स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
कवि चन्द्र विरचित मिथिला भाषा रामायण
बालकाण्डः तेसर अध्याय
दशरथ केर पुत्रेष्टि-यज्ञ आर चारि पुत्रधनक प्राप्ति
।चौपाइ।
राजा दशरथ बड़ श्रीमान । सत्य-पराक्रम एहन न आन ॥१॥
पुरी – अयोध्याधिप अति वीर । सकल – लोक – विश्रुत रणधीर ॥२॥
पुत्र – हीन चिन्तातुर चित्त । गुरु – समीप – गत तकर निमित्त ॥३॥
कयल सविधि गुरु – चरण प्रणाम । कहलनि पुत्र – हीन धिक धाम ॥४॥
गुरु अपनेँ सन राज्य पवित्र । पुत्रहीन की कर्म्म विचित्र ॥५॥
कयल जाय गुरु तेहन उपाय । श्री – परमेश्वर होथि सहाय ॥६॥
पुत्रहीन केँ राज्यक भोग्य । लुप्त – पिण्ड – क्रिय पुत्र न योग्य ॥७॥
लक्षण – लक्षित पुत्र अनेक । हमरा होथि से करू विवेक ॥८॥
गुरु वसिष्ठ कहलनि तत्काल । चिन्ता मन जनु करु महिपाल ॥९॥
चारि पुत्र अहँकाँ नृप हयत । जनिक सुयश त्रिभुवन मे जयत ॥१०॥
शान्ता – स्वामी मित्र जमाय । आनू तनिकाँ अपनहि जाय ॥११॥
काम – यज्ञ करु विधि सौँ भूप । हमर सब मिलि कर्म्म अनूप ॥१२॥
अङ्ग देश मे भाग्य विशाल । रोमपाद नामक महिपाल ॥१३॥
पुत्र न तनिकहुँ गत कत वर्ष । चिन्तातुर मन रहल न हर्ष ॥१४॥
तनिकाँ कहलनि सनत्कुमार । पुत्र होयत करु एहन विचार ॥१५॥
शृङ्गीऋषि जौँ एहि थल आव । तनिका सौँ बाढ़य सद्भाव ॥१६॥
शान्ता कन्या तनिकाँ देब । मनवांछित फल हुनि सौँ लेब ॥१७॥
शृङ्गी रहता घरहि जमाय । साध्य काय्य पुत्रेष्टि कराय ॥१८॥
मन्त्री सभ काँ पुछल नरेश । शृङ्गीऋषि आबथि एहि देश ॥१९॥
मन्त्रीगण भण सुनु महराज । बड़ गड़बड़ सन लगइछ काज ॥२०॥
ओ वनचर व्यवहार न जान । सभकाँ मानथि एक समान ॥२१॥
वनिता पुरुष भेद नहि चित्त । जाएत के वन तनिक निमित्त ॥२२॥
बड़ क्रोधी मुनि तनिकर बाप । अनुचित देखलैँ देथिनि शाप ॥२३॥
सुमरि – सुमरि तनि पुण्य-प्रताप । हे महिपति जिव थर-थर काप ॥२४॥
शृङ्गी पिता विभाण्ड स्वभाव । साध्य न मन्त्री देल जबाब ॥२५॥
भावार्थः
दशरथा नामक एक राजा छलाह । ओ बहुते श्रीसम्पन्न छलाह । सत्य व पराक्रम मे हुनकर जोड़ा कियो नहि छल । ओ अयोध्यापुरीक स्वामी रहथि । युद्ध मे हुनक वीरता आ धीरा समूचा दुनिया मे मशहूर छल । हुनका पुत्र नहि छलन्हि, ताहि लेल हुनकर मोन मे चिन्ता रहैत छलन्हि । ओ एक दिन एहि चिन्ताक समाधानार्थ गुरु वसिष्ठ लग गेलाह । ओ यथोचित रीति सँ गुरुक चरण मे प्रणाम कयलनि आ कहलनि – “हे गुरुदेव! पुत्रहीन केर घर बेकार अछि । हमरा अपने जेहेन गुरु भेटल अछि आ पवित्र राज्य सेहो भेटल अछि । तैयो हम पुत्रहीन छी । भाग्यक केहेन विडम्बना अछि ? हे गुरुदेव! एहेन उपाय करू जाहि सँ श्रीसहित नारायण हमर सहायक होइथ । जे पुत्रहीन अछि ओकरा राज्यक भोग कि भेटतैक ? जँ योग्य पुत्र नहि भेल त मरला ओकर पिण्डदान के करत ? तेँ विचार कय केँ ई बताउ जाहि सँ हमरा अनेकों गुणवान पुत्र प्राप्त हुअय ।” ॥१-८॥
