स्वाध्याय पाठ
– प्रवीण नारायण चौधरी
कवि चन्द्र विरचित मिथिलाभाषा रामायण
बालकाण्ड – दोसर अध्याय
ब्रह्मा द्वारा विष्णु सँ अवतार लेबाक अनुरोध
।चौपाइ।
शिव शिव कहल शुनल हम कान । रामायण वर अमृत समान ॥१॥
पिबइत पिबइत तृप्ति न भेल । भव सन्ताप सकल चल गेल ॥२॥
धन्य भाग्य थिक मन मे गुणल । रामतत्त्व संक्षेपहि शुनल ॥३॥
कयल अनुग्रह संशय छुटल । अपनेसौँ शुनि रामक पटल ॥४॥
शुनब कथा सम्प्रति विस्तार । कहु कहु प्रियतम परम उदार ॥५॥
अति आनन्द शम्भु शुनि चित्त । राम-चरित दुखहरण निमित्त ॥६॥
पूर्व्व काल हमरा गुणधाम । कहलेँ छल छथि अपनहि राम ॥७॥
संप्रति हम कहइत छी सैह । दुख अज्ञान निवारक जैह ॥८॥
चिरंजीवी सन्तति अति ऋद्धि । श्रोता हाथ सकल गोट सिद्धि ॥९॥
।दोवय छन्द।
एक समय भयदीना अवनी भारेँ व्याकुल भेली ।
सुरभिरूप बनि-कनइत कनइत धाम विरञ्चिक गेली ॥१०॥
सकल देवगण तनिकाँ संगे पुछलनि विधि कहु धरणी ।
सञ्च सञ्च से सबटा कहलनि दुष्ट दशानन करणी ॥११॥
भावार्थः
हे शिव, अपने अमृत समान श्रेष्ठ रामायणक कथा सुनेलहुँ आर हम कान सँ सुनलहुँ । उक्त कथामृत बेर-बेर पीलो पर मोन मे तृप्ति नहि भेल । सब सांसरिक कष्ट सभक अन्त भ’ गेल । ई हमर सौभाग्य छी । हम ओहिपर मनन कयलहुँ । मुदा रामक कथा अपने संक्षेपे टा मे सुनेलहुँ । सेहो अपने बड पैघ कृपा कयलहुँ । अपने सँ रामक पटल अर्थात् रामायण सुनिकय हमर मोनक सन्देह खत्म भ’ गेल । आब हम विस्तारपूर्वक कथा सुनब । हे परम उदार हमर प्रियतम! अपने सुनेबाक कृपा करी ॥१-५॥
पार्वतीक उक्त अनुरोध सुनिकय शिवजीक मोन मे बहुत प्रसन्नता भेलनि । ओ पार्वती जी सँ कहलनि – राम केर चरित दुःख केँ दूर करयवला अछि । पूर्वकाल मे एक समय गुणक आश्रय श्रीराम जी अपन चरित स्वयं हमरा सुनौने रहथि । वैह चरित हम अहाँ केँ सुनबैत छी, जे सुनला सँ दुःख आ अज्ञान दूर भ’ जाइछ । दीर्घ आयुवला सन्तानक वृद्धि होइत अछि । सबटा सिद्धि श्रोताक हाथ मे आबि जाइत अछि । एक समय पापी सभक भार सँ व्याकुल आ डर सँ घबरायल धरती गाय केर रूप धारण कय केँ कनैत-कनैत ब्रह्मलोक गेलीह । हुनका पाछाँ-पाछाँ सब देवता लोकनि सेहो गेलाह । ब्रह्मा पुछलखिन – हे पृथ्वी! कि बात छैक ? पृथ्वी शान्तिपूर्वक दुष्ट रावणक सबटा करनी कहि सुनेलीह ॥ ६-११॥
।चौपाइ।
यजन सुजप मुनि तप जे करथी । तनिकर राक्षस प्राणे हरथी ॥१२॥
हरि हरि अनइछ अनकर नारि । डरसौँ के कर हुनि सौँ मारि ॥१३॥
थर थर काँपथि सब दिकपाल । रावण जन्मल भल-जन-काल ॥१४॥
धारण धर्म्म देल समुझाय । भार अपार सहल नहि जाय ॥१५॥
सकल दुःख हम देल जनाय । अपनहि बुड़लै युग बुड़ि जाय ॥१६॥
जौँ अपने नहि टारब भार । होयत अकालहि लय संसार ॥१७॥
कमलासन शुनि ध्यानावस्थ । सकल देवगण छला तटस्थ ॥१८॥
