व्यक्तित्व परिचय
– नित्यानन्द मंडल
(साभारः फेसबुक पोस्ट)
फगुआक दिन बाँकी चारि, आबए कहलनि छोटकी सारि… ई होरिआएल काव्यपंक्ति छनि पब्लिक पोएट नरेश ठाकुर जीक । बुझबामे आबिए गेल होएत जे फगुआ लगचिया गेलै । तैं हिनका मादे किछु कहब, अप्रासांगिक नहि हएबाक चाही, हमरा जनैत । साहए तऽ कहियो रोमान्टिसिज्मक एकटा पात्र जेकाँ, कहियो पूर्वीय धर्म आ अनुशासनक ज्ञाता जेकाँ जीवैत रहलाह अछि । ओ जीवनक प्रत्येक क्षणमे हरेक रङ्ग सभक हिसाब–किताबक आकलने मात्र नहि कएलनि बल्कि ओही रङ्ग सभमे जीवाक उत्कट उत्कण्ठा सेहो पोसलनि आओर अपने रङ्गमे रंगा जाएबाला व्यक्तित्व – ओ छथि कविवर नरेश ठाकुर – धनुषा जिल्लाक गंगुली निवासी । कहियो प्राथमिक तहक शिक्षणमे तऽ कहियो रिटायर्ड भेलाक बाद पुरहिताइ आ काव्यपाठमे जीवनक महत्वपूर्ण क्षण साझा कऽ रहलाह अछि । मैथिली हास्य काव्य संसारक उद्भट नाम अछि श्रद्धेय नरेस सर । हास्यरसक फुलझरी आ फगुआक हास्य-फुहारमे दर्शक-श्रोताकेँ गोता लगा देबाक विशिष्ट अन्दाज आ आवाज छनि हिनकामे । हँसीसँ लोटपोट क’ देबाक बेजोड़ शिल्पी छथि ओ ।
कहियो उमेरसँ उफनाएल, उमटाम मात्तल सुदूर गामक एकटा उन्मत्त अलबत्त लड़िका जेकाँ, जे अक्सर मौकाक तलासमे रहैत अछि जे ककरा कोना अपन बोलीक बाणसँ हँसबैत-हँसबैत धरती धरा दी, पेट फुला दिअनि । मुदा असलमे कही त एकटा एहन अवकाश प्राप्त शिक्षक जे साँच मे शिक्षके जेकाँ, अर्थात् बोली आ लेखनमे लय भेल व्यक्तित्व ।
सार्वजनिक मञ्चसभ पर एकदम प्रेमिल सम्बोधन, मुदा विचरण समाज आ जीवन–जगतक विशाल आ गहिरा समुद्रसभमे कल्पनाक सतरंगी पाँखि लगा उड़ान भरैत आ हेलैत–डुबैत, नख-शिख होइत ! अद्भुत लेखनशैली ! चिन्तन आ तर्क केँ सरल रूपमे रेखांकन करबाक जादुगरी कुशलता – ताहि केँ बहुते उदारतापूर्वक रखबाक बेजोड़ कला । हुनक फगुआक झुनझुनी, चुटुक्का, कविता, कथा आदिमे प्रेम आ प्रणय लवालव भरल अछि जे सर्वाधिक रुचिकर अछि । जाहि मे नायक–नायिकाक हाउभाउ, स्पर्श, नृत्य आदिसँ द्रवित होयब, श्रवित होयब आ दु–तीन दिनधरि मोन गुदगुदाएले रहब – पाठकक स्वाभाविक प्रतिक्रिया होइछ ।
हिनक कविता आ कथा सभमे जाँघ वा वक्षस्थलक बात मात्र नहि होइत अछि, ओहिमे लोभ, मोह, काम, क्रोध, समाज आ राजनीति उपर चोटगर प्रहार सेहो रहैत अछि । लेखनमे विम्बसभक प्रयोगक जादुगरी, हुनक रचना सभके फ्रायड आ कालगुस्ताभक दर्शनसँ सेहो देखल एवं अध्ययन कएल जा सकैए सायद । तामझाम, हैसियतक प्रदर्शन, आडम्बरकसँग पूजापाठ करएबाला ढोँगी पण्डित पुरोहित, मौलाना, पादरी सभसँ लऽ कऽ समाजक अन्य पाखण्डी राजनीतिज्ञ आ स्कुल शिक्षक धरिक चरित्रकला उपर विलक्षण व्यंग्यबाण प्रहार करब हिनक मौलिक शिल्प छनि । हिनक सौन्दर्य चेत आ जीवनक खास रङ्गरूप सभकेँ बेर-बेर निहारबाक मोन होयब अस्वाभाविक नहि । हुनक बहुत चर्चित व्यंग्य आ आइरोनीसँ भरल विचारप्रधान श्रृंखला महामुर्ख सम्मेलन आ फगुआक अवसर पर आयोजित कार्यक्रम आदि बहुतोक ठोर पर शीर्षक आ गुदी कण्ठस्थ रहैत अछि । बसन्ती-वयारक मूडमे अपन समकालीन संगीसभ बीचक संवाद, चौल, नोंकझोंक, झौल, बत-कटौबलि आ ठठ्ठा गजब के होइत छनि । तखन एना लगैत रहैत अछि जेना जीवनक सब रङ्गसभ ओहि ठाम पृथ्वीलोक पर उतरि आएल होइक ।