गुरु वसिष्ठ उत्तर देलथिन – “हे राजा! अपने मोन मे चिन्ता जुनि करू । अपने केँ चारि गोट पुत्र होयत, जिनकर सुयश तीनू लोक मे पसरत । शृंगी ऋषि शान्ताक स्वामी अपनहिक मित्रक जमाई थिकाह । हुनका अपने स्वयं जाकय आनि लियह । हे महाराज! शास्त्रोक्त विधानक संग काम-यज्ञ (पुत्रेष्टि) करू । हम सब गोटे मिलिकय एहि काज मे अपनेक सहयोग करब । अंग देश मे परम भाग्यशाली रोमपाद नामक राजा रहथि । हुनकहु बहुते उमेर बिति गेलनि मुदा पुत्र नहि भेलनि । मोन मे चिन्ता धेने रहैत छलन्हि । हर्ष हेरा जाइत छलन्हि । सनत्कुमार हुनका उपदेश देलथिन जे पुत्र होयत, से विश्वास करू । यदि शृंगी ऋषि एतय आबथि तँ हुनका संग सद्भाव (मित्रतापूर्ण सम्बन्ध) बढ़ायल जाय । शान्ता नामक अपन बेटी केँ हुनका संग ब्याह करायल जाय आर हुनकर सहायता सँ मनवांछित फल (पुत्र) प्राप्त होयत । शृंगी ऋषि जमाय भ’ कय घर मे रहता, एहि तरहें हुनका सँ पुत्रेष्टि यज्ञ करायल जा सकैत अछि ।” ॥९-१८॥
राजा रोमपाद मंत्री लोकनि केँ बजाकय पुछलनि, “शृंगी ऋषि एतय कोना अओता ?” मंत्री लोकनि कहलखिन, “हे महाराज! सुनल जाय ! ई काज बड़ा गड़बड़ सन लागि रहल अछि । ओ वनवासी छथि । गृहवासीक व्यवहार नहि जनैत छथि । सब केँ एक्के-रंग बुझैत छथि । हुनकर मोन मे नर ओ नारी मे कोनो अन्तर नहि बुझय मे अबैत छन्हि । कहू त! हुनका आनय लेल तपोवन मे के जायत ? हुनकर पिता विभाण्डक मुनि बड़ा क्रोधी छथि । किछुओ अनुचित व्यवहार देखता तँ तुरन्त श्राप दय देता । हुनकर पुण्यक महिमा सोचि-सोचिकय, हे महाराज! हमर जी थर-थर काँपैत अछि । शृंगी ऋषिक सेहो स्वभाव अपन पिता विभाण्डक ऋषि जेहने छन्हि । ई काज साध्य नहि अछि ।” – मंत्री लोकनि जवाब देलनि ॥१९-२५॥
।दोबय छन्द।
भूपति तखन वार – वनिता के अपना निकट बजाओल ।
अपन निमित्त शृङ्गिऋषि आबथि सब कहि काज शुनाओल ॥२६॥
मुनि-मन-मोहिनि तोहरि सनि के जौँ ओ मुनि केँ लएबह ।
हमर मनोरथ – सिद्धोत्सव मे कोटि कोटि धन पएबह ॥२७॥
हाथ जोड़ि गणिकागण बाजलि साधक कार्य्य विधाता ।
आनब हम ठानब प्रपञ्च बड़ स्वस्थ चित्त रहु दाता ॥२८॥
तकइत तकइत सभ जनि पहुचलि पाओल तनिक ठेकाना ।
रतिपति – वर्द्धन राज अलापय रतिचेष्टा कर नाना ॥२९॥
सञ्च सञ्च शृङ्गी लग सभ जनि गणिका ओ संप्राप्ता ।
तनिसौँ अतिथि-सपर्य्या पाओल तनिक जनक भय-व्याप्ता ॥३०॥
गाबि गाबि नित गीत मनोहर मिलि मिलि मुनि तन जाथो ।
कन्द मूल फल प्रीति सौँ देथि जे मुनिहिक सोझाँ खाथो ॥३१॥
भावार्थः
तखन राजा वेश्या सब केँ अपना लग बजौलनि आ अपन प्रयोजन सुनाकय जे अमुक काज सँ शृंगी ऋषि केँ बजा आनू (ओ कहलखिन) – “मुनिक मोन केँ मोहयवाली तोरा सब जेहेन दोसर के अछि ! जँ तूँ सब शृंगी ऋषि केँ आनि लेमें त हमर मनोरथ पूरा होयबाक उत्सव मे करोड़ों स्वर्ण-मुद्रा पेमें ।” वेश्या सब हाथ जोड़िकय बाजल – “एहि काज मे ईश्वर हमरा सभक साधक हेता । तरह-तरह के प्रपंच ठानिकय हम सब हुनका लय आनब । हे दाता! अपने निश्चिन्त रहू ।” शृंगी ऋषि केँ तकैत-तकैत सब वेश्या लोकनि पहुँचल आ हुनकर ठेकान ताकि लेलक । ओ सब काम-वर्द्धक राग अलापय लागल आर नाना तरह सँ कामोत्तेजक हाव-भाव करय लागल । तखन धीरे-धीरे ओ सब वेश्या शृंगी ऋषिक नजदीक पहुँचल । शृंगी ऋषि सँ आतिथ्य-सत्कार पओलक, मुदा हुनक पिता विभाण्डक सँ सब आतंकित छल । ओ वेश्या सब रोज मनोहर गीत गाबि-गाबिकय हिलि-मिलिकय मुनि लग जाइत छल, आ मुनि प्रेमपूर्वक जे कन्द-मूल-फल देथिन, मुनिक सोझें मे खाइत छल ॥२६-३१॥