कहलनि विधि चलु हमरा संग । अहँक दुःख सब होयत भंग ॥१९॥
क्षीरसमुद्र तीर मे जाय । ब्रह्मा बैसला ध्यान लगाय ॥२०॥
स्तुति कयलनि पढ़ि श्रुति सिद्धान्त । जय नारायण लक्ष्मीकान्त ॥२१॥
स्तोत्र पढ़ल जे पठित पुराण । गद गद वचन परम विज्ञान ॥२२॥
हर्षक नोर बहल जलधार । प्रभु प्रसन्न भेल करुणागार ॥२३॥
जोति-प्रकाश भानु सम भेल । श्रीनारायण दर्शन देल ॥२४॥
इन्द्रनीलमणि छविमय अंग । स्मित-मुख लोचन पङ्कज रंग ॥२५॥
हार किरीट तथा केयूर । कटकादिक शोभा भरि पूर ॥२६॥
श्रीवत्सान्वित कौस्तुभ राज । सनकादिक स्तुति करथि समाज ॥२७॥
पार्षदलोक सकल छल ततय । प्रकट भेलाह पुरुषोत्तम जतय ॥२८॥
शंख रथाङ्ग गदा जलजात । कनक-जनौ कनकाम्बर गात ॥२९॥
लक्ष्मीसहित गरुड़पर चढ़ल । देखितहि विधि मन आनन्द बढ़ल ॥३०॥
।वानिनी छन्द।
शत शत शत नमस्कार देवदेव आजे ।
दीना पृथिवीक दुष्टभारनाश काजे ॥३१॥
अपनैक त्रिगुणात्म सृष्टि सर्व्वमान्य माया ।
रचना-प्रतिपाल-नाश-कारिणी अकाया ॥३२॥
निर्गुण सगुणावतार भूमि-भार-हर्त्ता ।
स्वेच्छासौँ एकसौँ अनेकरूप धर्त्ता ॥३३॥
संसृति-जलराशि-तरण नावकल्प भक्ति ।
सकल-पदार्थदा अनन्तसारशक्ति ॥३४॥
भावार्थः
“जे कियो मुनि यज्ञ, जप या तप करैत छथि, ई राक्षस रावण हुनकर प्राण हरण कय लैत अछि । ओ पराया स्त्रीक हरण कय आनि लैत अछि । केकर मजाल छैक जे ओकरा सँ लड़ाई ठानय । रावणक डर सँ इन्द्रादि समस्त दिक्पाल थर्राइत छथि । रावणक जन्म मानू सज्जन सभक लेल काल बनि गेल हो ! सब केँ धारण करब जे हमर धर्म अछि से त हम बुझैत छी, मुदा पापी सभक ई अपार भार आब हमरा सँ सहल नहि जा रहल अछि । हम अपन सबटा तकलीफ अपने केँ बतेलहुँ । अपन नाश त मानू दुनियाक नाश ! अगर अपने हमर भार केँ दूर नहि करब तँ असमय एहि संसार मे प्रलय भ’ जायत ।” ॥१२-१७॥
ब्रह्मा ई सुनिकय ध्याम मे लीन भ’ गेलाह । सब देवता लोकनि ल’गे मे ठाढ़ रहथि । ब्रह्मा बजलाह – “अहाँ हमरा संग चलू । अहाँक सारा दुःख दूर भ’ जायत ।” एतेक कहिकय ब्रह्मा क्षीरसमुद्रक किनार पर गेलाह आर ओतय समाधि लगाकय बैसि गेलाह । वैदिक सूक्त पढ़ि-पढ़िकय भगवान् विष्णुक स्तुति कयलनि – लक्ष्मीपति नारायण की जय हो ! फेर पुराण सब मे बतायल गेल स्तोत्र सभक पाठ कयलनि । स्तुति करैत समय भक्तिक उद्रेक सँ हुनकर वाणी गदगद भ’ गेलनि आर परम ज्ञान केर आलोक भेलनि । हर्ष सँ नोरक धारा बहय लगलनि । परम दयालु भगवान नारायण प्रसन्न भेलाह । फेर सूरज जेहेन ज्योति छिटकल आ श्रीनारायण दर्शन देलनि । हुनकर शरीरक कान्ति नीलम जेहेन (श्याम वर्ण) केर छलनि । मुँह पर मधुर मुस्कान रहनि । आँखिक रंग कमल समान छलनि । शरीर मे हार, किरीट, केयूर (बाजूबन्द), कटक (कमरबन्द) आदि भूषण सभक