गोपाल मोहन मिश्र केर दू गोट कविता
*बूढक दर्द़* आ *एकमात्र जवाब*
बूढक दर्द़
ओ अन्हार कोठरी में बैसल-बैसल अचानक फूटि पड़ैत छैथ।
ओतय क्यो नहि होईत अछि, जे सही समय पर हुंनका सँभारि सकै ।
हुंनकर नोर अन्हार में गुम फ़र्श पर ओस के जेकाँ चुपचाप टपकैत छैन।
क्यो सुनैत नहि छैन हुंनक सुबकबाक आवाज़।
लेकिन ओ होईत ज़रूर छैक,
अन्हार में चीख़ के जेकाँ निरंतर घुलैत।
फेर ईश्वर आकाश के खिड़की खोलि,
बाहर झंकैत छैथ,
आ पृथ्वी पर फैलल अपनहि माया के,
ओहन होयबा पर कानs लगैत छैथ।
हमरा एक बेर एकटा माली बतौलक
कि ओस पृथ्वी पर,
ईश्वर के झड़ैत नोरक फुहार छैक,
जे कतेक बेर हवा में लटकैत रहैत छैक,
आ कतेक बेर घासक नोक पर चमकैत छैक।
एकमात्र जवाब
जखन दूरी बढैत छैक आयु के जन्म सँ
‘उपसंहार’ के निकट आबs लगैत छैक साँस
‘प्रस्तावना’ तेज़ी सँ दूर होईत जाईत छैक
कोनो बीतल सपना जेकाँ
जखन थकs लगैत छैक असहमति
ज़माना सँ, देश दुनिया सँ
तर्क के फूलs लगैत छैक साँस
जन्म सँ मरण तक दौड़s में
हाथ मलैत रहि जाईत छैक स्मृति
संस्मरण, आत्मकथा में ढूँढ़s लगैत छी
हम स्वयं के I
हर प्रकार के विरोध, चुनौती, प्रश्न के
एकमात्र जवाब छैक बुढ़ापा !