रामचरितमानस मोतीः ज्ञान-भक्ति-निरुपण, ज्ञान-दीपक तथा भक्ति केर महान्‌ महिमा

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

ज्ञान-भक्ति-निरुपण, ज्ञान-दीपक तथा भक्ति केर महान्‌ महिमा

लोमश ऋषि सँ राममन्त्रक प्राप्ति उपरान्त काकभुशुण्डिजी द्वारा भक्ति व ज्ञानक महिमा पर सुन्दर व्याख्यान –

१. काकभुशुण्डिजी गरुड़जी सँ कहलनि – हम हठ कय केँ भक्ति पक्ष पर अड़ल रहलहुँ, ताहि सँ महर्षि लोमश हमरा श्राप देलनि। लेकिन ओकर फल ई भेल जे मुनियहुँ लोकनि केँ जे दुर्लभ छन्हि, तेहेन वरदान हमरा भेटल। भजनक प्रताप त देखियौ! जाहि भक्तिक एहेन महिमा बुझियोकय एकरा लोक छोड़ि दैछ आ मात्र ज्ञान लेल श्रम (साधन) करैत रहैछ, ओ मूर्ख घर पर ठाढ़ भेल कामधेनु केँ छोड़िकय दूध लेल मदारक गाछ तकैत फिरैत रहैछ सैह बुझू। हे पक्षीराज! सुनू, जे लोक श्री हरिक भक्ति केँ छोड़िकय दोसर उपाय सँ सुख चाहैत अछि, ओ मूर्ख आ जड़ करनीवाला अभागल बिना जहाजे केँ बस हेलिकय (तैरिकय) महासमुद्रक पार जाय चाहैत अछि।

२. शिवजी कहैत छथि – हे भवानी! भुशुण्डिजीक वचन सुनिकय गरुड़जी हर्षित भ’ कोमल वाणी सँ बजलाह – हे प्रभो! अहाँक प्रसाद सँ हमर हृदय मे आब सन्देह, शोक, मोह आदि किछुओ नहि रहि गेल। हम अहाँक कृपा सँ श्री रामचंद्रजीक पवित्र गुणसमूह केँ सुनलहुँ आर शान्ति प्राप्त कयलहुँ। हे प्रभो! आब हम अहाँ सँ एकटा बात आर पुछैत छी। हे कृपासागर! हमरा बुझाकय कहू। सन्त मुनि, वेद आर पुराण ई कहैत अछि जे ज्ञान केर समान दुर्लभ किछुओ नहि अछि। हे गोसाईं! वैह ज्ञान मुनि लोकनि अहाँ सँ कहलनि, मुदा अहाँ भक्तिक समान ओकर आदर नहि कयलहुँ। हे कृपाक धाम! हे प्रभो! ज्ञान आ भक्ति मे कतेक अन्तर छैक? ई सब हमरा सँ कहू।

३. गरुड़जीक वचन सुनिकय सुजान काकभुशुण्डिजी बहुत सुख मानलनि आ आदरक संग कहलनि – भक्ति आ ज्ञान मे कोनो खास भेद नहि छैक। दुनू संसार सँ उत्पन्न क्लेश केँ दूर करैत अछि। हे नाथ! मुनीश्वर एहि दुनू मे कनिकबे टा’क अन्तर कहलनि अछि। हे पक्षीश्रेष्ठ! से सावधान भ’ कय सुनू। हे हरि वाहन! सुनल जाउ!

४. ज्ञान, वैराग्य, योग, विज्ञान – ई सब पुरुष थिक। पुरुष केर प्रताप सब प्रकार सँ प्रबल होइत अछि। अबला माया स्वाभाविके निर्बल और जाति-जन्म सँ जड़ (मूर्ख) होइछ। जे वैराग्यवान्‌ आ धीरबुद्धि पुरुष अछि वैह टा स्त्री केँ त्यागि सकैत अछि, नहि कि ओ कामी पुरुष जे विषय सभक वश मे अछि (से स्त्रीक गुलाम अछि) आ श्री रघुवीर केर चरण सँ विमुख अछि। ओ ज्ञान केर भण्डार मुनि सेहो मृगनयनी (युवती स्त्री) केर चंद्रमुख केँ देखिकय विवश (ओकरहि वश मे) भ’ गेल करैत छथि। हे गरुड़जी! साक्षात्‌ भगवान विष्णु केर माया टा स्त्री रूप सँ प्रकट अछि। एहिठाम हम कोनो पक्षपात नहि कय रहल छी; वेद, पुराण आ सन्त केर मत (सिद्धांत) जे अछि सैह टा कहि रहल छी।

