रामचरितमानस मोतीः काकभुशुण्डिजीक लोमशजी लग गेनाय आ श्राप एवं अनुग्रह पेनाय

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

काकभुशुण्डिजीक लोमशजी लग गेनाय आ श्राप एवं अनुग्रह पेनाय

प्रसंग काकभुशुण्डिजी द्वारा पूर्व जन्म केर कथा आ कौआक शरीर प्राप्तिक गरुड़जीक प्रश्नक उत्तर क्रम जारी – क्रमशः सँ आगू –

१. गुरुजीक वचन स्मरण कयकेँ हमर मन श्री रामजीक चरण मे लागि गेल। हम क्षण-क्षण नव-नव प्रेम प्राप्त करैत श्री रघुनाथजीक यश गाबैत फिरी। सुमेरु पर्वत केर शिखर पर बरगदक छाहरि मे लोमश मुनि बैसल रहथि। हुनका देखिकय हम चरण मे सिर नमेलहुँ आ अत्यन्त दीन वचन कहलहुँ। हे पक्षीराज! हमर अत्यन्त नम्र आ कोमल वचन सुनिकय कृपालु मुनि हमरा सँ आदर सहित पुछय लगलाह – “हे ब्राह्मण! अहाँ कोन काज सँ एतय आयल छी?” ताहि पर हम कहलियनि – “हे कृपानिधि! अपने सर्वज्ञ छी आ सुजान छी। हे भगवान्‌! हमरा सगुण ब्रह्म केर आराधनाक प्रक्रिया बताउ।”

२. तखन हे पक्षीराज! मुनीश्वर श्री रघुनाथजीक गुण सभक किछु कथा सब आदर सहित कहलनि। फेर ओ ब्रह्मज्ञान परायण विज्ञानवान्‌ मुनि हमरा परम अधिकारी जानिकय – ब्रह्म केर उपदेश करय लगलाह जे ओ अजन्मा छथि, अद्वैत छथि, निर्गुण छथि आ हृदय केर स्वामी (अन्तर्यामी) छथि। हुनका कियो बुद्धि सँ नापि नहि सकैछ, ओ इच्छारहित, नामरहित, रूपरहित, अनुभव टा सँ जानय योग्य, अखण्ड आ उपमारहित छथि। ओ मन आ इंद्रिय सँ परे, निर्मल, विनाशरहित, निर्विकार, सीमारहित आ सुखक राशि छथि। वेद एना गबैत अछि जे वैह तूँ छह, तत्वमसि, जल आ जल केर लहर जेकाँ ओहि मे आ तोरा मे कोनो भेद नहि छह। मुनि हमरा अनेकों प्रकार सँ बुझौलनि, लेकिन निर्गुण मत हमर हृदय मे नहि बैसल।

३. हम फेर मुनिक चरण मे सिर नमाकय कहलियनि – “हे मुनीश्वर! हमरा सगुण ब्रह्म केर उपासना कहू। हमर मन रामभक्ति रूपी जल मे मछरी अछि (ओहि मे रमि रहल अछि)। हे चतुर मुनीश्वर! एहेन दशा मे ओ हुनका सँ अलग केना भ’ सकैत अछि? अपने दया कयकेँ हमरा वैह उपदेश (उपाय) कहल जाउ जाहि सँ हम श्री रघुनाथजी केँ अपन आँखि सँ देखि सकी। पहिने नेत्र भरि श्री अयोध्यानाथ केँ देखिकय, तखन निर्गुण केर उपदेश सुनब।” मुनि फेरो अनुपम हरिकथा कहिकय, सगुण मत केर खण्डन कयकेँ निर्गुणक निरूपण कयलनि। तखन हम निर्गुण मत केँ काटिकय बहुते हठ करैत सगुण केर निरूपण करय लागलहुँ।

४. हम उत्तर-प्रत्युत्तर कयलहुँ, एहि चलते मुनिक शरीर मे क्रोध केर चिह्न उत्पन्न भ’ गेलनि। हे प्रभो! सुनू! बहुत अपमान कयला पर ज्ञानी केँ सेहो हृदय मे क्रोध उत्पन्न भ’ जाइत छन्हि। यदि कियो चन्दन केर लकड़ी केँ बहुते बेसी रगड़त त ओहू सँ अग्नि प्रकट भ’ जायत। मुनि बेर-बेर क्रोध सहित ज्ञान केर निरूपण करय लगलाह। तखन हम बैसल-बैसल अपना मोन मे अनेकों प्रकारक अनुमान करय लागलहुँ।

