स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
कवि चन्द्र विरचित मिथिला भाषा रामायण
बालकाण्डः छठम् अध्याय आ तदोपरान्त
।चौपाइ।
गौतम – घरणि सरणि भल गेलि। गौतम सङ्ग पूर्व सनि भेलि॥
कौशिक कहल कुशल – मति राम। गुण कि कहब अपनै गुणधाम॥
ज्ञान – समुद्र नृपति मिथिलेश। तिरहुति सन नहि दोसर देश॥
जीवन्मुक्त जतय बस लोक। ज्ञान प्रताप चित्त नहि शोक॥
सीता कन्या ततय कुमारि। धनुष-यज्ञ नृप कयल विचारि॥
शिवक धनुष तोड़त जे आय। एहि कन्या मे सैह जमाय॥
पत्र पठाओल तैँ सभ देश। एकहि ठाम देखि पड़त नरेश॥
जायब ततय अँहउ चलु संग। देखक योग्य सभा भल रङ्ग॥
गुरु आज्ञा शुनि चलला राम। देखइत शोभा पथ वन गाम॥
।वरवृत्त।
आनन्दित मन चलला प्रभु दुहु भाय।
जनकक जनपद मुनि पुन देल देखाय॥
सुनतहिँ छल छी लक्ष्मण तिरहुति राज।
कहलनि रघुवर अयलहुँ देखल आज॥
।वसन्त-तिलका।
की दिव्य भूमि मिथिला हम आबि गेलौँ।
देखैत मात्र मन लक्ष्मण तृप्त भेलौँ॥
की दिव्य फूल फल वृक्ष अनन्त धान।
पक्षी विलक्षण करै अछि रम्य गान॥
।नागच।
प्रपृण सन् तडाग को सुधा समान वारिसौँ
विचित्र पद्मिनी-वनी विहङ्ग वारि-चारिसौँ।
द्विरेफ गुञ्जि गुञ्जि केँ महा मदान्ध घूमिकेँ
सरोजिनीक अङ्ग सुप्त वार वार चूमिकेँ॥
।चञ्चला।
शालि गोप गीतिकाँ सुप्रीति रीति शूनि शूनि।
खेत शस्य खाथि नै कुरङ्ग आँखि मूनि मूनि॥
सत्य तीरहूति यज्ञ – भूमि पुण्य देनिहारि।
शास्त्र केँ बजैत बेस कार बैसि डारि डारि॥
।रूपमाला।
नदी – मातृक क्षेत्र सुन्दर शस्य सौँ सम्पन्न।
समय सिर पर होय वर्षा बहुत सञ्चित अन्न॥
दयायुत नर सकल सुन्दर स्वच्छ सभ व्यवहार।
सकल-विद्या-उदधि मिथिला विदित भरि संसार॥
।षट्पद।
कनक सुमणि सौँ खचित रचित नृप विमल अटारी।
नन्दन – सोदर सुवन रती रम्भा सनि नारी॥
मद्र भद्र पर्य्याय भद्र – कर करि ओ करिणी।
सभ गुण नियत निवास कनक – रत्नाकर घरणी॥
उत्तर हिम गिरिवर निकट सुलभ रत्न औषधि सकल।
पुरि महती मिथिला-पुरी ककरहु नहि देखल विकल॥
शुभ लक्षण संयुक्त मनोगति सुन्दर सुन्दर।
उच्चैःश्रवा समान अश्व नृप जेहन पुरन्दर॥
राज – कुमार उदार सकल विद्या काँ जनइत।
शौर्य्यशील सन्तोष धर्म्मवेत्ता स्मृति मनइत॥
सकल प्रजा आनन्द-मन विहित गृहाश्रम धर्म्ममत।
नृपतिक शुभ-चिन्तक सतत नीति-निपुण मन कर्म्मरत॥
पशु पक्षी सभ हृष्ट पुष्ट नहि दुष्ट कुलक्षण।
कृष्णसार मृग बहुत नृपति कर सभहिक रक्षण॥
अतिशय जन सौजन्य देश मुनिजन – मनरञ्जन।
जे ताकी से भेट कतहु नहि सृष्टि एहन सन॥
नारि सुनयना शुभमती कुलदैवत लज्जावती।
सकल रसज्ञा नतिमती मत्त – मतङ्गज – वर – गती॥
।चौपाइ।
कौशिक सङ्ग ततय दुहु भाय। धनुष – यज्ञ थल देखल जाय॥
जनकपुरी मे कयल प्रवेश। कौशिक अयला शुनल नरेश॥
उपाध्याय काँ सङ्ग लगाय। अति आतिथ्य कयल नृप जाय॥
मुनि – पद – पङ्कज अतिशय प्रीति। कयल दण्डवत नृपति सुरीति॥
श्यामल गोर मनोहर देह। चन्द्र सूर्य्य सन निस्सन्देह॥
सब दिश होय प्रकाशित आज। के ई थिकथि कुमर द्विजराज॥
मनमे होइछ प्रीति अपार। देखइत बालक परमादार॥
मौन महीपति भेल ई भाखि। एक टक ताटक लागल आँखि॥
नृपतिक वचन विनयमय शूनि। प्रश्नोत्तर कहलनि मुनि पूनि॥
परिचय हिनकर अगम अपार। थिकथि दुहू जन विश्वाधार॥
राम शा्यम – घन लक्ष्मण गौर। दशरत नृपतिक जुगल किशोर॥
आनल माँगि नृपति सौँ जाय। हमरा भेला बहुत सहाय॥
भेटलि ताटका अबितहिँ मात्र। राम हनल एक शर तनि गात्र॥
छटपटाय छन छाड़लक प्रान। हिनकर सन रन-सूर न आन॥
आश्रम आबि कयल विसराम। कयल पराक्रम बड़ गोट राम॥
यज्ञारम्भ कयल मुनि – वृन्द। भेल उपस्थित राक्षस निन्द॥
पौरुष हिनक देखल हम नयन। वैरि – विहीन विपिन भेल चयन॥
रावण अनुचर अति बलवान। सिंह समक्ष शृगाल समान॥
बेल सुबाहु प्रभृति भट नास। बहुत पड़ाएल बड़ मन त्रास॥