शोभा भरल छलनि । हृदय मे श्रीवत्स चिह्नक संग कौस्तुभ नामक मणि शोभा पाबि रहल छल । सनक-सनातन आदि मुनि लोकनिक दल स्तुति कय रहल छलाह । चारू हाथ मे क्रमशः शंख, चक्र, गदा आ पद्म रहनि । सोनाक जनेउ रहनि आर शरीर मे स्वर्णवर्णक (पियर) रेशमी वस्त्र रहनि । लक्ष्मी जीक संग गरुड़ पर सवार रहथि । हुनका देखितहि ब्रह्माक मोन मे आनन्दक बाढ़ि आबि गेलनि । (दर्शन होइते देरी ब्रह्मा जी स्तुति करय लगलाह – ) ॥१८-३०॥
“हे देवहु केर देव नारायण! हम आइ सौ-सौ बेर नमस्कार करैत छी । दुष्ट सभक भार सँ पृथ्वी भारी पीड़ा मे पड़ल छथि; ओहि भार केँ दूर करब अपनहिक काज थिक । सब मानैत अछि जे ई त्रिगुणात्मिका माया अपनहि केर रचना थिक । यैह स्वयं शरीर सँ रहित रहितो सर्जन, पालन आ संहार तीनू करैत अछि । अपने गुण सब सँ रहित छी, तैयो पृथ्वीक भार उतारय लेल अपने सगुण भ’ कय अवतीर्ण होइत छी, आर अपन इच्छा सँ एक सँ अनेक रूप धारण करैत छी । अपनेक भक्ति संसार-सागर सँ पार करय लेल नाव जेहेन अछि, ओ सबटा आकांक्षा सभक पूर्ति करयवला अछि आ अनन्त शक्तिस्वरूप अछि।” ॥३१-३४॥
।चौपाइ।
स्तुति करइत विधिकाँ विभु कहल । अपनैँ सबहि दुःख बड़ सहल ॥३५॥
विधि कहु की करु हम उपकार । शुनि विधि मन भेल हर्ष अपार ॥३६॥
परमेश्वर शुनु रावण नाम । राक्षसेन्द्र बस लङ्का-धाम ॥३७॥
ओ पौलस्त्यक तनय महान । संप्रति दुष्ट एहन नहि आन ॥३८॥
हम वर देल भेल अन्याय । हमरहि सबकाँ भेल बलाय ॥३९॥
के कह तनिका नीति बुझाय । उचित न बिरनी-वृन्द जगाय ॥४०॥
तीनि लोक मे से के लोक । जनिका रावण देल न शोक ॥४१॥
एक गोट अछि तनि मे आश । मानुष हाथेँ तनिक विनाश ॥४२॥
राखल जाय देव संसार । अपनैँ धरु नर-वर अवतार ॥४३॥
दुख शुनि तखन कहल भगवान । नीक नीक होयत कल्यान ॥४४॥
हम सन्तुष्ट देल वरदान । तकरा मध्य कथा नहि आन ॥४५॥
कश्यप बहुत तपस्या कयल । विष्णु होथु सुत ई मन धयल ॥४६॥
संप्रति दशरथ से तप वेस । छथि से उत्तर कौशल देश ॥४७॥
तनिकर पुत्र होयब हम जाय । कौशल्या सौँ शुभ दिन पाय ॥४८॥
चारि रूप हम अपनहि हयब । केकयि सुमित्रा पुत्र कहयब ॥४९॥
माया हमरे आज्ञा पाय । सीता नाम कहौतिह जाय ॥५०॥
तनिकाँ संग हरब महि भार । माया लीला अति विस्तार ॥५१॥
बहुत कयल विधि प्रभु-गुणगान । ई कहि भेला अन्तर्धान ॥५२॥
होयत रघुकुल विभु-अवतार । माया मानब गुण-विस्तार ॥५३॥
अपनहुँ सबहिँ एहन मति करब । वानर भालु रूप भल धरब ॥५४॥
यावत प्रभु महि मण्डल रहथि । होयब सहाय जतय जे कहथि ॥५५॥
ई सब देव सकल शुनि लेल । दृढ़ भरोस धरणी काँ देल ॥५६॥
धरणी धरु धरु धीर सुचित्त । विभु अवतरता अहँक निमित्त ॥५७॥
मनवांछित अहँकाँ अछि जैह । सकल-शक्तियुत होयत सैह ॥५८॥
सुख सौँ विधि गेला निज लोक । ई शुनि काश्यपीक कृश शोक ॥५९॥
