श्रीमद्भागवद्गीता आ निरंतर साधना

गीता बुझौवैल – अपन विचार!

(भगवानक विराटरूपक दर्शन – शोक सँ ज्ञानोपदेशक मार्ग भगवानक दर्शन पर एक समीक्षा)

virat krishnaगीताक ११म अध्याय केर ३५म श्लोक मे संजय कहैत छथिन….

एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य
कृताञ्जलिर्वेपमान: किरीटी॥
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं
सगद्गदं भीतभीत: प्रणम्य॥३५॥

‘कृष्णक एहि तरहक वचन-संबोधन सुनि, सगद्गदी अर्जुन कृत-कृत्य दुनू कल जोड़ने नमस्कार करैत, थरथराइत शरीर सँ, भयाक्रान्त होइत, भरल कंठ सँ बाजि कृष्ण सँ संबोधन करय लागल।’

अध्याय १० मे ४२
अध्याय ९ मे ३४
अध्याय ८ मे २८
अध्याय ७ मे ३०
अध्याय ६ मे ४७
अध्याय ५ मे २९
अध्याय ४ मे ४२
अध्याय ३ मे ४३
अध्याय २ मे ७२
अध्याय १ मे ४७

कतेक भेलैक टोटल? टोटल – ४५४ श्लोक सँ युद्ध करबाक इच्छा सँ जमा भेल दुइ सहोदर भाइ लोकनिक संतान – कौरव आ पाण्डव, मात्र धर्मक रक्षा हेतु साक्षात् परमात्मा-महात्मा-परमेश्वर श्रीकृष्ण सहित एक सँ बढि कय एक वीर आ धुरन्धर महारथी मुदा दुइ गूट मे बँटल सेनाक मध्य महान धुरन्धर तीरंदाज अर्जुन द्वारा अध्याय १ मे शोक प्रकट केलाक बाद अध्याय २ मे कृष्ण द्वारा अर्जुन केँ ‘अपन-आन के’ आ ‘हम के’ आदि बुझायल गेल, समस्त निचोड़ मे कहल गेल जे मनुष्य केँ द्वंद्व सँ ऊपर अपन आत्मिक कर्म करबाक चाही, स्थितप्रज्ञ बनि धर्मोचित कर्म टा लक्ष्य हो, परिणाम पर अधिपत्य आत्माधारी केर नहि, उच्चासन पर विराजमान परमात्माक प्रकृति पर अछि, तैँ सोझाँ उपस्थित परिस्थिति अनुरूप कर्म हो, युद्धक घडी पंडिताइ उचित नहि। तथापि अर्जुन द्वारा ई कहितो जे हम तऽ अहाँक शिष्य छी, जेना कहब सैह करब, किछु प्रश्न-शंका केर समाधान करी… एना भिन्न-भिन्न प्रश्न पूछल जाइत रहल आ कृष्ण ओहि समस्त प्रश्नक समाधान करैत-करैत पूर्ण गीता वाचन कयलाह। अध्याय ३ मे अर्जुनक प्रश्न जे ‘ज्ञान उत्तम होइछ’ तऽ फेर युद्ध समान ‘कर्म’क दिशा मे उद्यत् करबाक कोन प्रयोजन… बरु संन्यास ग्रहण करैत तपस्या करब आ परमात्मा मे विलीन होयबाक मोक्षक दिशा मे डेग उठायब… एहि मंशा सँ हुनकर प्रश्न सुनैत श्रीकृष्ण कहला जे समस्त ब्रह्माण्ड निहित कर्म मे रत अछि, एतय तक जे स्वयं परमात्मा सेहो एहि सँ वंचित नहि छथि। कर्मक रूप केहेन हो, कर्मबंधन सँ मुक्त रहबाक उपाय कि, युद्धकर्म सेहो अनिवार्य आ मोक्षदायी, जातिय धर्मक वहन करब सेहो धर्म अनुरूप आदि बुझेलनि। तथापि अध्याय ४ अबैत-अबैत अर्जुन कर्मयोग मे बंधनमुक्ति मार्ग शुरुहे सँ रहल कहला पर पहिने तँ कृष्णहि सँ ई पूछलनि जे बहुत पहिनहि जन्म लेल विवस्वत केँ बाद मे जन्म लेने अपने (कृष्ण) ई योग कोना उपदेश केने रहियैन... जकर जबाब मे कृष्ण कहलैन जे ‘हम-अहाँ’ पूर्वहु मे कतेको बेर जन्म लेने छी… तखन अपन जन्म लेबाक कारणो बतौलनि:

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत॥
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥४-७॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्॥
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥४-८॥

