मिथिला भाषा रामायण – अयोध्याकाण्ड दोसर अध्याय

कवि चन्द्र विरचित मिथिला भाषा रामायण

अयोध्याकाण्ड – दोसर अध्याय

।चौपाइ।
दशरथ नृप वर परम उदार। गुरु वसिष्ठ संग कयल विचार॥
विषय मनोरथ रथ आरूढ़। उचित कि आब भेलहुँ बड़ बूढ़॥
रामचन्द्र भ्रातामे ज्येष्ठ। सकलगुणो पेतहुँ से श्रेष्ठ॥
तनिक सुयश जन के नहि बाज। रामचन्द्रकाँ करु युवराज॥
प्रातहि रह सभ वृत्त सुधाम। मन्त्रित करु गुणशाली राम॥
कहलनि तखन सुमन्त्रि बजाय। अहाँक अधीन कार्य्य समुदाय॥
श्रीगुरु जे जत कहथि सुकाज। करु सम्पन्न शीघ्रतर आज॥
सचिव पुछल कहि देल सभ मूनि। नृपति – तिलक – पद्धति पढि गूनि॥
।हरिपद छन्द।
नानावर्ण पताका तोरण मणिमुक्तामय टाँगू।
स्मारक पत्र लिखल अछि जेहन राजपुरुषसौँ माँगू॥
प्रातःकाल सकल भूषणयुत सत्कुल बहुत कुमारी।
मध्य कक्ष मे पूजन हेतुक पूर्व्वहि रहय तयारी॥
चतुर्दन्त ऐरावतवंशक कनक रत्नसौँ भूषित।
सोड़ह गोट महागज चाही शुभलक्षणनिर्दूषित॥
कनक-कलस नानातीर्थादक-पूरित रहै हजारे।
दधि दूर्व्वाक्षत कुङ्कुम चाही मत्स्य प्रशस्तक भारे॥
करब थापना तहँ अहँ नव नव तीन गोट बघछाला।
रत्नदण्ड अवदात छत्रमणि दिव्य दिव्य वरमाला॥
दिव्यवस्त्र ओ दिव्य आभरण पूर्व्वहि राखू आनि।
सत्कृत मुनि पुन रहथि बहुत शुनि वरणकाज कुशपाणि॥
गायन वैदिक तथा नर्त्तकी लोक वृत्तभय आबथु।
वाद्यकार नाना बाजन लय नृपतिक द्वार बजाबथु॥
गज हय यान पदाति सज्जसौँ बाहर बहुत सिपाही।
रहथु करथु मन्दिर द्विज देवीपूजन ताही॥
।पादाकुलक दोहा।
नाना पूजा बालविधि नाना, हसइत कहल वसिष्ठ।
करु सम्पन्न सुमन्त्र सुमन्त्री, जे जत अछि अवसिष्ट॥