जनिक ठट्टामे सेहो अनन्त गहिराई होइत छैक, ओ परिहास आ विनोदप्रियता सेहो गहींर सौन्दर्यचेत आ मानवीय प्रेम के दर्शन करबैत अछि । चेतनासँ भरल आ माँजल एकटा शिक्षक एवं कवि पावरफुल चश्मा, बज्र दाँत आ अट्टहासक मनोहारी हँसनाय लाजवाब शोभैत छन्हि । पछिला समयमे अभिव्यक्तिक अन्तरिक्षमे माहिर कलमक उस्ताद ! बिना रोकटोक, कहएबला बात ठाँय-प-ठाँय कहबाक चाही, लिखबाक चाही । बात जानी साफ, दु टप्पी, बिना कोनो हिचकिचाहट अपन मोनक बात कहब, हिनकर सृजन-शिल्पक मौलिक विशेषता थिकनि । जाहिसँ लोककेँ दुःख हएतनि तकर कोनो फिकिर, परवाह नहि । एहिसँ केओ गलत बुझता वा अपन हित नहि होइत से कहियो नहि बुझि सकलथि । अर्थ–अनर्थक किछु गप्प कथिला नहि होइ ताहिँपर डायरेक्ट प्रहार करब जे जीवनकेँ रङ्ग सभमे भोगैत अछि बिना ढोंग, बिना घमण्ड, बिना तथाकथित सामाजिक भय के ! सीधा अर्थ नहि भेटत हिनक गहींर आ गम्भीर रचनामे । तथापि लयमे बहएबला स्वभाव हिनका ‘पब्लिक पोएट’ अर्थात् कतहु कोनो विषयमे लगातार कविता पाठ करयवला कवि बनेने अछि ।
हास्य-काव्य संसारमे हिनक ऊँचाई आ आयतन अतुलनीय अछि । लोक हिनक कृतित्व आ व्यक्तित्वसँ नीक जेकाँ परिचित अछि ।
कवि सम्मेलन, कथा गोष्ठी आदिमे सराबोरि डुबलासँ, हथोरिया देलासँ, रसास्वादन आ परेखलासँ सहजहि भेटि सकैत अछि । बड सुअदगर लयमे अपनेक हँसीक जादुटोना किनका नहि सम्मोहित करैत हएतनि । वस्तुतः व्यक्तिगत आ सामाजिक जीवनमे जाहिँ तरहक तनाव, उत्कण्ठा, वैमनस्यता, नैराश्यता, हरहर-खटखट, तिकड़मबाजी, तिलिस्म, व्यामोह, फ्रस्ट्रेशन, डिप्रेशन सब छैक से एकटा लाफ्टर मेडिशिनक रूपमे हिनकर काव्य रचना काज कऽ सकैत अछि ।
एहन जनजञ्जालमे जकड़ल लोकक ठोर पर कनेकोकालक लेल कमोबेश मुस्की आबि गेलै, ओकर चित्त प्रसन्न भऽ गेलै तऽ बुझु जे नरेश सरक सृजन स्वाभावतः सार्थक अछि । हिनक काव्य रचनामे ह्युमर, लाफ्टर, फार्स, कमेडी, आइरोनी, प्रहसन आदिक सुगन्ध आ सुरभि सेहो कतौ-कतौ पाओल जा सकैत अछि । तुकबन्दी, जोड़ती जुड़लाक कारण हिनक काव्यमे मिठास तऽ पाओल जाइछ मुदा परिवर्तनगामी वैचारिकीक सर्वथा अभाव, फोँक, झुझुआन आ खटास सेहो ओतबे लगैत अछि ।
हिनक होरिआएल काव्यव्यञ्जन विविध भाव भंगिमामे भङ्ग, तरङ्ग, नवरङ्ग, रसरङ्ग, नओरङ्ग आ अन्तरङ्गसँ ढोरहल रहैत अछि जाहिमे ओ स्वयं सहित समस्त दर्शक, श्रोता लोकनिक मन—मतङ्ग, मातल आ मदमस्त रहैत अछि । बसन्ती वयारमे उन्मुक्त सप्तरङ्गी फगुआएल एहि धरती आ आकाशमे फगुआक अवसर पर जनकपुरधामक परिसरमे आयोजित दर्जनों मञ्च पर वर्षभरिसँ सैकड़ोंक संख्यामे दर्शक, श्रोता लोकनि हिनक काव्य गंगामे सराबोरि स्नान करबाक लेल व्यग्रतापूर्वक आतुर रहैत अछि । अन्तमे आओर कि कहू सर ! गोर लगैत छी, हाथ कहिया लगबै, फगुआ छै, अपनेसँ बहुत किछु सुनबाक बाँकिए अछि ।