खसल समुद्र बीच मारीच। बड़ कठजीव मुइल नहि नीच॥
गौतम आश्रम गङ्गा – तीर। अयला जखन ततय रघुवीर॥
पतिक शाप दुख कारागार। कैलनि रघुवर ततय उधार॥
अहल्याक प्रभु कयल प्रनाम। रघुवर कहल अपन वर नाम॥
प्रभु – पदधूलि पड़ल उड़ि अङ्ग। भेल अहल्या पूर्व्वक रङ्ग॥
महादेव धनु देखय काज। आयल छथि अनपैँक समाज॥
।सोरठा।
विश्वामित्रक उक्ति, मिथिलापति मन दय शुनल।
कार्य्यसिद्धि वर युक्ति, मानल मन सर्व्वज्ञ बुध॥
।चौपाइ।
बड़ बड़ नृपति गेल छथि आबि। टुटल न धनुष नीक फल भाबि॥
जनक कहल पण हमर न व्यर्थ। मुनिवर अघटन घटन समर्थ॥
कयल कृपा अयलहुँ मुनि आज। सिद्धि भेल मानल मन काज॥
बहुत हर्ष नहि हृदय समाय। कहल सचिव सौँ जनक बुझाय॥
ई बालक महिमा के जान। आगत जेहन स्वयं भगवान॥
हिनकर करू वृहत सतकार। युगल बन्धु छथि परमोदार॥
बाढ़ल नृप मन बहुत सनेह। पूजा विधिवत कयल विदेह॥
कौशिक केँ दय उत्तम वास। समुचित उचिती कहल प्रकास॥
गेल जाओ नृपकाँ मुनि पूनि। कहलनि कार्य्य-भार मन गूनि॥
घर थिक अपन कहल नृप फेरि। हम आएब घुमि फिरि कय बेरि॥
कौशिक युगल बन्धुकेँ कहल। वत्स करक थिक एकटा टहल॥
।वसन्ततिलका।
राजा विदेहक वृहत् फुलबाड़ि जाउ।
हे राम लक्ष्मण अहाँ फुल तोड़ि लाउ॥
देव प्रदोष शिव पूजन मुख्य काज।
राजन्य – वीज चरमाचल-मौलि राज॥
।चौपाइ।
गुर आज्ञानुसार श्रीराम। चलला लक्ष्मण सङ्ग घनश्याम॥
नन्दन – मद – गञ्जन वनवेश। शतमख शतगुण विभवि नरेश॥
लक्ष्मी जतय लेल अवतार। तनिक विभव के वरनय पार॥
देखल जखन जनक – वन जाय। बड़ मन हर्षित दूनू भाय॥
माली सौँ पुछलनि फुल लेब। पूजा हेतु गुरू केँ देब॥
मालि कहल फुलबाड़िक भाग। बढ़ आश्चर्य एक गोट लाग॥
सभ ऋतु फूल फुलायल आज। प्रकट एतय सभ दिन ऋतुराज॥
कुमुदिनि कमलिनि गत – सङ्कोच। रवि-विधु बुधि अपनहिक किरोच॥
अपने युगल मूर्त्ति गुणधाम। हमर भाग्य अयलहुँ एहि ठाम॥
दुहु जन गल देल सुमनक माल। अञ्जलि – बद्ध कहल नयपाल॥
रामचन्द्र शुनि पुनि बजलाह। निजगुणशालि मालि तोह जाह॥
अपन काज कर स्वामि निमित्त। हम वन देखब टहलि सुचित्त॥
।कवित्त।
उपवन मध्यमे तड़ाग हंस चक्रवाक जल-खग सरस सुरस कलगान।
देखि शुनइत मुनिहुक चित्तवित्त हर मानस समान जल एहन न आन॥
अमल कमल कमला निवास भासमान गुञ्जित मधुप-पुञ्ज मत्त मधुपान।
गान कान पड़य चामर चारू ढरइछ देवता-निवास मणिदीपक समान॥
।चौपाइ।
सीता चलली अवसर ताहि। युगल बन्धु छल छथि वन जाहि॥
गिरिजा देवी पूजि मनाउ। माय कहल जानकि अहँ जाउ॥
ततय सखी सङ्ग बहुत कुमारि। विधुर पूर – विधु सुमुख निहारि॥
कमल हरिण खञ्जन ओ मीन। तनि-लोचन – जित सोचहि दीन॥
मानस बासा कयल मरालि। उत्तम देखल जनि जनि चालि॥
जनिक बाहु – जित मञ्जु मृणाल। लज्जित लपटाएल जलपाल॥
तुल्य न कनक कदलि कह काँपि। जघनक हम छी हिनक कदापि॥
अति कृश कटि करकश कुचभार। सुन्दरता सौँ जित संसार॥
कुटिल सुचिक्कन केश विशाल। अंग अलङ्कृत शोभित माल॥
जनिकर शुनल पिकी निक गान। गान – मानहत अङ्ग मलान॥
शुनि नूपुर हंसक धुनि सार। उपवन राम नयन सञ्चार॥
लक्ष्मण काँ पूछल छल – हीन। श्रुति मानस भेल धुनिक अधीन॥
।हरिपद।
बाल हंस कल श्रवण मनोहर एतय कतय सौँ आयल।
जनक-पुरी युवतीक गम-जित मानस व्यथित नुकायल॥
सैह थिकथि जनु देवि अवनिजा अबइत छथि सखि सङ्गे।
नूपुर धुनि सुनलाँ जाइत अछि बुझलाँ जाइछ रङ्गे॥
।बरबा तिरहुति गीत।
अबइत छथि वैदेही सखिल मिलि सङ्ग।
जित – जग – सेना जेना रचित अनङ्ग॥
फरकै अछि सुनु लक्ष्मण दहिना आँखि।
तन पुलकित प्रभु हरषित उठला भाखि॥
गबइत अबइत छथि सब गौरी – गीति।
सकल रागिनी तन धरु जेहन सुप्रीति॥
।हरिपद।
धनुष यज्ञ केँ कारण होइछ उत्सव सकल समाजे।
दर्शनीय तनिका हम देखल एक पन्थ दुइ काजे॥
लोचनमे धन – सार – शलाका सनि लगइत छथि आबी।
सुधा रसैक छटा सनि तनमे के बुझ की अछि भावी॥