विभिन्न जन्मक कारण स्पष्ट करैत पुन: कर्मफल सँ संन्यासक बात सुनि अध्याय ५ मे अर्जुन द्वारा फेर पूछल गेल प्रश्न जे ‘एक ठाम तऽ अपने ज्ञानयोग यानि कर्मफल सँ आसक्तिक त्याग करय लेल कहैत छी, आ दोसर तरफ कर्मयोग… युद्ध करू… यानि कर्म करू, एहि दुइ मे सँ कोन बेसी नीक अछि?’ – तखन भगवान् कृष्ण नीक जेकाँ हुनका बुझेलनि जे दुनू मार्ग मोक्ष लेल अछि, मुदा श्रेयस्कर मार्ग कर्मयोग – कर्म करैत बंधन-मुक्त बनबा मे अछि। ओना एहि दुनू मार्ग केँ एके मानल जाय, अज्ञानी धिया-पुता मात्र एकरा दुइ अलग मार्ग कहैत अछि। तदोपरान्त समस्त संन्यासक वर्णन कयलनि अछि अध्याय ५ मे। बात एकभग्गू नहि रहि जाय, तऽ पुन: श्रीकृष्ण अध्याय ६ शुरु कयलनि, कहैत छथि:

अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य:॥
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय:॥६-१॥

अर्थात् कर्मफल दिशि बिना कोनो झुकाव रखने बस अपन निहित कर्म करनिहार संन्यासी आ योगी दुनू होइछ, ओ नहि जे बिना अग्नि हो वा बिना कर्म करनिहार हो।

आ, समस्त अध्याय ६ मे द्वंद्व सँ मुक्त रहनिहार ‘निरपेक्ष’ कर्ता द्वारा ज्ञान योग केर मार्ग पर चर्चा चलल अछि। कोना लोक ज्ञानी बनि सकैत अछि से कहैत-कहैत कृष्ण केँ एना बुझेलैन जे सामान्यजन लेल ई मार्ग संभव नहि छैक तऽ ओ बेर-बेर संपूर्ण गीता मे ‘शरणागत’ बनि परमात्मा ‘शरणागतवत्सल’ पर सब किछु छोडि जीवन-निर्वहन हेतु भक्ति मार्ग पर वाचन शुरु कयलनि आ संपूर्ण अध्याय ७ एहि पर वाचन भेल अछि। चूँकि अर्जुन सेहो टोकि देलखिन, अध्याय ६ के ३३म श्लोक मे:

योऽयं योगस्त्वया प्रोक्त: साम्येन मधुसूदन॥
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात् स्थितिं स्थिराम्॥६-३३॥

‘ई जे योग केर मार्ग अपने सिखेलहुँ, हे मधुसूदन! समत्वभावक जे बात अपने केलहुँ, चञ्चल चित्त होयबाक कारणे हम बेसीकाल धरि समत्वभाव मे रहि सकबाक संभावना नहि के बराबर देखैत छी।’

प्रश्न संग अपन असमर्थता प्रकट करब एकटा शुद्ध हृदयक शरणापन्न शिष्य केर काज होइत छैक, अर्जुन कोनो बात जगद्गुरु कृष्ण सँ छुपा नहि रहल छथि। यैह कारण छैक जे गीता समान गूढ सूत्र कृष्ण द्वारा हमरा सबहक समक्ष प्रकट भेल अछि। आइ हमहु-अहाँ सदैव एक-दोसर प्रति जँ यैह विशुद्ध मैत्रीभाव राखी तऽ सदिखन कृष्ण-अर्जुन सोझाँ देखेता, जीवन सरल आ सहज बनत। ईश्वर केँ आत्मसात करबाक मार्ग – भक्ति-मार्ग पर प्रकाश दैत अध्याय ७ केँ पूर्ण कैल गेल अछि। पुन: अध्याय ८ ईश्वरक अनेक रूप पर अर्जुनक चिन्तन सँ उठल प्रश्नक समाधान मे श्रीकृष्ण द्वारा वाचन कैल गेल अछि। ब्रह्म के? आध्यात्म कि? आधिभूत कि? फल्लाँ कि? चिल्लाँ कि? – सब तरहक प्रश्न ऊपर श्रीकृष्ण अपन सर्वोत्तम जानकारी उपलब्ध करबैत सोझाँ शिष्यक अवस्था देखैत एक पूर्ण ब्रह्मस्वरूप गुरु शिरोमणि बनि स्वयं मे सब किछु दर्शन करबाक योग्यता प्रदर्शन करैत शंका समाधान केलनि अछि आ एतेक तक कहि देलनि अछि:

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्॥
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:॥८-५॥

‘ओ जे अन्तकाल (मरय काल) हमरे पर ध्यान लगौने रहैत अछि ओ शरीर छोडलाक बाद सीधा हमरहि समीप आबि जाइछ, एहि मे कोनो संशय नहि।’

