्याम्बर वर गहना गात्र। पतिव्रता की दुःखक पात्र॥
नृप कह रथ सुमन्त लय आउ। रामचन्द्रकाँ विपिन देखाउ॥
कसि रथ आयल कहलनि राम। चढ़बे रथ पर बाहर गाम॥
देखल तिनु जन काँ नृप नयन। शोकवृद्ध नहि मन मे चयन॥
कयल प्रदक्षिण बापक राम। लक्ष्मण रखन तेहन तहिठाम॥
भूप – कोट सौँ बाहर जाय। रथ छल ठाढ़ देखल दुओ भाय॥
सिरिस – सुमन सन तन सुकुमारि। पुरि-परिसर मे जनक-दुलारि॥
चलि नहि शकथि कहथि से घूरि। दण्डक – वन प्रिय अछि कत दूरि॥
से शुनि रहल न करुण संभार। नयन-नीर प्रथमहि अवतार॥
रथपर चढ़लिह जनक – कुमारि। श्रीरघुवर – मुख – कमल निहारि॥
सभ जन सौँ कहि मन उत्साह। रामचन्द्र रथ पर चढ़लाह॥
लक्ष्मण रथ पर चढ़ला फानि। नगर सगर जन उठला कानि॥
रथ धय धनुष तीर तरुआरि। रथ सुमन्त हाँकल ललकारि॥
भूपति कहथि सुमन्त रहु ठाढ़। दुस्सह आधि बहुत मन बाढ़॥
चलु रथ हाँकि करिय जनु थीर। बारम्बार कहथि रघुवीर॥
ध्यान राम सुन्दर मुख चूमि। खसला दशरथ महि मे घूमि॥
सभ दिश बाहर अहँइक भास। हमर हृदयमे नियत निवास॥
वत्स विपिन जनु कयल पयान। सन्तापहि होइछ अनुमान॥
नृप काँ छूटल जीवन – आश। छन छन मूर्छा कान्ति हरास॥
भृत्य वृत्त छल लेलक उठाय। शोक वृद्ध कानथि शुशुआय॥
कष्टहि कहल नृपति सन्ताप। प्राण – पवन पिब शोकज – शाप॥
लै चल रामक जननी – धाम। मन कदाच पाओत विसराम॥
नहि चिर जीवन निश्चय भेल। मणिधर-फणि-मणि जनि छिनि लेल॥
तनि घर करइत नृपति प्रवेश। मुरछि खसल नहि संज्ञा – लेश॥
मूर्छा छुटलहुँ बाढ़ल आधि। नृप रहलाह मौनकाँ साधि॥
ओत रथ पहुँचल तमसा तीर। पड़ला उतरि ततय रघुवीर॥
ईश्वर – चरण – कमलमे ध्यान। निराहार जल – मात्रे पान॥
तरुतल सहित जानकी शयन। सुखसौँ कयलनि सरसिज – नयन॥
धृत – कर – शर – धनु ठाढ़ अनन्त। जागल पहरा देथि सुमन्त॥
दुख मन पुरजन सङ्गहि लागि। कह निज जनकाँ देल कि त्यागि॥
जत जायब तत पुरजन जोहि। लागल रहते नगर धरोहि॥
रघुनन्दन नहि छाड़ब चरण। अयलहुँ सभ मिलि अपनैक शरण॥
वन बसि रहब नगर नहि जयब। अपनै नृपतिक प्रजा कहयब॥
नगर अयोध्या सौँ की काज। सानुकूल संग सकल समाज॥
अन्न पानि परित्यागल लोक। डेरा कयलनि रोक न टोक॥
अर्द्धरात्रि मे मन्त्रि बजाय। कहल राम रथ आनु नुकाय॥
हठसौँ त्यागत लोक न सङ्ग। देखला जाइछ सभहिक रङ्ग॥
दौड़ितहि आयल छथि हठ टेक। कहलय फिरता नहि जन एक॥
भौकी काटि चलू चुपचाप। दुख पओता सङ्ग होयत पाप॥
बालक सभ घर भुखले छैक। वृद्ध – लोककेँ – अन्न के दैक॥
सीता ओ सानुज रघुवीर। रातिहि त्यागल तमसा – तीर॥
हाहा रामचन्द्र कहि भोर। कानथि पुरजन कय कय सोर॥
हा रघुनन्दन कयल कि लाथ। सोपि देल ओहि पापिनि हाथ॥
घुरि पुरि पुरिजन शञ्च गेलाह। शोकहिँ दुर्ब्बल बहुत भेलाह॥
देखइत जनपद सुन्दर भूमि। रथ पर सौँ तिनु जन घुमि घूमि॥
शृङ्गवेरपुर गङ्गातीर। रथ अटकाओल श्रीरघुवीर॥
ततय शिशुपा तरु भेटि गेल। तोहतर सुखसौँ बासा देल॥
गङ्गा – अर्च्चन स्नान विधान। कयल तिनू जन धर्म्म – निधान॥
रामागमन तहाँ गुह शुनल। उत्सव भाग्य अपन वर गुनल॥
मधु फल पुष्प कन्द कय भार। प्रभुक उपायन कयल विचार॥
भोर सकल देखल श्रीराम। उत्तम कहलनि प्रभु गुण-धाम॥
दुर बसि गुह कर दण्डप्रणाम। नयन सफल कर कह निज नाम॥
राम उठाय लेल भरि पाँज। हरष बहुत गुह किछु नहि बाज॥
राम कुशल पुछलनि कय बेरि। बद्धाञ्जलि गुह कहलनि फेरि॥
हम अति धन्य जन्म – फल पाय। अपनै मिललहुँ अङ्क लगाय॥
किङ्कर – किङ्कर जाति निषाद। घर प्रभुहिक थिक न करु विषाद॥
करु पवित्र प्रभु एतहुक गेह। बहिआ पर राखल थिक नेह॥
बहिआ कहिआ आओत काज। भागल जाय अपन थिक राज॥
ई फल मूल ग्रहण हो नाथ। लायलछी हम हयब सनाथ॥
कहल राम अहाँ भक्त पवित्र। अहँक राज्य हमर थिक मित्र॥
चौदह वर्ष नगर नहि जाइ। आनक देल वस्तु नहि खाइ॥
बटक दुग्ध दुहि सत्वर लाउ। हम मुनि – जन सन जटा बनाउ॥
बटक्षार लायल गुह – लोक। प्रभु – वर आज्ञा के जन रोक॥
लक्ष्मण राम कयल मुनि – वेष। गुह – समूह तहँ टक टक देख॥
घास पात कुश शयन बनाय। निज गृह शय्या सन सुख पाय॥
आहि रजना जल – मात्रे पान। शयन कयल दुख लेश न जान॥
सीता – सहित भवन निज जेहन। अति प्रसन्न मन ओतहु तेहन॥
लक्ष्मण गुह निज परिजन सङ्ग। कर शर – धनुष वीर-रस अङ्ग॥
यामिक काटबार बल – पूर। सावधान लक्ष्मण रण – शूर॥

॥इति अयोध्याकाण्ड अध्याय ५॥

हरिः हरः!!