।चौपाइ।

जे सब कहल वसिष्ठ विधान। वृत्त सकल भेल कहल प्रधान॥
कहि शुनि मुनि पुन कयलनि गमन। रथ चढि रामचन्द्र वरभवन॥
तेसरहि खण्ड छोड़ि रथवेश। अन्तःपुर मुनि कयल प्रवेश॥
रोक टोक नहि बुझि अनिवार्य्य। द्वारपाल परिचित आचार्य्य॥
गुरु आगमन बुझल श्रीराम। कयल कृताञ्जलि दण्डप्रणाम॥
कनकालुका भरल भल वारि। वैदेही लेल चरण पखारि॥
कनकासन पुन बैसक देल। से जल सीचि माथ बिच लेल॥
रामचन्द्र मुख शुनि मुनि वचन। उत्तर कहल उचिततर-रचन॥
अपनैँक चरणोदक धय माथ। धन्य धन्य शिव गिरिजानाथ॥
कयल उचित जन हित उपदेश। अपनैँ रामचन्द्र परमेश॥
सीता-रमा सहित अवतार। हरण हेतु अवनिक दिक भार॥
हमरासौँ प्रभु करु जनु लाथ। रावण मरता अपनैँक हाथ॥
हम गुरु अहाँ शिष्य आचार। करइत छी माया-व्यवहार॥
पितरक पितर गुरुक गुरु राम। देवदेव अपनहि सुखधाम॥
रहइत छी व्यवहारक व्याज। मर्म्म न बजइतछी सुरकाज॥
कहल विधाता हमरा कान। मर्म्म तकर ककरहु नहि ज्ञान॥
ई इक्ष्वाकुवंश गुणधाम। अपनहि अवतरता विभु राम॥
सत्वर दुरित विनाशन कार्य्य। हमर ख्याति अपनैँक आचार्य्य॥
याचक कर्म्म निन्दिताचार। एहि लोभेँ कयलहुँ स्वीकार॥
प्रभुवर विभु अपनैँ मायेश। होयत नहि मायाक कलेश॥
एतय पठाओल अहकाँ बाप। काज रहल अछि नहि चुपचाप॥
आयल छी आमंत्रण काज। प्रातः काल होउ युवराज॥
सीतासहित विहित उपवास। शुचिसंयम करु विश्व-निवास॥
धरणी-शयन जितेन्द्रिय कर्म्म। करु करु कहइक थिक गुरुधर्म्म॥
चललहुँ दशरथ नृप तट फेरि। अपने आयब भोर सबेरि॥
रथ चढि नृपतट गेला मूनि। राम कहल लक्ष्मणकाँ शूनि॥
हम प्रातहि होयब युवराज। नाम हमर अहँइक सभ काज॥
मुनि नृप काँ जे भेल विचार। शुनि एक जन मन हर्ष अपार॥
कौशल्या काँ वार्त्ता देल। बड़ गोट हर्ष रहल नहि गेल॥
शुनि आयल छी नृपति समाज। प्रातहि रामचन्द्र युवराज॥
शुनल सुमिन्त्रा मन सन्तोष। धन दय बहुतक कर परितोष॥
दुहु जनि मिलि पुन राम निमित्त। लक्ष्मी – पूजा करथि सुचित्त॥
बरु शशि उष्ण शीतकर भानु। घनसारक सम शीत कृशानु॥
दशरथ कहल वितथ भय जाय। तौँ अकाल मे उदधि शुखाय॥
कामुक नृप केकयी अधीन। ई गुनि गुनि मन होइछ दीन॥
दुर्गार्च्चना करथि मन लाय। कौशल्या केकयी-भय पाय॥

।गीत तिरहुति माधवीय बराड़ी छन्द।

से करु देवि दयामयि हे, थिर रह महराज।
पूरिअ हमर मनोरथ हे, केकयि नहि बाज॥
नृपतिक हृदय ककर वश हे, ककरो नहि मीत।
सौतिनि सामरि सापिनि हे, मन हो भयभीत॥
तुअ शङ्करि हम किङ्करि हे, यावत रह देह।
तुअ पद-कमल नियत रह हे, मोर अचल सिनेह॥
रामचन्द्र सीतापति हे, होयता युवराज।
त्रिभुवन आन एहन सन हे, नहि हित मोर काज॥

।सोरठा।

लेब जनम भरि नाम, रामचन्द्र बन जाथि जौँ।
सुरमण्डलि एक ठाम, कहल सरस्वतिसौँ तहाँ॥
बद्धाञ्जलि सभ ठाढ़, करु उपाय नहि काल अछि।
संशय मन हो गाढ़, राज्य पाबिकेँ राजमद॥

।रूपक-दण्डक छन्द।

शुनु शुनु देवि शारदा सुन्दरि, जाउ अयोध्या आजे, करू व्याजे
जाय उपाय तेहन करु सत्वर, राम न पाबथि राजे, सुर काजे
प्रथम मन्थरा काँ अँहाँ मोहव, तखन केकयी रानी, ठकुरानी
दशरथ-नृपति – मनोरथ-पङ्कज, कानन-दलन-हिमानी, बनु वाणी

