मैथिली भाषा आम लोकक प्रयोग कयल जायवला भाषा थिक।
बड़का कहेनिहारक भाषा मैथिली नहि रहि गेल, न घर, न बाहर। बड़का कहेनिहारक भाषा रहितो ई कथित बड़का सब मैथिली केँ लतखुर्दन कयलक। आइ एहेन बड़काक घर मे स्पष्ट देखि सकैत छी केना अपन सन्तान संग मैथिली छोड़ि आन चलन-चलतीक भाषा प्रयोग करैत अछि।
आइ ओ लतखुर्दन कयलक आ कि करैत अछि, काल्हि स्वयं ओकर सन्तान आन भाषाक व्यवहार करैत स्वाभाविक आनहि संस्कार-संस्कृति मे रमैत, ओहि तरहें अपन बड़का कहबैका मातापिता प्रति व्यवहार करत।
एहेन कतेको रास उदाहरण हमरा ग्रामीण क्षेत्र मे देखय लेल भेटैत अछि। बिघाक-बिघा खेतक मालिक, दशकों पूर्व कोठाक महल (पक्का मकान) बनेनिहार, पोखरि, कलम-गाछी, बसबाइर, शिशो-च’ह-खयर आदिक महंगा गाछ सभक मालिक – बेचारा! एहिना भाषा बिगाड़िकय सन्तान सब केँ अपनहि मड़ौसी सँ दूर कय देलनि।
बाद मे (मरयकाल मे) कतबो चाहला जे धियापुता गाम लय चलय, आब ओकरा सब केँ गाम सोहेबो करउ तखन ने! फकसियारी काटिकय मरि गेलाह, बिजली दाहगृह मे डाहि देलकनि। बाहरे एगारह दुनी बाइस केँ खुअबैत एकादशा-द्वादशा भेल, फेर माछ-माउस होइत छय से धरि खुबे बुझल रहिते छय, से अक्छाकय चिकन-मटन-भुटन सब खा कय खिस्सा खत्म कयलक।
मैथिली मे श्राद्ध श्रद्धा सँ होइत छय, ओकर हिन्दी मे मृत्युभोज भेलैक।
तेँ, कहलहुँ जे मैथिली भाषा आम लोक, साधारण लोक, गरीब लोक आ हमरे सब सन मिथिलावादी लोक केर भाषा बचि गेल अछि। हम एहि कारण मैथिलीक काज करय मे आत्मसन्तोष पबैत छी। एहि लेल कतबो त्याग करय पड़य आ कि लुटाबय पड़य, सब तरहें देह सक्कत कएने छी।
‘जय मैथिली’ आ ‘जय मिथिला’ कहबाक ढकोसला नहि करबाक चाही, एकरहु किक-बैक लगैत हम कय टा केँ देखल। बाहर मंच पर देखायब कि हम मिथिला आ मैथिलीक रक्षा लेल कटिबद्ध छी, घरक मोखे पर सन्तान केँ मैथिलेतर भाषा मे सम्बोधन करैत वैह काज करब जे उपरवर्णित बड़का कहबैका सब करैत छथि। एकर परिणाम कय बेर देखैत छी हुनका अपनहि भोगय पड़ैत छन्हि। लिखैत बेजा लागि रहल अछि, बस इशारा मे कहय चाहब जे गलत प्रारब्धक भोग गलते होइत छैक।
हमरा कश्मीर वला डल झील सँ बेसी नीक धोबियाही पोखरि लागल, बच्चे सँ खूब चुभकलहुँ। ओम्हर धोबी समुदाय सब पाट पर कपड़ा खिचैत छल, एम्हर हम सब धियापुता महार पर सँ फाँगि-फाँगिकय चुभकि-चुभकि कय नहायल करी। डल झील कहियो देखबो करब त किछु मिनट लेल, धोबियाही त नित्य देखाइत अछि, बचपन बीतल अछि ओतय। कहय के मतलब, अपन मूल आ मौलिकता केँ लात मारि कतबो बाहरी टोप-ठोप-टहंकार लगा लेब, हमरा सन्तोष नहि भेटत। प्रकृति के सिद्धान्ते यैह छैक जे अपन मड़ौसी सँ सिनेहबन्ध बनैत छय, जे एकर विरूद्ध भेल ओ निखत्तर गेल।
हरिः हरः!!