स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
गुरुजी द्वारा शिवजी सँ अपराध क्षमापन, शापानुग्रह आर काकभुशुण्डिक आगूक कथा
रुद्राष्टक केर स्तुतिगान उपरान्त –
१. सर्वज्ञ शिवजी विनती सुनलनि आ ब्राह्मणक प्रेम देखलनि। फेर मन्दिर मे आकाशवाणी भेलैक जे हे द्विजश्रेष्ठ! वर माँगू। ब्राह्मण कहलखिन – “हे प्रभो! यदि अपने हमरा पर प्रसन्न छी आ हे नाथ! यदि एहि दीन पर अपनेक स्नेह अछि, त सब सँ पहिने अपन चरणक भक्ति दयकय फेर दोसर वर दिअ। हे प्रभो! ई अज्ञानी जीव अहाँक मायाक वश भ’ कय निरन्तर भटकैत रहैत अछि, हे कृपाक समुद्र भगवान्! ओकरा उपर क्रोध जुनि करी! हे दीन पर दया करयवला (कल्याणकारी) शंकर! आब एहि पर कृपालु होइयौ, कृपा करियौ, जाहि सँ हे नाथ! थोड़बे समय मे एकरा पर शापक बाद अनुग्रह (शाप सँ मुक्ति) भेटि जाय। हे कृपानिधान! आब वैह करियौक, जाहि सँ एकर परम कल्याण भ’ जाय।”
२. दोसरक हित सँ ओतप्रोत ब्राह्मणक वाणी सुनिकय फेर सँ आकाशवाणी भेल – ‘एवमस्तु’ (एहिना हो)! यद्यपि ई भयानक पाप कयलक अछि आ हम एकरा क्रोध कयकेँ शाप देलहुँ अछि, तैयो अहाँक साधुता देखिकय हम एकर उपर विशेष कृपा करब।
हे द्विज! जे क्षमाशील एवं परोपकारी होइत अछि, ओ हमरा ओहिना प्रिय अछि जेना खरारि श्री रामचंद्रजी। हे द्विज! हमर शाप व्यर्थ नहि जायत। ई हजार जन्म अवश्य पायत। लेकिन जन्म आ मरन मे जे दुःसह दुःख होइत छैक, एकरा ओ दुःख कनिकबो प्रभाव नहि करतैक आ कोनो जन्म मे एकर ज्ञान नहि मेटेतय।
हे शूद्र! हमर प्रामाणिक (सत्य) वचन सुन। प्रथम तँ तोहर जन्म श्री रघुनाथजीक पुरी मे भेलौक। फेर तूँ हमर सेवा मे मन लगेलें। पुरीक प्रभाव आर हमर कृपा सँ तोहर हृदय मे रामभक्ति उत्पन्न हेतौक।
हे भाइ! आब हमर सत्य वचन सुन। द्विजक सेवे टा भगवान् केँ प्रसन्न करयवला व्रत होइछ। आब कहियो ब्राह्मणक अपमान नहि करिहें। सन्त सब केँ अनंत श्री भगवानहि समान जनिहें।
इन्द्र केर वज्र, हमर विशाल त्रिशूल, काल केर दंड आर श्री हरि केर विकराल चक्र केर मारलो सँ जे नहि मरैछ, ओहो विप्रद्रोहरूपी अग्नि सँ भस्म भ’ जाइत छथि। एहेन विवेक मन मे रखिहें फेर तोरा लेल जगत् मे किछुओ दुर्लभ नहि रहतौक।
हमर एकटा आरो आशीर्वाद छौक जे तोहर सब ठाम (सर्वत्र) अबाध गति हेतौक (यानि तूँ जेतय जाय लेल चाहमें, ओतय बिना रोक-टोक केँ जा सकमें)।
३. आकाशवाणी द्वारा शिवजीक वचन सुनिकय गुरुजी हर्षित भ’ कय ‘एहिना होइ’ ई कहिकय बहुते बुझा-सुझाकय आ शिवजीक चरण मे हृदय राखि ओ अपना घर चलि गेलाह। कालक प्रेरणा सँ हम विन्ध्याचल मे जाकय साँप भेलहुँ। फेर किछु समय बितला पर बिना परिश्रमहि केँ हम ओहि शरीर केँ त्यागि देलहुँ।
