रामचरितमानस मोतीः रामायण माहात्म्य, तुलसी विनय तथा फलस्तुति

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

रामायण माहात्म्य, तुलसी विनय तथा फलस्तुति

काकभुशुण्डिजी द्वारा मानस रोग, ओकर उपचार आ भजन महिमा कहि यथामति संग रामचरितमानस गरुड़जी केँ सुनेबाक वृत्तान्त कहैत आगू बढ़ि रहल छथि –

१. अपने जे हमरा सँ शुकदेवजी, सनकादि तथा शिवजीक मोन केँ प्रिय लागयवाली अति पवित्र रामकथा पुछलहुँ से हमरा उपर अहाँक बड पैघ कृपा भेल। संसार मे घड़ी भरिक अथवा पल भरिक एकहु बेरुक सत्संग दुर्लभ अछि। हे गरुड़जी! अपन हृदय मे विचारिकय देखू, कि हमहुँ श्री रामजीक भजनक अधिकारी छी? पक्षियहु सब मे नीच आ सब प्रकार सँ अपवित्र छी, लेकिन एहेन भेलो पर प्रभु हमरा जगत् केँ पवित्र करयवला प्रसिद्ध कय देलनि। प्रभु हमरा जगत्प्रसिद्ध पावन कय देलनि। यद्यपि हम सब प्रकार सँ हीन (नीच) छी, तैयो आइ हम धन्य छी, अत्यन्त धन्य छी, जे श्री रामजी हमरा अपन ‘निज जन’ जानिकय सन्त समागम देलनि, अपने सँ भेंट करौलनि। हे नाथ! हम अपन बुद्धि अनुसार कहलहुँ, किछुओ नुकाकय नहि रखलहुँ। तैयो श्री रघुवीरक चरित्र समुद्र समान छन्हि, कि ओकरो कियो थाह पाबि सकैत अछि?

२. श्री रामचंद्रजीक बहुते रास गुण समूह सब स्मरण कय-कयकेँ सुजान भुशुण्डिजी बेर-बेर हर्षित भ’ रहल छथि।

“जिनकर महिमा वेद ‘नेति-नेति’ कहिकय गेलक अछि, जिनकर बल, प्रताप आ प्रभुत्व (सामर्थ्य) अतुलनीय अछि, जाहि श्री रघुनाथजीक चरण शिवजी आ ब्रह्माजी द्वारा पूज्य अछि, हुनक हमरा उपर कृपा भेनाय हुनक परम कोमलता थिक। केकरहु एहेन स्वभाव कतहु नहि सुनैत छी, नहिये देखैत छी। तेँ, हे पक्षीराज गरुड़जी! हम श्री रघुनाथजीक समान केकरा बुझू? साधक, सिद्ध, जीवनमुक्त, उदासीन (विरक्त), कवि, विद्वान, कर्म (रहस्य) केर ज्ञाता, संन्यासी, योगी, शूरवीर, भारी तपस्वी, ज्ञानी, धर्मपरायण, पंडित आ विज्ञानी – ई सब कियो हमर स्वामी श्री रामजीक सेवन (भजन) कएने बिना तरि नहि सकैत छथि। हम, वैह श्री रामजी केँ बेर-बेर नमस्कार करैत छी। जिनकर शरण गेला पर हमरा जेहेन पापराशि सेहो शुद्ध (पापरहित) भ’ जाइत अछि, वैह अविनाशी श्री रामजी केँ हम नमस्कार करैत छी। जिनकर नाम जन्म-मरण रूपी रोग केर (अव्यर्थ) औषध आर तीनू भयंकर पीड़ा (आधिदैविक, आधिभौतिक आ आध्यात्मिक दुःख सब) केँ हरयवला अछि, से कृपालु श्री रामजी हमरा पर आर अहाँ पर सदैव प्रसन्न रहथि।”

३. भुशुण्डिजीक मंगलमय वचन सुनिकय आ श्री रामजीक चरण मे हुनक अतिशय प्रेम देखिकय सन्देह सँ भलीभाँति छुटि चुकल गरुड़जी प्रेमसहित वचन बजलाह –