।हरिपद।
पर्व्वत वृक्ष अस्त्र वानरतन कयल अमर-गण धारण ।
विभुक बाट तकइत नित सबजन रण सहायता कारण ॥६०॥
भावार्थः
“हे ब्रह्मा! बताउ, हम अहाँक कि उपकार करू?” – ई सुनिकय ब्रह्माक मोन मे खुब हर्ष भेलनि । ओ बजलाह – “हे परमेश्वर! सुनल जाउ । रावण नामक एक राक्षसराज लंकापुरी मे रहैत अछि । ओ पौलस्त्य केर बेटा छी । एखन ओकरा जेहेन बदमाश आर कियो नहि अछि । हमहीं ओकरा वरदान देलहुँ, से नीक नहि कयलहुँ । ओ दुष्ट तँ हमरहि सभक लेल बलाय बनि गेल अछि । केकर सामर्थ्य छैक जे ओकरा उचित बात बुझाबय ! बिर्हनी केँ जगेनाय (ओकर खोता मे खोंचारनाय) उचित (नीक) नहि होइत छैक । तीनू भुवन मे एहेन के होयत जेकरा ओ नहि सतेने हो ! ओकरा सम्बन्ध मे एक्कहि गोट बात आशाक ई अछि जे ओकर मृत्यु मनुक्खक हाथ सँ लिखल छैक । हे देव ! अपने एहि संसार केँ बचाउ । अपने पुरुषोत्तम रूप मे अवतार लिय’ ।” ॥३५-४३॥
तखन हुनकर दुःख सुनिकय भगवान विष्णु कहलखिन – “अच्छा, अच्छा ! अहाँ सभक कल्याण होयत । हम सन्तुष्ट भ’ कय ई वरदान दैत छी । एहि मे अन्यता भ’ सकैत अछि । कश्यप ऋषि बहुत पैघ तपस्या कयलनि । हुनकर मोन मे यैह कामना रहनि जे विष्णु हुनकर पुत्र भ’ कय अवतार लेथि । एखन राजा दशरथ सेहो यैह कामना सँ खुब तपस्या कयलनि अछि । ओ एखन उत्तर कौशल नामक देश मे राज्य कय रहल छथि । हम शुभ घड़ी पाबि कौशल्या सँ हुनकर पुत्र होयब । चारि रूप हम स्वयं धारण करब, ई (हमर तीन रूप) कैकेयी आ सुमित्राक पुत्र कहेता । माया हमर आज्ञा पाबि अवतार लेती आ सीता कहेती । हुनका संग हम धरतीक भार दूर करब । मायाक लीला अपरम्पार अछि ।” ॥४४-५१॥
ब्रह्माजी विष्णु जीक बहुते गुणगान कयलनि आर विष्णु अन्तर्धान भ’ गेलाह । (ब्रह्मा बजलाह – ) “रघुकुल मे भगवान विष्णु अनन्तगुण-विभूषित माया-मानव रूप मे अवतार लेता । हे देवता लोकनि! अपनहुँ लोकनि अवतार लिय’ आ बानर-भालु केर रूप धारण करू । जाबत धरि भगवान विष्णु धरती पर रहथि ताबत धरि ओ जेतय जे कहथि ताहिमे अहाँ सब मदद करू ।” ॥५२-५५॥
सब देवता लोकनि एना सुनलनि आ धरती केँ पकिया भरोस देलनि । “हे धरणी! अहाँक मोन मे जेहेन कामना अछि, सबटा शक्ति लगाकय ओहिना करब ।” एतेक कहिकय ब्रह्मा ब्रह्मलोक चलि गेलाह आर हुनकर बात सुनिकय कश्यप केर पुत्री धरणीक चिन्ता किछु दूर भ’ गेलनि । देवता लोकनि पर्वत, वृक्ष, अस्त्र, वानर आदिक रूप धारण कयलनि आर लड़ाइ मे सहायता करबाक लेल सब नित्य नारायणक अवतारक प्रतीक्षा करय लगलाह ॥५६-६०॥
॥इति श्री मैथिल चन्द्र-कवि-विरचिते मिथिला-भाषा रामायणे बालकाण्डे द्वितीयोऽध्यायः॥
॥मैथिल चन्द्रकवि-विरचित मिथिलाभाषा रामायण मे बालकाण्डक दोसर अध्याय समाप्त भेल॥
हरिः हरः!!