।चौपाइ।
उपवन पहुँचलि सकल कुमारि। तोड़थि फूल नबाबथि डारि॥
तरु तरु छाया क्षण विसराम। देखथि चलि चलि भल आराम॥
सीता कहलनि हित-सखि कान। अहँकाँ अछि सभ सगुनक ज्ञान॥
जखनहि सौँ अयलहुँ आराम। बेरि बेरि फरकै अङ्ग बाम॥
सखि कहलनि शुभ – सूचक थीक। सगुनक गुन कहलनि मुनि नीक॥
मज्जन कयल तड़ाग मे जाय। गिरिजा काँ पूजल मन लाय॥
फुलहर थल शोभा भल राज। विष्णुरमा जत सहित समाज॥
।सुन्दरी छन्दः कमला छन्दश्च।
जय देव महेश – सुन्दरी। हम छी देवि अहाँक किङ्करी॥
शिव-देह-निवास-कारिणी। गिरिजा भक्त-समस्त-तारिणी॥
हम गोड़ लगैत छी शिवे। जननी भूधरराज – सम्भवे॥
जनता-मन-ताप-नाशिनी। जय कामेश्वरि शम्भुलासिनी॥
।भुजङ्ग-विजृम्भित छन्द।
महादेव – रानी सती श्री मृडानी सदा सच्चिदानन्द-रूपा अहैँ छी।
अहाँ शैल – राजाधिराजाक पुत्री धरित्री सवित्रीक कर्त्री कहै छी॥
अहाँ योगमाया सदा निर्भया छी दया विश्व चैतन्य रूपे रहै छी।
सदा स्वामिनी सानुकूला जतै छी धनुर्भङ्ग-चिन्ता ततै की सहै छी॥
।उपजाति सुन्दरी क्षण।
अपने काँ हम गौरि की कहू। अनुकूला जनि मे सदा रहू॥
हमरा जे मन मध्य चिन्तना। सभटा पूरब सैह प्रार्थना॥
।चौपाइ।
देखलनि एक जनि युगल – कुमार। हरषहि रहल न देह सँभार॥
गेल छल छथि से सखि सङ्ग फूटि। तनिक भेल जनु मन धन लूटि॥
कहु की देखल कहु की भेल। पुछलहु क्षण नहि उत्तर देल॥
किछु न उपद्रव किछु नहि व्याधि। सहजहि लागल मदन समाधि॥
सभ उपचार करथि भरि पोष। चेतए कहल आन नहि दोष॥
विद्यमान एत युगल – कुमार। देखल तनि शोभा – विस्तार॥
रहितहुँ देवि सरस्वति शेष। कहि सकितहुँ सौन्दर्य्य विशेष॥
विश्व – मनोहर वयस किशोर। अति सुन्दर वर श्यामल गोर॥
जौँ गिरि-नन्दिनि होथि सहाय। देथि जनक – गृह योग्य जमाय॥
देखल न एहन शुक्ल नहि कान। नहि परतक्ष विषय परमान॥
दर्शनीय छथि एहि आराम। जनिक कान्ति सौँ निर्ज्जित काम॥
जे कहि गेला नारद मूनि। मन से पड़ल समय से शूनि॥
यदपि अपन सखि – जनिक समाज। तदपि जानकी मन भेल लाज॥
स्वेद स्थम्भ पुलक वर अङ्ग। भाव सरस धर गर स्वर-भङ्ग॥
देह काँप वैवर्ण्य शरीर। युगल जलज – लोचन धरु नीर॥
प्रलय भाव जागल भल आठ। मनसिज प्रथम पढ़ाओल पाठ॥
तनिक भाव बूझल सखि एक। जनि मनमे छल मूढ़ विवेक॥
चलु जानकि देखू आराम। नीलक कुरवक तरु जँहि ठाम॥
कहलनि से परिहरु परिहास। अहँक रहै अछि बड़ मन आश॥
सखि हँसि कहलनि शुनु सुकुमारि। वनछवि देखू आँखि पसारि॥
नव-घन-श्यामल छथि नहि दूर। धन बिनु बजइछ मत्त मयूर॥
वन घन शोभा कहु की आज। सगुन सिद्धि मन-वाञ्छित काज॥
हँसी देखल विपिन समाज। चतुर सखीक उकुति तनि बाज॥
।शिखरिणी छन्द।
अये हंसी चिन्ता चित परिहरू सुस्थिर रहू
वियोगेँ व्यग्रा की विरह दिन धीरा अहँ सहू।
विशालाक्षी देखू अछि न शिशुता अङ्ग धयले
सुशीला साध्वी छी निकट छथि प्राणेश अयले॥
।बरवा।
नारद मुनि जे कहलनि से दिन।
आरामक परिशीलन करु तजु लाज॥
कहल राम काँ लक्ष्मण दुअ कर जोड़ि।
दर्शनीय नृप-उपवन लिअ फुल तोड़ि॥
।बसन्ततिलका।
हे नाथ सार्थ नदिनाथक बालिका मे
श्रीनाथ – मानस – निवास – मरालिका मे।
राजा – विदेह – दुहिता धरणीसुता मे
की भेद – बुद्धि वर-लक्षण-संयुता मे॥
।चौपाइ।
राम जानकी मन नहि चयन। उत्कण्ठित दर्शन बिनु नयन॥
लता ओट सौँ राम समक्ष। मनसिज – सुषमा – हारक दक्ष॥
सखी देखाओल अवसर जानि। नारद मुनिक वचन अनुमानि॥
तनि बिनु एहन होएत के आन। राजकुमार विष्णु भगवान॥
चलि नहि सकथि थगित भेल देह। बाढ़ल ततय परस्पर नेह॥
सीता रामचन्द्र – मुख हेरि। अनिमिष आँखि निमिष नहि फेरि॥
प्रेम – विवश बिसरल मन शोच। लोचन त्यागल पल संकोच॥
रामहु काँ नहि चित – चैतन्य। साहस सञ्चर नरवर धन्य॥
रमा विष्णु ओ थिकथि सभाग। उचित निमेष न लोचन लाग॥