।चौपाइ।

।मिथिला संगीतानुसारेण पर्व्वतीय वराड़ीय छन्द।

चललि शारदा सुर-हित काज। दशरथ वनितागार समाज॥
कय प्रवेश दाशी-गल देश। पटु पण्डिता मन्थरा वेश॥
रानिहुँ काँ वानी नहि टेर। बाजवधू बुझ जेहन बटेर॥
नृपतिक उच्च भवन आरूढ़ि। पुर शोभैँ संक्षोभित मूढ़ि॥
अनमनि पुछलनि कहु कहु धाइ। बडगोट उत्सव की थिक आइ॥
हर्षित धन कौशल्या देथि। याचक विप्र लोक से लेथि॥
कहल धाइ रामक अभिषेक। करता भूपति उचित विवेक॥
केकयि रानिक गेलि समीप। भेम्ह मन्थरा उत्सव दीप॥
दासी भाभट कहल कि जाय। छाती पिटि पिटि भूमि लोटाय॥
कहलनि केकयी कह की भेल। कनइत किछु नहि उत्तर देल॥
मिथ्या दुःखक खाङ्ग अनूप। डटलै सौँ हटि भेलि से चूप॥
कानब हम नहि कानत आन। सङ्कट ककर पड़ल अछि प्राण॥
पुछलनि केकयि कह हित काज। पड़ल कि कूबड़ि संकट आज॥
शुनु खामिनि विधिगति विपरीत। नृपकाँ छल अपनहि मे प्रीति॥
से छल सभ छल भेल परिणाम। युवराजक पद पओता राम॥
सकल वस्तु तिलकक भेल वृत्त। ककरो कृत नहि रहल निवृत्त॥
शुनु शुनु सुमुखि विमुख विधि भेल। भरतो अपनेक नैहर गेल॥
नृपतिक अनुमति सौतिनि सङ्ग। दिन लग आयल देखब रङ्ग॥
अहँ गविति पलँगहिँ पर शूति। अनकर किछु नहि मानिअ जूति॥
गुण गौरव तामस विस्तार। डरसौँ कि कहब अपन कपार॥
सुखिति सुमित्रा रहती वेश। लक्ष्मण रामक मतहि प्रवेश॥
अहँक अभाग कहल कि जाय। सभ गुण गोबर अवसर पाय॥
नीति-निपुणता शुनल पुरान। शुनलहुँ नृपति मित्र कहुँ कान॥
चल-मति चढलहुँ खामिनि चाँच। घर उपवास द्वारपर नाच॥
अन्तःपुर सम्प्रति अभिमान। बाहर घर घर आनक आन॥

।हरिपद छन्द।

।मिथिला संगीतानुसारेण श्रीछन्दोनामापि।

शुनि मन हर्ष केकयी रानी कहल माँग से पयबेँ।
रामचन्द्र युवराज सत्य तौँ तोँ अशोचि भय जयबेँ॥
अन्तःपुर मे कहल लोककेँ गीत समय शुभ गाबै।
कार्य्य-सिद्धि-कारण हर-गिरिजा-गणपति लगलि मनाबै॥
नव नव वस्त्र विभूषण नव नव रानी सौँ जन पाबै।
हर्षक नीर भरल रानी-दृग सरस सुराग सुनाबै॥
महाविघ्नकारिणी मन्थरा ग्रहण न कर मणिमाला।
उत्सव गीति प्रीतिसौँ शुनय न हृदय लागु जनि भाला॥

