मनु-शतरूपा आ हम मानव संसार

स्वाध्याय ‍- आलेख

– प्रवीण नारायण चौधरी

आध्यात्मिक अध्ययन अर्थात् ‘स्वयं केर सत्य पहिचान हेतु शास्त्रीय वचन सँ आत्मसंतोषक खोजी’ – जेकरा एक शब्द स्वाध्याय सँ संबोधित कय सकैत छी – ओ हमर रुचिक विषय मे पड़ैत अछि। पुन: स्मृति मे अनैत छी ‘धर्म-मार्ग’ केर स्थापना, निरर्थक एम्हर-ओम्हर समय खर्च केला सँ नीक जे कोनो गंभीर विषय पर ध्यानकेन्द्रित करैत गृहस्थी मे रहितो तपस्यारत होइ।

जी यैह क्रम छल जाहि मे जनक केर चर्चा कृष्ण द्वारा होइत देखलहुँ गीता मे। कृष्ण बड पैघ उदाहरण दैत अर्जुन सँ कहलखिन जे कर्म करितो कर्मक बंधन मे नहि पड़ि मुक्त कतेको जीव मे जनकादि राजा सेहो भेला। सामान्यतया, मनुष्य केर प्रकृति मे तीन तत्त्व ‘सत्त्व, राजस, तामश’ केर भिन्न-भिन्न अनुपात सँ तैयार मिश्रण द्वारा अलग-अलग स्वभाव, आचार-विचार, कर्म-व्यवहार आदिक कारक बनैत छैक। निस्सन्देह जखन कियो राजा होयत तँ राजसिकताक मात्रा बेसी हेबाक संभावना रहिते छैक। लेकिन जनक केहन राजा भेलाह जे सजीवन सेहो मुक्त (liberated) कहेला, ई पाँति जिज्ञासू प्रवीण कि आरो कतेको लोक केँ हिलाकय राखि देलक। बहुतो रास कथा-गाथा श्रुति ओ पुराण सँ एहि मादे भेटैत अछि।

आइ हम चर्चा करब मनु केर –

manu satarupaमनु के छलाह, कि छलाह आ समस्त मनुष्यलोक लेल हुनकहि प्रदत्त संविधान आइयो कोना बहुत सान्दर्भिक-सारगर्वित अछि। कहल जाइछ जे सृष्टिक आरम्भ मे ब्रह्माजी सनकादि पुत्र केँ जन्म देलनि, मुदा ओ सब सृष्टि-कार्य सँ विरत भऽ निवृत्तिपरायण भऽ गेलाह। अर्थात् सृष्टिक उद्देश्य सँ इतर ओ सब ब्रह्मलोक – मुक्त महात्माक रूप मे जीवन-निर्वहनक दिशा मे बेसी कार्यरत भेलाह। तखन ब्रह्माजी स्वयं अपनहि शरीर सँ मनु आ शतरूपा केँ उत्पन्न केलनि। मनु आ शतरूपा केर स्वयम्भु ब्रह्माजी सँ उत्पन्न होयबाक कारणे ‘स्वायम्भुव’ नाम सँ जानल गेला। हिनक चरित्र आर आचरण बहुत उदार छल। यथासमय स्वायम्भुव मनु केर दुइ पुत्र – प्रियव्रत आ उत्तानपाद, तीन पुत्री – आकूति, देवहूति आ प्रसूति भेलनि। फेर आगूक समस्त सृष्टि हिनकहि सब सँ विस्तृत होइत रहल। ज्ञात हो जे महाभागवत ध्रुव उत्तानपाद व सुनीति सँ उत्पन्न भेलाह आर परमज्ञानी सांख्यतत्त्वक उपदेष्टा भगवान् कपिल माता देवहूति सँ प्रादुर्भूत भेलाह।