५. हे गरुड़जी! ई अनुपम (विलक्षण) रीति अछि जे एकटा स्त्रीक रूप पर दोसर स्त्री मोहित नहि होइत अछि। माया आ भक्ति – ई दुनू स्त्री वर्गक थिक, से सब कियो जनैत छी। फेर श्री रघुवीर केँ भक्ति प्रिय छन्हि। माया बेचारी त निश्चय टा नाचयवाली नटिनी मात्र थिक। श्री रघुनाथजी भक्तिक विशेष अनुकूल रहैत छथि। एहि सँ माया हुनका सँ बहुते डराइत रहैत अछि। जेकर हृदय मे उपमारहित आर उपाधिरहित (विशुद्ध) रामभक्ति सदिखन बिना कोनो बाधा (रोक-टोक) केँ बसैत छैक, से देखिकय माया लजा जाइत अछि। ओकरा उपर ओ अपन प्रभुता (प्रभाव) नहि चला पबैछ। एना विचारिकय जे विज्ञानी मुनि छथि, ओहो लोकनि सब सुखक खान भक्ति टा’क याचना करैत छथि। श्री रघुनाथजी केँ ई रहस्य (गुप्त मर्म) जल्दी कियो नहि जानि पबैछ। श्री रघुनाथजीक कृपा सँ जे ई जानि जाइत अछि, ओकरा सपनहुँ मे मोह नहि होइत छैक।

६. हे सुचतुर गरुड़जी! ज्ञान आ भक्ति केर आरो भेद सुनू। जेकरा सुनय सँ श्री रामजीक चरण मे सदा अविच्छिन्न (एकतार) प्रेम भ’ जाइत छैक। हे तात! ई अकथनीय कहानी (वार्ता) सुनू। ई बुझिते बनैत अछि, कतहु नहि जा सकैत अछि।

जीव ईश्वरक अंश अछि। अतएव ओ अविनाशी, चेतन, निर्मल आर स्वभावहि सँ सुख केर राशि अछि। हे गोसाईं! ओ मायाक वशीभूत भ’ कय तोता आर बानर जेकाँ अपने आप बन्हा गेल। एहि प्रकारे जड़ आ चेतन मे ग्रन्थि (गाँठ) पड़ि गेल। यद्यपि ओ ग्रन्थि मिथ्यहि थिक, तथापि ओकरा छुटय मे कठिनाई छैक। तहिये सँ जीव संसारी (जन्मय-मरयवला) भ’ गेल। आब नहि त गाँठ छुटैत छैक आ न ओ सुखे भेटैत छैक। वेद आ पुराण बहुते रास उपाय बतौलक अछि, मुदा तैयो नहि त ओ ग्रन्थि छुटैत छैक आ न सुखे भेटैत छैक। 

७. जीवक हृदय मे अज्ञान रूपी अन्हार विशेष रूप सँ व्याप्त हेबाक चलते गाँठ देखाइयो तक नहि दैत अछि, छुटबाक त बाते कि करब! जँ कहियो ईश्वर एहेन संयोग (जे आगू कहल जा रहल अछि) उपस्थित कय दैत छथि तखनहि टा कदाचित् ओ ग्रन्थि छुटि पबैत छैक।

८. श्री हरिक कृपा सँ यदि सात्विकी श्रद्धारूपी सुन्दर गाय हृदयरूपी घर मे आबिकय बसि जाय, असंख्य जप, तप, व्रत, यम आ नियमादि शुभ धर्म एवं आचार (आचरण), जे श्रुति सब कहने अछि, वैह धर्माचाररूपी हरियर घास केँ जखन ओ गाय चरय (खाय) आ आस्तिक भावरूपी छोट बच्छा केँ पाबि पोन्हा जाय (दूध दिय’ लागय)।

९. निवृत्ति (सांसारिक विषय सब सँ आ प्रपंच सँ दूर भ’) नोइ (गाय केँ दूहैत समय पैछला पैर केँ बान्हयवला रस्सी) बनय। विश्वास (दूध दूहय लेल) बरतन हो, निर्मल (निष्पाप) मन जे स्वयं अपनहि टा दास हो (अपनहि वश मे रहय) से दूहयवला अहीर हो, तखन हे भाइ, एहि प्रकारे धर्माचार मे प्रवृत्त सात्विकी श्रद्धारूपी गौ सँ भाव, निवृत्ति आ वश मे कयल गेल निर्मल मनक सहायता सँ परम धर्ममय दूध दुहिकय ओकरा निष्काम भावरूपी अग्नि पर खूब नीक सँ औंटल जाय। फेर क्षमा आर संतोषरूपी हवा सँ ओकरा ठंढ़ा करब आ धैर्य व शम (मनक निग्रह) रूपी जोरन दयकय जमायब (दही बनायब)।