“बिना द्वैतबुद्धिक क्रोध केना आ बिना अज्ञान केर कि  द्वैतबुद्धि भ’ सकैत छैक? मायाक वश रहयवला परिच्छिन्न जड़ जीव कि ईश्वर केर समान भ’ सकैत अछि? सभक हित चाहय सँ कि कहियो दुःख भ’ सकैत छैक? जेकरा लग पारसमणि छैक, ओकरा लग कि दरिद्रता रहि सकैत छैक? दोसर सँ द्रोह करयवला कि निर्भय भ’ सकैत अछि आ कामी कि कलंकरहित (बेदाग) रहि सकैत अछि? ब्राह्मणक खराब कयला सँ कि वंश रहि सकैत अछि? स्वरूप केर पहिचान (आत्मज्ञान) भेला पर कि आसक्तिपूर्वक कर्म भ’ सकैत अछि? दुष्ट सभक संग सँ कि केकरो सुबुद्धि उत्पन्न भेलैक अछि? परस्त्रीगामी कि उत्तम गति पाबि सकैत अछि? परमात्मा केँ जानयवला कतहु जन्म-मरण केर चक्कर मे पड़ि सकैत अछि? भगवान्‌ केर निन्दा करयवला कहियो सुखी भ’ सकैत अछि? नीति बिना जनने कि राज्य रहि सकैत अछि? श्री हरिक चरित्र वर्णन कयला पर कि पाप रहि सकैत अछि? बिना पुण्य केर कि पवित्र यश प्राप्त भ’ सकैत अछि? बिना पाप केर सेहो कि कियो अपयश पाबि सकैत अछि? जेकर महिमा वेद, सन्त आ पुराण गबैत अछि आर ओहि हरि भक्ति केर समान कि कोनो दोसर लाभो छैक? हे भाई! जगत्‌ मे कि एकरा समान दोसर कोनो हानियो छैक जे मनुष्यक शरीर पाबियोकय श्री रामजीक भजन नहि कयल जाय? चुगलखोरीक समान कि कोनो दोसर पाप छैक?”

आर हे गरुड़जी! दयाक समान कि कोनो दोसर धर्म छैक? एहि प्रकारे हम अनगिनत युक्ति सब मोन मे विचारैत रही आ आदरक संग मुनिक उपदेश नहि सुनैत रही।

५. जखन हम बेर-बेर सगुण केर पक्ष स्थापित कयलहुँ, तखन मुनि क्रोधयुक्त वचन बजलाह – “अरे मूढ़! हम तोरा सर्वोत्तम शिक्षा दैत छी, तैयो तूँ ओ नहि मानैत छँ आ बहुते रास उत्तर-प्रत्युत्तर (दलील) आनिकय रखैत छँ। हमर सत्य वचन पर विश्वास नहि करैत छँ। कौआ जेकाँ सब सँ डराइत छँ। अरे मूर्ख! तोहर हृदय मे अपनहि पक्ष केर बड़ा भारी हठ छौक, अतः तूँ शीघ्र चाण्डाल पक्षी (कौआ) बनि जो।” हम आनन्दक संग मुनिक श्राप केँ सिर पर चढ़ा लेलहुँ। ओहि सँ हमरा नहिये कोनो भय भेल, नहिये दीनते आयल। तखन हम तुरन्त कौआ बनि गेलहुँ। फेर मुनिक चरण मे सिर नमाकय आ रघुकुल शिरोमणि श्री रामजीक स्मरण कयकेँ हम हर्षित भ’ कय उड़ि चललहुँ।

६. शिवजी कहैत छथि – “हे उमा! जे श्री रामजीक चरणक प्रेमी अछि आ काम, अभिमान तथा क्रोध सँ रहित अछि, ओ जगत्‌ केँ अपन प्रभु सँ भरल देखैत अछि, फेर ओ केकरा सँ वैरी करय!” काकभुशुण्डिजी कहैत छथि – हे पक्षीराज गरुड़जी! सुनू, एहि मे ऋषिक कनिकबो दोष नहि रहनि। रघुवंश केर विभूषण श्री रामेजी सभक हृदय मे प्रेरणा करयवला छथि। कृपासागर प्रभु मुनिक बुद्धि केँ भोला बनाकय (भुलावा दयकय) हमर प्रेम केर परीक्षा लेलनि। मन, वचन आ कर्म सँ जखन प्रभु हमरा अपन दास जानि गेला, तखन भगवान्‌ मुनिक बुद्धि फेर सँ पलटि देला। ऋषि हमर महान्‌ पुरुष सन् स्वभाव (धैर्य, अक्रोध, विनय आदि) आर श्री रामजीक चरण मे विशेष विश्वास देखलनि, तखन मुनि बहुत दुःखक संग बेर-बेर पछताकय हमरा आदरपूर्वक बजा लेलनि।

७. ओ अनेकों प्रकार सँ हमरा संतोष देलनि आ फेर हर्षित भ’ कय हमरा राममंत्र देलनि। कृपानिधान मुनि हमरा बालकरूप श्री रामजीक ध्यान (ध्यान केर विधि) बतौलनि। सुन्दर आ सुख दयवला ई ध्यान हमरा बहुते नीक लागल। ओ ध्यान हम अहाँ केँ पहिनहि सुना चुकल छी। मुनि किछु दिन धरि हमरा ओतय अपनहि लग रखलनि। तखन ओ रामचरितमानस केर वर्णन कयलनि। आदरपूर्वक हमरा ई कथा सुनाकय फेर मुनि हमरा सँ सुन्दर वाणी कहलनि –