“श्री रघुवीर केर भक्ति रस मे सनल अपनेक वाणी सुनिकय हम कृतकृत्य भ’ गेलहुँ। श्री रामजीक चरण मे हमर नव प्रीति भ’ गेल आ माया सँ उत्पन्न सबटा विपत्ति दूर भ’ गेल। मोहरूपी समुद्र मे डुबैत हमरा अपने जहाज भेलहुँ। हे नाथ! अपने हमरा बहुते प्रकार सँ सुख देलहुँ, परम सुखी बना देलहुँ। हमरा सँ एकर प्रत्युपकार (उपकारक बदला दोसर उपकार) नहि भ’ सकैत अछि। हम त अहाँक चरण केर बेर-बेर वन्दना टा करैत छी।

अपने पूर्णकाम छी आ श्री रामजीक प्रेमी छी। हे तात! अहाँक समान कियो दोसर बड़भागी नहि अछि। सन्त, वृक्ष, नदी, पर्वत आ पृथ्वी – एहि सभक क्रिया पराया हित लेल मात्र होइत छैक। सन्त लोकनिक हृदय मक्खन समान होइत छन्हि, एना कवि लोकनि कहलनि अछि। लेकिन ओ सब असल बात कहनाय नहि जनलनि, कियैक तँ मक्खन तँ स्वयं तपित भेला पर पिघलैत अछि आ परम पवित्र सन्त दोसरक दुःख सँ पिघलि जाइत छथि। हमर जीवन आ जन्म सफल भ’ गेल। अहाँक कृपा सँ सबटा सन्देह चलि गेल। हमरा सदैव अपन दासे बुझब।”

४. शिवजी कहैत छथि – “हे उमा! पक्षी श्रेष्ठ गरुड़जी बेर-बेर यैह बात कहि रहल छथि। भुशुण्डिजीक चरण मे प्रेमसहित सिर नमाकय आ हृदय मे श्री रघुवीर केँ धारण कयकेँ धीरबुद्धि गरुड़जी वैकुंठ केँ चलि गेलाह। हे गिरिजे! सन्त समागम समान दोसर कोनो लाभ नहि अछि। लेकिन ओ (सन्त समागम) श्री हरिक कृपा बिना नहि भ’ सकैत अछि, एना वेद आ पुराण गबैत अछि।

हम ई परम पवित्र इतिहास कहलहुँ, जे कान सँ सुनितहि भवपाश (संसारक बन्धन) छुटि जाइत अछि आ शरणागत केँ (ओकर इच्छानुसार फल दयवला) कल्पवृक्ष तथा दयाक समूह श्री रामजीक चरणकमल मे प्रेम उत्पन्न होइत अछि।

जे कान आ मोन लगाकय एहि कथा केँ सुनैत अछि, ओकर मन, वचन आ कर्म (शरीर) सँ उत्पन्न सबटा पाप नष्ट भ’ जाइत छैक। तीर्थ यात्रा आदि बहुते रास साधन, योग, वैराग्य आ ज्ञान मे निपुणता, अनेकों प्रकारक कर्म, धर्म, व्रत आर दान, अनेकों संयम दम, जप, तप आर यज्ञ, प्राणी सब पर दया, ब्राह्मण आर गुरुक सेवा, विद्या, विनय आर विवेक केर बड़ाई (आदि) – जेतय धरि वेद सब साधन बतौलनि अछि, हे भवानी! ताहि सभक फल श्री हरिक भक्ति मात्र थिक, लेकिन श्रुति सब मे गायल गेल ओ श्री रघुनाथजीक भक्ति श्री रामजीक कृपा सँ कियो एक (विरले) मात्र पाबि सकल अछि।