१०. तखन मुदिता (प्रसन्नता) रूपी मटकूरी मे तत्व विचाररूपी मथनी सँ दम (इंद्रिय दमन) केर आधार पर (दम रूपी खंभा आदिक सहारे) सत्य आ सुन्दर वाणीरूपी रस्सी लगाकय ओकरा मथब, आ मथिकय ओहि मे सँ निर्मल, सुन्दर आ अत्यन्त पवित्र वैराग्य रूपी मक्खन निकालब। फेर योगरूपी अग्नि प्रकट कय ओहि मे समस्त शुभाशुभ कर्मरूपी जारनिक आँच दय (सब कर्म केँ योगरूपी अग्नि सँ भस्म करब)। जखन (वैराग्यरूपी मक्खन केर) ममतारूपी मल जरि जाय, तखन (बचल चीज) ज्ञानरूपी घी केँ निश्चयात्मिका बुद्धि सँ ठंढ़ा करू।

११. फेर विज्ञानरूपिणी बुद्धि ओहि ज्ञानरूपी निर्मल घी केँ पाबि ओहि घी सँ चित्तरूपी दीया केँ भरि, समताक दीयादानी बना, ताहि पर ओकरा दृढ़तापूर्वक (खुब नीक सँ) राखू। (जाग्रत, स्वप्न आर सुषुप्ति) तीनू अवस्था आ (सत्त्व, रज और तम) तीनू गुण रूपी कपास सँ तुरीयावस्था रूपी रूइया निकालि ओहि सँ खुब नीक जेकाँ बाँटिकय बाती (बत्ती) बनाउ। एहि तरहें तेजक राशि विज्ञानमय दीपक केँ जराउ, जेकरा लग मे मद आदि सब कीट-पतंग सब अबैत देरी जरि जाय।

१२. ‘सोऽहमस्मि’ (ओ ब्रह्म हम छी) ई जे अखंड (तैलधारावत्‌ कहियो नहि टूटयवाली) वृत्ति थिक। वैह (ओहि ज्ञानदीपक केर) परम प्रचंड दीपशिखा (लौ) थिक। – (एहि तरहक) जखन आत्मानुभवक सुख केर सुन्दर प्रकाश पसरैत अछि, तखन संसारक मूल भेदरूपी भ्रम केर नाश भ’ जाइत अछि। आर महान्‌ बलवती अविद्याक परिवार मोह आदिक अपार अन्हार सेहो मेटा जाइत अछि।

१३. तखन ओ (विज्ञानरूपिणी) बुद्धि (आत्मानुभव रूप) प्रकाश केँ पाबिकय हृदयरूपी घर मे बैसिकय ओहि जड़ चेतनक गाँठ केँ खोलैत अछि। यदि ओ (विज्ञानरूपिणी बुद्धि) ओहि गाँठ केँ खोलि पाबय, तखन ओ जीव कृतार्थ भेल। परन्तु हे पक्षीराज गरुड़जी! गाँठ खुजैत जानिकय माया फेरो अनेकों विघ्न करैत अछि। हे भाइ! ओ बहुते रास ऋद्धि-सिद्धि सबकेँ पठबैत अछि, जे सब आबिकय बुद्धि केँ लोभ सब देखबैत छैक आ ओ सब ऋद्धि-सिद्धि कल (कला), बल आ छल कयकेँ लग जाइछ आ आँचर केर हवा सँ ओहि ज्ञानरूपी दीपक केँ मिझा दैत अछि।

१४. जँ बुद्धि बहुते सियान भ’ गेल अछि तखन ओ ओहि ऋद्धि-सिद्धि केँ अहितकर (हानिकर) बुझि ओकरा दिश तकितो नहि अछि। एहि प्रकारे जँ मायाक विघ्न सँ बुद्धि केँ बाधा नहि भेल, तखन फेर देवता (उपाधि) विघ्न करय लगैत छथि। इंद्रिय द्वार जेहेन हृदयरूपी घरक अनेकों खिड़की सब छैक। ओहि सब (प्रत्येक खिड़की) पर देवता थाना बनौने (अड्डा जमौने) बैसल रहैत छथि। जहिना ओ लोकनि विषयरूपी हवा सब केँ अबैत देखैत छथिन, आ कि जबर्दस्ती (हठपूर्वक) खिड़कीक केवाड़ सब खोलि देल करैत छथिन।