अग्रज श्याम गोर छोट भाय। शोभा जनिक कहल नहि जाय॥
नख शिख जनिकर देखल रूप। चित्र लिखित सनि सब जनि चूप॥
एक जनि सखि बड़ साहस कयल। सीता – कर – सरसीरुह धयल॥
अयि सखि सुमुखि स्वस्थ रहु चित्त। मुनिक कहल फल-प्राप्ति निमित्त॥
कत जन उपवन कर सञ्चार। सुचित कि उचित कहत व्यवहार॥
चलु बरु गिरिजा – मन्दिर जाउ। चलब भवन किछु समय जुड़ाउ॥
गिरिजा – चरण पूजलहिँ आस। पूरत हयत चित्त निस्त्रास॥
सखी – वचन हित तखना शूनि। युगल बन्धुकेँ देखल पूनि॥
प्रभु छवि देखि धयल मन ध्यान। तन्मय विश्व वस्तु नहि आन॥
देखि देखि सखि युगल – कुमार। आधि विषाद हृदय विस्तार॥
पण की नृप कएलनि मन जानि। बुझि सुझि लेल न हित ओ हानि॥
।घनाक्षरी।
महाराज जनक उचित पण कैल नहि बुद्धिमान लोक बुद्धिमान कतै कहतैनि।
महादेव धनुष मनुष बूत टूट कत बल देवासुरक जतय ने निबहतैनि॥
धनुष भञ्जन मन काम भूप वीर गन एकहु जनक दाप चापमे न लहतैनि।
घुरि वीर आगत नगर निज जयताह घर मध्य कन्यका कुमारि कोना रहतैनि॥
पुलकित तन घन आनन्द उचित मन बेरि बेरि मिथिलेश आँगनमे अबितहुँ।
कन्या वर मङ्गलदायक युवती-समूह गणपति गिरिजा गिरीश गुन गबितहुँ॥
‘चन्द्र’ भन रामचन्द्र पूर्णचन्द्र-मुख देखि अनिमेष लोचन चकोरी केँ बनबितहुँ।
कोटि काम छवि अभिराम घनश्याम राम जानकीक योग्य जौँ मनोज्ञ वर पबितहुँ॥
।मालिनी छन्द।
सभ जनि पुनि गौरी पूजबा काज ऐली।
नव नव फुल-माला मालिनी गाँथि लैली॥
सुविधि कयल पूजा जानकी विश्व – धन्या।
तखन मन प्रसन्ना भेलि शैलेन्द्र – कन्या॥
।गीतिका छन्द।
कहि देल जे मुनि भेल से दिन इष्ट देवि कृपा करू।
अभिलाष-पूरण-कारिणी जनकार्य्य मे मन दै परू॥
सकलेष्ट-साधन-शक्ति – सकला भूधरेन्द्र-सुता अहाँ।
कत किङ्करी शरणागता रहिता मनोरथ सौँ कहाँ॥
।चौपाइ।
गौरि पूजि पद कयल प्रणाम। फरकल बेरि बेरि अङ्ग बाम॥
तखन खसल भल फूलक माल। ओ प्रसाद लय राखल भाल॥
पुन प्रसाद से हृदय लगाब। मन कह वाञ्छित होयत आब॥
भूधर – नन्दिनि हर्षित चित्त। कहलनि वैदेहीक निमित्त॥
चिन्ता परिहरु अवनि – कुमारि। नयन सफल करु निकट निहारि॥
सुन्दर श्याम मही – पुरहूत। शिवक धनुष टुट हिनकहि बूत॥
जे वर नारद कहि गेलाह। लोचन – गोचर से भेलाह॥
गिरिजा – वचन शुनल से कान। सकल सखी करु तनि गुनगान॥
।गीत।
रहू देवि दासी – विषय सहाय।
जय जय जगदीश्वर – वामङ्गी जय जय गणपति – माय॥
अतिशय चिन्ता मनमे छल अछि नृपति कठिन पण पाय।
दरशन देल भेल मन-वाञ्छित चिन्ता गेलि मिटाय॥
सकल सृष्टि-कारिणि जनतारिणि महिमा कहल न जाय।
जगदम्बा अनुकूला अपनहि हम की देब जनाय॥
रामचन्द्र सुन्दर वर जै विधि होथि महीप-जमाय।
जय जय जननि सनातनि सुन्दरि तेहन रचब उपाय॥
।चौपाइ।
गिरिजा – वचन सकल जनि शूनि। हर्षित चललि भवन सभ पूनि॥
गुरुक निकट गेला पुन राम। लक्ष्मण – सहित देखि आराम॥
देखल उपवन हर्ष न थोड़। लगला जाय गुरू केँ गोड़॥
गुरु पुछलनि नृप उपवन केहन। कहल विदेहक होइनि जेहन॥
गुरुपूजार्थ धयल भल फूल। नन्दन – वन न नृपक वन तूल॥
चरमाचल चुम्बन कर सूर। कुमुदिनि – कुलक मनोरथ पूर॥
सरसोरुह – मुह सम्पुट कयल। चटकाली गुरु – भूरुह धयल॥
समुदित विधु-मुख विधु-वदनाक। दिवस अन्ध खग सञ्चर ताक॥
सानुज सन्ध्या – वन्दन कयल। गुरुपद – कमल विमल उर धयल॥
कह रघुवर विधुबिम्ब निहारि। कत विधु कतय विदेह-कुमारि॥
तनि मुख समता शशि की पाब। प्रति तिथि व्यतित अतिथि बनि आब॥
तनि पदसमता वारिज कहब। असमञ्चजल अपयश जन सहब॥
रजनि विकास न हिमसौँ हानि। जानकि उपमा देब कि जानि॥
कन्यारत्न प्रकट महि – फूल। उपमा विधि न रचल निधि-मूल॥
जतय जतय भय पड़इछ दृष्टि। ततय ततय सीतामयि सृष्टि॥
एहन न अछि एको प्रस्ताव। सीतास्मरण जतय नहि आव॥
गुरुप्रसाद अयलहुँ एहि ठाम। शुनतहिं छलछी तिरहुति नाम॥
छथि गुरु देव विधाता तूल। काज होइत अछि चित अनुकूल॥
