स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
गुरुजीक अपमान एवं शिवजीक शाप केर बात सुनेनाय
प्रसंग पूर्व अध्याय कलि महिमा वर्णन करैत काकभुशुन्डिजी द्वारा गरुड़जी केँ अपन पूर्व जन्मक कथा आ कोना कौआ बनलाह तेकर वर्णन चलि रहल अछि। अपन एक ब्राह्मण गुरु जे शिवक अनन्य उपासक रहथि, जिनका भुशुन्डिजी उपर सँ मात्र गुरु बुझथि, शिव केर उपासना मे तँ गुरुक कहला सँ लागि गेल रहथि, परञ्च हरिक निन्दा करैत रहथि… क्रमशः सँ आगू –
१. गुरुजी हमर आचरण देखि दुखित रहथि। ओ हमरा नित्य नीक जेकाँ बुझबथि, मुदा हम किछुओ नहि बुझी, उलटा हमरा खुबे तामश चढ़ि गेल करय। दम्भी केँ कहियो नीति नीक लगैत छैक? एक बेर गुरुजी हमरा बजा लेलनि आ बहुते प्रकार सँ परमार्थ नीति केर शिक्षा देलनि जे हे पुत्र! शिवजीक सेवाक फल ई छैक जे श्री रामजीक चरण मे प्रगाढ़ भक्ति हो। हे तात! शिवजी आ ब्रह्माजी सेहो श्री रामजी केँ भजैत छथि फेर हम सब नीच मनुष्य केर त बाते कतेक अछि? ब्रह्माजी आ शिवजी जिनकर चरण केर प्रेमी छथि, अरे अभागा! हुनका सँ द्रोह कयकेँ तूँ सुख चाहैत छँ?
२. गुरुजी शिवजी केँ हरि केर सेवक कहला। ई सुनिकय हे पक्षीराज! हमर हृदय धधैक उठल। नीच जातिक हम विद्या पाबिकय एना भ’ गेलहुँ जेना दूध पियेला सँ साँप। अभिमानी, कुटिल, दुर्भाग्य आर कुजाति हम दिन-राति गुरुजी सँ द्रोह करैत रही। गुरुजी अत्यन्त दयालु रहथि, हुनका कनिकबो क्रोध नहि आबनि। हमर द्रोहो कयला सँ ओ बेर-बेर हमरा उत्तम ज्ञान केर शिक्षा मात्र दैत रहथि। नीच मनुष्य जाहि सँ बड़ाई पबैत अछि, ओ सबसँ पहिने ओकरे मारिकय ओकरहि नाश करैत अछि।
३. हे भाई! सुनू, आगि सँ उत्पन्न धुआँ मेघ केर पदवी पाबिकय वैह आगि केँ मिझा दैत अछि। धुरा रस्ता मे निरादर सँ पड़ल रहैत अछि आ सदिखन बाट पर चलनिहार बटोहीक पैर केर मारि सहैत अछि। मुदा जखन पवन ओकरा उड़ाकय ऊँच उठबैत अछि सबसँ पहिने ओ वैह पवन केँ भरि देल करैत अछि आ फेरा राजाक नेत्र आ किरीट (मुकुट) पर पड़ैत छैक।
४. हे पक्षीराज गरुड़जी! सुनू, एहेन बात बुझिकय बुद्धिमान लोक अधम (नीच) केर संग नहि करैत अछि। कवि आ पंडित एहेन नीति कहैत छथि जे दुष्ट सँ नहिये कलह नीक आ न प्रेमे नीक। हे गोसाईं! ओकरा सँ त सदैव उदासीन टा रहबाक चाही। दुष्ट केँ कुत्ता जेकाँ दूरहि सँ त्यागि देबाक चाही। हम दुष्ट रही, हृदय मे कपट आ कुटिलता भरल छल, ताहि चलते गुरुजीक हित केर बात पर्यन्त हमरा नहि सोहाइत छल।
५. एक दिन हम शिवजीक मन्दिर मे शिवनाम जपि रहल छलहुँ। ताहि समय गुरुजी सेहो ओहि मन्दिर मे अयलाह, मुदा अभिमानक मारल हम उठिकय हुनका प्रणाम तक नहि कयलहुँ। गुरुजी दयालु रहथि, हमर दोष देखियोकय ओ किछु नहि कहला, हुनकर हृदय मे लेशमात्र तक क्रोध नहि भेलनि।
६. मुदा गुरुक अपमान बहुत पैघ पाप थिक, तेँ महादेवजी ओ नहि सहि सकलाह। मन्दिर मे आकाशवाणी भेलैक – अरे हतभाग्य! मूर्ख! अभिमानी! यद्यपि तोहर गुरु केँ क्रोध नहि छन्हि, ओ अत्यन्त कृपालु चित्त केर लोक छथि आ हुनका पूर्ण तथा यथार्थ ज्ञान छन्हि, तैयो अरे मूर्ख! तोरा हम शाप देब, कियैक तँ नीतिक विरोध हमरा नीक नहि लगैत अछि। अरे दुष्ट! यदि हम तोरा दण्ड नहि देब त हमर वेदमार्गे भ्रष्ट भ’ जायत। जे मूर्ख गुरु सँ ईर्ष्या करैत अछि, ओ करोड़ों युगों धरि रौरव नरक मे पड़ल रहैत अछि। ओतय सँ बाहर निकलि ओ तिर्यक् (पशु, पक्षी, आदिक) योनि मे शरीर धारण करैत अछि आ दस हजार जन्म धरि दुःख पबैत रहैत अछि। अरे पापी! तूँ गुरुक सामने अजगर जेकाँ बैसल रहलें। रे दुष्ट! तोहर बुद्धि पाप सँ झँपा गेल छौक, तेँ तूँ साँप बनि जो आ हे अधम सँ अधम! एहि अधोगति (साँपक नीच योनि) केँ पाबिकय कोनो बड़ा भारी गाछक खोखला मे जाकय रह। शिवजीक भयानक शाप सुनिकय गुरुजी हाहाकार कयलनि। हमरा काँपैत देखिकय हुनकर हृदय मे बड़ा भारी सन्ताप (दुःख) भेलनि।
क्रमशः… आगूक अध्याय मे…
हरिः हरः!!