श्रीकृष्ण योगक मार्ग मे सेहो सदिखन हुनकहि स्मरन करब कहलनि अछि। ब्रह्मलीन होयबाक बाट कोन आ ओतय तक पहुँच कोना होयत, समस्त बात खोलिकय बतौलनि अछि। मुदा अर्जुनक समर्पण सँ प्रभावित जगद्गुरु परमात्मन् कृष्ण अध्याय ९ मे एहेन गूढतम् ज्ञानक प्रवाह केलनि जेकरा लेल ओ घोषणा केने छथि जे ई जानि लेलाक बाद अहाँ कोना संसार मे रहितो संसार सँ ऊपर होयब। राजविद्यारूपी जानकारी सँ भरल अनेको गूढतम् रहस्यक उद्घाटन करैत कोना कल्प-कल्प धरि सृष्टि चलैत अछि, कोन राजनीति सँ एतेक रास प्राकृतिक शक्ति अपन कार्यनीति बनौने अछि, समस्त विद्यमान दृश्य-अदृश्य शक्ति कार्यरत अछि, आदि बातक पूर्ण खुलस्त जानकारी कृष्ण करबैत छथि। एक शोधल बात हमरा सब लेल अर्जुनक मार्फत कहैत छथि, सब कियो ध्यान दी:

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्॥
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥९-२७॥

जे करू हमरा मे अर्पण करैत करू…. निश्चित! हमरा सब अपन माथा कतबू भिडाबी, समस्त कर्मक आहूति सदैव प्रकृति मे होइछ आ वैह बात जँ आस्था राखि केँ करी तऽ कतेक नीक हेतैक!! 

आब, अर्जुन किछु पूछता ताहि सँ पूर्व कृष्ण क्रमश: पूर्ण प्रखरता पाबि – क्षुद्रभाषा मे कही तऽ आब परमात्मा स्वयं अपन प्रखरताक सीमा पर जा रहल छथि। कोना नहि जाइथ! आब शिष्य केँ ओ स्वरूप देखेबाक बेर जे आबि रहल अछि!! जाहि स्वरूपक दर्शन लेल जानल-अन्जानल कतेको ऋषि-मुनि तपस्यारत छथि, तपस्याक चरम् पर ईश्वर पराकाष्ठा देखि प्रभावित रहैत छथि। जेना सूर्य भिन्सर मे बस कोनो फूल समान कोमल, क्रमश: तीव्र आ कठोर – प्रचंड बनैत दुपहरिया मे सीधे माथ पर सवार होइत छथि, ठीक वैह बेर होमय लागल अछि। अर्जुन द्वारा अध्याय १०म केर १२ सँ १८म श्लोक बीच श्रीकृष्णक परिचय स्वयं द्वारा बुझल रखितो पुन: प्रश्न अबैत अछि जे अपनेक कोन स्वरूपक कोना ध्यान कैल जाय से बताउ, तखन आब असल दर्शन सँ पूर्व मानसिक दर्शन करबैत अर्जुन व हमरा सबकेँ तैयार रहबाक संदेश श्रीकृष्ण अध्याय १० मे दैत छथि। ‘हम कि छी, हमरा कतय देखू, कोना देखू… आदि’ कहि ओ ईश्वरत्वक परिभाषा बतबैत छथि। आ तेकर बाद अध्याय ११ मे जाय ओ अपन विराट् स्वरूपक दर्शन करबैत छथि। एहेन स्वरूप जाहि केँ वर्णन मात्र अर्जुन व संजय कय सकैत छथि…. हम तऽ कहब जे अर्जुन भले सब किछु सुनलाक बाद भगवान् केर ईश्वर-रूप दर्शन हेतु अध्याय ११म केर पहिल ४ श्लोक द्वारा कयलनि, मुदा ओहि विराट् ईश्वररूप केर दर्शन करैत हुनक जे अवस्था भेल से आजुक एहि लेखक प्रथमहि मे उल्लेख अछि। संजय केँ सौभाग्यक सराहना केना कहू, ई तऽ हम लिखिते जखन आह्लादित छी, तऽ हुनका दिव्यदृष्टि सँ कि सब आ केना-केना देखेलैन तेकर वर्णन करब हमरा वश मे नहि अछि।

अस्तु! दोसर दिन ११ अध्याय उपरान्त कोना-कोना आ किस सब भेल अछि से बतायब। एक बात कही – गीता अध्ययन संसारक सर्वोत्तम विज्ञानक अध्ययन समान अछि। स्वाध्याय मे समस्त मैथिल जरुर एकरा फेर अपनाबी, बस! 🙂

श्रीकृष्ण: शरणं मम!!

हरि: हर:!!