।चौपाइ।

एक दोष नहि साधल मोन। बजला जाइछ खायल नोन॥
नृप-चिन्तित होयत जौँ काज। क्षण मे स्वामिनि छुटत समाज॥
कत हम रहब कि ककर कहाय। शोरा बाँधल भाठ शुखाय॥
जनि बल सौँ चलइत छल गाल। तनिके नृप को करता हाल॥
हमहूँ कुबड़ि रहब कहु चूप। आगि लाग घर खनब न कूप॥
स्वामिनि चरण कहैछी छूबि। अवश मरब सरयूमे डूबि॥
केकयि कहल केहन तोर ज्ञान। मन अबइछ बजइछ केओ आन॥
बिन पढलय प्रतिभा अभ्यास। गण विशेष तन तोर निवास॥
कूबड़ि कहल कहर भेल काल। व्यभिचर कतहु कि विधि-लिपि भाल॥
एखनहुँ धरि केकयि काँ काट। ई विवाह सौँ चिन्हल ललाट॥
हमरा पर की पर उतपात। उच्चहि घर पर प्रबल बसात॥
केकयि शुनल कहल खिसिआय। बजइतछेँ अनुचित अन्याय॥
उत्सव समय कहैछेँ आन। कानी गायक भिन्न बथान॥
भरतहुसौँ प्रियकर मोर राम। कौशल्या छथि सौतिनि नाम॥
सभ कर हमर हृदय-रुचि राखि। की हाइत छौ अटपट भाखि॥
दुस्सह कान करैछेँ घोल। डोकाकाँ फूजल मुह बोल॥
एक किङ्करि काँ कहब बजाय। मारति तोरा कुबड़ तकाय॥
बड़ि भभटिनि कपटिनि दुरि गेलि। भवनमे रहय योग्य नहि भेलि॥
से शुनि कुबड़ी कहइछ कानि। हा हा हित करइत हो हानि॥
मारी मरी हलाहल खाइ। धिक जीवन सौँ भल मरि जाइ॥
राजभवन नहि कारागार। बुझल राग बाजल भल तार॥
परइङ्गित जन जे नहि जान। तनिका जानब पशुक समान॥
छल भरोस अहँ किछु बुधिआरि। कहि शुनि स्वामिनि बैसलहुँ हारि॥
कण्ठ शुखाइछ पिउब न पानि। चट पट खसब अटासौँ फानि॥
भरतो हयता रामक दास। की वन जयता लक्ष्मण त्रास॥
सत्वर प्राण दैव लय लेथि। भल नहि सौतिनि स्वामिनि देथि॥
शुध मति अपनैँ काँ नहि चाड़ि। हम दैछी सभटा मन पाड़ि॥
दुइटा वर नृप दशरथ देल। अछिए न्यासित अहँ नहि लेल॥
सुरपति दशरथ केँ बजबाय। कहल धनुर्द्धर होउ सहाय॥
असुर भयङ्कर समर विरुद्ध। नृप दशरथ सौँ माचल युद्ध॥
दशरथ रथक अक्ष सौँ कील। समर खसल भय गेल छल ढील॥
कील स्थान हाथ अहँ धयल। स्वामिनि साहस अतिशय कयल॥
नृप समरोत्सव से नहि जान। राखल सति नृपतिक तहँ प्रान॥
असुरक प्राण नृपति रण हरल। तखन दृष्टि अपनै दिश पड़ल॥
कहि आश्चर्य्य लगाओल अङ्क। माँगु माँगु वर कहल निशङ्क॥
अहँ तहँ कहल कृपाकर नाह। सत्य-प्रतिज्ञ वचन निर्व्वाह॥
वर दुइगोट नाथ जौँ देब। अवसर पड़त तखन हम लेब॥
से लिय माँगि कतय किछु त्रास। मन पड़ि आयल कयल प्रकास॥

।हरिपद छन्द।

।मिथिला संगीतानुसारेण नेपालबराड़ीयं छन्दोपि।

शञ्च शञ्च पुन देवि शारदा केकयि कण्ठ समयिली।
दया क्षमा मति नति उदारता गुणतति दूर पड़यिली॥
कोप-भवन मे केकयि करुणाशून्या गहना त्यागल।
त्रेतामे कलि फलित-मनोरथ राजभवन मे जागल॥
अनृत-वचन-रचनाकर दासी निकट बजाओल रानी।
कहलनि कह कह की कहाँ के कर के कर मोर हित हानी॥
कि कहब सुमति मन्थरा हमरा आँखि दुहुक तोँ तारा।
कर से उचित उपाय मन्त्रिणी सभ तोहरहि शिर भारा॥
तोहर पहिल विचार शुनल नहि बहुत अनादर सहलेँ।
जे जानहि से सान आब तौँ बहुत कथा की कहलेँ॥
जौँ स्वामिनि विश्वास हमर अछि बुद्धि-साध्य अछि काजे।
सावधान रहु हमर बुद्धि-बल देखि लेब सभ आजे॥
ठामहि ठाम सकल रहि जायत जे अछि तिलकक साजे।
शपथ करैछी दशरथ अपथैँ चलि शकता महाराजे॥

।चौपाइ।

।मिथिला संगीतानुसारेण केदार केदारीयं क्षन्दोपि।

करु करु स्वामिनि अवनी शयन। भृकुटी कुटिल रौद्ररस नयन॥
मलिन वसन तन फूजल केश। हृदय कतहु नहि करुणक लेश॥
परिहरु मुख-पङ्कज मृदु हास। सामरि सापिनि सन निश्वास॥
वानीवश रानी मतिहीनि। भय गेल दासी कुमति अधीनि॥

हरिः हरः!!
दोसर अध्याय समाप्त….