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विवाह कतेक प्रकारक होइत छैक – मनन योग्य जानकारी

शास्त्रोपदेश

– मनुस्मृति सँ संकलित

(अनुवादः प्रवीण नारायण चौधरी)

विवाह मनुष्य जीवनक अनिवार्य अंग (संस्कार) मानल जाइछ। विवाहक प्रकार केर वर्णन मनुस्मृतिक अध्याय ३ मे कयल गेल अछि। ताहि मे प्रस्तुत श्लोक ‘आसुर विवाह’ केर प्रकार केँ वर्णन कय रहल अछि। एकर समग्र रूप सेहो बुझनाय जरूरी छैक, एहि महत्वपूर्ण मननीय तथ्य केँ आजुक पीढ़ी द्वारा बेर-बेर मनन करैत मानव जीवन केँ बेहतर बनायल जा सकैछ।

आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतशीलवते स्वयम् ॥
आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तितः ॥

कन्याक योग्य सुशील, विद्वान् पुरूष केँ सत्कार कय केँ कन्या केँ वस्त्रादि सँ अलंकृत कयकेँ उत्तम पुरूष केँ बजाकय अर्थात् जिनका कन्या प्रसन्न सेहो कएने होइथ हुनका कन्या देनाय ओ ‘ब्राह्म विवाह’ कहाइत अछि।

यज्ञे तु वितते सम्यगृत्विजे कर्म कुर्वते ॥
अलङ्कृत्य सुतादानं दैवं धर्मं प्रचक्षते ॥

विस्तृत यज्ञ मे पैघ – पैघ विद्वान सब केँ वरण कय ताहि मे कर्म करयवला विद्वान् केँ वस्त्र, आभूषण आदि सँ कन्या केँ सुशोभित कय केँ देनाय – ओ ‘दैव विवाह’ कहाइत अछि।

एकं गोमिथुनं द्वे वा वरादादाय धर्मतः ॥
कन्याप्रदानं विधिवदार्षो धर्मः स उच्यते ॥

एकटा गाय बैल केर जोड़ा अथवा दुइ जोड़ा वर सँ लयकय धर्मपूर्वक कन्यादान करब ओ ‘आर्ष विवाह’ कहाइत अछि।

सहोभौ चरतां धर्मं इति वाचानुभाष्य च ॥
कन्याप्रदानं अभ्यर्च्य प्राजापत्यो विधिः स्मृतः ॥

कन्या आर वर केँ, यज्ञशाला मे विधि पूरा करैत सभक सामने “अहाँ दुनू मिलिकय गृहाश्रमक कर्म केँ यथावत् करू’ एना कहैत दुनू केँ प्रसन्नतापूर्वक पाणिग्रहण करब ‘प्राजापत्य विवाह’ कहाइत अछि।

ज्ञातिभ्यो द्रविणं दत्त्वा कन्यायै चैव शक्तितः ॥
कन्याप्रदानं स्वाच्छन्द्यादासुरो धर्म उच्यते ॥

वरक जातिवला आ कन्या केँ यथाशक्ति धन दय कय होम आदि विधि करैत कन्या देनाय ‘आसुर विवाह’ कहाइत अछि।

इच्छयान्योन्यसंयोगः कन्यायाश्च वरस्य च ॥
गान्धर्वः स तु विज्ञेयो मैथुन्यः कामसंभवः ॥

वर आर कन्याक इच्छा सँ दुनूक संयोग भेनाय आ अपना मोन मे ई मानि लेनाय जे हम दुनू स्त्री – पुरूष छी, एहि तरहक कामना सँ वर-कन्याक एक होयबाक संयोग केँ ‘गान्धर्व विवाह’ कहाइत अछि।

हत्वा छित्त्वा च भित्त्वा च क्रोशन्तीं रुदन्तीं गृहात् ॥
प्रसह्य कन्याहरणं राक्षसो विधिरुच्यते ॥

हनन, छेदन अर्थात् कन्या केँ रोकयवला लोकक विदारण कय आक्रोश मे रहल, कानैत, काँपैत आ भयभीत कन्या केँ बलात् हरण कय केँ विवाह करब ओ ‘राक्षस विवाह’ कहाइत अछि।

सुप्तां मत्तां प्रमत्तां वा रहो यत्रोपगच्छति ॥
स पापिष्ठो विवाहानां पैशाचश्चाष्टमोऽधमः ॥

जे सुतैत, पागल भेल अथवा नशा पीबिकय उन्मत्त भेल कन्या केँ एकान्त मे पाबिकय दूषित कय दैछ, ई सब विवाह मे निकृष्ट (नीच सँ नीच) – महानीच, दुष्ट, अतिदुष्ट ‘पैशाच विवाह’ कहाइत अछि।

आब, समग्र मे हर व्यक्ति केँ विचार करबाक चाही जे कोन विवाह मानव जीवन लेल उपयुक्त अछि।

हरिः हरः!!

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