।सोरठा।
फल हमरो मुनि खाउ, लाइलि छी बड़ि दूर सौँ ।
कि कहब आश पुराउ, उचित कहल वेश्योक्ति शुनि ॥३२॥
भावार्थः
कियो वेश्या कहलक – “हे मुनि! हमरो फल खाउ । हम बड दूर सँ अनने छी । बेसी कि कहू! हमरो मंशा पूरा करू ।” वेश्याक एहेन बात सुनि ऋषि बजलाह – “ठीक छैक!” ॥३२॥
।हरिपद।
मोदक मधुर मनोजविवर्द्धन सुधा – समान विलक्षण ।
गणिका देथि बनी नहि जानथि लगला करय सुभक्षण ॥३३॥
एक वर्ष सहवास नियत छल छल न बुझल दुर्ल्लक्षण ।
रतिपति-गति संप्राप्त जानि मुनि लय गेली पुर तत्क्षण ॥३४॥
बड़ उत्सव महिपाल कयल तत शान्ता कन्या देलनि ।
शृङ्गी मुनि जमाय सौँ मख-विधि पूर्ण मनोरथ भेलनि ॥३५॥
रोमपाद पुत्रोत्सव पाओल ओ नृप अहँकाँ मित्रे ।
शान्ता सहित तनिक पति आबथि कार्य्य-सिद्धि की चित्रे ॥३६॥
भावार्थः
वेश्या सब अमृत समान मीठ आ अद्भुत काम-वर्धक मोदक मुनि केँ दैत छल । वनवासी मुनि कि जानय गेलाह, ओहो रुचिपूर्वक मोदक खाय लगलाह । एक वर्ष धरि एहि तरहें हुनकर सहवास (संग) चलैत रहल । मुनि केँ एहि मे कोनो खराबी लक्षित नहि भेलन्हि । जखन एक दिन ओ सब देखलक जे मुनि कामवश भ’ गेल छथि, तखन ओ सब मुनि केँ पकड़िकय राजधानी आनि लेलक । राजा खुब उत्सव कयलनि आ अपन कन्या हुनका संग ब्याहि देलनि । तखन जमाइ शृंगी ऋषिक देख-रेख मे पुत्रेष्टि यज्ञ सम्पन्न भेल आ राजाक कामना पूरा भेलनि । राजा रोमपाद केँ पुत्र भेलनि । से राजा रोमपाद अपनहिक मित्रहि छथि । जँ शान्ताक संग हुनक पति शृंगी ऋषि अपनेक ओतय आबथि तँ अपनेक काज बनि जायत, एहि मे कोनो अचरज नहि ॥३३-३६॥
।चौपाइ।
गेला रोमपाद नृप देश । श्रीयुत दशरथ विदित नरेश ॥३७॥
मित्र-भवन रहला किछु काल । कहल प्रयोजन निज महिपाल ॥३८॥
शान्ता कन्या शृङ्गि जमाय । तनिकाँ दिऔनि अयोध्या जाय ॥३९॥
कयल लेआओन कन्या जानि । रोमपाद घर सब लेल मानि ॥४०॥
जाथु अवश्य अपन घर नीक । हिनका गेलेँ निश्चय नीक ॥४१॥
चलला कन्या – संग जमाय । दशरथ हर्ष कहल नहि जाय ॥४२॥
पहुँचलाह नृप अपना नगर । भेल हकार नगर मे सगर ॥४३॥
तनिक चुमाओन उत्सव गीति । सुता जमाइक सन सब रीति ॥४४॥
सभ रानी मन हर्ष अपार । नित नव कन्या वर व्यवहार ॥४५॥
दशरथ यज्ञ कयल तत गोट । इन्द्रक विभव देखि पड़ छोट ॥४६॥
महिमे जतेक महीप छलाह । दशरथ – यज्ञ – समय अयलाह ॥४७॥
सभहिक कयल परम सन्मान । गुरु वसिष्ठ वसु – मन्त्रि – प्रधान ॥४८॥
यज्ञारम्भ वसन्त विचारि । सहस्राक्ष मन मानल हारि ॥४९॥
भावार्थः