लेकिन जे मनुष्य विश्वास मानिकय ई कथा निरन्तर सुनैत अछि, से बिना परिश्रमहि ओहि मुनि दुर्लभ हरि भक्ति केँ प्राप्त कय लैत अछि। जेकर मोन श्री रामजीक चरण मे अनुरक्त छैक, ओ सर्वज्ञ (सब किछु जानयवला) अछि, वैह गुणी अछि, वैह ज्ञानी अछि। वैह पृथ्वीक भूषण, पण्डित आ दानी अछि। वैह धर्मपरायण अछि आ वैह कुल केर रक्षक अछि।

जे छल छोड़िकय श्री रघुवीर केर भजन करैत अछि, वैह नीति मे निपुण अछि, वैह परम्‌ बुद्धिमान अछि। वैह वेद सभक सिद्धान्त केँ नीक जेकाँ जानि सकल अछि। वैह कवि, वैह विद्वान् आ वैह रणधीर अछि। ओ देश धन्य अछि, जेतय श्री गंगाजी छथि, ओ स्त्री धन्य अछि जे पातिव्रत धर्म केर पालन करैत अछि। ओ राजा धन्य अछि जे न्याय करैत अछि आ ओ ब्राह्मण धन्य अछि जे अपन धर्म सँ नहि डिगैत अछि। ओ धन धन्य अछि, जेकर पहिल गति होइत छैक (जे दान दय मे व्यय होइत अछि)। वैह बुद्धि धन्य आर परिपक्व अछि जे पुण्य मे लागल अछि। वैह घड़ी धन्य अछि जखन सत्संग हो आर वैह जन्म धन्य अछि जाहि ब्राह्मणक अखण्ड भक्ति हो।

(धन केर तीन गति होइत छैक – दान, भोग आ नाश। दान उत्तम अछि, भोग मध्यम अछि आर नाश नीच गति अछि। जे पुरुष नहि दैत अछि आ भोगैत अछि, ओकर धन केर गति तेसुरका वला होइत छैक।)

हे उमा! सुनू! ओ कुल धन्य अछि, संसार भरि वास्ते पूज्य अछि आर परम पवित्र अछि, जाहि मे श्री रघुवीर परायण (अनन्य रामभक्त) विनम्र पुरुष केर जन्म भेल हो।

हम अपन बुद्धि अनुसार ई कथा कहलहुँ, जखन कि एकरा पहिने गुप्त रखने रही। जखन अहाँक मोन मे प्रेमक अधिकता देखलहुँ तखन हम श्री रघुनाथजीक ई कथा अहाँ केँ सुनेलहुँ।

ई कथा ओहेन लोक सँ नहि कहबाक चाही जे शठ (धूर्त) हो, हठी स्वभाव केर हो आर श्री हरिक लीला केँ मोन लगाकय नहि सुनैत हो। लोभी, क्रोधी आ कामी केँ, जे चराचर केर स्वामी श्री रामजी केँ नहि भजैछ, ई कथा नहि कहबाक चाही। ब्राह्मणक द्रोही केँ, जँ ओ देवराज (इन्द्र) केर समान ऐश्वर्यवान्‌ राजे हो, तैयो ई कथा नहि सुनेबाक चाही।

श्री रामकथा केर अधिकारी वैह टा अछि जेकरा सत्संगति अत्यन्त प्रिय छैक। जेकर गुरुक चरण मे प्रीति अछि, जे नीतिपरायण अछि आर ब्राह्मण लोकनिक सेवक अछि, वैह टा एकर अधिकारी अछि आर ओकरा तँ ई कथा बहुते सुख दयवला छैक, जेकरा श्री रघुनाथजी प्राणक समान प्रिय छथि।

जे श्री रामजीक चरण मे प्रेम चाहैत हो या मोक्षपद चाहैत हो, ओ ई कथारूपी अमृत केँ प्रेमपूर्वक अपन कान रूपी दोना सँ पिबय।

हे गिरिजे! हम कलियुग केर पाप सब केँ नाश करयवाली आ मोनक मैल केँ दूर करयवाली रामकथाक वर्णन कयलहुँ। ई रामकथा संसृति (जन्म-मरण) रूपी रोग केँ नाश करबाक लेल संजीवनी जड़ी थिक, वेद आ विद्वान पुरुष एना कहैत छथि।