१५. जहिना ओ तेज (विषयरूपी) हवा हृदयरूपी घर मे प्रवेश करैत अछि, बस तहिना ओ विज्ञानरूपी दीप मिझा गेल करैछ। गाँठ सेहो नहि खुजैछ आ ओ (आत्मानुभव रूप) प्रकाश सेहो मेटा जाइछ। विषयरूपी हवा सँ बुद्धि व्याकुल भ’ जाइछ (सबटा कयल-धयल चौपट भ’ जाइछ)। इंद्रिय द्वार आ सम्बन्धित देवता सब केँ ज्ञान (स्वाभाविके) नहि सोहाइत छन्हि, कियैक तँ हुनका सब केँ विषय-भोग सब मे हमेशा प्रीति रहैत छन्हि आ बुद्धि केँ सेहो विषयरूपी हवा बावला बना देने रहैत छैक। तखन फेर दोबारा ओहि ज्ञानदीप केँ ओतबे मेहनति सँ के जराबय? (एहि तरहें ज्ञानदीपक मिझा गेलापर) फेर जीव अनेकों प्रकार सँ संसृति (जन्म-मरणादि) केर क्लेश पबैत अछि।

१६. हे पक्षीराज! हरिक माया अत्यन्त दुस्तर छन्हि, ओ सहजहि पार नहि पाओल जा सकैछ। ज्ञान कहय (बुझाबय) मे कठिन, बुझय मे कठिन आर साधय मे सेहो कठिन छैक। यदि घुणाक्षर न्याय सँ (संयोगवश) कदाचित्‌ ई ज्ञान भ’ओ जाय, तँ फेर ओकरा जोगाकय राखय मे अनेकों विघ्न अबैछ। ज्ञानक मार्ग कृपाण (दोधारी तरुआरि) केर धारक समान छैक। हे पक्षीराज! एहि मार्ग सँ खसैत देरी नहि लगैत छैक।

१७. जे एहि मार्ग केँ निर्विघ्न निबाहैत बढैत चलि जाइछ, वैह टा कैवल्य (मोक्ष) रूप परमपद केँ प्राप्त करैत अछि। सन्त, पुराण, वेद आर (तंत्र आदि) शास्त्र (सब) यैह कहैत अछि जे कैवल्य रूप परमपद अत्यन्त दुर्लभ अछि, मुदा हे गोसाईं! वैह (अत्यन्त दुर्लभ) मुक्ति श्री रामजी केँ भजय सँ बिना इच्छा कयनहुँ जबर्दस्ती सेहो आबि जाइत अछि। जेना स्थलक बिना जल नहि रहि सकैछ, चाहे कियो करोड़ों तरहक उपाय कियैक नहि करय, ठीक तहिना, हे पक्षीराज! सुनू, मोक्षसुख सेहो श्री हरिक भक्ति केँ छोड़िकय नहि रहि सकैत अछि। एना विचारिकय बुद्धिमान्‌ हरि भक्त भक्ति पर लोभायल रहिकय मुक्ति केँ तिरस्कार कय देल करैत छथि।

१८. भक्ति कयला सँ संसृति (जन्म-मृत्यु रूप संसार) केर जड़ अविद्या बिना यंत्र आ परिश्रमक अपने आप ओहिना नष्ट भ’ जाइछ, जेना भोजन कयल तँ जाइत अछि तृप्तिक लेल आ ओहि भोजन केँ जठराग्नि अपने आप (बिना हमरा लोकनिक चेष्टा केर) पचा देल करैत छैक, एहने सुगम आ परम सुख दयवला हरि भक्ति जेकरा नहि सोहाय, एहेन मूढ़ के होयत?

१९. हे सर्प केर शत्रु गरुड़जी! हम सेवक छी आ भगवान्‌ हमर सेव्य (स्वामी) छथि, एहि भावक बिना संसाररूपी समुद्र सँ तरनाय सम्भव नहि भ’ सकैछ। एहेन सिद्धांत विचारिकय श्री रामचंद्रजीक चरणकमलक भजन करू। जे चेतन केँ जड़ कय दैत छथि आ जड़ केँ चेतन कय दैत छथि, तेहेन समर्थ श्री रघुनाथजी केँ जे जीव भजैत अछि, से धन्य अछि।