तखन राजा दशरथ राजा रोमपाद ओतय गेलथि । किछु दिन अपन मित्र ओतय रुकलाह, तखन राजा सँ अपन प्रयोजन बतौलनि – “अहाँ अपन बेटी शान्ता आ अपन जमाइ शृंगी ऋषि केँ अयोध्या जाय दियनि ।” राजा दशरथ शान्ता केँ अपन बेटी मानिकय अपना ओतय बजौलनि, ताहि सँ रोमपादक घर मे एहि आमंत्रण केँ सब गोटे स्वीकार कय लेलनि आ कहलनि – “अवश्य जाइथ । अहाँक घर तँ हुनका सभक अपन घर थिकन्हि, हुनका गेला सँ अवश्ये टा भला होयत ।” बेटीक संगहि जमाइ चललाह । दशरथ केँ जे हर्ष भेलनि ओ कहब कठिन अछि । राजा अपन राजधानी अयोध्या पहुँचलाह । पूरा नगर केँ नोत-हकार पठौलनि । हुनका सब केँ बेटी-जमाइ जेकाँ चुमाओन करायल गेल, उत्सव मनायल गेल आ गीत गायल गेल । सब रानी लोकनिक मोन मे अपार हर्ष छलन्हि । सब दिन नव वर-वधूक होबय लागल । दशरथ एतेक पैघ यज्ञ कयलनि जे हुनका आगाँ इन्द्रहु केर वैभव छोट देखाय दियय लागल । भरि संसार मे जतेको राजा सब रहथि – सभक-सब दशरथक एहि यज्ञ मे पधारलाह । दशरथ सभक खुबे सत्कार कयलनि । गुरु वसिष्ठ आ श्रेष्ठ मन्त्री लोकनि वसन्त मे यज्ञ शुरु करबाक निर्णय कयलनि । से जानिकय इन्द्र मनहि-मन हारि मानि गेलाह ॥३७-४९॥
।हरिपद।
दशरथ नृपति विष्णु मतिसौँ तत शृङ्गी मुनिकेँ अनलनि ।
मन्त्रीसहित नृपति अति शुचिसौँ सविधि काम-मख ठनलनि ॥५०॥
पापरहित चित मुनि श्रुति-पारग बहुत यज्ञमे अयला ।
होम अनल सौँ दिव्य पुरुष एक खर्ण-वर्ण बहरयला ॥५१॥
पायसपूर्ण पात्र कर लेलय कहि गुण नृपकैँ देले ।
थोड़हि दिनमे परमेश्वर सुत मन मानू अछि भेले ॥५२॥
पायस लेल नृपति आनन्दित मुनि-गुरुपद कय वन्दन ।
अन्तर्द्धान अग्नि कहि भेला आधि भेल सब खण्डन ॥५३॥
गुरु वसिष्ठ शृङ्गी ऋषि कहलनि रानी पायस खयती ।
की विलम्ब शुभ अवसर नृप अछि पूर्ण-मनोरथ हयती ॥५४॥
कौशल्या केकयी छली तँह दूइ भाग कय देलनि ।
ततय सुमित्रा पाछाँ अयली तनिकाँ नहि किछु भेलनि ॥५५॥
अपन भागसौँ दुनु जनि रानी अर्द्ध भाग पुनि कयलनि ।
देल सुमित्रा काँ तीनू जनि पायस से तहँ खयलनि ॥५६॥
सभ जनि भेलि सगर्भा तनिकहि छवि सौँ मन्दिर शोभित ।
जगन्निवास वास जत कयलनि कोटि भानु शशि क्षोभित ॥५७॥
भावार्थः
राजा दशरथ भगवान विष्णु बुझिकय शृंगी ऋषि केँ ओतय आनि लेलाह । तखन मन्त्री-सहित राजा परम पवित्रताक संग विधिपूर्वक काम-यज्ञ (पुत्रेष्टि) आरम्भ कयलनि । एहि यज्ञ मे बहुते रास ऋषि-मुनि पधारलाह जे निष्कलुष हृदयवला आ वेद-शास्त्र मे पारंगत रहथि । यज्ञक हवनकुंड सँ सोना समान चमकीला दिव्य पुरुष निकललाह । हुनकर हाथ मे खीर सँ भरल एक स्वर्णपात्र छलन्हि आर ओ ओहि स्वर्णपात्र, ओकर गुण केर बखान करैत राजा केँ देलनि – “विश्वास करू, थोड़बे दिन मे परमेश्वर अहाँक पुत्र बनताह ।” राजा आनन्दित होइत मुनि व गुरुजन सभक चरण मे प्रणाम कय केँ पायस लय लेलनि । उक्त बात सुनाकय दिव्य-पुरुष रूपी अग्नि अन्तर्धान भ’ गेलाह । राजा सबटा चिन्ता दूर भ’ गेलनि । तखन गुरु वसिष्ठ आ शृंगी ऋषि कहलखिन – “रानी लोकनि ई पायस खेतिह । हे राजा! एखन शुभ मुहूर्त अछि, एहि मे विलम्ब कियैक ? ई खेला सँ रानी सभक कामना पूरा भ’ जेतनि ।” ताहि समय ओहिठाम कौशल्या आ कैकेयि उपस्थित रहथि । दुनू आधा-आधा हिस्सा बाँटि लेलीह । सुमित्रा बाद मे अयलीह, ताहि सँ हुनका किछु नहि भेटलनि । तखन दुनू रानी अपन-अपन हिस्सा केँ दुइ-दुइ भाग मे बाँटि देलीह आर एक-एक हिस्सा सुमित्रा केँ दय देलीह । एहि प्रकारें ओ तीनू रानी लोकनि पायल खेलीह । सब रानी लोकनि गर्भवती भ’ गेलीह । हुनका लोकनिक छवि सँ दशरथक आँगन केर शोभा बढ़ि गेल । जेतय जगन्निवास भगवान् विष्णु स्वयं निवास कयलनि, तेकर शोभाक आगाँ कोटि-कोटि सूर्य आ चन्द्र केर चमक परास्त अछि ॥५०-५७॥