टुटि छिड़िआयल तारा-हार। रजनीकाँ शशि सङ्ग विहार॥
बीतल रातिक दोसर याम। निद्रा सेवित लक्ष्मण राम॥
हृदय कमल मे रमा निवास। विद्रावित निद्रा तैँ त्रास॥
चललि रजनि जनि विधु तहि सङ्ग। अरुणित अम्बर कुसुमक रङ्ग॥
खग-कल भल भूषण झणकार। समटि लेल तारावलि हार॥
पसरल छल जनु कच अंधकार। धूसर विधु विरही व्यवहार॥
कुमुदिनि मलिनि कमल वन राज। उदय अस्त दिनकर द्विजराज॥
क्लेश कटित भेल कोकवधूक। दिवस – अंध मनधंधित घूक॥
कत प्रभात-सूचक खग कूज। मुनि मानस-विधि गुरु केँ पूज॥
शिव शिव धुनि शुनि पड़ चहु ओर। स्नान करथि संयमि जन भोर॥
घण्टा शंखनाद आनन्द। विकच कमल कैरव मुख बन्द॥
प्रेम – बद्ध अलि नलिनी – कोष। भ्रमित भ्रमर मधु पिबि भरि पोष॥
गणिका चललि नृतय अवसान। नील नलिन दल नयन समान॥
वन्दी विरुद रटथि नृप – द्वार। भैरव राज सरस सञ्चार॥
वाद्य विविध धुनि मृदुल मृदङ्ग। शयित अवनिपति निद्रा भङ्ग॥
अगनित महिपति जनक-समाज। आगत शिव – धनु-भञ्जन काज॥
यथा यथा भूपति जन आव। तथा जनक सौँ आदर पाव॥
रथ तुरङ्ग गज पथ नहि सूझ। अर्थी दिन रजनी नहि बूझ॥
यज्ञभूमि मे थल निर्म्माण। कयल मनोहर जनक – प्रधान॥
प्रातःकृत्य स्नान कय राम। गुरु – पद – पङ्कज कयल प्रणाम॥
आशिष दय गुरु कहलनि आज। सत्वर चलु जत नृपति विराज॥
मञ्च अनेक बनल छल बेश। तेहि पर बैसथि जाय नरेश॥
सकल मञ्च मे एक प्रधान। बैसल कौशिक सह भगवान॥
नृपति सुमति तति तत बैसलाह। जनक – प्रधान कहय लगलाह॥
शतानन्द मुनि गौतम - तनय। कहल सभा मे जनकक विनय॥
कन्या रमा – समा मिथिलेश। तप-बल पाओल तिरहुति देश॥
धरणी – तनया अति सुकुमारि। छविमयि रती-विजयि अवतारि॥
त्रिभुवन देखल शुनल नहि कान। वनिताजन विरचल विधि आन॥
आगत नृपवर जनक-समाज। जनकक कहल शुनल हो काज॥
शिवक धनुष भञ्जन कर जैह। वैदेही वर होयता(ह) सैह॥
शुनि तनि कथा हर्ष नृप – चित्त। आएल छी एत सैह निमित्त॥
तोड़ब धनुष हमहि अगुआय। पाछाँ रहब मरब पछताय॥
बड़ बड़ बलगर गलगर जाथि। टूट न धनुष मनुष पछताथि॥
एहि गत कत कत नृप गत – गर्व्व। धनुष न टार हार मन सर्व्व॥
परिचित बलक हजार हजार। शङ्कर धनुष समुख मन हार॥
धनुष निकट माचल महाघोल। सभ जन पाओल माथक मोल॥
।सोरठा।
आब न रहल उपाय, वनिता-गण मन विकल कह।
भूपति-पण अन्याय, कतय शम्भु-धनु मनुष कत॥
कन्या रहलि कुमारि, अनुचचित एहन न भेल छल।
सभ बैसलि मन हारि, नृपति सकल बल बुझि पड़ल॥
शतानन्द बजलाह, अह आह निर्वीर महि।
भल करइत अधलाह, होमय न बूझ विदेह काँ॥
।घनाक्षरी।
टुटल न धनुष विमुख तुष नृपगण,
साहस सौँ सहस सहस छल लटकल।
वीर सौँ विहीन बेलि अवनी से ज्ञात भेल,
गेल जाओ वीरवृन्द व्यर्थ छी अटकल।
विधिक लिखल कन्या रहली कुमारी मान्या,
जनकक उक्ति शतानन्द सभा फटकल।
लछमन कुमर सकोप शनि बजलाह
आकृति जनिक देखि सभ जन सटकल॥
।झूलना छन्द।
देव-रघुनाथ-पद-वारिरुह-दास हम सर्व्वदा भ्रातृ-आज्ञानुसारी।
मेरु उद्दण्ड भुजदण्ड तट गण्य नहि जीर्ण शिव-चाप कहु कोन भारी॥
पाबि रुचि चाप धय देब कय खण्ड कय रहित भय सञ्चरब वीर मानी।
कोप मन बाढ़ जनकोक्ति कटु गाढ़ शुनि विश्व के ठाढ़ संग्राम प्राणी॥
।बरबा।
स्मित – मुख राम न बजला, अनुज निहारि।
चेष्टहि कयल निवारण, समय विचारि॥
कौशिक कहलनि रघुवर धनुष उठाउ।
पूरिअ जनक – मनोरथ आधि मिटाउ॥
(धनुर्ब्बन्ध, २० पत्र कमलबन्ध, १० दल कमलबन्ध, चामरबन्ध, करमुष्टिकबन्ध, गो-मूत्रिका-बन्ध इत्यादि)
।दोहा।
राम राम छम काम-सम मसम मसम सम धाम।
रोम रोम भ्रम सोम हिम सुमम महिम सम नाम॥
।मालाबन्ध घनाक्षरी।
कत कत जत तत जन मन मन भन बड़ गड़बड़ पड़ गोपचाप भूपकाँ।
गाम धाम धाम राम-गीति अतिप्रीति रीति बर गर हार धर जप तप रूपकाँ॥
सुर नर पुर दार सकलक एक टक आँखि भाखि भाखि सखि भल भेल भलकाँ।