२०. हम ज्ञानक सिद्धांत बुझाकय कहलहुँ। आब भक्तिरूपी मणिक प्रभुता (महिमा) सुनू। श्री रामजीक भक्ति सुन्दर चिंतामणि थिक। हे गरुड़जी! ई जेकर हृदयक अन्दर बसैत अछि, ओ दिन-राति (अपने आप) परम प्रकाश रूप रहैत अछि। ओकरा दीपक, घी आर बत्ती किछुओ नहि चाही। (एहि प्रकारे मणिक एक त स्वाभाविक प्रकाश रहैत छैक) फेर मोहरूपी दरिद्रता समीप नहि अबैत छैक, कियैक तँ मणि स्वयं धनरूप अछि आर तेसर लोभरूपी हवा ओहि मणिमय दीप केँ मिझा सेहो नहि सकैत अछि, कियैक तँ मणि स्वयं प्रकाश रूप अछि, ओ कियो दोसरक सहायता सँ प्रकाश नहि करैछ। ओकर प्रकाश सँ अविद्याक प्रबल अन्धकार मेटा गेल करैत छैक। मदादि कीट-पतंगक समूचा समूह हारि गेल करैछ।

२१. जेकर हृदय मे भक्ति बसैत छैक, काम, क्रोध आ लोभ आदि दुष्ट तँ ओकरा लगो नहि जाइत छैक। ओकरा लेल विष अमृत समान आर शत्रु मित्र भ’ गेल करैत छैक। ओहि मणिक बिना कियो सुख नहि पबैत अछि। बड़का-बड़का मानस मानस रोग, जेकर वश भ’कय सब जीव दुःखी भेल करैत अछि, सेहो रोग आदि ओकरा उपर अपन कोनो नहि प्रभाव कय पबैत छैक।

२२. श्री रामभक्तिरूपी मणि जेकर हृदय मे बसैत अछि, ओकरा सपनहुँ तक मे लेशमात्र दुःख नहि भ’ सकैछ। जग मे वैह मनुष्य चतुर शिरोमणि अछि जे ओहि भक्तिरूपी मणिक लेल नीक-जेकाँ (भली-भाँति) यत्न करैत अछि। यद्यपि ओ मणि जगत्‌ मे प्रकट (प्रत्यक्ष) अछि, लेकिन बिना श्री रामजीक कृपा केर ओ कियो नहि पाबि सकैत अछि। ओ पाबय केर उपाय सेहो सुगमे छैक, तथापि अभागल मनुष्य ओकरा ठुकरा देल करैत अछि।

२३. वेद-पुराण पवित्र पर्वत थिक। श्री रामजीक नाना प्रकारक कथा सब ओहि पर्वतक सुन्दर खान सब थिक। सन्त पुरुष हुनक एहि खान सभक रहस्य केँ जानयवला मर्मी लोकनि छथि आ सुन्दर बुद्धि खान खुनयवला कोदारि अछि। हे गरुड़जी! ज्ञान आर वैराग्य ई दुइ ओकर नेत्र अछि। जे प्राणी ओकरा प्रेम सँ तकैत अछि, ओ सब सुख केर खान एहि भक्तिरूपी मणि केँ पाबि गेल करैत अछि।

२४. हे प्रभो! हमरा मोन मे तँ एहने विश्वास अछि जे श्री रामजीक दास श्री रामोजी सँ बढ़िकय होइत छथि। श्री रामचंद्रजी समुद्र छथि तँ धीर सन्त पुरुष मेघ छथि। श्री हरि चन्दनक वृक्ष छथि तँ सन्त पवन छथि। सब साधनक फल सुन्दर हरि भक्ति मात्र अछि। ओकरा सन्तक अलावे आर कियो नहि पओलक। एना विचारिकय जेहो सन्त सभक संग करैत अछि, हे गरुड़जी! ओकरा लेल श्री रामजीक भक्ति सुलभ भ’ जाइत छैक।

२५. ब्रह्म (वेद) समुद्र थिक, ज्ञान मंदराचल थिक आर सन्त देवता थिकाह, जे ओहि समुद्र केँ मथिकय कथारूपी अमृत निकालैत अछि, ओकरा मे भक्तिरूपी मधुरता बसल रहैत छैक। वैराग्यरूपी ढाल सँ अपना केँ बचबिते आ ज्ञानरूपी तरुआरि सँ मद, लोभ आ मोहरूपी वैरी (शत्रु सब) केँ मारिकय जे विजय प्राप्त करैत अछि, ओ हरि भक्ति मात्र थिक, हे पक्षीराज! ई विचारिकय देखू।

हरिः हरः!!