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मैथिली भाषा-साहित्यक विकास आ संरक्षण मे प्रवासी मैथिल संस्थाक योगदान

विशेष सम्पादकीय

मैथिलीभाषी समाज केँ आदत देखैत आयल छी ‘बारीक पटुआ तीत’ वला, यानि अपन भाषाक बहुत बेसी महत्व अपने सँ नहि दयवला। ‘दूरक ढोल सोहाओन’ कहावत केँ चरितार्थ करैत मैथिलीभाषाक मिठास आ महत्ता सँ दूर भोजपुरी, हिन्दी आ नेपाली मे खूब रमैत अछि एतुका लोक। परञ्च बौद्धिक समाज केँ खूब नीक सँ पता छैक जे मैथिली भाषा मे केना ह्रस्व मात्राक बहुल्य प्रयोग करैत सदिखन विनम्र स्वभाव (soft natured) प्राप्त कयल जाइछ आ एहि चलते स्व-अनुशासन आ स्व-शालीनता केँ सर्वोपरि राखि मैथिलीभाषी उच्च-विकसित मानव व मानवीय समाजक परिकल्पना करैत अछि। यैह कारण छैक जे मैथिली केँ संगीतवद्ध भाषा (लयात्मक – lyrical) सेहो कहल जाइछ।

अहाँ वार्ताक समय कोन तरहें शुद्धता आ मृदुलता केर प्रयोग करब, अहाँक जीवन संगहि अहाँक आसपासक परिवेश मे सेहो वैह ‘भावनात्मकताक प्रभाव’ (effects of emotionality) केर दर्शन-साक्षात्कार कराओत। अहाँ अपन व्यक्तित्वक संग अपन परिवार, समाज आ राष्ट्र लेल सेहो ओतबे गहींर आ प्रभावशाली बनब। एहि वाणी व स्वभावक कारण आइ मैथिल प्रति सारा संसार मे एक विशेष झुकाव आ सम्बन्ध निर्माणक प्रक्रिया देखल जा रहल अछि। बहुत कम समाज एहेन भेल करैछ जे संसारक कोनो कोण मे जाय, ओकरा बसेबाक लेल ओतुका स्थानीय गाम-समाज सेहो आतुर भेल करैत अछि। आर विगत २५०० वर्षक इतिहास पर दृष्टि देब त पता चलत जे अहाँ अपन माधुर्य व लालित्यक कारण विश्व भरि मे पसैर चुकल छी।

हालांकि पछातिकाल एकरा ‘पलायनरोग केर दंश’ कहि नकारात्मक होयबाक कथावस्तु लगभग प्रमाणित भ’ गेल अछि, तथापि प्रवासक्षेत्र मे मैथिलक रहन-सहन आ जीवनचर्या मे मैथिलत्व प्रति बेसी साकांक्ष होयबाक कारण पलायनरोगक दुष्प्रभाव कम आ नियंत्रित रहबाक अपेक्षा सेहो कयल जा रहल अछि।

प्रवासी मैथिलक योगदान

बारीक पटुआ तीत आ दूरक ढोल सोहाओन – ई दुनू कहिनी प्रवासी मैथिल लेल बदलि गेल करैछ। हुनका सभक हृदयक दरेग अपन निजता प्रति अत्यन्त जाग्रत अबस्था मे पहुँचि गेल करैछ। मूल डीह पर ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ वला हिन्दी कहिनी जेकाँ लोक लापरवाह रहय, मुदा डीह सँ दूर होइते अपनहि भाषाक माधुर्य ओ लालित्य ओकरा बेस आकर्षित करैत छैक। ओ चाहैत अछि जे अपन मूल संस्कार केँ ओ निर्वाह करैत जीवन जिबैत रहय। बस, यैह भावना आ समर्पण सँ प्रवासक्षेत्रक मैथिल लोकनि भाषा-साहित्य प्रति सेहो साकांक्ष भ’ यथासम्भव काज करैत आबि रहल छथि।

सच त यैह छैक जे मैथिली आइ धरि जिबन्त भाषा बनल अछि से एहि प्रवासी मैथिल सभक योगदान सँ। मैथिली पत्रकारिताक इतिहास मे जयपुर सँ १९०५ ई. मे पत्रकारिता आरम्भक बात हो, भारतक स्वाधीनता संग्राम आ बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी आ पटना यूनिवर्सिटी संग कलकत्ता यूनिवर्सिटी मे पढाइ कय रहल आधुनिक पद्धतिक शिक्षाक सूत्रहु सँ निज मातृभाषाक महत्वक आत्मसात करैत मैथिली भाषा केँ पूर्ण भाषा रूप मे स्थापित करबाक लगड़पन, पटना यूनिवर्सिटी सँ जर्मनी-बेलायतक प्रवास सँ डा. सुभद्र झा जेहेन भाषा-वैज्ञानिक द्वारा मैथिली केँ पूर्ण भाषारूप मे स्थापित करबाक अद्भुत योगदान, पुनः इलाहाबाद यूनिवर्सिटी मे उच्चपद पर आसीन मैथिल विद्वान् डा. सर गंगानाथ झा व हुनक उच्चकोटिक सुशिक्षित-सम्भ्रान्त सन्तान सभक योगदान सँ भारत आ विश्वपरिवेश मे मैथिली प्रति आकर्षण आ जुड़ाव, डा. जयकान्त मिश्र द्वारा मैथिली केँ भाषा रूप मे स्थापित करबाक लेल सौंसे देश भ्रमण करैत अनेकों राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर राखल गेल विशद् कार्यपत्र हो, इलाहाबाद मे लगायल गेल पुस्तक प्रदर्शनी मे मैथिली सामग्रीक प्रदर्शनी आ ओतहि सँ तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरूक कृपादृष्टिक प्राप्ति कय साहित्य अकादमी दिल्ली द्वारा मैथिली केँ मान्यताप्राप्त भाषाक सूची मे आबद्धता, उच्चशिक्षा मे मैथिली भाषा केँ मान्यता दियेनाय, इत्यादि अनेकों अविस्मरणीय काज प्रवासी मैथिल सब कयलनि अछि।