भल फल भेल देल सिधि विधि निधि सुधि गेल चल चल बल शाल भेल खलकाँ॥
।चौपाइ।
जनक कयल कौशिक काँ विनय। खण्डन धनुष करथु नृपतनय॥
कौशिक कहल कहल नृप वेश। धनु भञ्जन नहि एक नरेश॥
अँहक मनोरथ पुरता राम। अयले छथि धनु-खण्डन-काम॥
रमानाथ पुरुषोत्तम शूर। करिय विदेह-मनोरथ पूर॥
गुरुक वचन शुनि कहि प्रभु नीक। कञ्जबन्धु-कुल कृति हित थीक॥
परिकर बाँधल दृढ़तर राम। राखल धनुष बाण तहिठाम॥
मञ्चक उपर सहज प्रभु ठाढ़। अतिशय हरष जनक मन बाढ़॥
रानि मनाबथि देव बहूत। धनु भञ्जन हो हिनकहि बूत॥
जनिक दृष्टि पड़ युगल कुमार। विबुध विलोचन सम व्यवहार॥
घण्टाशत-युत मणि ओ वस्त्र। स्थापित छल त्रिपुरारिक अस्त्र॥
देव सकल छल भल नर वेष। रघुवर शोभा टक टक देख॥
इन्द्राणी-गण गायिनि सर्व्व। रमा-रमेशक परिणय पर्व्व॥
लक्ष्मण तत्क्षण रक्षण काज। कहल आबिकैँ धनुषसमाज॥
राम वामकर धनु धरताह। जन देखइत कौतुक करताह॥
श्रमकर नृपवर छल छथि व्यर्थ। देखथु रामक कर – सामर्थ्य॥
गुरु देथि आशिष पढ़ि शत बेरि। कौतुक ततय देखल जन ढेरि॥
।अमृतध्वनि।
अँह धरणी धीरा रहब सहब धरणि-धर भार।
दलन हेतु शङ्कर-धनुष उद्यत राम उदार॥
दार-सहित जयकार करथि सुर भार अवनि हर।
वर्ष सुमन मन हर्ष बहुत प्रभु कष धनुष कर॥
भङ्ग धनुष रव चङ्ग भुवन सब रङ्ग अवनि पुनि।
चाप टुटल परिताप छुटल कहल लोक अमृतधुनि॥
।चौपाइ।
प्रभु कर परस धनुष टुटि गेल। शब्द प्रचण्ड भुवन भरि गेल॥
फणिपति-फण फट फट कय फाट। कच्छप कछमछ मानस आँट॥
कलमलाय उठलाह वराह। कसमस कयल दशन निर्वाह॥
दिग्गजचय कयलन्हि चितकार। सहि नहि शक महि दुर्भर भार॥
डगमड अवनी अदभुत लाग। सात समुद्र रहित मर्य्याद॥
दिनकर-रथ-हय त्यागल बाट। जय जय कर मिथिलेश्वर-भाट॥
मैथिल मानव उठला भाखि। विधि मर्य्यादा लेलनि राखि॥
मनहुँक संशय-चय भेल दूर। कयल मनोरथ ईश्वर पूर॥
जनकक लोचन हरषक नोर। राम धनुष तोड़ल भेल सोर॥
अति चिन्ता चिन्तामणि पाय। जनक कनकमणि देथि लुटाय॥
जनकक – पण निवहल भल हूब। रङ्क न एक महघ मणि छूब॥
राजा मिलल राम भरि अङ्क। वत्स छोड़ाओल हमर कलङ्क॥
रानी हर्ष कहल नहि जाय। अन्तःपुर धन रहलि लुटाय॥
कयल जानकिक दिव्य शिङ्गार। दक्षिण कर देलनि वर हार॥
।गीत-कमल-छन्द।
कुशल जगदम्बिका करथु घनश्याम काँ।
जनक-पण-पूर्त्तिमे प्रबल-बल-धाम काँ॥
कहथि तिरहुति मे सकल जन राम काँ।
कयल अहाँ विश्व मे अचल निज नाम काँ॥
कमल-वर-लोचना जनक-सुकुमारिका।
कहथि सखि लोक की हृदय-दुख-धारिका॥
कयल विधि सिद्धिओ मनक अभिलाष काँ।
अहँक वर देखि केँ नयन-सुख लाख काँ॥
दिवस-पति-वंश मे एहन सखि आन के।
त्रिपुर-हर-चाप काँ दलन भगवान के॥
।लक्ष्मीधर स्राग्विणी छन्द।
जानकी हाथमे माल लक्ष्मी धरू। श्रीघनश्यामकाँ देखि चिन्ता हरू॥
जे धनुर्भङ्गकर्त्ता ततै सञ्चरू। ऐ महानन्दसौँ स्वान्तकेँ सम्भरू॥
कवि चन्द्र विरचित मिथिला भाषा रामायण
छठम् अध्याय – क्रमशः सँ आगू
।चौपाइ।
स्मितमुख सखि सङ्ग बाढ़ल लाज। बड़ उत्सव बड़ लोक समाज॥
रामक उपर देल से माल। त्रिदश-दुन्दुभी बाज विशाल॥
सकल नगर-जनि जनकक दार। वार वार वर कुमर निहार॥
जनक कहल कौशिक काँ न्याय। दशरथ ओतय निमन्त्रण जाय॥
रानी-सुत-युत नृप अओताह। जाति बराति बहुत लओताह॥
पत्र सहित तत पहुँचल दूत। जतय अयोध्याधिप पुरहूत॥
दशरथ बुझल राम-करत चरित। जेहन सुखायल तरु हो हरित॥
मिथिलेशक जे आयल दूत। तनिकाँ देलनि वित्त बहूत॥
हरषि हरषि अपनहिँ कर काज। बजबाओल सभ मन्त्रि समाज॥
बाँचि शुनाओल सभ काँ पत्र। जाएब तत सुत सहित कलत्र॥
जनक समधि निरवधि सुख थीक। एहि सौँ कार्य्य होएत की नीक॥
गज तुरङ्ग-वर वर-रथ पत्ति। महती सेना बड़ सम्पत्ति॥
अग्नि सहित गुरु चलला अग्र। हमरा हर्षहिँ मन भेल व्यग्र॥
हुनि संग चलली रामक माय। हम रथ चढ़ि जाएब अगुआय॥
प्राप्त जनकपुर दशरथ भूप। अयला जनक समधि अनुरूप॥