।हंसगति छन्द।
भक्तक वश भगवान एहन मति फुरलनि ।
दशम मास मधु मास आश प्रभु पुरलनि ॥५८॥
कौशल्या थिकि धन्य जनिक सुत भेलाह ।
ब्रह्मानन्दानन्देँ दोष दुख गेलाह ॥५९॥
शुक्लपक्ष नवमी शुभ कर्क्क उचित हित ।
मध्य दिवस नक्षत्र पुनर्व्वसु अभिजित ॥६०॥
पञ्चग्रह उच्चस्थ मेषमे दिनकर ।
सृष्टि त्रिगुण उतपत्ति शक्ति कर जनिकर ॥६१॥
भावार्थः
ईश्वर भक्त केर वश मे होइत छथि, ताहि लेल त हुनका एहेन इच्छा भेलनि । चैत मास आयल, जे गर्भक दसम मास छल । एहि मास मे ईश्वर हुनकर इच्छा पूरा कयलनि । धन्य छथि महारानी कौशल्या, ईश्वर जिनकर पुत्र भेलथि । ब्रह्मानन्द केर तुल्य आनन्द सँ हुनकर सबटा दुःख-दर्द दूर भ’ गेल । शुक्ल पक्षक नवमी तिथि छल । कर्क लग्न छल । मध्याह्न काल छल । पुनर्वसु अभिजित नक्षत्र छल । पाँच ग्रह उँच स्थान पर छल । सूर्य मेष राशि मे छल । एहेन समय मे राम जन्म लेलनि जिनकर हाथ मे सत्त्व, रजस् आ तमस् तीन गुण वला संसारक सृजन करबाक शक्ति छल ॥५८-६१॥
।चौपाइ।
वारिद वरिसल तखना फूल । जन्म लेल सभ सम्पति मूल ॥६२॥
नीलोत्पलदल श्यामल राज । चारि सुभुज कनकाम्बर भ्राज ॥६३॥
अरुण जलज वर सुन्दर नयन । कुण्डल मण्डित शोभा-अयन ॥६४॥
सहस सूर सन सुछवि प्रकास । कुटिल अलक सुमुकुट भल भास ॥६५॥
शंख रथाङ्ग गदा जल-जात । वनमाली स्मितमुख अवदात ॥६६॥
नयन करुण रससौँ परिपूर । इन्दीवर शोभा कर दूर ॥६७॥
श्री श्रीवत्स हार रमणीय । केयुर नूपुर गण कमनीय ॥६८॥
भावार्थः
ओहि समय मेघ सँ फुल बरसय लागल । सब कल्याणक मूल ईश्वर जन्म लेलनि । हुनकर वर्ण नीलकमल केर पंखुड़ि समान श्याम छलन्हि । चारि भुजा छलन्हि । सोनाक रंगक वस्त्र चमकि रहल छलन्हि । हुनकर आँखि लाल कमल-समान सुन्दर रहनि । ओ शोभाक खान कुंडल पहिरने रहथि । सहस्र सूर्यक हुनक चमक छलन्हि । घुँघराला केस आ मुकुट शोभा दय रहल छलन्हि । चारू हाथ मे क्रमशः शंख, चक्र, गदा आ पद्म रहनि । वनमाला गला मे छलन्हि । ठोर पर शुभ्र मुस्कान रहनि । हुनकर नयन करुणा सँ भरपुर छल आ नीलकमल केर शोभा केँ परास्त करैत छल । श्रीवत्स मणि सँ विभूषित हार, केयूर (बाजूबन्द) आ नूपुर आदि भूषण सँ शोभा पाबि रहल छलथि ॥६२-६८॥
।दोहा।
कौशल्या देखल सकल, अदभुत बालक भेल ।
कहलनि से कर जोड़िकेँ, कनइत हर्षक लेल ॥६९॥
भावार्थः
कौशल्या पूर्ण रूप सँ देखलीह, ई त अद्भुत बालक भेलथि । हर्ष सँ कनैत ओ हाथ जोड़िकय बजलीह – ॥६९॥
।चौपाइ।
बार बार हम करिय प्रणाम । हम अबला अज्ञानक धाम ॥७०॥
वचन बुद्धि मन पहुँच न जतय । तुति हम कि करब फुरय न ततय ॥७१॥
रचना पालन प्रलय स्वतन्त्र । विश्व चढ़ल भल माया – यन्त्र ॥७२॥
ब्रह्म अनामय हर्षक मूल । हमरा पर से प्रभु अनुकूल ॥७३॥
अँहक उदर – वर बस संसार । हमर तनय बनलहुँ व्यवहार ॥७४॥
कहइत छी प्रभु हम करजोड़ि । रूप अलौकिक ई दिअ छोड़ि ॥७५॥
एहि रूपक हमरा रह ध्यान । बनल रहय नित ई हित ज्ञान ॥७६॥
सुन्दर शिशु सरूप अँह धरिय । दिन दिन देव कृतार्थित करिय ॥७७॥