“हे तात! ई सुन्दर आ गुप्त रामचरितमानस हम शिवजीक कृपा सँ पेने रही। तोरा श्री रामजीक ‘निज भक्त’ बुझलहुँ, एहि सँ हम तोरा सँ सबटा चरित्र विस्तारक संग कहलहुँ। हे तात! जेकर हृदय मे श्री रामजीक भक्ति नहि अछि, ओकरा सामने ई कहियो नहि कहबाक चाही।”

८. मुनि हमरा बहुते प्रकार सँ बुझेलनि। तखन हम प्रेमक संग मुनिक चरण मे सिर नमेलहुँ। मुनीश्वर अपन करकमल सँ हमर माथ स्पर्श कयकेँ हर्षित भ’ कय आशीर्वाद देलनि जे

“आब हमर कृपा सँ तोहर हृदय मे सदैव प्रगाढ़ राम भक्ति बसतौक। तूँ सदैव श्री रामजी केँ प्रिय होबे आर कल्याणरूप गुण सभक धाम, मानरहित, इच्छानुसार रूप धारण करय मे समर्थ, इच्छा मृत्यु (जेकर शरीर छोड़बाक इच्छा कयले टा सँ मृत्यु होइछ, बिना इच्छाक मृत्यु नहि होइछ) एवं ज्ञान आ वैराग्य केर भण्डार होबे। एतबा नहि, श्री भगवान्‌ केर स्मरण करिते तूँ जाहि आश्रम मे निवास करमें ओतय एक योजन (चारि कोस) धरि अविद्या (माया मोह) नहि प्रभाव करतौक। काल, कर्म, गुण, दोष आर स्वभाव सँ उत्पन्न कोनो दुःख तोरा कहियो नहि व्यापतौक (प्रभाव करतौक)। अनेकों प्रकारक सुन्दर श्री रामजीक रहस्य (गुप्त मर्मक चरित्र आ गुण), जे इतिहास आ पुराण सब मे गुप्त आ प्रकट अछि, वर्णित आ लक्षित अछि – से सबटा तूँ बिना परिश्रमहि केँ जानि लेमें। श्री रामजीक चरण मे तोहर नित्य नव प्रेम होउ। अपना मोन मे तूँ जे किछु इच्छा करमे, श्री हरिक कृपा सँ ओहि सभक पूर्ति किछुओ दुर्लभ नहि हेतौक।”

९. हे धीरबुद्धि गरुड़जी! सुनू, मुनिक आशीर्वाद सुनिकय आकाश मे गंभीर ब्रह्मवाणी भेल जे हे ज्ञानी मुनि! अहाँक वचन एहिना (सत्य) हुअय। ई कर्म, मन आ वचन सँ हमर भक्त अछि। आकाशवाणी सुनिकय हमरा बहुते प्रसन्नता भेल। हम प्रेम मे मग्न भ’ गेलहुँ आ हमर सबटा सन्देह खत्म होइत चलि गेल। तदनन्तर मुनिक विनती कयकेँ, आज्ञा पाबिकय आ हुनकर चरणकमल मे बेर-बेर सिर नमाकय – हम हर्ष सहित एहि आश्रम मे आबि गेलहुँ।

१०. प्रभु श्री रामजीक कृपा सँ हम दुर्लभ वर पाबि लेलहुँ। हे पक्षीराज! हमरा एतय निवास करैत सत्ताइस कल्प बीति गेल। हम एतय सदैव श्री रघुनाथजीक गुण सभक गान कयल करैत छी आ चतुर पक्षी सब से आदरपूर्वक सुनैत छथि। अयोध्यापुरी मे जखन-जखन श्री रघुवीर भक्त लोकनिक हित लेल मनुष्य शरीर धारण करैत छथि, तखन-तखन हम जाकय श्री रामजीक नगरी मे रहैत छी आ प्रभुक शिशुलीला देखिकय सुख प्राप्त करैत छी। फेर हे पक्षीराज! श्री रामजीक शिशु रूप केँ हृदय मे राखिकय हम अपन आश्रम मे आबि जाइत छी। जाहि कारण सँ हम कौआक देह पेलहुँ, ओ सबटा कथा अपने केँ सुना देलहुँ। हे तात! हम अपनेक सब प्रश्नक उत्तर कहलहुँ। अहा! रामभक्तिक बड पैघ महिमा अछि। हमरा अपन ई काक (कौआ) शरीर एहि लेल प्रिय अचि जे एहि मे हमरा श्री रामजीक चरणक प्रेम प्राप्त भेल। एहि शरीर सँ हम अपन प्रभुक दर्शन पेलहुँ आ हमर सबटा सन्देह जाइत रहल (दूर भेल)।

मासपारायण, उनतीसम् विश्राम

हरिः हरः!!