एहि मे सात गोट सुन्दर सीढ़ी सब अछि, जे श्री रघुनाथजीक भक्ति प्राप्त करबाक मार्ग थिक। जेकरा उपर श्री हरिक अत्यन्त कृपा होइत छन्हि, वैह एहि मार्ग पर पैर रखैत अछि। जे कपट छोड़िकय ई कथा गबैत अछि, ओ मनुष्य अपन मनःकामनाक सिद्धि पाबि लैत अछि, जे ई कहैत-सुनैत आ अनुमोदन (प्रशंसा) करैत अछि, ओ संसाररूपी समुद्र केँ गाय केर खुर सँ बनल खद्धा जेकाँ पार कय जाइत अछि।”

५. याज्ञवल्क्यजी कहैत छथि – “सबटा कथा सुनिकय श्री पार्वतीजीक हृदय केँ बहुतहि प्रिय लगलनि आर ओ सुन्दर वाणी बजलीह – स्वामीक कृपा सँ हमर सन्देह खत्म होइत रहल आ श्री रामजीक चरण मे नवीन प्रेम उत्पन्न भ’ गेल। हे विश्वनाथ! अपनेक कृपा सँ आब हम कृतार्थ भ’ गेलहुँ। हमरा मे दृढ़ राम भक्ति उत्पन्न भ’ गेल आर हमर सम्पूर्ण क्लेश सेहो नष्ट भ’ गेल।

शम्भु-उमा केर ई कल्याणकारी संवाद सुख उत्पन्न करयवला आ शोक केँ नाश करयवला अछि। जन्म-मरण केर अन्त करयवला, सन्देह सब केँ नाश करयवला, भक्त सब केँ आनन्द दयवला आ सन्त पुरुष सब केँ प्रिय अछि।

जगत्‌ मे जे (जतेको रास) रामोपासक छथि, हुनका तँ ई रामकथाक समान किछुओ प्रिय नहि छन्हि। श्री रघुनाथजीक कृपा सँ हम ई सुन्दर आर पवित्र करयवला चरित्र अपन बुद्धि अनुसार गेलहुँ।”

६. तुलसीदासजी कहैत छथि – “एहि कलिकाल मे योग, यज्ञ, जप, तप, व्रत आर पूजन आदि कोनो दोसर साधन नहि अछि। बस, श्री रामजी टा केँ स्मरण करब, श्री रामजी मात्रक गुण गायब आर श्री रामहिजी टाक गुणसमूह सब सुनबाक चाही। पतितहु केँ पवित्र करब जेकर महान् बाइन छैक, एहेन कवि, वेद, सन्त आ पुराण गबैत छथि – रे मन! कुटिलता त्यागिकय हुनकहि भज। श्री राम केँ भजय सँ के परम गति नहि पेलक?

७. छंद :

पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।
गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना॥
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।
कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते॥१॥

अरे मूर्ख मन! सुने, पतितहु केँ पावन करयवला श्री राम केँ भजिकय के परमगति नहि पेलक? गणिका, अजामिल, व्याध, गिध, गज आदि बहुतो रास दुष्ट सब केँ ओ तारि देलनि। अभीर, यवन, किरात, खस, श्वपच (चाण्डाल) आदि जे अत्यन्त पापरूप मात्र अछि, ओहो केवल एक बेर जिनकर नाम लयकय पवित्र भ’ जाइत अछि, ताहि श्री रामजी केँ हम नमस्कार करैत छी। 

रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं।
कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं॥
सत पंच चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरै।
दारुन अबिद्या पंच जनित बिकार श्री रघुबर हरै॥२॥