भावार्थः
“हे प्रभु! हम बेर-बेर प्रणाम करैत छी । हम अबला छी, ज्ञानहीन छी । जतय वाणी, बुद्धि आ मन तक केर पहुँच नहि अछि, ततय हमरा बुझय मे नहि आबि रहल अछि जे हम कि स्तुति करी ! अपने अपन इच्छा अनुरूप सृजन, पालन आर प्रलय करय मे समर्थ छी । ई संसार अहाँक माया-रूपी यन्त्र पर चढ़िकय नाचि रहल अछि । अपने निर्विकार ब्रह्म आ आनन्दक मूल थिकहुँ । एहेन प्रभु अपने आइ हमरा पर कृपालु भेलहुँ । अहाँक विशाल उदर मे ई संसार समायल अछि, तैयो अपने हमर उदर मे आबिकय हमर पुत्र बनलहुँ – ई अपनेक लीला थिक । हे देव! अपनेक एहि रूप केर झाँकी सदैव हमर मन मे रहत । ई हित ज्ञान हमेशा बनल रहत । आब अपने सुन्दर शिशुक रूप धारण करू आ दिन पर दिन हमरा कृतार्थ करैत रहू ।” ॥७०-७७॥
।रोला छन्द।
तखन कहल श्रीनाथ अम्ब वांछित अछि जेहन ।
किछु नहि करब विलम्ब रूप करइत छी तेहन ॥७८॥
भूमि भार हरणार्थ विधि स्तुति बहुत शुनाओल ।
अँह दशरथ तप कयल तकर फल दर्शन पाओल ॥७९॥
हमर हाथु श्रीनाथ पुत्र पूर्व्वहि मँगलहुँ वर ।
दुर्ल्लभ दर्शन हमर लाभ अछि नहि संसृति डर ॥८०॥
ई संवाद जे पढ़त शुनत सारूप्य हमर से ।
दुर्ल्लभ हमरे स्मरण अन्तमे पाओत नर से ॥८१॥
भावार्थः
तखन भगवान् बजलाह – “हे माता! अहाँक जेहेन चाह अछि, ओहने रूप हम धारण कय लैत छी, एहि मे कनिकबो देरी नहि करब । धरतीक भार केँ दूर करबाक लेल ब्रह्मा हमर बहुत स्तुति कयलनि । अपने आ अपनेक पति दशरथ जे तप कयलहुँ अछि, ताहिक फलस्वरूप हमर दर्शन प्राप्त भेल अछि । अपने पूर्वहि मे एहेन वर मांगने रही जे ईश्वर हमर पुत्र बनथि । हमर दर्शन पायब बहुत दुर्लभ अछि, से अहाँ केँ भेट गेल । आब अहाँ केँ संसार (भव-बन्धन) केर डर नहि रहल । माता-पुत्रक एहि संवाद केँ जे पढ़त, जे सुनत, ओ हमरा मे एकाकार भ’ जायत । जीवनक अन्त मे ओकरा हमर दुर्लभ ध्यान आओत ।” ॥७८-८१॥
।चौपाइ।
ई कहि बनला सुन्दर बाल । इन्द्रनील छवि नयन विशाल ॥८२॥
बाल अरुण तन दिव्य प्रकास । जनिकर माया विश्व विलास ॥८३॥
पुत्र जन्म शुनि मुदित महीप । सत्वर गेला गुरुक समीप ॥८४॥
सहित वसिष्ठ देखल नृपतनय । हर्षेँ किछु नहि कहैत बनय ॥८५॥
जय जय शब्द सकल थल सोर । नृपति नयन बह हर्षक नोर ॥८६॥
तखन कयल नृप जातक कर्म्म । उत्तम कुलक उचित जे धर्म्म ॥८७॥
केकयि सौँ उतपति सुत भरत । कमल कि लोचन – समता करत ॥८८॥
पुत्र सुमित्ताकाँ दुइ गोट । लक्ष्मण ओ शत्रुघन सुछोट ॥८९॥
देल विप्र काँ गाम हजार । बड़ गोट उत्सव चारि कुमार ॥९०॥
कनक रत्न पट ओ गोदान । करथि नृपति जेँ हो कल्यान ॥९१॥
भावार्थः
एतेक कहिकय ओ सुन्दर बालक (शिशु) बनि गेलाह । हुनकर पैघ-पैघ आँखि नीलम जेहेन शोभा पाबि रहल छल । शरीर मे उदयकालक सूर्य समान लालीक अलौकिक चमक छल, जिनकर माया सँ सारा विश्वक खेल चलि रहल अछि । पुत्र-जन्मक खबरि पाबिकय राजा हर्षित भ’ कय तुरन्त गुरु वसिष्ठ लग गेलाह । वसिष्ठक संग आबिकय राजा अपन पुत्र केँ देखलनि । एतबे हर्ष भेलनि जे किछु बाजि नहि पबैत छथि । सब जगह ‘जय-जय’ केर शोर मचि गेल । राजाक आँखि सँ हर्षक नोर बहय लागल । तखन राजा दशरथ अपन उत्तम कुल केर आचार अनुसार शिशु सभक जातकर्म नामक वैदिक संस्कार कयलनि । कैकेयि सँ भरत नामक पुत्रक जन्म भेल, जिनकर आँखिक मोकाबला कमल नहि सकैत अछि । सुमित्रा केँ दुइ गोट पुत्र भेलनि – पैघ लक्ष्मण आ छोट शत्रुघ्न । ब्राह्मण सब केँ दान मे पाँच हजार गाम देलनि । खुब पैघ उत्सव भेल, कियैक तँ एक-दू नहि, चारि पुत्रक एक्के संग जन्म भेल । राजा सोना, जवाहरात, वस्त्र आर गाय सभक दान कयलनि ताकि नवजात शिशु सभक कल्याण हो ॥८२-९१॥
।घनाक्षरी।
मगन महीप मन देखि चायकक गन, देव देव करथि अनन्त रत्न वरषन ।
कत रथ चढ़ि कत चढ़ि गजराज पीठ, कत वाजिराजि न रहल चित्त धरषन ॥९२॥
सोहर मनोहर सुगाब किन्नरी नरोक, बनलि सुरूप एत जन केओ परख न ।
देव-दुन्दुभीक धुनि गगन प्रसून-वृष्टि, रामचन्द्र जनम उत्सव की प्रहरषन ॥९३॥
भावार्थः
याचक सभक दल केँ देखि-देखि राजाक मोन उल्लासित भ’ उठल । मानू देवता सभक राजा इन्द्र अनगिनत रत्न सभक बौछार कय रहल होइथ । कतेको लोक रथ चढ़िकय, कतेको हाथी चढ़िकय आ कतेको घोड़ा चढ़िकय उल्लासित भेल । केकरो मोन मे डर नहि रहलैक । किन्नरि नारी सब मानवी (महिलाक) रूप धयकय मनोहर स्वर मे सोहर (जन्मोत्सव गीत) सब गाबि रहलि छथि, आर कियो नहि बुझि पबैत अछि जे ओ सब नारी नहि किन्नरि सब छथि । आकाश मे देवता लोकनि दुन्दुभी बजा रहल छथि आ फुलक बरखा कय रहल छथि । रामचन्द्रक जन्म केर उत्सव कतेक रोमांचकारी आ आनन्द दयवला अछि ! ॥९२-९३॥
।चौपाइ।
रमित होअ मुनि – मन जेहि ठाम । तनिकर नाम धएल मुनि राम ॥९४॥
कारक भरण भरत तैँ नाम । लक्षण युत लक्ष्मण गुण – धाम ॥९५॥
करता गय शत्रुक संहार । नाम धयल शत्रुघ्न उदार ॥९६॥
रामक सह लक्ष्मण रह सतत । शत्रुघ्नो भरतक संग निरत ॥९७॥
दुइ दुइ जन पायस अनुसार । बाल सुलीला कर सञ्चार ॥९८॥
बालक वचन सुधाक समान । राजा रानी शुनि शुनि कान ॥९९॥
मन आनन्द कहल की जाय । वचन मनोहर चारू भाय ॥१००॥
बाल विभूषण शोभा वेश । से देखि रानी मुदित नरेश ॥१०१॥
नाचथि गाबथि नाना रङ्ग । सम वय बालक लय लय सङ्ग ॥१०२॥
नृपति बजाबथि भोजन बेरि । हँसि पड़ाथि लग जाथि न फेरि ॥१०३॥
कौशल्याकाँ कह तह भूप । पकड़ि लाउ बालककाँ चूप ॥१०४॥
हसइत कहुखन अपनहि आब । कादो माटि हाथ लपटाब ॥१०५॥
किछु किछु नृपतिक रुचि सौँ खाथि । चञ्चल खेड़िक हेतु पड़ाथि ॥१०६॥
बालक कौतुक जे प्रभु कयल । से शिव गिरिजा मानस धयल ॥१०७॥
बरुआ भेला चारु कुमार । उपनयनक गुरु कयल विचार ॥१०८॥
चारू जन विधि सौँ उपनीत । सभ विद्या पढ़ि परम विनीत ॥१०९॥
धनुर्वेद – विद्या – निष्णात । शास्त्र न इक तनिक अज्ञात ॥११०॥
राम संग लक्ष्मण नित रहथि । आज्ञा करथि राम जे कहथि ॥१११॥
शत्रुघ्नो भरतक संग तेहन । लक्ष्मण राम रीति मति जेहन ॥११२॥
अश्व चढ़ल कर धनुष सुबाण । नित्य सिकारक हेतु प्रयाण ॥११३॥
मेध्य मेध्य मृग मारथि जाय । पिता निकट से देथि पठाय ॥११४॥
उठि सबेरि स्नानदिक कर्म्म । करथि सनातन जे कुल – धर्म्म ॥११५॥
राज काज कर आलस थोड़ । लागथि नित्य पिताकाँ गोड़ ॥११६॥
बन्धु सहित गुरु आज्ञा पाय । भोजन करथि तखन नित जाय ॥११७॥