आनल दूरहि सौँ अड़िआति। जे व्यवहार विहित छल जाति॥
शतानन्द गौतम – मुनि – बाल। अति सत्कार कयल तत्काल॥
उत्तम भवन देल नृप वास। सुरपति-सदन समान सुभास॥
लक्ष्मण सहित आबि तत राम। पिता चरणमे कयल प्रणाम॥
उत्कण्ठित छल चित्त बहूत। युगल कमल-मुख देखल पूत॥
।सोरठा।
गुरुक अनुग्रह तात, कार्य्य सकल सम्पन्न अछि।
अपनै छलछी कात, बालक प्रति-पालक सुमुनि॥
दशरथ हृदय लगाब, लक्ष्मणयुत रघुनाथ काँ।
अनिर्व्वचन सुख पाब, ब्रह्मानन्दक प्राप्त जनु॥
।चौपाइ।
वास अयोध्याधिप आगार। राजकुमर वर दशरथ-दार॥
जनक मुदित मन देल निवास। यथायोग्य काँ स्थल विन्यास॥
सामग्रीक बूझ के थाह। लक्ष्मी-नारायणक विवाह॥
विधि समान मुनि विश्वामित्र। विदित भुवन भरि जनिक चरित्र॥
दशरथ नृपति निकट अयलाह। घटना शतानन्द लयलाह॥
हे नृप-वर एत नृपति विचार। राजकुमर सभ होथु सदार॥
जनकात्मजा उर्म्मिला नाम। लक्ष्मण परिणय विधि तहिठाम॥
जनक – भ्रातृ – कन्य दुइ गोटि। जेठि श्रुतिकीर्ति माण्डवी छोटि॥
भरत तथा शत्रुघ्न जमाय। यथासंख्य होमहि बुझ न्याय॥
से शुनि कहल अयोध्याधीश। अघटन घटना कर जगदीश॥
जे अनुमति रति नृपति विदेह। हमरो अनुमति निस्सन्देह॥
कहल पुरोहित नृपकाँ जाय। चारू कन्या वृत्त जमाय॥
शुभ सिद्धान्त नगर भेल ख्यात। हर्षयँ पड़य न पृथिवी लात॥
आयल सुदिन सुलग्न सुयोग। हलचल सकल चलल उद्योग॥
जनि कर परिछनि गबइत गीति। विधि कर विधिकरि तिरहुति रीति॥
बहुत सुवासिनि नगर हकार। जनक कयल भल कुल-व्यवहार॥
भेरी दुन्दुभि घन निर्घोष। गीत नृत्य नृपपुर भरि पोष॥
मण्डप अतिशय शोभित देश। मुक्ता-पुष्प – फलान्वित वेश॥
रत्नस्तम्भ बहुत बड़ गोट। वर वितान तोरण नहि छोट॥
रत्नाञ्चित वर आसन कनक। बैसक देल राम काँ जनक॥
गुरु वसिष्ठ कौशिक सत्कार। शतानन्द कयलनि व्यवहार॥
रामक निकटहिँ बैसक देल। बहुत गीत हो हर्षक लेल॥
अग्निस्थापन विहित विवाह। मण्डप सीता काँ लयलाह॥
नाना – रत्न – विभूषित काय। सीता शोभा कहल न जाय॥
रानी – सहित जनक महराज। बैसला कन्या – दानक काज॥
।दोहा।
पङ्कज-लोचन-राम-पद, लेलनि जनक धोआय।
बिधिवत से जल भक्ति सौँ, माथा लेल चढ़ाय॥
।सोरठा।
जे जल गौरीनाथ, मुनिजन-सहित विरञ्चिगण।
मुदित चढ़ाओल माथ, हमरहु प्राप्ति से भाग्यवश॥
।चौपाइ-मणिगण।
नरवर – वर – सुत – कर – जलरुह पर। नरवर धरणि – सुजनि – कर – वर धर॥
अछत उदक धर श्रुति विधि अनुसार। तनि अरपल भल वर रघुवर – कर॥
।रूपक घनाक्षरी।
जनक कहल न रहल अभिलाष मन ज्ञान ध्यान मध्य देल दिवस गमाय।
मन्दिरमे इन्दिरा कहाय बालिका छलीह आज भगवान विष्णु पाओल जमाय॥
दशरथ समधि विदित निरवधि यश जगतक जननीक जनक कहाय।
कहु भगवान की ग्रहण करु मैथिलीक हम भाग्यवान् तिरहुति राज्य पाय॥
।चौपाइ।
सीता अरपल रामक हाथ। रमा जलधि जक जनक सनाथ॥
लक्ष्मणकाँ निज कन्या देल। नाम उर्मिला हर्षित भेल॥
विख्याता श्रुतिकीर्त्ति कुमारि। देल भरत काँ जनक विचारि॥
माण्डवि प्रस्थित कयल जमाय। श्रीशत्रुघ्न समय शुभ पाय॥
चारु कुमार दार-सम्पन्न। लोकपाल सन लोक प्रसन्न॥
जनक कहल हरषित तहिठाम। सीता लाभ जना एहि धाम॥
शुनु वसिष्ठ मुनि विश्वामित्र। कहइत छी कन्याक चरित्र॥
भूमि-विशुद्धि यज्ञ करबाक। नृपतिहुँ काँ भेल हर धरबाक॥
देखल तत हम जोतइत भूमि। बहराइलि कन्या काँ घूमि॥
चारि वरष वयसक परमान। कन्या एहनि देखल नहिं आन॥
के ई थिकथि कोना के जान। हृत भेल ज्ञान हिनक लेल ध्यान॥
आनल घरमे पुत्री भाव। उपमा हिनक आन के पाव॥
एक समय नारद सञ्चार। भ्रमइत अयला हमरा द्वार॥
करइत महती वीणा गान। अनुरत भगवानक गुणगान॥
पूजन कयल जे होमय बूझ। पूछल अपनेकाँ सभ सूझ॥
उतपति कन्या धरणी फोड़ि। के थिकि कहु दिय संशय तोड़ि॥
शुनि मुनि कहलनि शुनु मिथिलेश। गोपनीय कहइत छी वेश॥
नारायण लेल नर अवतार। रावण मारि महिक हर भार॥