जे मनुष्य रघुवंश केर भूषण श्री रामजीक ई चरित्र कहैत अछि, सुनैत अछि आर गबैत अछि, ओ कलियुगक पाप आ मोनक मैल केँ धोकय बिना परिश्रमहि श्री रामजीक परम धाम केँ चलि जाइत अछि। बेसी की! जे मनुष्य पाँच-सात चौपाइ मात्र केँ मनोहर बुझि (अथवा रामायणक चौपाइ सब केँ श्रेष्ठ पंच – कर्तव्याकर्तव्यक सच्चा निर्णायक) जानिकय ओकरा हृदय मे धारण कय लैत अछि, ओकरहु पाँच प्रकारक अविद्या सब सँ उत्पन्न विकार सब केँ श्री रामजी हरण कय लैत छथि, अर्थात् समूचा रामचरित्रक त बाते कि करू, जे पाँच-सात चौपाइ टा केँ बुझिकय ओकर अर्थ हृदय मे धारण कय लैत अछि, ओकरहु अविद्याजनित सबटा क्लेश श्री रामचन्द्रजी हरि लैत छथिन। 

सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो।
सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को॥
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ।
पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ॥३॥

परम सुन्दर, सुजान आर कृपानिधान तथा जे अनाथहु पर प्रेम करैत छथि, एहेन एक श्री रामचंद्रजी टा छथि। हिनका समान निष्काम (निःस्वार्थ) हित करयवला (सुहृद्) आर मोक्ष दयवला दोसर के अछि? जिनकर लेशमात्र कृपा सँ मन्दबुद्धि तुलसीदास सेहो परम शान्ति प्राप्त कय लेलनि, ताहि श्री रामजीक समान प्रभु कतहुओ नहि अछि। 

८. दोहा :

मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर॥१३०क॥

हे श्री रघुवीर! हमरा समान कियो दीन नहि अछि आ अहाँ समान कियो दीन केर हित करयवला नहि अछि। एना विचारिकय हे रघुवंशमणि! हमर जन्म-मरण केर भयानक दुःख केँ हरण कय लिअ’।

कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम॥१३०ख॥

जेना कामी केँ स्त्री प्रिय लगैत छैक आर लोभी केँ जेना धन प्रिय लगैत छैक, तेनाही हे रघुनाथजी। हे रामजी! अपने निरन्तर हमरा प्रिय लागू।

९. श्लोक :

यत्पूर्वं प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं
श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्तयै तु रामायणम्‌।
मत्वा तद्रघुनाथनामनिरतं स्वान्तस्तमः शान्तये।
भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम्‌॥१॥

श्रेष्ठ कवि भगवान्‌ श्री शंकरजी द्वारा पहिने जाहि दुर्गम मानस-रामायण कयल गेल, श्री रामजीक चरणकमल मे नित्य-निरन्तर (अनन्य) भक्ति प्राप्त करबाक लेल रचना कयल गेल छल, वैह मानस-रामायण केँ श्री रघुनाथजीक नाम मे निरत मानिकय अपन अन्तःकरणक अन्धकार मेटेबाक लेल तुलसीदास एहि मानस केर रूप मे भाषाबद्ध कयलनि।

पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं।
मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्‌।
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये
ते संसारपतंगघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः॥२॥

ई श्री रामचरितमानस पुण्य रूप, पाप सभक हरण करयवला, सदा कल्याणकारी, विज्ञान आर भक्ति दयवला, माया मोह आर मल केँ नाश करयवला, परम निर्मल प्रेम रूपी जल सँ परिपूर्ण तथा मंगलमय अछि। जे मनुष्य भक्तिपूर्वक एहि मानसरोवर मे डुबकी लगबैत अछि, ओ संसाररूपी सूर्य केर अति प्रचण्ड किरण सँ नहि जरैत अछि।

मासपारायण, तीसम् विश्राम
नवाह्नपारायण, नवम् विश्राम

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने सप्तमः सोपानः समाप्तः।

कलियुग केर समस्त पाप सब केँ नाश करयवला श्री रामचरित मानसक ई सातम् सोपान समाप्त भेल।

हरिः हरः!!