धर्मशास्त्र विधि शुनि व्याख्यान । करथि सतत मन उत्तम ज्ञान ॥११८॥
भावार्थः
गुरु वसिष्ठ हुनकर अन्वय नाम ‘राम’ रखलनि, जेतय मुनिजनक मन रमैत अछि । संसारक या प्रजाक भरण-पोषण करयवला हेताह, तेँ ‘भरत’ नाम पड़ल । शुभ लक्षण सब सँ युक्त हेबाक कारण गुणवान् ‘लक्ष्मण’ नाम पड़ल । शत्रुक संहार करता, से सोचिकय ‘शत्रुघ्न’ नाम पड़ल । लक्ष्मण हमेशा रामक संग रहल करथि आर शत्रुघ्न भरतक संग । पायस (खीर) मे लागल हिस्सा अनुसार दुइ-दुइ भाइ मिलिकय बाललीला करैत रहथि । अमृत समान मधुर शिशुक बोली कान सँ सुनि-सुनिकय रानी-समेत राजाक मोन मे जे आनन्द होइत छल से कहल नहि जा सकैत अछि । चारू भाइक बोल बड मीठ छल ॥९४-१००॥
बालोचित भूषण सभक जे शोभा छल से देखि-देखिकय रानी आ राजा प्रसन्न भेल करथि । चारू भाइक समान उमेरवला बच्चा सब केँ संग लय-लयकय भाँति-भाँति सँ नचैत आ गबैत छथि । भोजनक समय जखन राजा खाय लेल बजबैत छथि त हँसिकय भागि जाइत छथि, फेर लग नहि जाइत छथि । एहेन स्थिति मे राजा कौशल्या सँ कहैत छथि – चुपके सँ बच्चा सब केँ पकड़ि लाउ । कखनहुँ चारू भाइ खुब हँसिते-हँसिते लग आबि जाइत छथि आ हुनकर हाथ मे थाल-माटि लागल रहैत छन्हि । किछु-किछु राजाक आग्रह सँ खाइतो छथि, फेर चंचल भ’ कय खेलेबाक लेल भागि जाइत छथि । राम जे-जे बाललीला सब कयलनि तेकर झाँकी शिव आ पार्वती अपन हृदय मे अंकित कय केँ राखि लेलनि । चारू बालक बरुआ (बटुक) केर अवस्था मे पहुँचि गेलाह । तखन गुरु वसिष्ठ हुनकर उपनयन (जनेउ) करबाक निर्णय कयलनि । चारू केँ शास्त्र-वर्णित रीति सँ जनेउ भेल । सब कियो सबटा विद्या पढ़िकय विनीत-विद्वान् बनलथि । ओ धनुर्वेद (तीरंदाजी) मे पारंगत भेलथि । हुनका सँ एकहु टा अस्त्र अछूत नहि रहलनि ॥१०१-११०॥
लक्ष्मण सदिखन रामक संग रहैत छलथि, आर रामक आज्ञा मानैत छलथि । तहिना शत्रुघ्न सेहो भरतक संग रहल करथि, जेना लक्ष्मण रामक रीति आ बुद्धि पर चलैत छलथि । चारू भाइ घोड़ा पर चढ़ि-चढ़िकय तीर-धनुष हाथ मे लय रोज शिकार लेल जाइथ । जंगल जाकय ओहिना (मृग – चौपाया) केँ मारथि जेकर मांस खायल जाइत अछि । आर शिकार कयल मृग पिताक लग पठा देल करथि । सबेरे उठिकय स्नान आदि नित्य-कर्म करथि, जे सनातन (सदा सँ चलि आयल) कुलाचार छल । राजकाज करैत छलथि, ओहि मे आलस्य नहि करथि । पिता केँ नित्य-प्रणाम करैत छलथि । रोज पहिने संगीसाथी सहित गुरु लग जाकय हुनका सँ आज्ञा लैत छलथि, तखन भोजन करैत रहथि । धर्मशास्त्र मे कहल गेल रीति सँ उपदेश सब सुनैत छलथि आ मोन मे हमेशा नीक-नीक भावना राखैत छलथि ॥१११-११८॥
।दोहा।
मानव – लीला करथि प्रभु, निर्गुण रहित विकार ।
जानथि ब्रह्मा प्रभृति नहि, विभु माया विस्तार ॥११९॥
भावार्थः
गुण आ विकास सँ रहित ईश्वर एहि तरहें रामक अवतार लयकय मानव-लीला करैत छथि । ब्रह्मा आदि देवता सेहो ईश्वरक मायाक ओर आ छोर नहि जनैत छथि ॥११९॥
॥इति श्री मैथिल चन्द्रकवि-विरचिते मिथिला-भाषा रामायणे बालकाण्डे तृतीयोऽध्यायः॥
॥मैथिल चन्द्र कवि विरचित मिथिला भाषा रामायण मे बालकाण्डक तेसर अध्याय समाप्त॥