कहल जाइछ जे सर्वाधिक योगदान कोलकाताक प्रवासी मैथिल समाज मैथिली लेल योगदान कयलनि, सेहो स्वाभाविक सत्य छैक। कारण बंगालीभाषी समाज मे निजभाषा प्रति के अद्भुत-अकाट्य प्रेम हिनका लोकनि केँ प्रेरित कएने हेतनि। उपर सँ अपन घर सँ दूर अपन भाषाक मान-महत्व केकरो बेसी प्रिय लगिते छैक, कोलकाता ताहि दिन मैथिल समाज लेल प्रवासक प्रथम गन्तव्य भेल करय। साबिक मे मोरङ्गक प्रवास आ ब्रिटिशकालीन भारत मे कोलकाताक प्रवास – सर्वविदिते अछि।

ओना त आरो कतेको क्षेत्र मे मैथिलीभाषी प्रवास लेल पलायन कयलनि, परञ्च भाषा-साहित्य लेल जे काज कोलकाता द्वारा कयल गेल से अन्यत्र कम भेटैछ। प्रथमतः कोलकाता विश्वविद्यालयहि सँ मैथिलीक अध्ययनक मान्यता भेटब एकटा ऐतिहासिक प्रमाण अछि एकर। एकर बादे पटना आ बनारस सँ होइत बाद मे बिहार विश्वविद्यालय, मिथिला विश्वविद्यालय, भागलपुर विश्वविद्यालय आदिक यात्रा सम्भव भेल मैथिलीक।

वर्तमान समय नेपालक त्रिभुवन विश्वविद्यालय सहित झारखंडक अनेकों विश्वविद्यालय मे मैथिली भाषा-साहित्यक विद्यमानता अछि। दिल्ली मे सेहो प्रवासी मैथिलहि केर मांग पर दिल्ली विश्वविद्यालय मे मैथिलीक पढाइ आरम्भ कयल जेबाक तैयारी चलि रहल अछि। सीबीएसई सेहो एहि पर विचार करैत समुचित पाठ्यक्रम तैयार कय रहल अछि।

पटना मे मैथिली अकादमीक स्थापना कतेक संघर्ष आ राजनीतिक दाँव-पेंच के बाद भेल से बुझले होयत, निज राज्य मे मैथिलीक दुर्दशा केना, कतेक आ कियैक भेल से मनन योग्य विषय अछिये। दिल्ली मे मैथिली-भोजपुरी अकादमीक स्थापना करायब प्रवासी मैथिलहि केर योगदान थिक एहि मे कनिको सन्देह नहि अछि।

भाषा-साहित्यक संरक्षण-संवर्धन-प्रवर्धन केँ आत्मसात करैत अछि प्रवासी मैथिल, तेँ लेखन-प्रकाशन संग पुस्तक प्रदर्शनक काज सेहो प्रवासक्षेत्र मे बेसी भ’ रहल अछि। हालांकि एहि कार्य मे बढोत्तरीक बहुत बेसी आवश्यकता बुझाइछ, कारण प्रवासक्षेत्र मे सेहो मिथिलाक मूलक्षेत्र जेकाँ रजनी-सजनी करयवला बेसी भ’ गेल अछि। खास कय केँ दिल्ली मे प्रवासी मैथिल लोकनि विद्यापति स्मृति पर्व समारोहक अर्थ खाली गाना-बजाना बुझि एक दिन भोज खेबाक काज करय लागल छथि, बौद्धिक सम्पदा संग दर्शन-ज्ञान परम्परा केना आगू बढ़त ताहि क्रम मे भाषा-साहित्यक श्रेयस्कर प्रभाव सँ वंचित छथि ई लोकनि। तेँ आवश्यकता छैक जे भाषा-साहित्य केन्द्रित गतिविधि सब बढ़ायल जाय।

विमर्श बढ़ायल जाय। कवि गोष्ठी बढ़ायल जाय। लेखन आ संचारकर्म केँ प्रोत्साहित कयल जाय। बालवर्ग व युवावर्ग संग महिलावर्ग मे सेहो लेखनी प्रतियोगिता, वक्तृत्वकला प्रतियोगिता, पुस्तकालय व अध्ययन केन्द्र सभक स्थापना आ जाहि ठाम छी ओहि ठामक विद्यालय सँ बाल-बच्चा केँ अपन मातृभाषा पढ़ेबाक माँग करब आवश्यक अछि।

एहि सब दिशा मे आर बेसी काज करबाक जरूरत अछि। केवल संस्कृति केँ नहि बचा सकैत छी यदि भाषा-साहित्य नहि बचायब तँ, एहि लेल वैदेही मिथिलाधाम वडोदरा द्वारा राखल गेल ई महत्वपूर्ण आयोजन एकटा नव इतिहास बनायत से पूरा विश्वास अछि। अस्तु…. बाकी सत्र मे १७ फरवरी कहब!!

हरिः हरः!!

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