स्वाध्याय पाठ
कवि चन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण
दोसर अध्याय
।चौपाइ।
शिव शिव कहल शुनल हम कान। रामायण वर अमृत समान॥
पिबइत पिबइत तृप्ति न भेल। भव सन्ताप सकल चल गेल॥
धन्य भाग्य थिक मन मे गुणल। रामतत्त्व संक्षेपहि शुनल॥
कयल अनुग्रह संशय छुटल। अपनेसौँ शुनि रामक पटल॥
शुनब कथा सम्प्रति विस्तार। कहु कहु प्रियतम परम उदार॥
अति आनन्द शम्भु शुनि चित्त। राम-चरित दुखहरण निमित्त॥
पूर्व्व काल हमरा गुणधाम। कहलेँ छल छथि अपनहि राम॥
संप्रति हम कहइत छी सैह। दुख अज्ञान निवारक जैह॥
चिरंजीवी सन्तति अति ऋद्धि। श्रोता हाथ सकल गोट सिद्धि॥
।दोवय छन्द।
एक समय भयदीना अवनी भारेँ व्याकुल भेली।
सुरभिरूप बनि-कनइत कनइत धाम विरञ्चिक गेली॥
सकल देवगण तनिकाँ संगे पुछलनि विधि कहु धरणी।
सञ्च सञ्च से सबटा कहलनि दुष्ट दशानन करणी॥
।चौपाइ।
यजन सुजप मुनि तप जे करथी। तनिकर राक्षस प्राणे हरथी॥
हरि हरि अनइछ अनकर नारि। डरसौँ के कर हुनि सौँ मारि॥
थर थर काँपथि सब दिकपाल। रावण जन्मल भल-जन-काल॥
धारण धर्म्म देल समुझाय। भार अपार सहल नहि जाय॥
सकल दुःख हम देल जनाय। अपनहि बुड़लै युग बुड़ि जाय॥
जौँ अपने नहि टारब भार। होयत अकालहि लय संसार॥
कमलासन शुनि ध्यानावस्थ। सकल देवगण छला तटस्थ॥
कहलनि विधि चलु हमरा संग। अहँक दुःख सब होयत भंग॥
क्षीरसमुद्र तीर मे जाय। ब्रह्मा बैसला ध्यान लगाय॥
स्तुति कयलनि पढ़ि श्रुति सिद्धान्त। जय नारायण लक्ष्मीकान्त॥
स्तोत्र पढ़ल जे पठित पुराण। गद गद वचन परम विज्ञान॥
हर्षक नोर बहल जलधार। प्रभु प्रसन्न भेल करुणागार॥
जोति-प्रकाश भानु सम भेल। श्रीनारायण दर्शन देल॥
इन्द्रनीलमणि छविमय अंग। स्मित-मुख लोचन पङ्कज रंग॥
हार किरीट तथा केयूर। कटकादिक शोभा भरि पूर॥
श्रीवत्सान्वित कौस्तुभ राज। सनकादिक स्तुति करथि समाज॥
पार्षदलोक सकल छल ततय। प्रकट भेलाह पुरुषोत्तम जतय॥
शंख रथाङ्ग गदा जलजात। कनक-जनौ कनकाम्बर गात॥
लक्ष्मीसहित गरुड़पर चढ़ल। देखितहि विधि मन आनन्द बढ़ल॥
।वानिनी छन्द।
शत शत शत नमस्कार देवदेव आजे।
दीना पृथिवीक दुष्टभारनाश काजे॥
अपनैक त्रिगुणात्म सृष्टि सर्व्वमान्य माया।
रचना-प्रतिपाल-नाश-कारिणी अकाया॥१॥
निर्गुण सगुणावतार भूमि-भार-हर्त्ता।
स्वेच्चासौँ एकसौँ अनेकरूप धर्त्ता॥
संसृति-जलराशि-तरण नावकल्प भक्ति।
सकल-पदार्थदा अनन्तसारशक्ति॥२॥
।चौपाइ।
स्तुति करइत विधिकाँ विभु कहल। अपनैँ सबहि दुःख बड़ सहल॥
विधि कहु की करु हम उपकार। शुनि विधि मन भेल हर्ष अपार॥
परमेश्वर शुनु रावण नाम। राक्षसेन्द्र बस लङ्का-धाम॥
ओ पौलस्त्यक तनय महान। संप्रति दुष्ट एहन नहि आन॥
हम वर देल भेल अन्याय। हमरहि सबकाँ भेल बलाय॥
के कह तनिका नीति बुझाय। उचित न बिरनी-वृन्द जगाय॥
तीनि लोक मे से के लोक। जनिका रावण देल न शोक॥
एक गोट अछि तनि मे आश। मानुष हाथेँ तनिक विनाश॥
राखल जाय देव संसार। अपनैँ धरु नर-वर अवतार॥
दुख शुनि तखन कहल भगवान। नीक नीक होयत कल्यान॥
हम सन्तुष्ट देल वरदान। तकरा मध्य कथा नहि आन॥
कश्यप बहुत तपस्या कयल। विष्णु होथु सुत ई मन धयल॥
संप्रति दशरथ से तप वेस। छथि से उत्तर कौशल देश॥
तनिकर पुत्र होयब हम जाय। कौशल्या सौँ शुभ दिन पाय॥
चारि रूप हम अपनहि हयब। केकयि सुमित्रा पुत्र कहयब॥
माया हमरे आज्ञा पाय। सीता नाम कहौतिह जाय॥
तनिकाँ संग हरब महि भार। माया लीला अति विस्तार॥
बहुत कयल विधि प्रभु-गुणगान। ई कहि भेला अन्तर्धान॥
होयत रघुकुल विभु-अवतार। माया मानब गुण-विस्तार॥
अपनहुँ सबहिँ एहन मति करब। वानर भालु रूप भल धरब॥
यावत प्रभु महि मण्डल रहथि। होयब सहाय जतय जे कहथि॥
ई सब देव सकल शुनि लेल। दृढ़ भरोस धरणी काँ देल॥
धरणी धरु धरु धीर सुचित्त। विभु अवतरता अहँक निमित्त॥
मनवांछित अहँकाँ अछि जैह। सकल-शक्तियुत होयत सैह॥
सुख सौँ विधि गेला निज लोक। ई शुनि काश्यपीक कृश शोक॥
।हरिपद।
पर्व्वत वृक्ष अस्त्र वानरतन कयल अमर-गण धारण।
विभुक बाट तकइत नित सबजन रण सहायता कारण॥
इति श्री मैथिल चन्द्र-कवि-विरचिते मिथिला-भाषा रामायणे द्वितीयोऽध्यायः॥
हरिः हरः!!