चारि रूप मे दशरत गेह। सम्प्रति छथि से निस्सन्देह॥
।रूपमाला।
योगमाया थिकथि सीता राम विभु भगवान।
देब तनिकहि हिनक पति ओ थिकथि सत्य न आन॥
ई कथा ओ कन्यका गुण कहल नारद मूनि।
ताहि दिन सौँ रमा मानल भेल चरित जे पूनि॥
।चौपाइ।
कोन परि हयता राम जमाय। दिन दिन चिन्ता बाढ़लि जाय॥
चिन्तातुर मन कयल विचार। सभ महिपति आबथि जैँ द्वार॥
स्मरहर त्रिपुर समर मे मारि। धनुष धयल की चित्त विचारि॥
हमर पितामह घर छल धयल। विद्यमान फल पण जे कयल॥
सभहिक होइत मानक हानि। सकल निबाहल देवि भवानि॥
लयलहुँ पङ्कज – लोचन राम। अपनैँ मुनिवर हमरा गाम॥
सुफलित हमर मनोरथ गोट। सुयश भुवन भरि भेल न छोट॥
।गति तिरहुति-प्लवङ्गम छन्द।
श्रीपति रविकुल – तिलक जानकीनाथ हे।
लोचन शोच न एक चरण धय माथ हे॥
कोन सुधन हम देब रमापति रामकाँ।
की करु हम गुणगान सदानन्द धामकाँ॥
के अपन सौँ आन अधिक संसार मे।
भानु इन्दु वर नयन ज्ञानि अवतार मे॥
श्रीनारायण देव देखि छवि लेब हे।
विश्वम्भर विभु एक देव-वर देव हे॥
।सोरठा।
जौतुक देवक थीक, पुत्रिक उचित द्विरागमन।
सम्मति सभ मुनिहीक, विष्णु जमाय सुता रमा॥
।दोहा।
शत सहस्र देल अश्वरथ, अश्व नियुत पुन देल।
दश सहस्र गज राम काँ, देलनि हर्षक लेल॥
दासी देलनि तीनि शय, एक लक्ष देल पत्ति।
दिव्याम्बर वरहार पुन, लक्ष्मी काँ सम्पत्ति॥
।चौपाइ।
मणिचय परखि परखि नृप लेथि। शय शय प्रति गहना पुनि देथि॥
वसिष्ठादि मुनि जन सत्कार। जनक कयल उत्तम व्यवहार॥
लक्ष्मण भरत कुमर जे सर्व्व। तनिकहु धन देल खर्व्व निखर्व्व॥
सकल कन्यका कयल बिदाय। जनकक नयन नोर बढि आय॥
।माधवीय वराड़ी छन्द।
तुअ बिनु आजु भवन भेल रे, घन बिपिन समान।
जनु ऋधि सिधिक गरुअ गेल रे, मन होइछ भान॥
परमेश्वरि महिमा तुअ रे, शिव बिधि नहि जान।
मोर अपराध छमब सब रे, नहि याचब आन॥
जगत जनति काँ जग कह रे, जन जानकि नाम।
नगर नेह नियत नित रे, रह मिथिला धाम॥
शुभमयि शुभ शुभ सभ दिन रे, थिर पति अनुराग।
तुअ सेबि पुरल मनोरथ रे, हम सुखित सभाग॥
।चौपाइ।
सजल-नयन जानकि मुलि माय। लोचन जल बह रहल न जाय॥
देखब कोन परि पुत्रि जमाय। कहुखन नोर न आँखि शुखाय॥
समदाउनि गायिनि-गण गाब। ककरा नयन नोर नहि आब॥
शाशु श्वशुर पद सेवन करब। पतिव्रत मे तन मन अहँ धरब॥
जानकि केँ रानी करू चूप। कहि परबोध सुवचन अनूप॥
वरष दूइ छल अहँ सहवास। अहँ बिनु जानकि भवन उदास॥
चलल सबारी डंका बाज। सहित बराति चलल महराज॥
उचिति विनति कति सहित सनेह। दशरथ समधि समान विदेह॥
।सोरठा।
नाना बाजन बाज, नभ सुरराज-समाज मे।
जय जय जय महाराज, बन्दी मागध लोक कह॥
।चौपाइ।
मिथिलापुर सौँ योजन तीन। पहुँचलाह उत्साह नवीन॥
कयल वसिष्ठक नृपति प्रणाम। घोर निमित्त देखि तहि ठाम॥
असकुन गुनि मन चिन्ता आब। कहु गुरु शान्ति अनिष्ट प्रभाव॥
अछि किछु भयक योग तत्काल। अचिरहि हो सुख हे महिपाल॥
हरिण अनेक प्रदक्षिण जाय। एहि सौँ संकट विकट मेटाय॥
एहि विचार मे उठल बसात। सहित मूल तरु रहल न पात॥
धूरा उड़ ककरहु नहि सूझ। उतपातक गति के जन बूझ॥
देखल किछु दुरि आगाँ जाय। कोटि सूर्य सम भासित काय॥
नील जलद सन जटा विशाल। दशरथ आगु ठाढ की काल॥
दशरथ मन कह हे भगवान। धर्म्महि धाधर शुनल न कान॥
तनिकर पूजा बहुविधि कयल। चिन्हल दण्डवत पद-युग धयल॥
त्राहि त्राहि कहि जोड़ल हाथ। अभय प्रदान करिअ भृगुनाथ॥
राम हमर छथि प्राणाधार। मन नहि थिर कर देखि कुठार॥
धर्म्मक कथा कोप कत मान। नृप कह आन कहथि मुनि आन॥
।घनाक्षरी।
अस्त्र चोष कोष अछि मन महारोष अछि बल भरि पोष अछि रीति अनुसरबे।
नाम भृगुराम अछि समर न साम अछि गति सभ ठाम अछि अरि चोर धरबे॥
एहन के वीर अछि धनुष सतीर अछि कुलिश शरीर अछि हरि अरि गरबे।
विदित संसार अछि क्षत्रिय संहार अछि करमे कुठार अछि घोर मारि करबे॥