मनु मानवजातिक आदि पिता छथि, वैह पथ-प्रदर्शक छथि। ऐश्वर्य, धर्मानुशासन, शास्त्रमर्यादा, प्रजापालन, न्यायपथक प्रतिष्ठा आ तप – यैह हुनक जीवनचर्याक अद्भुत आदर्श छल। तहिना महारानी शतरूपा सेहो शील-स्वभाव आ पातिव्रतक प्रतिमूर्ति छलीह। हिनका लोकनिक भगवत्प्रेम सबहक लेल अनुकरणीय अछि। पुण्यकीर्ति राजर्षि मनु भगवदीय अंश सँ संपन्न छलाह। प्रजापालन आ धर्मचर्याक प्रतिष्ठाक लेल सेहो हिनक प्राकट्य भेल छल। सुदीर्घकालतक राज्य करैत अन्त मे विषयसँ वैराग्य पेबाक निमित्त पुत्र सब पर राज्यक भार छोड़ि सपत्नी तपस्या लेल वनगमन (नैमिषारण्य, गोमती नदीक तटपर) मुनिवृत्ति धारण करैत कएलाह। ओतय द्वादशाक्षर (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) जप करैत एकमात्र भगवानक दर्शन हेतु तपरत भेलाह। विभिन्न प्रलोभन केँ नकारैत केवल भगवद्दर्शन हेतु तपस्या निरन्तरता मे रखलनि। एहेन घोर तपस्या आ चरणानुराग केँ देखि भगवान् नीलमणि अपन शक्तिक संग मनोरम स्वरूपमे एहि दम्पत्तिकेँ दर्शन देलनि। भगवान् प्रेमसहित हिनका लोकनिसँ वर मंगबाक आग्रह कएलनि, परिणामस्वरूप लजाइते मनुजी कहलनि – चाहउँ तुम्हहि समान सुत (तुलसीदास रामायण), जेकर जबाब मे करुणानिधि कहलनि – आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥ अर्थात् मनुजी केर माँग जे अहीं समान पुत्र भेटय, तऽ भगवान् मुस्कुराइत कहैत छथि जे आब अपने समान कतए खोजय लेल जायब, बरु अपनहि अहाँ दुनु गोटा पुत्र बनिकय आयब। यैह वरदान बाद मे मनु-शतरूपा क्रमश: दशरथ-कौसल्या बनैत छथि, आ भगवान् राम बनि अबैत छथि, शक्ति सीता बनि मिथिला मे अवतरित होइत छथि।

मनुकेँ वेद ‘मनुष्पिता’ (ऋग्वेद १/८०/१६) – यानि समस्त मनुष्यलोक केर पिताक रूप मे – पालनकर्ताक रूपमे जनैत अछि। हम सब मनुजी केर सन्तान छी। वेदार्थक अनुसार आदि सनातन-संविधान हिनकहि द्वारा बताओल गेल अछि। ‘वेदार्थोपनिबद्धत्वात् प्राधान्यं हि मनो: स्मृतम्।’ – मनुजी केँ सर्वज्ञानमय कहल गेल अछि – ‘सर्वज्ञानमयो हि स:’ (मनुस्मृति २/७)। हुनका द्वारा जे किछु कहल गेल अछि ओ सबहक लेल परम भेषज – परम औषध अछि – ‘यत्किञ्च मनुरवदत् तद्भेषजं भेषजताया:।’ (ताण्ड्यब्राह्मण २३/१६/७), ‘यद्वै किञ्च मनुरवदत् तद् भेषजम्।’ (कृष्णयजुर्वेद तैत्तिरीय संहिता २/२/१०/२) – एहि चर्यारूपी औषधक सेवन कएला सँ महान् कल्याणक प्राप्ति होइछ। तदोपरान्त मनुस्मृति पर विशेष चर्चा करैत हिनका द्वारा मानवहितक समस्त पक्ष केँ संबोधन करैत विधान प्रस्तुत कैल गेल अछि।

कालान्तर मे जीव अपन वर्चस्वक लड़ाई लेल कूव्याख्या करैत अन्ततोगत्वा ‘मनुवाद’ केँ रूढिवादिताक रूप मे सेहो सामाजिक-राजनैतिक लड़ाई केर विषय बनौलक। परञ्च हरेक मनुष्य केँ अपन जीवन आचरण आ मानवीय यथोचित कर्म-व्यवहार लेल स्वधर्मक निर्वहन परम आवश्यक नीति होइछ, तैँ अहाँ मनु केँ कोना अनुसरण करब, ई अहीं पर निर्भर करैछ, नहि कि आदिपुरुष केर कोनो कथन वा वचन पर। एकरा स्वयं कोना आत्मसात करब ताहि लेल अहीं जिम्मेवार छी। मनुवाद कहि एकरा नकारला सँ केकर हानि होयत, अतिवाद कहि एकरा बदनाम केला सँ केकर जीवनक परिणाम अधूरा छूटत, एहि सब पर आइयो सृष्टिक हजारों-लाखों वर्ष बितलो बाद प्रासंगिकता ओहिना बनल अछि।

(ई लेख पूरा पढि मनन करबाक लेल धन्यवाद – आधारपुस्तक ‘कल्याण जीवनचर्या-अङ्क, जनवरी २०१०)