४. हे हरिवाहन! हम जेहो शरीर धारण करी, ओकरा बिना कोनो परिश्रम सुखपूर्वक त्याति दैत छलहुँ, जेना मनुष्य पुरना वस्त्र त्यागि दैत अछि नव पहिरि लैत अछि। शिवजी वेदक मर्यादाक रक्षा कयलनि आ हम क्लेश तक नहि पेलहुँ। एहि तरहें हे पक्षीराज! हम बहुते रास शरीर धारण कयलहुँ, मुदा हमर ज्ञान नहि हेरायल।
५. तिर्यक् योनि (पशु-पक्षी), देवता या मनुष्य केर, जेहो शरीर धारण करी, ताहि-ताहि शरीर मे हम श्री रामजीक भजन करैत रहलहुँ। एहि प्रकारे हम सुखी भ’ गेलहुँ, मुदा एकटा शूल (काँट जेकाँ गड़नाय) हमरा लेल बनले रहल। गुरुजीक कोमल, सुशील स्वभाव हमरा कहियो नहि बिसरायल। यानि हम एहेन कोमल स्वभाववला दयालु गुरुक अपमान कयलहुँ, ई दुःख हमरा सब दिन बनल रहल।
६. हम अन्तिम शरीर ब्राह्मणक पेलहुँ, जेकरा पुराण आ वेद देवतो सब लेल दुर्लभ बतौलक अछि। हम ओहि ब्राह्मण शरीर मे सेहो बालक सब संग मिलिकय खेलाइत रही त खाली श्री रघुनाथेजीक सबटा लीला कयल करी। सयान भेला पर पिताजी हमरा पढ़ाबय लगलाह। हम बुझैत, सुनैत आ विचारैत त रही, मुदा पढ़नाय हमरा ओतेक नीक नहि लागय।
७. हमर मोन सँ वासना सब भागि गेल छल। मात्र श्री रामजीक चरण मे ध्यान लागि गेल छल। हे गरुड़जी! कहू, एहेन के अभागल होयत जे कामधेनु केँ छोड़िकय गदही केर सेवा करत? प्रेम मे मग्न रहबाक कारण हमरा किछो नहि सोहाइत छल। पिताजी पढ़ा-पढ़ाकय हारि गेलाह।
८. जखन पिता-माता कालवश भ’ गेलाह (मरि गेलाह), तखन हम भक्त सभक रक्षा करयवला श्री रामजीक भजन करबाक लेल वन मे चलि गेलहुँ। वन मे जेतय-जेतय मुनीश्वर सभक आश्रम भेटय, ओतय-ओतय जा-जाकय हुनका सब केँ सिर नमबैत रही। हे गरुड़जी! हुनका सब सँ हम श्री रामजीक गुण सभक कथा सब पुछैत रही। ओ सब कहथि आ हम हर्षित भ’ कय सुनैत रही। एहि तरहें हम सदा-सर्वदा श्री हरिक गुणानुवाद सुनैत फिरैत छलहुँ।
९. शिवजीक कृपा सँ हमर सर्वत्र अबाधित गति छल (अर्थात् हम जेतय चाही ओतहि जा सकैत छलहुँ)। हमरा तीनू प्रकारक (पुत्र केर, धन केर आर मान केर) गहींर प्रबल वासना सब छुटि गेल आ हृदय मे एक यैह टा लालसा खुब बेसी बढ़ि गेल जे जखन श्री रामजीक चरणकमल केर दर्शन करी त अपन जन्म सफल भेल बुझब। जिनका सँ हम पुछी, वैह मुनि एना कहथि जे ईश्वर सर्वभूतमय छथि। ई निर्गुण मत हमरा नहि सोहाइत छल। हृदय मे सगुण ब्रह्म पर प्रीति बढ़ि रहल छल।
क्रमशः….
हरिः हरः!!